Here is an essay on the Indian language system especially written for school and college students in Hindi language.

भारतीय संस्कृति की पहचान संस्कृत भाषा से होती थी और संस्कृत से ही हिन्दी भाषा का जन्म माना जाता है परन्तु वर्तमान समय में हिन्दी अपनी पहचान बनाने में असफल रही है जिसका मूल कारण सरकारी उपेक्षा ही कहा जा सकता है कि हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए कोई कार्य नहीं किया गया यही कारण रहा है कि आज हिन्दी भाषा रसातल की ओर अग्रसर है अन्यथा विश्व में हिन्दी का बोलबाला होता ।

लेकिन हम भारतवासियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम अपने अस्तित्व को भूलकर दूसरों का अनुगमन करना उनकी संस्कृति को आत्मसार करना उनके रहन-सहन की नकल करना, उनके पहनावे की नकल करना ही अपना कर्त्तव्य व बड़प्पन समझते हैं ।

भारतीय संस्कृति में कुर्ता धोती पुरूषों का पहनावा हुआ करता था । महिलाएं घाघरा कुर्ता ओढ़ना पहनती थी । लेकिन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित भारतीय जनमानुस ने आज अपना पहनावा छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति से जीन्स टाप महिलाओं ने तथा जीन्स टी-सर्ट पुरूषों ने अपना लिया है जिससे भारतीय संस्कृति लगभग लुप्तप्राय स्थिति में पहुंच रही है भारतीय लोग दही, दूध, दलिया आदि से सुबह की शुरूआत करते थे परन्तु आज भारतीय पीढ़ी बेड टी व ब्रेड पीस से शुरूआत करती है जो बिना व्यायाम आदि किये ही नाश्ता, चाय लेते हैं ।

ये सब पाश्चात्य संस्कृति की देन है भारतीय संस्कृति में बच्चों को बडों के चरण स्पर्श कर नमस्कार करना सीखाया जाता था । परन्तु आज भारतीय पीढी गुड़ मार्निंग से शुरूआत करती है जिसमें अपनत्व का अभाव महसूस होता है । ऐसे लगता है मानों हम किसी को कुछ कार्य करने के लिए कह रहे हों न कि किसी का अभिवादन कर रहे हों ।

कोई भी व्यक्ति जो जिस परिवेश में जन्म लेता है जिस परिवेश में बड़ा होता है वह उसी परिवेश को आत्म सार कर अधिक योग्य बन सकता है अपेक्षाकृत ऐसे परिवेश के जो उस पर अनुशासन के नाम पर थोपा जाता है और लीविंग स्टैण्डर्ड के नाम पर सीखाया जाता है परन्तु परिणाम कोई अधिक सकारात्मक नहीं आता ।

बल्कि स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि अपने परिवेश को तो उसको सीखने नहीं दिया जाता ओर जिसे सीखने के लिए बाध्य किया जाता है उसको वह सीख नहीं पाता जिससे स्थिति बहुत ही असमंजस की उत्पन्न हो जाती है और वह इधर जाये या उधर जाने की स्थिति में अपने आपको पाता है इसलिए अहम और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हमें किसी के ऊपर अपनी इच्छाओं को थोपना नहीं चाहिए ।

जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तो भाषा तो वही आसान होती है जो जन्म स्थान के आधार पर बोली जाती है । बाकी भारतवर्ष में संवैधानिक दर्जा प्राप्त बाईस भाषाएं हैं जिनमें से हिन्दी को छोड़कर सभी भाषाएं क्षेत्रीय स्तर तक ही सिमटी हुई है क्या भारतीय संविधान में अधिकृत बाईस भाषाओं में से ऐसी कोई भी भाषा नहीं है ।

जो विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना सकी हो क्या कारण रहा जो हिन्दी भाषा भी विश्व स्तर पर अपने आप को स्थापित नहीं कर पायी जबकि हिन्दी भाषा के सम्बन्ध में भारतीय संविधान में अनुच्छेद-343 प्रावधानित किया गया कि हिन्दी भाषा भारत की राष्ट्र भाषा होगी लेकिन उक्त प्रावधान केवल संविधान तक ही सिमट कर रह गया और संविधान में प्रावधान न होने के बाद भी अंग्रेजी तेजी से अगे बढ़ गयी और उसने हिन्दी को काफी पीछे छोड़ दिया यहाँ तक कि स्कूल स्तर से लेकर कालिज स्तर तक सभी जगह अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित हो गया ।

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बिना सरकारी सहयोग के ही बिना संवैधानिक प्रावधान के ही अंग्रेजी भारतीय जनमानुष की भाषा बनती जा रही है स्कूल, घर, दफ्तर सभी जगह अंग्रजी अपना वर्चस्व कायम कर रही है और हिन्दी संवैधानिक दर्जा प्राप्त होने पर भी दोयम दर्जे की भाषा के रूप में पहचान बना रही है अब तो सरकार ने भी मान लिया है कि बिना अंग्रेजी भाषा के इस देश को विकास के पथ पर नहीं बढ़ाया जा सकता है तभी तो सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था की जा रही है ।

स्थिति यह उत्पन्न हो गई है कि अब यदि आप अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल सकते तो आप निजी क्षेत्र में अच्छी नौकरी भी प्राप्त नहीं कर सकते इसलिए प्रत्येक भारतवासी अंग्रेजीयत का शिकार हो रहा है जिससे प्रतीत होता है कि वर्तमान समय में केवल अंग्रेजी भाषा ही एकमात्र भाषा है जिसके बल पर आप अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना कैरियर शुरू कर सकते हैं अन्य था हिन्दी भाषा के बल पर तो आप अपने आपको राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थापित नहीं कर सकेंगे क्योंकि अधिकतर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने कर्मचारियों को अंग्रेजी भाषा में निपुणता होने पर ही अपनी कम्पनी में कार्य देती हैं ।

अंग्रेजी भाषा होटल, क्लब, रेस्त्रां, डिस्को, मॉल आदि की व्यवहारिक भाषा बन गई है जबकि हिन्दी को अपने ही देश में यह सम्मान हासिल नहीं है । हिन्दी स्वयं सम्पूर्ण भारतवर्ष की भाषा नहीं बन पाई जिसके लिए जिम्मेदार है भारतीय व्यवस्था जो हिन्दी के प्रति उदासीन ही नहीं पूर्णत: गैर जिम्मेदार भी है अन्यथा हिन्दी आज राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त कर गई होती ।

हिन्दी की इस दुर्दशा के लिए भारतीय व्यवस्था तो जिम्मेदार है ही साथ ही जिम्मेदार है स्वयं भारतीय जनता जिन्होंने हिन्दी को अपनाने के लिए कोई ठोस कार्य नहीं किया अन्यथा हिन्दी भाषा आज विश्वस्तरीय भाषा के रूप में पहचानी जाती ।

हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए भारत सरकार द्वारा कोई ठोस कार्य नहीं किया गया अन्यथा हिन्दी की स्थिति भी अंग्रेजी से कुछ कम नहीं होती । सबसे पहले तो हिन्दी की इस दुर्दशा के लिए भारतीय जनता द्वारा ही कार्य किया गया ।

जिन्होंने हिन्दी के स्थान पर प्रत्येक जगह प्रत्येक अवसर, प्रत्येक समय अंग्रेजी को ही महत्व दिया और जिसका परिणाम यह रहा कि अंग्रेजी भाषा ने हिन्दी भाषा का स्थान ग्रहण कर लिया । एकमात्र भारतीय राजनेता पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी को समस्त भारतवर्ष की ओर से धन्यवाद कहना चाहिए कि जिन्होने हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के उद्देश्य से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के लिए कार्य किया वो भी एक नहीं दो बार, एक बार जब श्री अटलबिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री थे तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में विदेश मंत्री के रूप मे बोलते हुए हिन्दी में भाषण दिया था तो दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलते हुए हिन्दी में भाषण दिया था ।

भारत के एकमात्र ऐसे राजनेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी ही रहे जो संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में बोले । वो भी एक नहीं दो बार । जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हिन्दी भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में अटल जी का योगदान रहा । क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था में हिन्दी में बोलना इसी ओर इंगित करता है ।

किसी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हिन्दी में बोलना, हिन्दी को पहचाना दिलाना ही है लेकिन आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी हिन्दी अपने आप को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित नहीं कर पाई जबकि हिन्दी के सम्बन्ध में भारतीय संविधान में भी प्रावधान है लेकिन उसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ ।

अटल बिहारी वाजपेयी जी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पहली बार भारत के विदेश मंत्री के रूप में, दूसरी बार भारत के प्रधान मंत्री के रूप में हिन्दी में भाषण दिया जिससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि हिन्दी भाषी के रूप में कुछ हद तक स्थापित हो सकी है अन्यथा भारत का कोई भी नेता प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि सभी विदेश यात्राओं पर अधिकतर अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करते आये हैं यह भारत की गरिमा का भी प्रश्न है कि हिन्दुस्तान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद भी वहां के निवासी अंग्रेजी भाषा की जानकारी भी राष्ट्रीय भाषा के रूप में रखते हैं और अपने व्यवहार व काम-काज में अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करते हैं ।

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परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हिन्दी भाषा के प्रयोग का प्रभाव भली-भांति देखा जा सकता है । जब अमेरिका जैसे देश में भी लोग हिन्दी भाषा सीखने के प्रति रूचि दिखा रहे हैं जिसका तर्क भी विश्वसनीय लगता है कि विश्व मंदी के दौर में भी भारत द्वारा विकास की ओर अग्रसर होने का प्रभाव यह रहा है कि विश्व समुदाय भारत को आर्थिक रूप से मजबूत राष्ट्र के रूप में देख रहा है और उस आर्थिक मजबूती का कारण जानने भारत की वास्तविक स्थिति को समझने भारतीयों को समझने के लिए अधिकतर अमरीकी हिन्दी भाषा को सीख रहे हैं ।

कुछ ऐसी ही स्थिति सिंगापुर की भी है जहां हर चौथा व्यक्ति भारतीय है और जो दुनिया का शत-प्रतिशत शहरी जनसंख्या वाला देश है । जहाँ कोई भी गांव नहीं है केवल शहर ही शहर हैं लेकिन फिर भी वहाँ के निवासियों ने हिन्दी में गहरी रूचि प्रकट की है कुछ तो बालीबुड फिल्मों के गानों को समझने के लिए हिन्दी सीख रहे हैं तो कुछ भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने के कारण हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं ताकि भारत देश को समझने में मदद मिल सके ।

प्राप्त जानकारी के अनुसार सिंगापुर में हिन्दी कक्षाओं वाले स्कूलों की संख्या तिरेपन तक पहुंच गई है । जबकि सिंगापुर सरकार द्वारा केवल चार भाषाओं- अंग्रेजी, मलयालम, चीनी (मेडेरिन) और तमिल को ही अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता है इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जाने लगा है जो हिन्दी व हिन्दुस्तान के लिए अत्यधिक गर्व का विषय है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रावधान है कि देवनागरी लिपि की हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा होगी लेकिन संविधान लागू होने के 60 वर्ष बाद भी इस देश की व्यवस्था हिन्दी को स्वीकार नहीं कर पाई क्या कारण हो सकता है ? या तो इस देश की व्यवस्था में कमी है या इस देश के लोगों में ।

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जो आज तक हिन्दी को नहीं अपना सके । देश का उच्च वर्ग व मध्यम वर्ग तो अपने आप को अंग्रेजी में बात करने में गर्व की अनुभूति करते हैं बल्कि हिन्दी बोलने में शर्म महशूस करते हैं । रही बात निम्न वर्ग की तो उनका हिन्दी बोलना मजबूरीवश है कि वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते ।

हालांकि भारतीय संविधान में 8वी अनुसूची जोड़कर 22 भाषाओं का प्रावधान किया गया है लेकिन हिन्दी अनिवार्य नहीं है । यहां तक कि कुछ प्रदेशों में तो नियोजित तरीके से हिन्दी बोलने वालों पर हिंसात्मक कार्यवाही की जाती रही है चाहे असोम प्रदेश हो या महाराष्ट्र ।

जहां मुख्य रूप से हिन्दी भाषी लोगों पर जानलेवा हमला होते रहे हैं । लेकिन राजनीतिक मजबूरी के कारण प्रदेश सरकारें भी चुपचाप हिन्दी भाषी लोगों को मरता देखती रहती है । न कोई कानून ऐसे लोगों को रोकता है और न ही सरकार ।

महाराष्ट्र की अगर बात करें तो वहा की अर्थव्यवस्था की रीढ हिन्दी भाषी लोग हैं । लेकिन एक नव गठित राजनीतिक पार्टी व उसके नेता ने अपने आप को व पार्टी को पहचान दिलाने के लिए हिन्दी भाषी लोगों पर नियोजित तरीके से हमला कराये । हिन्दी भाषी लोग मारे गये उनका कारोबार बर्बाद हो गया । जो जिन्दा बचे वो बामुश्किल जान बचाकर अपने-अपने प्रदेशों को भाग आये ।

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यहां तक कि आक्रमणकारियों ने महिलाओं व बच्चों को भी नहीं छोड़ा बल्कि ट्रेन में आते हुए भी पकड़-पकड़ कर खोज-खोज कर अपना शिकार बनाया । केवल राजनीतिक लाभ के लिए एक हिन्दुस्तानी दूसरे हिन्दुस्तानी का कातिल बना । ऐसे नरसंहार को होता देखा देश की केन्द्र व राज्य सरकारों ने ।

मुम्बई में जिस तरह हिन्दी भाषियों पर नियोजित हमला हुआ और केन्द्र व राज्य सरकारें चुप रही उससे एक बार फिर महाभारत में हस्तिनापुर राज्य सभा में द्रोपदी चीर हरण के दौरान भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण, व धृतराष्ट्र का चुप रहना जैसी याद ताजा कर गया ।

अगर मुम्बई में हिन्दी भाषियों पर हमले को गोधरा काण्ड या मुम्बई 26/11 के आतंकी हमले से तुलना की जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । क्योंकि चाहे गोधरा काण्ड हो या मुम्बई 26/11 का हमला या मुम्बई में हिन्दी भाषियों पर सुनियोजित हमला । सभी में मरने वाले तो हिन्दुस्तानी ही थे ।

उनकी रगों में भी हिन्दुस्तानी खून ही था । अब वो चाहे यू.पी., बिहार के हो या महाराष्ट्र, गुजरात के, थे तो हिन्दुस्तानी ही । फिर उक्त घटनाओं में सरकारी का रूख भेदभाव पूर्ण क्यों रहा ? गोधरा काण्ड की जांच आज तक चल रही है चाहे कोई दोषी ठहराया गया है या नहीं दण्डित किया गया है या नहीं, कम से कम जांच तो चल ही रही है ।

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जनता को लग रहा है, पीडित भी सोच रहे हैं कि एक दिन न्याय अवश्य मिलेगा । मुम्बई 26/11 के आतंकी हमले के जिन्दा पकड़े गये आतंकी पर 30-40 करोड़ रूपये सुरक्षा के नाम पर खर्च हो गया । निचली अदालत द्वारा आतंकी को फांसी की सजा सुना दी गई । लेकिन फांसी होगी क्या ? और कब ।

ऐसा कहना कठिन है अगर 30-40 करोड़ रूपये 26/11 के पीड़ित परिवारों को मिलता तो उनका दर्द कुछ कम होता लेकिन ऐसा न करके एक आतंकी की सुरक्षा पर खर्च कर दिया गया । कैसी विडम्बना है इस देश की ? देश के तत्कालीन गृहमंत्री श्री शिवराज पाटिल जी मुम्बई 26/11 के आतंकी हमले के शिकार हुए उनको पद से त्यागपत्र देना पड़ा । साथ ही आगामी राजनीतिक कैरियर भी समाप्त हो गया ।

लेकिन दुर्भाग्य इस देश का उससे अधिक दुर्भाग्य हिन्दी भाषियों का कि सुनियोजित हमले का शिकार होने के बाद न तो किसी सरकार ने कोई आर्थिक मदद पहुंचाई न कोई जांच आयोग गठित किया और न कोई कानूनी कार्यवाही । बल्कि उनको उनके हाल पर ही मरने को छोड़ दिया ।

क्या ऐसे नेता और उसका संगठन संविधान और कानून से भी बडा हो गया जो उसको प्रतिबन्धित नहीं किया गया ऐसे खूंखार व्यक्ति को जेल में होना चाहिए था बल्कि उसको राजनीति में चहल कदमी करने के लिए छोड़ दिया गया । जिसने हजारों लाखों लोगों को घर से बेघर करा दिया ।

अगर दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मनसे का हिन्दी भाषी विरोध सुनियोजित अघोषित युद्ध था जिस पर भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत कार्यवाही होनी चाहिए थी । लेकिन हुआ क्या ? कुछ नहीं । जिससे षडयंत्रकर्ता का हौसला बुलन्द हुआ और उसने दोहने उत्साह से विधान सभा चुनावों में हिस्सा लिया और कुछ सीटें जीती तथा कुछ के परिणाम प्रभावित किये ।

उसके कार्यकर्ताओं का हौसला इतना बढ़ गया कि विधान सभा में हिन्दी में शपथ लेने वाले समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी पर शपथ ग्रहण के दौरान उसके विधायक द्वारा मारपीट की गई जिसको समस्त देश ने देखा लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गई ।

जबकि हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है । ऐसी स्थिति में संविधान भी मौन, सरकारें भी मौन और हिन्दी भाषी जनता भी मौन कि न्याय कहा मिलेगा ? किससे मिलेगा ? अर्थात कहीं नहीं और किसी को भी नहीं ।

क्योंकि भारत देश में कुछ कार्य अवैधानिक होने के साथ-साथ वैधानिक भी होते हैं अगर वह कार्य शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा किया जाता है यहां फिर वही कहावत चरित्रार्थ होती है कि ”समरथ को नहीं दोष गुसाई” । अगर महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थति उस नेता के पक्ष में नहीं होती तो वो आज भी जेल की काल कोठरी में बन्द होता और उसके ऊपर संज्ञेय से संज्ञेय धारायें लगी होतीं ।

और अदालत का सामना करते-करते पूरा जीवन निकल जाता लेकिन सकारात्मक पक्ष तो उस नेता का यह रहा कि सबसे पहले मराठी भाषी लोगों द्वारा अपना नेता मानना जो एक अन्य नेता को छोड्‌कर उसको अपना नेता मानने लगे हैं जिसका लाभ विधान सभा चुनाव के दौरान मिला ।

वह नवगठित पार्टी एक शक्तिशाली पार्टी के रूप में उभरी । बेशक उसके कार्य अवैधानिक, देश विरोधी, समाज विरोधी रहे लेकिन अपने मराठी लोगों के दिल में जगह बनाने में कामयाब रहे । जिससे दूसरे लोगों को भी ऐसा करने की प्रेरणा मिलेगी और जो ऐसा करने की सोच रहे होंगे कि किस तरह कम समय में राजनीतिक अस्तित्व तैयार करने का तरीका अच्छा है । साथ ही भारतीय व्यवस्था की खामियाँ सब लोग जानते हैं और जिनका लाभ लिया जा सकता है ।

ये केवल हिन्दी भाषियों का विरोध नहीं था ये विरोध था हिन्दी भाषा को आगे बढ़ने से रोकने के लिए । जो हिन्दी को केवल दूसरे दर्जे की भाषा के रूप में देखना चाहते हैं न कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 343 के अनुपालन में ।

हमारे देश में हिन्दी भाषा को आगे बढ़ाने में सरकार द्वारा कोई ठोस कार्य नहीं किया गया जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 351 प्रावधान करता है कि संघ हिन्दी भाषा के विकास के लिए प्रयास करेगा । जिससे हिन्दी राजकीय भाषा बन सकती ।

संविधान में प्रावधान अवश्य है लेकिन अनुपालन नहीं है । अगर सरकारें ईमानदारी से इस दिशा में कार्य करती तो निश्चित ही आज 60 वर्ष बाद हिन्दी प्रत्येक राज्य की राजकीय भाषा होती । लेकिन इस दिशा में कार्य नगण्य रहा । हिन्दी का प्रोत्साहन केवल हिन्दी दिवस मनाने तक शिमट कर रह गया ।

नहीं तो हिन्दी आज देश की ही नहीं विदेशों की भाषा होती यदि सरकारें हिन्दी भाषा प्रोत्साहन के नाम पर कुछ कार्य करती तभी तो हम कुछ इस तरह हिन्दी की दुर्दशा ब्यां करते हैं:

हिन्दी तेरी दुर्दशा की यही कहानी हो गयी

चौदह सितम्बर दिवस हिन्दी सबकी जबानी हो गयी

प्रणाम नमस्ते छोड़कर अब हाय बाय हो गयी

गुरूजी को भी अब सर जी कहना हो गयी

धर्मपत्नी जी मिसेज हुई और मैडम टीचर हो गयी

हिन्दी वाले पीछे हैं अंग्रेजी आगे हो गयी

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चौदह सितम्बर दिवस हिन्दी सबकी जबानी हो गयी

हिन्दी तेरी दुर्दशा की यही कहानी हो गयी

हिन्दी में लिखना अब बेईमानी हो गयी

हिन्दी में कुछ लिखते तो फिर दूर बुराई हो गयी

लिखने वाले लिखते हैं अब बात सुनी सुनाई हो गयी

हिन्दी लिखना पढना भी अब स्वयं बुराई हो गयी

चौदह सितम्बर दिवस हिन्दी सबकी जबानी हो गयी

हिन्दी तेरी दुर्दशा की यही कहानी हो गयी

हिन्द में ही हिन्दी अब सबसे बेगानी हो गयी

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कुत्ते और बिल्लियां भी अब इंग्लिश तानी हो गयी

मातृभाषा छोड सब अंग्रेजी माई हो गयी

जिसने सबको जन्म दिया अब वही पराई हो गयी

चौदह सितम्बर दिवस हिन्दी सबकी जबानी हो गयी

हिन्दी तेरी दुर्दशा की यही कहानी हो गयी ।।

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