सांप्रदायिकता का विष पर निबंध | Essay on Communalism in Hindi!

हमारा देश भारत सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है । यहाँ पर जितने धमों को मानने वाले लोग रहते हैं उतने संभवत: विश्व के किसी और देश में नहीं हैं । किसी विशेष धर्म पर आस्था रखने वाले लोगों का वर्ग ‘संप्रदाय’ कहलाता है ।

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किसी विशेष संप्रदाय का कोई व्यक्ति यदि अपना कोई एक अन्य मत चलाता है तो उस मत को मानने वाले लोगों का वर्ग भी संप्रदाय कहलाता है । वास्तव में सभी संप्रदायों अथवा मतों का मूल एक ही है । सभी का संबंध मानवता से है । हर धर्म मानव को मानव से जोड़ना सिखाता है ।

परंतु जो धर्म इस भावना के विपरीत कार्य करता है उसे ‘धर्म’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती । आज कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों को सिद्‌ध करने के लिए धर्म को संप्रदाय का रूप दे रहे हैं । प्रत्येक संप्रदाय आज अपने को श्रेष्ठ कहलाने के लिए आतुर है । इसके लिए वे किसी भी सीमा तक जाकर दूसरों को हीन साबित करना चाह रहे हैं ।

साप्रदायिकता का जहर इस सीमा तक फैलता जा रहा है कि कहीं-कहीं इसने वाद-विवाद की सीमा से हटकर संघर्ष का रूप ले लिया है । आज बहुत से लोग बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के लिए दूसरों को बाध्य कर रहे हैं । इसी बल प्रयोग के परिणामस्वरूप ही सिख तथा मराठों का उदय हुआ ।

सांप्रदायिकता की आड़ में लोग मानवता, धर्म को भुला रहे हैं । वे नन्हे-नन्हे मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ रहे हैं । कितनी ही माताओं की गोद से उनके बच्चे छिन गए । कितनी ही औरतें युवावस्था में ही वैधव्य का कष्ट झेल रही हैं । हर ओर खून-खराबा हो रहा है । राजनीति में लोगों के राजनीतिक स्वार्थ ने भी प्राय: सांप्रदायिकता को हथियार की तरह प्रयोग किया है ।

एक संप्रदाय से दूसरे को धर्म अथवा जाति के नाम पर अलग करके वे हमेशा से ही अपना स्वार्थ सिद्‌ध करते रहे हैं । सौप्रदायिकता की आग पर राजनीतिज्ञों ने प्राय: अपनी रोटियाँ सेंकी हैं परंतु इस सबके लिए दोषी ये राजनीतिज्ञ कम हैं क्योंकि विभिन्न संप्रदायों को हानि पहुँचाने की मूर्खता हम लोग ही करते हैं ।

हालाँकि सभी राजनीतिज्ञों को दोष देने की परंपरा अनुचित है परंतु यह सत्य है कि कुछ स्थानीय सांप्रदायिक नेतागण अपने संप्रदाय की सहानुभूति के लोभ में ओछी हरकतों को अंजाम देते रहे हैं । हमें ऐसे तत्वों से हमेशा सावधान रहना चाहिए ।

सांप्रदायिकता का जो सबसे खतरनाक रूप है, वह हमारे मर्म को ही बेध जाता है । वे अपना संबल तथाकथित धर्म के स्वरूपों में ढूँढ़ते हैं । भारतीय संसद पर हमला, गुजरात के भीषणतम दंगे, कश्मीर में जेहाद, अमेरिका पर अमानवीय हमला, रूस में स्कूली बच्चों सहित सात सौ लोगों के अपहरण कांड में लगभग चार सौ मासूमों की बलि, ये सारी बातें जब मानवता कई ही विरुद्‌ध हैं तो सांप्रदायिक दृष्टि से इन्हें कैसे जायज ठहराया जा सकता है।

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आज भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व सांप्रदायिकता का विषपान करने के लिए अभिशप्त है । हमारा देश हालाँकि अपने उदार धार्मिक नजरिए के लिए हमेशा से जाना जाता रहा है परंतु कुछ लोग कट्‌टरवाद का सहारा लेकर अपने ही अतीत को कलंकित करने का कार्य कर रहे हैं ।

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प्राचीन भारत में भी शैव, वैष्णव, बौद्‌ध जैन आदि विभिन्न संप्रदायों का अस्तित्व था परंतु उस समय के लोग अपने संप्रदाय से जुड़े होने पर गर्व का अनुभव करते थे । एक संप्रदाय के लोग दूसरे से वाद-विवाद करते थे, सिद्‌धांतों की व्याख्या होती थी, तर्क-वितर्क होते थे पर यह आपसी संघर्ष का रूप कभी नहीं लेते थे ।

उस समय प्रत्येक संप्रदाय स्वयं को अधिक शुद्‌ध, अधिक नैतिक तथा अधिक धार्मिक होने की प्रतियोगिता करता था जिससे मानव के विकास के द्‌वार खुलते थे । आज स्थिति पूरी तरह पलट गई है । तभी तो गाँधी जी जैसे महामानव को इसी संप्रदायवाद ने अपना शिकार बना लिया ।

विश्व में आज जितनी हिंसा हो रही है, उसके मूल में प्राय: सांप्रदायिकता है । इस विष वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सजगता दिखानी होगी क्योंकि व्यक्ति समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई होती है ।

सांप्रदायिकता वास्तविक रूप में मानव जाति के लिए किसी कलंक से कम नहीं है । यह विकास की गति को कम करके देश को प्रगति के पथ पर बहुत पीछे धकेल देती है । हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने निजी स्वार्थों से बचें ।

दूसरों के बहकावे में न आएँ । हर धर्म को समभाव से देखें और उनका समान रूप से आदर करें तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हम समाज से सांप्रदायिकता का समूल विनाश कर सकेंगे ।