नक्सलवाद का बढ़ता प्रभाव पर निबंध | Essay on Increasing Effect of Naxalites in Hindi!

उडीसा में एक डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर को बंधक बनाकर अपनी मांगे मनवाने एवं छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में सीआरपीएफ के 26 जवानों की हत्या कर नक्सलवादियों ने एक बार फिर यह जता दिया कि आज उनकी ताकत काफी बढ़ चुकी है और वे पुलिस एवं अर्द्ध सैनिक सुरक्षा बलों की किसी भी चुनौती से न सिर्फ निपटने में सक्षम है बल्कि उनके खिलाफ जवाबी हमला भी कर सकते है ।

इसके पूर्व 6 अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा के चितलंनार क्षेत्र में नक्सलियों ने 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर उनसे हथियार लूट लिए थे । यह नक्सलियों का अब तक का सबसे बड़ा हमला था । इसके बाद नक्सलियों ने सुकमा के पास एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था । इस हमले में 31 लोगों की मौत हो गई थी जिनमें एपीओ के 15 जवान तथा 16 आम नागरिक थे ।

इसके पूर्व वर्ष 2009 में नक्सलियों ने बंगाल के लालगढ़ क्षेत्र को अपने प्रभाव में ले लिया था, तथा उसे फ्री-जोन घोषित कर दिया था । लालगढ़ क्षेत्र को नक्सलियों के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार को नक्सलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी पड़ी थी ।

नक्सलियों के इन हमलों से फिर यह साबित हो गया है कि रणनीति बनाने और अपनी खास शैली में गुरिल्ला लड़ाई लड़ने वाले इन दरिंदों से निपटने के लिए पुलिस एवं सुरक्षा बलों को छापामार लड़ाई में पारंगत होना ही होगा ।

शासन और व्यवस्था की निरंतर अनदेखी के कारण उपेक्षित क्षेत्रों में नक्सली अपनी गतिविधियों को खतरनाक ढंग से बढ़ाते जा रहे है । नक्सली शोषित आदिवासियों और ग्रामीणों को हिंसक संघर्ष के लिए उकसा रहे हैं । उन्हें बाकायदा ट्रेनिंग भी दे रहे है । देशभर में ऐसे क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं जहाँ नक्सलियों का दबदबा है । एक अनुमान के अनुसार देश के 20 राज्यों के लगभग 170 जिलों में नक्सली अपने संगठन का विस्तार कर चुके हैं ।

अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में नक्सली सत्ता प्रतिष्ठानों को भी चुनौती देने लगे हैं । वे लोगों से लेवी वसूल करते एवं समानान्तर अदालतें लगाते हैं । उनके अदालत में दी जाने वाली सजाएँ घोर उत्पीड़क एवं अमानवीय होती है । सत्ता का संरक्षण एवं प्रशासन तक पहुँच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग अब नक्सलियों पर ही विश्वास करने लगे हैं । अशिक्षा और विकास कार्य की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच के गठबंधन को और भी मजबूत बना दिया है ।

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नक्सली आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुके हैं । रेल पटरियाँ उड़ाना, सुरक्षा बलों पर हमला एवं बैंक लूट में भी नक्सली शामिल हो गए हैं । हद तो तब हो गई जब नक्सलियों ने बिहार के जहानाबाद जेल पर हमला कर उसमें बंद अपने साथियों को छुड़ा लिया ।

ग्रामीण क्षेत्र में नक्सलवाद ने सामाजिक तनाव का रूप ले लिया है । समृद्ध भूमिपतियों का शहरों की ओर पलायन हो रहा है । इससे खेती चौपट हो रही है । जमीन पर अधिकार को लेकर जातीय संघर्ष भी बड़े हैं साथ ही हिंसक संघर्ष भी देखने को मिल रहे है ।

नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव व हिंसा को देखते हुए अब उनके खिलाफ कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है । नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार सेना के इस्तेमाल पर भी विचार कर रही है । सैन्य विशेषज्ञ मानते हैं कि सेना को नक्सल ऑपरेशनों में सीधे शामिल किए बिना परोक्ष तौर पर ही जरूरी मदद ली जानी चाहिए । स्थानीय पुलिस बलों, एसपीओ और नक्सल विरोधी टास्कफोर्स को प्रशिक्षण देने में सेना महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है ।

वायुसेना को भी नक्सल विरोधी ऑपरेशनों में सीमित भूमिका के लिए तैयार किया जा सकता है । जैसे कि सुरक्षा बलों को एक जगह से दूसरी जगह लाना, ले जाना, नक्सल प्रभावित इलाकों के ऊंचाई से फोटो खींचना, दूरबीन से उनकी गतिविधियों और आवाजाही पर नजर रखना जैसे अहम कार्य शामिल है ।

इस कड़ी में मानव रहित विमानों (यूएवी) की भूमिका को भी सैन्य विशेषज्ञ काफी कारगर उपाय मानते हैं जो सुदूर जंगली इलाकों में नक्सलवादी ठिकानों और उनकी गतिविधियों की खुफिया जानकारियाँ जुटाने में मददगार साबित हो सकें ।

सुरक्षा बलों को विशेष ट्रेनिंग एवं उन्हें उन्नत हथियार मुहैया कराने के साथ पिछड़े आदिवासी क्षेत्रों में विकास की एक समग्र रणनीति भी बनानी होगी । स्थानीय जनता को विश्वास में लिए बिना सिर्फ पुलिस कार्रवाई से इस समस्या का हल नहीं होगा ।

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आज हमें इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि नक्सलवाद अपने मूल में कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक समस्या के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक समस्या भी है । इसका समाधान राजनीतिक तरीकों, आर्थिक-सामाजिक विकास और सांस्कृतिक समायोजन द्वारा ही हो सकता है ।

नक्सलवाद के उभार के लिए आर्थिक कारण भी प्रमुख रूप से उत्तरदायी है । इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि मेसा अधिनियम के अंतर्गत आदिवासियों को कुछ जंगली उत्पादों के प्रयोग की अनुमति दे दी जाए, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा एवं आध्र प्रदेश और इनमें जुड़े क्षेत्रों के लाल गलियारे में अब तक चलाई गई सरकार की ‘फ्लैगशिप योजनाओं’ का वांछित परिणाम नहीं मिला है । नक्सली सरकार के विकास कार्यों को चलने ही नहीं देते और सरकारी तंत्र उनसे आतंकित रहता है । राज्य सरकारों ने केंद्र से मिल रहे धन का पूरा उपयोग भी नहीं किया ।

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छत्तीसगढ़ सरकार ने राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के अंतर्गत मिले फंड का केवल 43.80 प्रतिशत एवं मध्य प्रदेश ने केवल 38.81 प्रतिशत ही प्रयोग किया । सर्वाधिक धनराशि 66.86 प्रतिशत आध्र प्रदेश सरकार ने खर्च की है । नक्सल प्रभावित क्षेत्र में लोग कई महीनों से बेरोजगार है, क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन या तो हो नहीं रहा या फिर उनमें काफी विलंब हो जाता है ।

नक्सलियों का विस्तार इसलिए हो रहा है क्योंकि आदिवासियों की समस्याओं को आज तक ठीक से समझा ही नहीं गया और उन्हें विभिन्न सुविधाओं एवं योजनाओं का लाभ मिल ही नहीं पाया । यदि आज नक्सलवाद का पानी सर से ऊपर निकल चुका है, तो उरपके पीछे आदिवासियों की शक्ति है ।

नक्सली क्षेत्रों में विकास की अविरल धारा अवश्य बहनी चाहिए, यह एक सकारात्मक सोच है । लेकिन क्या यह भी सच नहीं कि सरकार को विकास के लिए बाध्य इसलिए होना पड़ा, क्योंकि आदिवासियों एवं युवाओं ने अपने हाथ में बंदूकें ले ली हैं ।

यदि पहले ही उन्हें रोजगार और जीवनयापन करने के लिए साधन उपलब्ध कराए जाते, तो वे बंदूक उठाते ही क्यों? नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था पर भी जोर दिया जाना चाहिए, बिहार के जहानाबाद का सिकरिया गांव इसका उदाहरण है कि ग्रामीणों की समस्याओं का समाधान करके नक्सलियों से मुक्ति पाई जा सकती है ।

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गांवों का वातावरण बदलने का ही परिणाम है कि कभी नक्सली आदोलन के कारण धधक चुके जहानाबाद में अब दूसरी ही हवा बह रही है । कभी गांवों में संध्या होते ही बंदूकें गरजती थीं, लेकिन अब हाथों में किताब-कॉपियां लिए लड़के-लड़कियां दिखाई देते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि नक्सली समस्या का निदान केवल विकास ही कर सकता है । नक्सलवाद से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को समन्वय स्थापित करके ही काम करना होगा ।

सरकार और व्यवस्था विरोधी हिंसक जनाक्रोश के पीछे पहचान का संकट और आत्म-सम्मान का प्रश्न भी शामिल है । इस दृष्टिकोण से सभी राज्य सरकारों को सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया में अल्पसंख्यकों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने में व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए । सरकारी एजेंसियों, विशेषकर कानून लागू कराने वाली एजेंसियों को समुदाय के नेताओं के साथ आत्मीय सम्बन्ध रखने चाहिए और उनकी चिंताओं पर समुचित संवेदनशीलता दिखानी चाहिए ।

नक्सलवादी समस्या आज किसी अकेले राज्य की समस्या नहीं है, बल्कि इसने कई भारतीय राज्यों की एक सामयिक आन्तरिक सुरक्षा समस्या का रूप अख्तियार कर लिया है । इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इसे वर्तमान की अहम समस्या के रूप में देखा जाए और नासूर बन चुके इस रोग का नए सिरे से सभी राज्यों के दूरदर्शी समन्वित सहयोग से इलाज किया जाए । सम्प्रति दूरदर्शी उपायों से नक्सली विचारधारा को फैलने से रोका जा सकता है और उसका स्थायी समाधान निकल सकता है ।

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सम्पति आम धारा से विपरीत नक्सलियों को सही दशा-दिशा मिले, इसके लिए सरकार को नक्सलियों से आमने-सामने की बातचीत की पहलकदमी करनी होगी । साथ ही उन्हें पहले हथियारों का समर्पण करने के लिए राजी करना होगा । इसके साथ ही राज्य में स्थित नक्सली एवं गैर-नक्सली की पहचान होना अत्यंत आवश्यक है ।

जाति, धर्म और भाषा का भेदभाव किए बिना देशभक्ति को संरक्षण देना होगा और देशद्रोही कोई भी हो दण्डित करना होगा । नक्सली गतिविधियों की सूचना देने वालों को संरक्षण देने के साथ संदिग्ध व्यक्तियों पर नजर रखनी होगी ।

पुलिस और नागरिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए जो भी व्यक्ति नक्सलवादियों को पकड़वाए उनसे संघर्ष करे, हथियार के भण्डार पकड़वाए ऐसे व्यक्तियों को सम्मानित करना चाहिए । सरकार ने यदि सच्चे मन से उपर्युक्त तथ्यों पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आरम्भ किया, तो नक्सली वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल हो सकते है । यह कहा जा सकता है कि नक्सली संगठन अपने आदर्शवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा का जो रास्ता अख्तियार कर रहे है उसे किसी भी प्रकार से उचित नहीं माना जा सकता ।

वस्तुत: चाहे हिंसा नक्सलियों द्वारा हो अथवा सरकार द्वारा, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता । इनकी हिंसा का शिकार अन्तत: वही आमजन होते हैं जिनके लिए ये कुछ प्राप्त करना चाह रहे है । यह सार्वभौमिक सत्य है कि हिंसा से प्राप्त की हुई व्यवस्था ज्यादा दिन तक चल नहीं पाती और अन्तत: टूट जाती है ।

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दूसरी ओर सरकार को भी कानून-व्यवस्था की समस्या से ऊपर उठकर इनकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिए । नक्सली विचारधारा से प्रभावित गरीब एवं मजदूर जनता को राष्ट्र की मुख्य-धारा से जोड़ने के लिए हमारे लोकतांत्रिक अंगों-केन्द्र एवं राज्य सरकारों, मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों सभी को मिलकर सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है ।

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