Hindi Story on the Cunning Snake (With Picture)!

धूर्त सर्प |

नन्दन वन में एक भयानक काला साप रहता था । युवावस्था में उसने पूरे वन में आतंक मचा रखा था । किन्तु कालचक्र के अनुसार अब वह बूढ़ा हो चुका था । उसकी अवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई । यहाँ तक कि अब दुर्बलता के कारण वह शिकार भी नहीं कर पाता था ।

यह सब होने पर भी वह बड़ा धूर्त और षड्‌यंत्रकारी था । कल ही उसने अपना पेट भरने के लिए एक नयी योजना बनाई थी, जिस पर अमल करने के लिए वह अपनी बांबी से बाहर निकलकर धीरे-धीरे रेंगने लगा ।

अब उसके बाहर निकलने पर किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं होती थी । जो जीव उसकी शक्ल देखकर डर जाते थे, अब तो उनसे मित्रता करके ही समय काटा जा सकता था । उसके बड़े-बूढ़ों ने यही पाठ पढ़ाया था कि समय के साथ बदल जाना ही बुद्धिमानी है ।

यही कारण था कि इस सर्प ने अपने आपको पूरी तरह से बदल लिया था, आज जब वह अपने बिल से बाहर निकला तो सामने बैठे कुछ मेंढकों को स्वयं प्रणाम किया । ”अरे नागराज, आप तो हमारे पूज्य हैं, बडे हैं, हमारा ही फर्ज है कि आपको प्रणाम करें । आप हमें प्रणाम करके क्यों पाप का भागी बनाते हैं ।”

”बेटे! जब बच्चे जवान हो जाते हैं, तो उन्हें बराबरी का दर्जा दिया जाता है । अब तुम लोग बड़े हो गए हो इसलिए हमारा-तुम्हारा रिश्ता मित्रों वाला है । हम में कोई छोटा-बड़ा नहीं ।” ”नागराज, यह तो आपकी महानता है कि आप हमें बराबरी का दर्जा दे रहे हैं ।” मेंढक सरदार ने कहा ।

”बच्चो, यह मत भूलो कि संतान ही बुढ़ापे का सहारा होती है । अब तो हम बूढ़े अपने खाने के लिए चिंतित हैं, सोचते हैं कि तुम्हारे जैसे कुछ जवान बेटे मिल जाएं तो कुछ चिंता कम हो ।” ”हम आपकी सेवा के लिए हर पल हाजिर हैं, कहिए हम आपके किस काम आ सकते हैं ?”

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”बेटे! यदि तुमने मेरा दुःख पूछा ही है तो सुनो, पिछले जन्म में मैंने एक ब्राह्मण के बेटे को काटा था । वह अपने पिता के सामने तड़प-तड़प कर मर गया, तो ब्राह्मण ने मुझे यह श्राप दिया कि : ‘हे पापी! तूने मेरे बेटे को काटकर मार डाला, जा, अपने इस पाप के बदले तू अगले जन्म में बूढ़ा होकर मेंढकों को अपनी पीठ पर बैठाकर घुमाया करेगा तभी तुझे बुढ़ापे में भोजन नसीब होगा ।’

बेटा ! अब तुम स्वयं ही सोचो कि मैं क्या करूं ? अब मैं तो बिकुल आ हो गया हूं । मेरे पेट भरने का साधन तो तभी बन पाएगा जब आप लोग मेरे इस श्राप का प्रायश्चित करवाओगे ।” ”नागराज! तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारी सहायता करेंगे । हम ही एक-दूसरे के काम न आएं, तो कौन आएगा ।”

मेंढक सरदार ने गर्व से सीना फुलाकर कहा । उसके लिए यह बड़े गर्व की बात थी कि सांप जैसा शक्तिशाली जीव उसका मित्र बनने का इच्छुक है । सांप अपने मन में बहुत खुश हुआ कि उसकी चाल सफल हो गई, अब वह भूखा नहीं मरेगा ।

दूसरी ओर मेंढकों ने अपने साथियों को यह खुशी की खबर सुनाई कि आज से हमारी बिरादरी सांप के ऊपर बैठकर घूमा करेगी, कालिया सर्प हमें बारी-बारी से अपनी पीठ पर बैठाकर जंगल की सैर कराएगा । यह सुनकर सभी मेंढक बहुत खुश हुए ।

सांप अपनी चाल को सफल होते देखकर खुश था तो सीधे-सादे साफ दिल के मेंढक सांप पर सवारी करने की आशा में खुशी मना रहे थे । उन्हें क्या पता कि यह सर्प कितना धूर्त है । यह बूढ़ा जरूर है परन्तु धूर्तता में अभी भी इसका मस्तिष्क युवाओं जैसा है ।

मेंढक रात भर खुशियां मनाते रहे । सुबह हुई तो मेंढकों का सरदार अपने साथियों को लेकर सर्प के पास आ गया और बिल के बाहर खडे होकर आवाज लगाई : ”नागराज ! हम आ गए हैं । आप भी आ जाइए ताकि आपके पाप का प्रायश्चित हो सके ।”

नागराज अपने बिल से बाहर निकला और बोला : ”आओ मित्रो ! तुम्हें नमस्कार करता हूँ ।”  ”नागराज! हम सब भी आपको नमस्कार करते हैं । आशा करते हैं कि आपको अपना कल वाला वचन याद होगा ।” ”भैया मैं नाग हूं, नाग अपने वचन कभी नहीं भूलते, सरदार! आज पहले दिन तुम ही मेरी पीठ पर बैठो ।

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आज मैं तुम्हें घुमाऊंगा, कल से तुम्हारी प्रजा का नम्बर लगेगा ।” ”ठीक है नागराज, जो तुम्हें अच्छा लगे, वही करो, हम तो तुम्हारी खुशी में ही खुश हैं ।” ”सरदार! क्या वास्तव में ही तुम मेरी खुशी का खयाल रखोगे ?” ”हाँ नागराज, समय आने पर आप मेरी परीक्षा लेकर भी देख लेना ।

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आप जैसे मित्र पर तो मैं जान तक कुर्बान कर दूं…।” ”बस…बस…मित्र अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम मेरा पूरा खयाल रखोगे, अब तुम जल्दी से मेरी पीठ पर बैठ जाओ, घूमने का आनन्द तो सुबह-सुबह ही आता है ।” मेंढकों का सरदार, बूढ़े सर्प की पीठ पर बैठ गया ।

सर्प मन ही मन बहुत खुश हो रहा था । सारा दिन वह धूर्त सर्प मेंढकों के सरदार को घुमाता रहा और शाम को उसी स्थान पर लाकर छोड़ दिया । इस मामले में उसने इतनी सावधानी बरती कि उसे खरोंच भी नहीं आने दी । मेंढक के सरदार ने सांप से कहा : ”अच्छा मित्र ! अब कल सुबह मिलेंगे ।”

”ठीक है मित्र, जैसी तुम्हारी इच्छा, मगर एक बात तो मेरी समझ में नहीं आई ।” ”क्या ?” ”यही कि तुम दिन भर मेरी पीठ पर बैठे घूमते रहे हैं । परन्तु तुमने यह तो पूछा ही नहीं कि मैंने खाना भी खाया है कि नहीं ।” ”ओह! क्षमा करना नागराज…? मुझसे बड़ी भूल हुई…? मैं वास्तव में आपके सामने लज्जित हूं ।”

”ऐसी कोई बात नहीं मित्र, मैंने तो वैसे ही कह दिया था । तुम्हारे जैसे मित्र के लिए तो मैं भूखा रहकर भी जीवन गुजार सकता हूं । आखिर मेरे पाप का प्रायश्चित तो हो ही रहा है ।” ”नहीं…नागराज! हम तुम्हें भूखा रखकर पापी नहीं बनना चाहते, हम तुम्हारे लिए भोजन का प्रबन्ध करेंगे, कल से हम अपने आप छोटे-मोटे मेंढक हर रोज तुम्हारे भोजन के लिए भेज दिया करेंगे ।”

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नाग मन ही मन में हंसते हुए सोचने लगा, ‘वाह! तीर ठीक निशाने पर लगा है, अब सारी चिंता दूर हो गई । किसी छोटे जीव को थोड़ा सा मान दे दो तो वह जान तक देने को तैयार हो जाता है ।’  दूसरे दिन सुबह ही सांप के लिए भोजन आ गया ।

सांप ने इस प्रकार आनन्द से कभी भी घर बैठकर भोजन नहीं खाया था, जितने आनन्द से बूढ़ा होने पर आज उसे मिला था । घर बैठे भोजन मिले इससे अच्छी बात और क्या होगी । भोजन के पश्चात् सर्प ने कुछ मेंढकों को उनके सरदार के साथ पीठ पर बैठाया और दूर तक घुमाने ले गया ।

रास्ते में उसका पुराना मित्र एक दूसरा सांप मिला, तो उसकी पीठ पर बैठे मेंढकों को देखकर हंसकर बोला : ”क्यों भैया, यह क्या नाटक है । सांप की पीठ पर मेंढक ।” ”हाँ दोस्त, समय-समय की बात है, इन्सानों में एक कहावत बड़ी मशहूर है कि-समय आने नर लोग गधे को भी बाप बना लेते हैं ।”

“वहुत खूब…लगता है कोई लम्बा खेल खेल रहे हो ।” “हां, पापी पेट का सवाल है भाई, बुढ़ापे में जब सब साथ छोडकर भाग जाते हैं, तो अपनी बुद्धि अपने अनुभव ही काम आते हैं ।” दोनों सांप एक-दूसरे से बातें करते रहे । सर्प बड़े मजे से चलता रहा ।

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सुबह से शाम हो गई, तब वह वापस अपने बिल के पास आया तो मेंढक सरदार बड़े ठाट से सर्प की पीठ से उतरा । उसी समय उसने तालाब में से कुछ छोटे-मोटे मेंढक नागराज के भोजन को बुला  दिए । सर्प ने बड़े आनन्द से भोजन किया, फिर अपने मित्र से इधर-उधर की बातें करता रहा ।

मेंढक सरदार सांप से दोस्ती करके बहुत खुश था । फिर सर्प की सवारी का तो आनन्द ही अलग था । जो कोई भी जन्तु उसे सर्प की पीठ पर बैठे देखता था, वही हैरान होता, उसके मुंह से यही शब्द निकलते : ”तुम बड़े भाग्यशाली हो सरदार जो सांप पर सवारी करते हो, जो सदा से हमारी बिरादरी का शत्रु रहा है ।

उसे ही आपने अपनी बुद्धि से अपना दास बना लिया ।” ”अरे भाई यह सब राजनीति की चालें हैं । यदि सभी ऐसी चालें चलें तो हममें और साधारण मेंढक में फर्क क्या रहा ।” सरदार गर्व से कहता । समय बीत रहा था । नागराज अपना बुढ़ापा बड़े मजे से काट रहा था, अब उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं थी ।

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धीरे-धीरे उस सांप ने पास के तालाब के सारे मेंढक खा लिए । अब केवल सरदार ही बाकी बचा था । एक दिन सुबह सरदार उसके पास घूमने जाने के लिए आया तो सर्प ने सबसे पहले उससे यही पूछा, ”मेरा भोजन कहां है ?”

”नागराज मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरी सारी प्रजा समाप्त हो गई है ।”  ”प्रजा ही समाप्त हुई है न, तुम तो अभी जीवित हो ?” यह कहते हुए उस काले सर्प ने मेंढक सरदार को भी खा लिया ।

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