चन्द्रशेखर आजाद पर निबन्ध | Essay on Chandrasekhar Azad in Hindi

1. प्रस्तावना:

देश के अमर क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद का नाम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा । चन्द्रशेखर आजादी के ऐसे निर्भीक सेनानी थे, जिनहोने अंग्रेज सरकार के वीरुद्ध न केवल क्रान्तिकारी दल का संगठन बनाया, वरन् वे उसके सेनापति भी रहे ।

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु बटुकेश्वर दत्त सान्याल उनके क्रान्तिकारी दल के साथी थे । किशोरावस्था से ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद का घोर विरोध करने वाले चन्द्रशेखर आजाद स्वभाव से निडर, दबंग साहसी, सच्चे ईमानदार, त्यागी और महान् देशभक्त थे ।

2. आरम्भिक जीवन:

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई सन् 1906 को झाबुआ {मध्यभारत} के भांवरा नामक स्थान में हुआ था । उनके पिता श्री सीताराम तिवारी उन्नाव {उ०प्र०} के बदरका गांव के निवासी थे । उनके घर का वातावरण आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं था । आवश्यकता से अधिक उनके पिता का कठोर व्यवहार, जो चन्द्रशेखर के स्वभाव से मेल नहीं खाता था ।

अपने पिता के व्यवहार से रुष्ट होकर वे 12-13 वर्ष के अवस्था में ही बम्बई भाग गये । यहां पर कुछ दिनों तक मजदूरी की । प्रारम्मिक शिक्षा का ज्ञान प्राप्त कर, उन्होंने संस्कृत सीखने की इच्छा जाहिर की, सो काशी की एक संस्कृत पाठशाला में उन्हें प्रवेश मिल गया, यहां निशुल्क शिक्षा एवं भोजन की भी व्यवस्था थी ।

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सन् 1921 में जब महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन का व्यापक प्रभाव जनमानस पर पड़ा हुआ था, विद्यार्थी, अध्यापक, सभी सरकारी स्कूलों को त्यागकर देश के स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार कर दिया । 15 वर्ष से भी कम की अवस्था वाले चन्द्रशेखर आजाद ने भी देश की आजादी में अपना योगदान देने का जैसे संकल्प ही ले लिया था ।

गांधीजी के साथ असहयोग आन्दोलन में भाग लेते हुए जब उन्हें जेल भेजा गया, तो उन्होंने अपना नाम ”आजाद”, पिता का नाम ”स्वाधीनता” और घर का पता ”जेलखाना” बताया । उनकी इस बात से नाराज होकर मेजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 बेंतो की सजा सुनायी । इन 15 बेंतों को खाकर तो जैसे आजाद बस आजादी को प्राप्त करने की ठान बैठे थे ।

3. स्वतन्त्रता संग्राम में उनका योगदान:

असहयोग आन्दोलन से भी कई वर्ष पहले बनारस में क्रान्तिकारी दल की गतिविधियां चलती रहती थीं । उसके प्रमुख नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल थे, जिनको सन् 1916 में काले पानी का दण्ड दिया गया था । आजाद की भेंट काशी विद्यापीठ में मन्मथ नाथ गुप्ता और प्रणवेश चटर्जी से हुई ।

इससे पहले उनका परिचय रामप्रसाद बिस्मिल से हुआ था । अब वे क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गये थे । इस दौरान बिस्मिलजी ने अपने दल के क्रान्तिकारियों के लिए धन एकत्र करने के लिए बैंक लूटने का प्रयास किया । गाजीपुर के एक धनी महन्त का शिष्य बनकर उनके धन को हड़पने का प्रयास किया ।

इसके बाद आजाद ने पर्चे बांटे । अपने इसी प्रयास में पुलिस की नजरों में चढ़ गये थे । आजाद चरित्र और संयम को बड़ा ही महत्त्व देते थे । उनकी चारित्रिक दृढता के कई उदाहरण प्रचलित हैं । आजाद जिस क्रान्तिकारी दल के नेता थे, उन्हें अपने दल के खाने-पीने की चिन्ता सदा बनी रहती थी ।

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इधर उनके माता-पिता की आर्थिक हालत भी कुछ ठीक नहीं थी । आजाद ने चंदे से प्राप्त राशि पिस्तौल आदि खरीदने में लगा दी । इसी बीच 9 अगस्त सन् 1925 को सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गयी । ”काकोरी काण्ड” से मशहूर इस घटना में आजाद के साथी पकड़े गये, उनमें तो कुछ को फांसी की सजा भी मिली । अब बिखरे हुए दल को संगठित करने की आवश्यकता थी ।

वीर सावरकर से मार्गदर्शन प्राप्त कर आजाद ने इन्हें पुन: संगठित करने की कार्य-योजना को व्यावहारिक रूप देना शुरू किया । इसी बीच उनकी मुलाकात बटुकेश्वर दत्त व सुखदेव से हुई, जिनके सहयोग से ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ का गठन किया गया ।

1928 मैं जब ‘साइमन कमीशन’ के विरोध में लाल लाजपतराय की पुलिस के लाठी प्रहार में मृत्यु हो गयी, तो भगतसिंह व आजाद ने अपने क्रान्तिकारी दल को अंग्रेजो के विरुद्ध और अधिक सक्रिय किया । ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ द्वारा 9 अप्रैल 1929 में ऐसा कानून लागू किया गया, जिसके तहत भारतीय मजदूर न तो हड़ताल कर सकते थे और न अपने विरुद्ध होने वाले अन्याय के लिए लड़ सकते थे ।

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इस बिल के विरोध के लिए बटुकेश्वर दत्त व भगतसिंह के साथ आजाद भी दिल्ली जाना चाहते थे, किन्तु अपने साथियों के मना करने पर वे वहां नहीं जा सके । असेम्बली हॉल में बम विस्फोट के कारण उन्हें बन्दी बना लिया गया था । राजगुरु, सुखदेव, यशपाल आदि को गिरफतार कर लिया गया । आजाद के साथियों की भी धर-पकड़ के लिए खोजबीन होने लगी थी ।

जब भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त और राजगुरु पर लाहौर में मुकदमा चला, तो आजाद अपने साथियों को छुड़ाने की योजना में लगे हुए थे, किन्तु उसमें वे सफल नहीं हो सके । आखिरकार 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरु को सायंकाल सात बजे फांसी दे दी गयी । बटुकेश्वर दत्त को काले पानी की सजा मिली । आजाद को अब दल के रखे गये रुपये का उपयोग क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए करना था । सो वे रुपये जहां जमा किये गये थे, वहां पहुंचे ।

वे इलाहाबाद पहुंचे ही थे कि उनके निकट सहयोगी ने उनकी खबर अंग्रेजों को दे दी । खबर के मुताबिक आजाद को एल्फ्रेड पार्क में घेर लिया गया । आजाद ने मौके की नजाकत देखकर अपने साथी को बाहर निकाल दिया । अंग्रेज तो उन्हें जिन्दा या फिर मुर्दा पकड़ना चाहते थे ।

अपने बचाव का कोई रास्ता न देखकर आजाद ने अपनी कनपटी पर बन्दूक रखकर स्वयं को मार लिया । 27 फरवरी 1931 को साढ़े दस बजे आजाद का पार्थिव शरीर उनकी देशभक्ति की दास्तान कहते-कहते सो गया । वीरभद्र तिवारी नामक भेदिये ने उनकी मुखबिरी की थी ।

4. उपसंहार:

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निःसन्देह चन्द्रशेखर आजाद निर्भीक, निडर, दृढनिश्चयी, सरल ईमानदार, सच्चे देशभक्त थे । सम्पूर्ण देश उनकी सेवाओं के लिए उन्हें हमेशा याद करता रहेगा ।

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