जीने का अधिकार: मनुष्योचित जीवन के लिए (निबंध) | Essay on The Right to Life in Hindi!

मानवाधिकार क्या होता है? इस सवाल का सीधा सा जवाब है- वे अधिकार जो मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति को प्राप्त है । ऐसा एक अधिकार है, जीने का अधिकार । हर व्यक्ति को जीने के अधिकार का मतलब सिर्फ मास का अधिकार नहीं होता ।

इसका मतलब होता है इज्जत से जीने का हक, अपनी क्षमता, योग्यता के अनुरूप काम करने का अवसर, अपनी प्रतिभा को विकसित करने का अवसर, वह सब हासिल करने का अवसर, जो जीवन के लिए जरूरी होता है…. यह सूची लम्बी हो सकती है, लेकिन एक वाक्य से भी बात समझ में आ जाती है कि मानवाधिकार का रिश्ता मनुष्योचित जीवन जीने से है ।

क्या होता है मनुष्योचित जीवन? अक्सर उठता रहता है यह सवाल मन में । यह 26 अगस्त 2007 को भी उठा था, जब बिहार के भागलपुर की एक बस्ती में एक कथित चोर को एक पुलिस वाले द्वारा मोटरसाइकिल में बांधकर घसीटते हुए दिखाया गया था । टीवी चैनलों पर यह दृश्य देखकर चोर के कथित अपराध की बजाय पुलिस की वहशियाना हरकत पर ही गुस्सा आया था ।

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मन में कहीं यह सवाल भी उठा था कि क्या यह उस कथित चोर के मानवीय अधिकारों का उल्लंघन नहीं है? यदि उसने अपराध किया था, तब भी क्या कानून का शासन यह मांग नहीं करता कि उसे सजा अदालत से मिले? औरों के मन में भी उठे होंगे ऐसे सवाल ।

हमारे सांसदों ने भी आवाज उठाई थी । नतीजा यह निकला कि बिहार सरकार ने घटना की जांच के आदेश दे दिए । टीवी चैनलों पर दिखाए गये दृश्यों के आधार पर दो पुलिस वालों को निलम्बित कर दिया गया । मुख्यमंत्री के बयान से यह मान लिया गया कि पीड़ित को न्याय मिलेगा, कि कथित चोर के जीने के अधिकार की रक्षा होगी । लेकिन हुआ क्या था?।

जनता की याददाश्त कमजोर होती है, वह अक्सर बातों को भूल जाती है । यह बर्बर कांड भी हम भुला ही बैठे हैं अथवा यह मान लिया गया है कि यह इतनी महत्त्वपूर्ण घटना नहीं थी कि इसे याद रखा जाये । शायद इसीलिए हम यह भी भूल गये हैं कि घटना के दो माह बाद बिहार विधान परिषद की एक समिति ने कथित चोर, को मोटरसाइकिल से बांधकर घसीटने वाले पुलिस वालों को एक तरह से निर्दोष घोषित कर दिया था ।

एक तरह से इसलिए कि समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि, पुलिस वालों को दी गयी सजा बहुत कठोर है । हम उन्हें निर्दोष नहीं बता रहे, लेकिन उस युवक को यातना देने के मामले में वे अंशत: ही अपराधी थे । यह कहकर समिति ने सरकार से कहा था कि चेतावनी देकर या अधिक से अधिक उनकी वेतन वृद्धि रोककर उन पुलिसकर्मियों की नौकरी बहाल कर दी जाये ।

समिति के इस निर्णय के पक्ष – विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं । लेकिन रिपोर्ट के साथ समिति के अध्यक्ष की टिप्पणी कहीं अधिक विमर्श की अपेक्षा करता है । इसमें कोई शक नहीं कि कथित चोर के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पुलिसकर्मियों की बर्खास्तगी उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है ।

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समिति की यह राय कुछ अखबारों में खबर बनी थी, लेकिन इसे लेकर कोई चर्चा नहीं हुई । यह भी नहीं पता चला कि पुलिस वालों की नौकरी बहाल हुई है या नहीं और न ही हमारे मीडिया को उस युवक मोहम्मद औरंगजेब के साथ हुआ व्यवहार अब उतना गलत लग रहा है जितना घटना के वक्त लगा था ।

तब उस घटना की शायद सेंसेशनल वैल्यू थी, उससे टीआरपी बड़ा था, इसलिए समाचार चैनलों को वह दृश्य बार-बार दिखाना जरूरी लगा था । हमारे सनसनी-जीवी मीडिया को कुछ और महत्त्वपूर्ण मिलता रहा । औरंगजेब को साइकिल की चेन से बांधा जाना, उसे मोटरसाइकिल से बांधकर सरेआम घसीटा जाना …लगता है, सब कुछ भुला दिया गया है ।

आज मानवाधिकारों के संदर्भ में अचानक यह घटना याद आ रही है । इसलिए नहीं कि मानवाधिकारों के उल्लंघन का यह एक बहुत ही क्रूर उदाहरण है, बल्कि इसलिए कि इस घटना से दो पक्षों के मानवाधिकारों का सवाल जुडा है । दिसम्बर के महीने में हम विश्व मानवाधिकार दिवस मनाते हैं ।

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10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों का घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था, कि सब मनुष्य समान अधिकारों के साथ पैदा होते हैं । इन अधिकारों को परिभाषित किया गया था और उनकी रक्षा का संकल्प लिया गया था । हर साल दुहराया जाता है इस संकल्प को कभी गरीबी से मुक्त होने के अधिकार की बात होती है, कभी भरपेट भोजन पाने के अधिकार की ।

इज्जत से सिर ऊंचा करके जीने का अधिकार भी इस सूची में शामिल होना चाहिए तब शायद किसी मोहम्मद औरंगजेब को मोटरसाइकिल से बाधकर सड़क पर घसीटना मानवाधिकारों के खिलाफ एक अपराध माना जायेगा, तथा मानवाधिकारों के उल्लंघन के नाम पर किसी बर्बर पुलिस वाले की नौकरी बहाल करने के कृत्य पर कोई उंगली उठेगी । विडम्बना यह है कि अब केवल गलत काम पर उंगली नहीं उठाई जाती, बल्कि यह भी मान लिया गया है कि उंगली उठाने का कोई अर्थ नहीं रहा ।

यह पतनशील मानसिकता का उदाहरण है । सवाल सिर्फ यही नहीं है कि मानवाधिकारों से जुड़े मसलों को तार्किक परिणति तक पहुचाया जाये, बल्कि यह भी है कि ऐसे मुद्दे हम भूल क्यों जाते हैं अथवा भूल क्यों जाना चाहते है? यह सवाल हमारे मन में क्यों नहीं उठता कि सड़क पर बेदर्दी से घसीटे जाने वाले औरंगजेब के मानवाधिकार को घसीटने वाले पुलिसकर्मी के मानवाधिकार के बराबर कैसे रखा जा सकता है? क्यों रखा जाता है? और फिर इस पर सवाल क्यों नहीं उठते?

मानवाधिकार का रिश्ता मनुष्य की गरिमा से है, मनुष्य जीवन के सम्मान से है । इस सम्मान की रक्षा के लिए हम क्या कर रहे है? समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता हमारे संविधान के चार स्तम्भ ही नहीं है मानवीय चेतना की गरिमा को स्वीकारने-बढाने वाली अवधारणा भी हैं । जिस दिन हमारी सामाजिक सोच अपने कृत्यों को इन कसौटियों पर कसना शुरू करेगी, उसी दिन मानवाधिकारों की रक्षा की दिशा में सार्थक कदम उठेगा ।

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धर्म, जाति और वर्ग के नाम पर मनुष्य को बांटने वाली मानसिकता के खिलाफ जब जंग छिड़ेगी, तब कोई औरंगजेब सही मायने में न्याय पाने की उम्मीद कर सकेगा । यह उम्मीद मनुष्यता की जरूरत है ।

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