सुभाष चंद्र बोस की जीवनी | Biography of Subhas Chandra Bose in Hindi

1. प्रस्तावना:

”हमारे मानव जीवन का एक विशेष लक्ष्य या उद्देश्य होता है, इसी के लिए हम सब इस संसार में आये हुए हैं । लोगों की धारणा इस विषय में कुछ भी रहे, पर मैंने निश्चय कर ही लिया है कि मैं जीवन की प्रचलित विचारधारा में बिलकुल नहीं बहूंगा ।

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मैं अपनी सूक्ष्म अन्तर्रात्मा में यह अनुभव करता हूं कि इस संसार में मुझे दुःख मिले या निराशा, मैं मनुष्यत्व को सार्थक बनाने हेतु सदैव संघर्षशील रहूंगा । मेरे जीवन की समूची शिक्षा और अनुभव ने यह सत्य सिद्धान्त दिया है कि पराधीन जाति का तब तक सब कुछ व्यर्थ है, जब तक उसका उपयोग स्वाधीनता की सिद्धि में न किया जाये ।” ऐसे उद्‌गार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के थे, जिन्होंने राष्ट्रसेवा का महान संकल्प लिया था ।

2. जीवन एवं शिक्षा-दीक्षा:

दबंग व्यक्तित्व के धनी, भारत भूमि के सच्चे सपूत नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा राज्य के कटक नामक स्थान में एक सम्पन्न, सुसंस्कृत परिवार में हुआ था । उनके पिता जानकीदास बोस मूलत: 24 परगना प० बंगाल के निवासी थे । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा यूरोपीय स्कूल में पूर्ण हुई । कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे आई०सी०एस० की परीक्षा में सम्मिलित होने विलायत गये ।

ICS में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान का गौरव प्राप्त करने वाले सुभाषचन्द्र बोसजी विलायत में इण्डियन मजलिस के साप्ताहिक अधिवेशन में नियमित जाया करते थे । वहां पर वे भारतीय क्रान्तिकारियों के देशभक्तिपूर्ण विचारों को सुना करते थे ।

सरोजिनी नायडू लोकमान्य तिलक के क्रान्तिकारी विचारों को सुनने का प्रभाव यह हुआ कि उन्होंने कलेक्टर, कमिश्नर बनने तथा अंग्रेज सरकार की सेवा करने की बजाय मातृभूमि का सेवक बनने का संकल्प लिया । बाल्यावस्था में सुभाषजी के आदर्श थे-स्वामी विवेकानन्द, यतीन्द्रदास, देशबन्धु चितरंजन दास ।

3. राजनीति में पदार्पण:

विलायत से लौटने के बाद सुभाषजी 17 जुलाई 1921 को बम्बई में महात्मा गांधीजी से मिले । देश की आजादी का जुनून उन पर इस कदर चढ़ा कि उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा का बहिष्कार कर डाला । इस एवज में उन्हें 10 माह के कारावास की सजा भोगनी पड़ी । अपने क्रान्तिकारी आन्दोलनों के दौरान वे 1924 में दूसरी बार 2 वर्ष के लिए मण्डला जेल भेजे गये ।

जेल से छूटते ही उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से, विशेषकर देशबन्धु, चितरंजन दास, यतीन्द्रदास से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर क्रान्तिकारियों के आन्दोलनों को सक्रिय गति दी । कैदियों को राजनैतिक बन्दियों का अधिकार देने के लिए ऐतिहासिक अनशन में यतीन्द्रदास की मृत्यु हो गयी । तब नेताजी ने क्षुब्ध होकर उनके शव के साथ लाहौर से कलकत्ता तक की यात्रा की । इस विद्रोही तेवर की वजह से उन्हें अब तक 11वीं बार जेल की हवा खानी पड़ी ।

सन् 1934 में कांग्रेस द्वारा निकासित किये जाने पर उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की । अंग्रेजों ने नेताजी को कलकत्ता के पैतृक निवास में नजरबन्द कर दिया । सन् 1940 की मध्य रात्रि में वे मौलाना का वेश बनाकर भाग निकले । वहां से वे पेशावर निकल भागे । सुनियोजित योजना के तहत अपने क्रान्तिकारी साथियों से मिले ।

4. विदेश यात्रा:

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पेशावर से अफगानिस्तान के पहाड़ी रास्तों से होते हुए, वे आधी रात को पिस्कन से मायना गांव पहुंचे । पहाड़ी कबीली रास्तों की थकान, पैरों में पड़े छाले, सुन्न कर देने वाली हवा के थपेड़ों से होते हुए काबुल जा पहुंचे । वहां से वे मास्को, फिर बर्लिन जा पहुंचे । 8 जनवरी 1943 को वे जर्मन पनडुब्बी से जापान जा पहुंचे।

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वहां से 90 कि०मी० की लम्बी यात्रा तय कर वे मनीला, ताइपेई, हामारसत्सु होते हुए टोकियो जा पहुंचे । वहां वे जापानी प्रधानमन्त्री तोजो से जा मिले । नेताजी ने जापान में आजाद हिन्द फौज का हेड क्वाटर बनाया । जापान द्वारा इंग्लैण्ड के विरुद्ध युद्ध की घोषणा ने उन्हें उत्साहित किया । अंग्रेजों द्वारा जापानी सेना के सामने आत्मसमर्पण ने उनके आजादी के प्रयत्न को और मजबूत किया ।

5. आजाद हिन्द फौज का गठन:

नवम्बर 1941 में आजाद हिन्द फौज की स्थापना के बाद से नेताजी ने आजादी के लिए अपने प्रयासों को और अधिक सक्रिय कर दिया । आजाद हिन्द फौज के सेनानियों को 8 जुलाई 1940 में सिंगापुर में सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ”हमारी यह सेना हिन्दुस्तान को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करेगी । आजाद हिन्द फौज के सिपाहियो! अब दिल्ली चलो ।” इंकलाब जिन्दाबाद! तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा! भारतमाता की जय हो! यह नारा गूंज उठा।

8 जुलाई 1940 को स्वतन्त्रता के इस अभियान के लिए 3 लाख करोड़ डालर की आवश्यकता थी । नेताजी की अपील पर एक हबीबुर्रहमान नामक मुसलमान व्यापारी ने करोड़ की सम्पत्ति दे दी । सिंगापुर में नेताजी के तुलादान में भारतवासियों ने बढ़-चढ़कर दान दिया ।

21 अक्टूबर 1943 में आजाद हिन्द फौज के पदाधिकारियों की घोषणा की गयी, जिनमें सुभाषचन्द्र बोस अध्यक्ष थे, लक्ष्मी स्वामीनाथन को कैप्टन बनाया गया । फौज के इस आजादी अभियान में नेताजी ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहते हुए उनसे इस पवित्र यज्ञ में आशीर्वाद मांगा, मगर अफसोस के साथ इस सत्य को स्वीकारना पड़ता है कि गांधी और नेहरू से नेताजी को कोई सहयोग नहीं मिल पाया ।

6. उपसंहार:

12 अगस्त 1945 को जापान के युद्ध में पराजय की घटना ने नेताजी को निराश कर दिया, किन्तु हमारा भारतवर्ष 50 हजार सेनानियों के इस महान् सिपाही सेनानायक को हमेशा याद करता रहेगा । 21 अगस्त 1945 में दिल्ली रेडियो ने नेताजी की मृत्यु की खबर सुनायी कि उनका विमान फारमोसा द्वीप के ताईहोक नामक स्थान पर दुर्घटनाग्रस्स हो गया । हिटलर और मुसोलिनी से भी देश की स्वतन्त्रता के लिए मिलने वाले इस महान् सिपाही को याद करते हुए देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा ।

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