भारतीय समाज में नारी की भूमिका | Essay on The Role of Women in Indian Society in Hindi!

प्रस्तावना:

नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है । यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है । एक तरफ तो उसे शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी ओर उसे ‘बेचारी अबला’ भी कहा जाता है । इन दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने नारी के स्वतन्त्र बिकास में बाधा पहुंचाई है ।

प्राचीनकाल से ही नारी को इन्सान के रूप में देखने के प्रयास सम्भवत: कम ही हुये हैं । पुरुष के बराबर स्थान एवं अधिकारों की मांग ने भी उसे अत्यधिक छला है । अत: वह आज तक ‘मानवी’ का स्थान प्राप्त करने से भी वंचित रही है ।

चिन्तनात्मक विकास:

सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो ।

किन्तु फिर भी वह सदियों से ही क्रूर समाज के अत्याचारों एवं शोषण का शिकार होती आई हैं । उसके हितों की रक्षा करने के लिए एवं समानता तथा न्याय दिलाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है । महिला विकास के लिए आज विश्व भर में ‘महिला दिवस’ मनाये जा रहे हैं । संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही है ।

इतना सब होने पर भी वह प्रतिदिन अत्याचारों एवं शोषण का शिकार हो रही है । मानवीय क्रूरता एवं हिंसा से ग्रसित है । यद्यपि वह शिक्षित है, हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है तथापि आवश्यकता इस बात की है कि उसे वास्तव में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाये । समाज का चहुँमुखी वास्तविक विकास तभी सम्भव होगा ।

उपसंहार:

स्पष्ट है कि भारत में शताब्दियों की पराधीनता के कारण महिलाएं अभी तक समाज में पूरी तरह वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं जो उन्हें मिलना चाहिए और जहाँ दहेज की वजह से कितनी ही बहू-बेटियों को जान से हाथ धोने पड़ते हैं तथा बलात्कार आदि की घटनाएं भी होती रहती हैं, वही हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक परम्पराओं और शिक्षा के प्रसार तथा नित्यप्रति बद रही जागरूकता के कारण भारत की नारी आज भी दुनिया की महिलाओं से आगे है और पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर देश और समाज की प्रगति में अपना हिस्सा डाल रही है ।

सदियों से समय की धार पर चलती हुई नारी अनेक विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच जीती रही है । पूज्जा, भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी, माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में उसका शोषित और दमित स्वरूप । वैदिक काल में अपनी विद्वत्ता के लिए सम्मान पाने वाली नारी मुगलकाल में रनिवासों की शोभा बनकर रह गई ।

लेकिन उसके संघर्षों से, उसकी योग्यता से बन्धनों की कड़ियां चरमरा गई । उसकी क्षमताओं को पुरुष प्रधान समाज रोक नहीं पाया । उसने स्वतन्त्रता संग्राम सरीखे आन्दोलनों में कमर कसकर भाग लिया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान में बराबरी का दर्जा पाया । राम राज्य से लेकर अब तक एक लम्बा संघर्षमय सफर किया है नारी ने । कई समाज सुधारकों, दोलनों और संगठनों द्वारा उठाई आवाजों के प्रयासों से यहां तक पहुंची है, नारी ।

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जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नारी की सामाजिक स्थिति में फिर भी परिवर्तन ‘ना’ के बराबर हुआ है । घर बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि वह अपने को पुरुषो के सामने दूसरे दर्जे पर समझें ।

आज की संघर्षशील नारी इन परस्पर विरोधी अपेक्षाओ को आसानी से नहीं स्वीकारती । आज की नारी के सामने जब सीता या गांधारी के आदर्शो का उदाहरण दिया जाता है तब वह इन चरित्रों के हर पहलू को ज्यों का त्यों स्वीकारने में असमर्थ रहती है । देश, काल, परिवेश और आवश्यकताओ का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है, समाज इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता ।

सीता के समय के और इस समय के सामाजिक परिवेश में धरती-आसमान का अंतर है । समाज सेविका श्रीमती ज्योत्सना बत्रा का कहना है कि आज के परिवेश मे सीता बनना बडा कठिन है । सीता स्वय में एक फिलोसिफी थीं । उनका जन्म मानव-जाति को मानव-मूल्यों को समझाने के लिए हुआ था ।

दूसरो के लिए आदर्श बनने के लिए व्यक्ति को स्वयं बहुत त्याग करने पडते है जैसे सीता ने किए । राम और सीता ने जीवन को दूसरो के लिए ही जिया । राम जानते थे कि धोबी द्वारा किया गया दोषारोपण गलत है, मिथ्या है । परंतु उन्होंने उसका प्रतिरोध न करके प्रजा की संतुष्टि के लिए सीता का त्याग कर दिया ।

राम की मर्यादा पर कोई आच न आए, प्रजा उन पर उंगली न उठाए यह सोचकर सीता ने पति द्वारा दिए गए बनवास को स्वीकार किया और वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगी । अब न राम सरीखे शासक हैं न वाल्मीकि समान गुरू । हम सभी जानते हैं कि सीता के जीवन का संपूर्ण आनंद पति में ही केद्रित था ।

पति की सहचरी बनी वह चित्रकूट की कुटिया में भी राजभवन सा सुख पाती थी । ‘मेरी कुटिया में राजभवन मन माया’ सीता का यह कथन अपने पति श्री राम के प्रति उनकी अगाध आस्था को दर्शाता है । सीता अपना और राम का जन्म-जन्म का नाता मानती थीं । आज भी भारतीय नारी पति के साथ अपना जन्म-जन्म का नाता मानती है ।

युगदृष्टा, युगसृष्टा नारियों के चरित्र हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं । हम उनके चरित्र के मूल तत्वों का समावेश अपनी जिंदगी मे कर सकते हैं । श्रीमती डॉक्टर आशा शाहिद के अनुसार लगभग चौबीस वर्षों से मैं अमरीका में रह रही हूँ । हमने अपनी एक मात्र बेटी में भारतीय मूल के संस्कार डाले हैं, उसे रामायण व सीता के चरित्रों से अवगत कराया है ।

यों तो सीता धरती पुत्री थी । शिवजी के भारी भरकम धनुष को सरकाकर उन्होंने अपनी शक्ति का परिचय दिया था, पर अग्नि परीक्षा…. ? आज के समय में अच्छी शिक्षा पाना, अच्छी नौकरी पाना, दफ्तरों की राजनीति का शिकार न बनना, अपने घर और दफ्तर की जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह निभाना ये किसी अग्निपरीक्षा से कम है ?

हर हाल में पति का साथ देने को उत्सुक सीता के चरित्र की यह विशेषता थी । डॉक्टर मनीषा देशपाण्डे के अनुसार सीता का उदाहरण पतिव्रताओं में सर्वोपरि है । इसमें सन्देह नहीं कि वह कठिनाई के समय में पति का मनोबल बढाने, विवाह के समय लिए गये वचनों को निभाने उनकी सहचारी बन उनके साथ वनों को गईं ।

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जब मैं सीता के बारे में सोचती हूँ तो एक बात मेरे दिमाग में आती है वह है हमारी सामाजिक परिस्थितियों मे रामराज्य से अब तक का बदलाव, उस समय की नारी को पतिव्रता और कर्तव्य परायण जरूर होना चाहिए था । सीता इन गुणो पर खरी उतरती थीं । वह एक सुपर बूमैन थी ।

फिर भी सीता की पहचान अपने पति व बच्चों के कारण थी जैसे राम की पत्नी, लवकुश की मां । उनकी पूरी जिंदगी उनके परिवार के इर्द- ही सीमित रह गई, वह समाज की अपेक्षाओं को पूरा करती रही । सीता के चरित्र की । बातें मैं पसंद करती हूँ जैसे पति को ‘सपोर्ट’ करना । वह दृढ चरित्र की महिला थी ।

आज नारी होने के नाते मैं महसूस करती हूँ कि एक व्यक्ति के रूप में मेरी अपनी पहचान होना गयी है । मैं सिर्फ एक पत्नी, एक मां, एक बहन या बेटी के रोल तक सीमित नहीं रहना चाहती । समाज की सक्रिय सदस्य बनना चाहती हूँ ।

नैसर्गिक रूप से तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं ही । जिस आधुनिक लोकतात्रिक समाज मनुष्य अपने व्यक्तित्व की नयी ऊचाइयां छू रहा है, उसके निर्माण में भी स्त्री की भूमिका दूसरे र्जे की नहीं मानी जा सकती । हमारे अपने देश में भी, जब से देश के आधुनिक राष्ट्र में परिवर्तित की प्रक्रिया आरंभ होती है, तभी से हम स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाते पाते है ।

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यह और बात है कि जब इन प्रक्रियाओ को इतिहास या राष्ट्रीय ‘माइथालॉजी’ झा रूप दिया जाता है, तब स्त्रियो को केवल ‘पुरुष की प्रेरणा’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है या फिर अधिक से अधिक ऐसी वीरांगनाओं के रूप में, जिन्हें परिस्थितियां पराक्रम के लिए बाध्य कर देती हैं ।

सामाजिक-राजनीतिक विवेक और इतिहास बोध पर भी स्त्री का कोई दावा हो सकता है, यह आम तौर से राष्ट्रीय वृत्तांतों में स्वीकार नहीं किया जाता । भारत के पहले स्वाधीनता-संग्राम 1857 के दो उदाहरणों से यह बात समझी जा सकती है महारानी लक्ष्मीबाई कुशल प्रशासक और नेता थीं, लेकिन उनकी मुख्य छवि हमारा राष्ट्रीय वृत्तांत एक युद्धरत वीरांगना का ही बनाता हे ।

अवध की बेगम हजरतमहल के बारे में तो हम सिवा इसके कुछ याद नहीं करते कि वह भी 1857 के नेताओं में से एक थीं, जबकि बेगम हजरतमहल वह व्यक्ति थीं, जिन्होंने विक्टोरिया की ‘गदर’ के बाद जारी की गयी घोषणा का प्रतिवाद विद्रोही पक्ष की ओर से जारी किया था ।

लक्ष्मीबाई हो या हजरतमहल, मोतीबाई हों या अलकाजी-ये स्त्रिया अपवाद नहीं थी, बल्कि उस दौर की: सामान्य राजनीतिक चेतना से ही इंनके व्यक्तित्व परिभाषित होते थे । 1857-58 के दमन के बाद राजनीतिक चेतंना का जो उभार आया, उसका सामाजिक आधार नये विकसित हो रहे मध्य वर्ग में था ।

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इस उभार में, एक लंबे अरसे तक स्त्री की स्थिति प्रतीकात्मक बनी रही । इस बात को अच्छी तरह समझने की जरूरत है । जिस विद्रोह (1857) की जडें परंपरा में थीं, उसमें स्त्री की साझेदारी लगभग बराबरी की थी और जिस ‘विद्रोह’ का सामाजिक आधार अंग्रेजीदा भद्रलोक में था, उनमे स्त्री की हैसियत प प्रेरणा और प्रतीक की थी ।

यह इस बात का एक और प्रमाण है कि भारतीय समाज में प्रगति और जड़ता का द्वंद परंपरा बनाम आधुनिकता के द्वंद्व का पर्यायवाची नहीं है । परपरा में निहित जड़ता, प्रगतिहीनता और अमानवीयता के पहलू तो अपनी जगह है ही, लेकिन आहदुनिकता में भी सब कुछ गतिशील-प्रगतिशील हो, ऐसा नहीं है ।

उल्टे, हमारे समाज में आयी आधुनिकता के सामाजिक आधार और उसके बौद्धिक स्त्रोतों की बदौलत उस आधुनिकता का दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी पहलू उसके प्रगतिशील पहलू से कहीं अधिक प्रचण्ड है । जातिवाद विरोध के नाम पर सवर्ण जातिवाद की बेशर्म वकालत हो या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर फासिस्ट मिजाज की चट्‌टानी सवेदनहीनता-ऐसी तमाम समाज-तोडक और पीछे देखूं प्रवृत्तियों का सामाजिक आधार और बौद्धिक तेज हमारे परम आधुनिक भद्रलोक द्वारा ही सप्लाई किया जाता है ।

भारतीय आधुनिकता की उपरोक्त तीखी आलोचना की तार्किक परिणति यह नहीं है कि आप भारत व्याकुलता के मरीज बनकर परंपरा का अंधाधुंध महिमामण्डन करने लगें । पक्ष और प्रतिपक्ष के रूप में परंपरा और आधुनिकता को नहीं, बल्कि प्रगति और जडता, मुक्ति और बंधन को देखना चाहिए ।

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तभी समाज में वह आलोचनात्मक विवेक उत्पन्न होगा, जो हमारे व्यक्तिगत और समाजगत कार्यकर्ताओं की नैतिक कसौटी का काम कर सके । इस पृष्ठभूमि के साथ हम यह कडवी सच्चाई याद करे कि पारंपरिक हो या आधुनिक, संसार की सभी सभ्यताएं स्त्री की दृष्टि से ओछी प्रतीत होती हैं और पाखडी भी ।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ के दावेदार हों या स्त्री को गुलामी से आजाद कर शरीके हयात बनाने के दावेदार अपनी आत्मा में झाक कर देखें तो समझ जाएंगे कि स्त्री को ‘देवी’ बनाने के सभी प्रोजेक्ट असल में उसे व्यक्तित्व से वंचित करने के प्रोजेक्ट हैं ।

स्त्री की आत्म सजगता का आरंभ ही इस देवी मार्का छल से मुक्त होकर व्यक्तित्व तलाशने की बेचैनी से होता है । किसी आत्म सजगता की कोशिशों की रेखाएं आधुनिक सभ्यता में तो हैं ही, पारंपरिक सभ्यताओं में भी हैं ।

ऐसी कोशिशों की तार्किक परिणति होनी चाहिए, सामाजिक-राजनीतिक सत्तातंत्र में स्त्री व्यक्तित्व की बराबर की हैसियत एक सहज, स्वाभाविक अधिकार के रूप में किसी की कृपा के रूप में नहीं । आजादी के आंदोलन को जब गांधीजी ने मध्यवर्ग के चंगुल से मुक्त कराके आम जनता का आदोलन बनाया तो उन्होंने उसमें स्त्रियों की हिस्सेदारी को भी प्रतीकात्मक की बजाय वास्तविक बनाने पर खास ध्यान दिया ।

विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से लेकर सिविल नाफरमानी तक के कार्यक्रमों मे स्त्रियो की सक्रिय हिस्सेदारी गांधीजी की नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता के साथ उनकी गहरी सामाजिक अतर्दृष्टि को भी प्रमाणित करती है । इस तरह की हिस्सेदारी ने न केवल स्त्रियो के व्यक्तित्व के सघर्ष को धार दी, बल्कि स्वाधीनता आदोलन को राजनीतिक क्षेत्र से बाहर ? लाकर सामाजिक, सांस्कृतिक चुनौतियों से भी जोड दिया ।

इस स्थिति का अपेक्षित नैतिक प्रभाव होना तो यह चाहिए था कि बिना किसी बाध्यकारी व्यवस्था के स्त्रियों और समाज के दूसरे उत्पीडित तबकों को उनकी वाजिव हैसियत हासिल हो जाती । लेकिन चीजें अगर सिर्फ नैतिक बल और हृदय परिवर्तन से ही संभव होतीं तो राज्यसत्ता की, किसी भी तरह के अनुशासन की या आदोलन की जरूरत ही क्या थी ?

स्वयं गांधीजी की ही एक हिन्दू राष्ट्रवादी द्वारा हत्या की जरूरत क्या थी’ नैतिक प्रभाव को व्यावहारिक बनाने के लिए भी शक्ति जरूरी है और नैतिक प्रभाव को रोकने के लिए भी कुछ लोग शक्ति का सहारा लेते हैं-जैसे गोडसे ने लिया । इसीलिए स्त्री के सबलीकरण और लैंगिक न्याय की प्रक्रियाएं केवल सदाशयता के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकतीं ।

विद्यमान आधुनिक भारतीय समाज में स्थितियों एवं परिस्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी हैं । प्राचीन से मध्यकाल तक यद्यपि भारतीय नारी ने समाज को सुदृढता प्रदान की किन्तु फिर भी उस समय वह शोषण एव अत्याचारों से मुक्त नहीं हुई थी । शायद उसकी नियति ही यही है ।

आज हम नारी जागृति, नारी सम्मान की बात करते हें । बडे अधिकारी, नेतागण, अन्य सभी बुद्धिजीवी लोग सभाओं, गोष्ठियों एवं मैचों पर नारी के समान अधिकार, महिला उत्पीडन के मुद्‌दों पर लच्छेदार भाषण झाडते हैं, लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज का नारी के प्रति वास्तविक नजरिया कुछ और ही होता है ।

हमारे देश में जहां महिला प्रधानमंत्री रह चुकी हों, जहा की लड्‌कियां माउंट एवरेस्ट पर विजय पा चुकी हो, वहां महिला और पुरुष के बीच का विरोधाभास और भी निंदनीय है । इस देश में हमेशा स्त्री को मां, बहन या फिर बेटी के रूप में देखा गया है, फिर भी इतिहास गवाह हे कि पारम्परिक और सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्रियों की हमेशा उपेक्षा की गयी है ।

मानव समाज की सबसे पुरानी और सबसे व्यापक गलतियों में से एक मुख्य गलती यह है कि आज तक भारतीय नारी के साथ समानता व न्याय का व्यवहार नहीं हुआ है । भारतीय संविधान निर्माताओ ने संविधान के विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से यह सुनिश्चित करने का निश्चय किया कि सभी को सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक न्याय प्राप्त हो सके, ताकि प्रत्येक भारतवासी को स्वतंत्रता के साथ-साथ अवसर की समानता का आनन्द भी मिल सके ।

इसलिए भारत के संविधान की उद्‌देशिका, मूल अधिकारी तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वो में ऐसे प्रावधान किए गये जिसमें महिलाओं, अल्पसख्यको और समाज के निर्बल वर्गों को आगे आने का अवसर मिल सके, ताकि वे भी देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें ।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया तथा अनेक यातनाएं एवं अत्याचार सहे थे । इसलिएं संविधान निर्माताओं ने यह जरूरी समझा कि राष्ट्र को मजबूत, संगठित एवं प्रगतिशील बनाने के लिए महिलाओ, युवतियों एवं बच्चों की सुरक्षा, संरक्षण एवं उन्नति के लिए विशेष व्यवस्था की जाए, ताकि उनका पिछड़ापन समाप्त हो सके ।

सौभाग्यवश, राजनीतिक क्षेत्र में एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी जाति, संप्रदाय, लिग अथवा धर्म से संबंधित हो, को समानता का अवसर प्रदान किया गया है । प्रजातत्र एवं गणतंत्र में सरकार अथवा शासक बदलने में वास्तविक शासक अर्थात् मतदाता का कितना महत्व है यह समय-समय पर सरकारें बदलकर प्रस्तुत किया गया है ।

महिलाओं को मताधिकार एवं सरकार में भागीदारी का अधिकार अनेक देशों विशेषकार इस्लामिक देशों की महिलाओं से पहले प्राप्त ध्या । केवल सामाजिक समानता के क्षेत्र में महिलाओ और बालिकाओं को आवश्यक, पर्याप्त एवं प्रभावी समानता प्राप्त नहीं हो सकी है ।

दूसरी ओर महिलाओं के विरुद्ध अत्युाचार एवं अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है, जोकि चिंता का विषय है । यह स्थिति तब और शोचनीय हो जाती है जब संविधान के भाग तीन में उल्लिखित मूल अधिकारों में यह स्पष्ट व्यवस्था है कि समानता के अधिकार के अंतर्गत भारतवर्ष में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष संरक्षण से वंचित नहीं करेगा ।

(अनुच्छेद- 14) तथा राज्य किसी भारतीय नागरिक के विरुद्ध केवल लिंग के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा (अनुच्छेद- 15) । इसी अनुच्छेद के भाग 3 में यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियो और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी ।

आज जरूरत है नारी को समय की मुख्यधारा से जोडने की । आज भी नारी ममतामयी है त्यागमयी है । नारी त्याग और साधना के बलबूते पर समाज के प्रत्येक पहलू से जुड़ी है । वह पढी-लिखी है । आत्मनिर्भर है, अपने अधिकारी एवं कर्तव्यों के प्रति सचेत है, संघर्षरत है । यद्यपि नारी शिक्षा से आज कामकाजी महिलाओं की संख्या मे वृद्धि हुई है । हमारे समाज में उसकी निःस्वार्थ सेवा हर क्षेत्र में है ।

तथापि वह नौकरी पेशा न होकर गृहणी होते हुये भी घरेलू दायित्वों का निर्वाह निष्ठापूर्वक करती है । किन्तु फिर भी उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है । कामकाजी महिलाएँ तो दोहरे स्तर पर पारिवारिक और सामाजिक शोषण की शिकार हैं ।

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जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे भारतीय नारी के भी कदम आगे बढ़ रहे हैं । आज वह ‘देवी’ नहीं बनना चाहतीं, वह सही और सच्चे अर्थों में अच्छा इंसान बनना चाहती है । नैतिक मूल्यों और मानवीय मूल्यों को नकारा नहीं जा सकता । हमारे पारम्परिक चरित्र नैतिक मूल्यों की धरोहर हैं ।

पौराणिक चरित्रों के आदर्श हमारी जड़ें है । आज के संदर्भ में उपयुक्त लगने वाले उनके गुणों को तथा शाश्वत आदर्शो को हमें अपनाना चाहिए । आज की जुझारू महिला का व्यक्तित्व उसकी कार्यक्षमता में झलकता है और आज की संघर्षशील नारी को एक नहीं कई अग्निपरीक्षाएं देनी पडती हैं । सारी दुनिया में आज महिला दिवस मनाये जा रहे हैं ।

संसद में उनके हितों की रक्षा हेतु 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही है । इससे आधी दुनिया कही जाने वाली महिलाओं की दशा में कोई परिवर्तन आएगा, इसकी तो कोई संभावना नहीं है मगर लोगों का ध्यान कुछ देर के लिए इस ओर अवश्य जाएगा क्योंकि इस अवसर पर पत्र- पत्रिकाओं में महिलाओं की समस्याओं से सम्बन्धित कुछ लेख भी छपेंगे और कुछ गोष्ठियों आदि के आयोजन भी होंगे ।

अब समय आ गया है कि महिलाओं को अधिकार देने तथा उन्हें लैंगिग भेदभाव से मुक्ति दिलाने के मार्ग मे आने वाली बाधाओं तथा अन्य खामियों पर भी विचार किया जाए । इस बात को समझा जाना चाहिए कि केवल साधनों की उपलब्धि तथा महिलाओं की उन तक पहुंच से ही वांछित लक्ष्यो की प्राप्ति नहीं हो पाएगी बल्कि इस सबके लिए जरूरी है कि लोगों की सोच में एक व्यापक परिवर्तन लाया जाए ।

विशेषकर पुरुषो की सोच में परिवर्तन की व्यापक रूप से आवश्यकता है । सोच में यह परिवर्तन केवल सरकारी योजनाओं तथा कानूनों से ही संभव नहीं हो सकता है । इस मामलें में तो जनता की व्यापक सहभागिता आवश्यक है । लोगों में जन जागरूकता आवश्यक है ।

पुरुषों को भी इस बात के लिए मनाना होगा कि वे अपने कुछ विशेषाधिकारों को त्यागें जिससे महिलाओं को लाभ प्राप्त हो सके । इस प्रक्रिया में गैर सरकारी संगठनों को भी बड़े पैमाने पर शामिल करना होगा । महिलाओ के अधिकारो तथा उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए संघर्ष मेंउ केवल महिलाओं को ही लडाई नहीं लडनी है बल्कि पुरुषों को भी इसमें अपना योगदान करना होगा ।

विशेषज्ञों ने इस बात को पाया है कि महिलाओं की पराश्रयता, उनका शोषण तथा समाज की गतिविधियों में उनकी सीमित सहभागिता का कारण महिलाओं की अपनी अक्षमता अथवा इस क्षेत्र में आगे न बढने देने का पुरुषों का षडयंत्र नहीं है । हमारे देश में लैंगिक भेदभाव की प्रणाली तथा उसके कारण सामाजिक आचार-विचार ने ही महिलाओं के प्रति एक दुराग्रहर्ष्टा भावनाओ को बढावा दिया है ।

हमारा भारतीय समाज ऐसा है जिसमें लडके को ही प्राथमिकता दी जाती है । लडके को ही आगे वंश चलाने वाला तथा परिवार की विरासत आदि का उत्तराधिकारी माना जाता है । यह देखा गया है कि इस प्रकार की स्थितियों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को दोयम समझा जाता है ।

इसलिए जरूरी है कि अगर हमें स्थितियो में सुधार करना है तो हमें किसी भी ऐसे विकास कार्यक्रम में पुरुषो तथा महिलाओ को समान रूप से शामिल करना होगा हमे काफी कुछ बदलाव लाना होगा । उदाहरण के लिए हमें उन कुछ परम्परागत तथा धार्मिक् रीति-रिवाजी को बदलना होगा जोकि महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले निचले स्तर पर रखते हैं । शुरू से ही हम लडकियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे घर-गृहस्थी का काम सीखें जबटि लडकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार के लिए रोजी-रोटी कमाने का हुनर सीखें ।

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इसके परिणाम यह होता है कि जब कभी लडकियों के ऊपर परिवार के भरण-पोषण के लिए आजीविक् कमाने की जिम्मेदारी आती है तो वह कामकाज के लिए अपने आपको प्रशिक्षित नहीं पाती है या पर्याप्त कौशल पाने मे सक्षम नहीं होती हैं । इसका परिणाम यह होता है कि रोजगार के क्षेत्रों में शोषण का शिकार होती हैं ।

इसके अतिरिक्त हमारे समाज की अपनी कुछ रीतियां हैं, जोकि महिलाओं के प्रति भेदभाव को बढ़ाती हैं । इनमें दहेज प्रथा, लड़के के जन्म पर समारोह तथा लड़की के जन्म पर अप्रसन्नता व्यक्त करना, पुरुष द्वारा ही सामाजिक एवं धार्मिक कृत्य करना, पर्दा प्रथा, गर्भस्थ शिशुओं का लिंग परीक्षण तथा बालिका भूणों का गर्भपात, लडके के लिए इलाज तथा अन्य उपचार आदि नैतिकता व चरित्र के बारे मे महिलाओं और पुरुषों के प्रति दोहरे मानदण्ड, लड़कियों और महिलाओं के लिए अनेक सामाजिक वर्जनाएं तथा पुरुषों के लिए स्वच्छंदता आदि शामिल है ।

इसके अलावा महिलाओ से कई अन्य क्षेत्रों मे भी भेदभाव होता है, भले ही कानून इस प्रकार के भेदभाव को वर्जित करता है । रोजगार व सम्पत्ति के अधिकार में इस प्रकार का भेदभाव स्पष्ट दिखाई देता है । जहां तक पैतृक सम्पत्ति का मामला है पुरुष ही वहां सम्पत्ति का वारिस व नियंत्रणकर्ता होता है । इसी प्रकार रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं को समान अवसर दिए जाने की बात कही जाती है लेकिन वास्तविकता यह है कि वहां भी उनसे भेदभाव होता है । ऐसे भी कई अवसर आते हैं जबकि उनका कई तरीकों से शोषण होता है ।

महिलाओं के हित में विधेयक लाना तथा सरकार द्वारा उनके विकास के लिए विभिन्न परियोजनाएं बनाने के लिए प्रयास उचित हैं, लेकिन जिस बात की सर्वाधिक आवश्यकता है वह यह है कि इसे एक सामाजिक आदोलन बनाया जाए । निःसंदेह सरकार इस बारे में एक जागरूकता तो उत्पन्न कर सकती है लेकिन इसके प्रति गतिशीलता की भावना तो जनता के मध्य से ही उठनी चाहिए ।

लेकिन इस बारे में दुख की बात यह है कि कुछ नहीं हो रहा है । विडम्बना यह है कि महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए अतीत में जिस प्रकार के समाज सुधार आदोलन हुए थे वैसे दोलन आज नहीं हो रहे हे । सरकारी कार्यक्रम अभी तक जनता को इस प्रकार के अभियानों में प्रेरित करके नई पहल कराने में विफल रहें हैं । समाज आप के प्रति निष्ठावान, उत्साही लोगों व संगठनो को इस दिशा में आगे बढ़ना होगा ।

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