अशोक पर अनुच्छेद | Paragraph on Ashok in Hindi

प्रस्तावना:

अशोक भारत का श्रेष्ठतम और महान् सम्राट था । अपने पिता बिन्दुसार की मृत्यु के बाद वह ईसा के 273 वर्ष पूर्व मगध के सिंहासन पर बैठा । उसने लगभग 40 वर्ष तक साम्राज्य किया ।

वह भारत का पहला शासक था, जिसने अपनी जनता को भली-भाँति शिक्षित किया और उन्हें सच्चाई और अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया । संसार के इतिहास में अशोक के समान कोई अन्य बहादुर और शक्तिशाली सम्राट् नहीं हुआ है, जिसने महान् सैनिक विजय के बाद युद्ध का त्याग करके शांति और अहिंसा का मार्ग अपनाया हो ।

जन्म, बचपन और शिक्षा:

अशोक चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र था, जिसने ईरना के 322 वर्ष पूर्व मगध में मौर्य साम्राज्य की नींव डाली थी । अशोक के पिता का नाम बिन्दुसार था । मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में अपने पिता के राजमहल में अशोक का बचपन बीता ।

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शिक्षा के नाम पर उसने वह सब सीखा जो पढ़ने-लिखने, संस्कृति और धन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । कहा जाता है कि बचपन में अशोक बहुत ही बिगडैल और झगड़ालू स्वभाव का था । लेकिन गद्दी पर बैठने के बाद उसका स्वभाव पूरी तौर से बदल गया ।

सिंहासन पर बैठना:

अशोक 20 वर्ष की आयु में ईरना के 273 वर्ष पूर्व मगध में सिंहासन पर बैठा था । अपने शासन के पहले ग्यारह वर्ष उसने सामान्य रूप से उसी तरह शासन चलाया, जैसे उसके पिता और प्रपिता ने चलाया था । इसके बाद सम्राट् के रूप में उसके जीवन में क्रातिकारी परिवर्तन हो गया ।

कलिंग पर विजय:

ईसा के लगभग 262 वर्ष पूर्त उसने कलिंग राज्य (जिसे आजकल उड़ीसा कहते हैं) पर विजय प्राप्त करके अपने साम्राज्य के विस्तार करने का निर्णय किया । उसने कलिंग पर चढ़ाई कर दी । इस युद्ध में बहुत खून-खराबा हुआ । बहुत बडी सज्जा में पुरुष, स्त्रियों और बच्चों की हत्या करके उसने कलिंग पर विजय पाई और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया ।

बौद्ध धर्म में दीक्षा:

यद्यपि अशोक ने कलिंग पर महान् विजय पाई, लेकिन अन्य हमलावर विजेताओं के समान वह क्रूर हृदय का नहीं था । भीषण रक्तपात, नरसहार और बरबादी देखकर उसका मन विचलित हो उठा । युद्ध की विभीषिका ने उसका हृदय पिघला दिया ।

दैवयोग से उसी समय उपगुप्त नामक एक बौद्ध भिक्षु और धर्म प्रचारक से मिलने का उसे सुअवसर प्राप्त हुआ । उपगुप्त के उपदेशों ने उसके जीवन और चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया । उसने बुद्ध धर्म अपना लिया और उसे राज्य धर्म करार दे दिया । अब उसने यह निर्णय लिया कि वह अपने साम्राज्य में प्यार, शांति और व्यवस्था की स्थापना करेगा और इन्हीं आधारों पर राज-काज करेगा ।

बौद्ध धर्म का प्रसार:

बुद्ध धर्म ने अशोक के मन मे जीवमात्र के प्रति प्यार पैदा कर दिया । उसने मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों के लिए अस्पताल और औषधालय खुलवाये । अपने विशाल साम्राज्य में उसने सभी प्रकार की पशु-बलि पर पूरे तौर से रोक लगा दी ।

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उसने बुद्ध धर्म के प्रसार के लिए तिब्बत, चीन, जापान, बर्मा, श्रीलंका तथा भारत के विभिन्न भागों में धर्म प्रचारक भेजे । उसने बड़ी निष्ठा से साधुता और सच्चरित्रता का पालन करना प्रारंभ कर दिया । उसने लोगों को सच्चाई, अहिंसा और प्यार का जीवन अपनाने की शिक्षा दी ।

लेकिन उसने अन्य धर्मों के प्रति उदारता का व्यवहार किया । जीवन के अन्तिम कुछ वर्षा में तो उसने बौद्ध भिक्षुओं जैसी पीली पोशाक पहनना तक प्रारम्भ कर दिया । यह अशोक के महान् प्रयासों का ही फल है कि आज तक चीन, जापान, तिब्बत जैसे अनेक एशियाई देशों मेंबौद्ध धर्म का बोलबाला है ।

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अशोक केवल विदेशी में बौद्ध के प्रचार-प्रसार से सतुष्ट नहीं हुआ । उसने भारत के विभिन्न भागो में भी बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रयास किया और व्यावहारिक रूप से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तो को अपनाया । उसने अपनी प्रजा की सुख और शांति का भरसक प्रयास किया । इस उद्देश्य के लिए उसने 14 सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ।

इन सिद्धान्तों को शिलाओं और रत्तम्भों पर खुदवा कर उसने अपने साम्राज्य में जगह-जगह उन्हें गड़वा दिया, ताकि लोग आसानी से उन्हें याद रख सकें । इन सिद्धान्तों को अशोक का शाही फरमान राजाज्ञा कहा जाता है । इन सिद्धान्तों में लोगों को बताया गया था कि उन्हें अपने जीवन में सच्चाई, प्यार, कर्त्तव्यनिष्ठा, अहिंसा और बड़ों की आज्ञा-पालन को अपनाना चाहिए ।

उसका चरित्र:

अशोक बड़ा चरित्रवान् शासक था । उसके चरित्र की महानता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि युद्ध लोलुप काल में उसने शांति और अहिंसा का मार्ग अपनाया । उसके काल में बौद्ध धर्म के मनाने वाले नास्तिक समझे जाते थे । उसने लोगों के मन की बिना परवाह किए बौद्ध धर्म अपनाने का साहस किया ।

उसने बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का पूरे तौर पर पालन किया । एक सम्राट् के रूप में वह बडा न्यायप्रिय और दयालु था । जनता किसी भी समय उसका द्वार खटखटा सकती थी । वह उनकी शिकायतें सुनकर स्वयं फैसला देता था । वह सच्चे अर्थों में अपनी प्रजा से पुत्रवत् रनेह करता था । उसने अपना समूचा जीवन मानव मात्र की सेवा में लगा दिया ।

उपसंहार:

सम्राट् के रूप में अशोक का नाम सारे संसार में विख्यात हो गया था । यूरोप तथा अफ्रीका के कई देशों ने उसके राजदरबार में अपने राजदूत भेजे । उन सभी देशों ने अशोक की ओर मित्रता का हाथ बढाया । वह भारत का ही महानतम शासक नहीं था, वरन् समूचे विश्व इतिहास में ऐसा कोई शासक नहीं मिलता ।

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