द्विखण्डी व्यक्तित्व में बंटी स्त्री पर निबंध | Essay on Dual Personality of Women in Hindi!

वस्तुत: स्त्री प्रकृति की अनुपम कृति है, सुन्दर भी और जटिल भी । नारी – जाति के प्रति मन में बड़ा सम्मान है, लेकिन कुछ बातें हैं जिनकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए । स्त्री-जीवन जीना अपने आप में एक चुनौती है ।

प्रकृति ने स्त्री के साथ जो किया है और समाज उसके साथ जैसा व्यवहार करता आ रहा है, उसके मद्देनजर औरत की जिन्दगी त्रासदी, संघर्ष और पीड़ा से भरी है । कुछ विशेष हार्मोन्स की वजह से स्त्री की शारीरिक और मानसिक बनावट पुरूष से निश्चित ही भिन्न है । औरत पर प्रकृति और पुरूष की दोहरी मार है, जो पुरूष को नहीं सहना पड़ता है ।

स्त्री को विशेष अंगों का अतिरिक्त भार उठाना पड़ता है और यथासंभव उन्हें दूसरे की नजरों से बचाना होता है । मासिक-धर्म के समय हर माह होने वाले कष्ट और असुविधा को पुरूष क्या जाने । स्त्री को नौ माह तक शिशु को अपनी कोख में रखना होता है ।

उस अवधि की मानसिक और दैहिक स्थिति को केवल एक औरत ही जानती है । भयानक प्रसव पीड़ा से भी उसे ही गुजरना होता है । फिर शिशु की देखभाल, स्तनपान, हर-बीमारी में रात-रात जागना सब औरत के खाते में है ।

निम्न-मध्यम वर्ग परिवार में घर का अधिकांश कामकाज भी उसी के जिम्मे है । उसे पति को खुश भी रखना होता है चाहे वह किसी स्थिति में क्यों न हो । स्त्री को ही दो दशक तक अपने माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, के साथ बिताने के बाद घर-परिवार और बचपन की यादों को दरकिनार कर एक नए घर में, नितांत नए लोगों के बीच जाना पड़ता है । लम्बी यादों की परम्परा और जुड़ाव से विमुक्त होने की पीड़ा को एक युवती ही जानती है । पुरूष व्यक्तित्व को इस विभाजन से कभी नहीं गुजरना पड़ता । शरीर और श्रम दोनों से स्त्री का शोषण होता हैं ।

कहा जा सकता है कि माँ बनना कुदरत की बड़ी नियामत है, लेकिन माँ बनने के क्रम मे औरत को जो झेलना-भोगना पड़ता है, क्या उसका सही-सही अनुमान पुरूष को है? जिस द्विखंडित व्यक्तित्व को औरत जीती है, क्या उसका अहसास पुरूष को है? मुस्कान के पीछे तूफान का भान उसे है? समाज भी स्त्री को चैन से नहीं जीने देता । राह चलती सुन्दर स्त्री को कैसी-कैसी अश्लील फब्तियों और कामुक निगाहों का सामना करना पडता है । लोग उसे गिद्ध-दृष्टि से देखते हैं ।

औरत के अकेले होने की बात भी नहीं रही । सरेआम बलात्कार हो रहे हैं । लोगों ने सारी शर्म-हया गिरवी रख दी है । अमानवीय कृत्य कर तनिक लज्जा नहीं आती । युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही युवती में होने वाले दैहिक परिवर्तनों और मन में उठते तूफानों और पल्लवित होते सपनों को केवल वही जानती है । उस समय की उसकी मनोदशा को विश्लेषित कर पाना आसान नहीं है । आभा बिखेरते अपने रूप-सौंदर्य और दिन पर दिन निखरती देह-यष्टि को संभालना उसके लिए मुश्किल है ।

स्त्री-पुरूष भिन्नता की बात चली है तो यूरोपियन सोसायटी ऑफ कॉर्डियोलॉजिस्ट की वियना में हुई पिछली बैठक के कुछ निष्कर्षो का उल्लेख करना होगा । विशेषज्ञों का मत था कि स्त्री-पुरूष दोनों के दिलों का इलाज भिन्न-भिन्न तरीकों से किया जाना चाहिए, क्योंकि जो ऑपरेशन पुरूष का जीवन बचाने के लिए किए जाते हैं, वे स्त्रियों के लिए जानलेवा हो सकते हैं । यह भी देखा गया कि कोरोनरी बायपास की शल्य चिकित्सा के बाद महिला मरीजों के मरने की संख्या पुरूष मरीजों के मरने की संख्या की तुलना में कुछ अधिक ही रही ।

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इसी प्रकार कुछ विशिष्ट हार्मोन्स की वजह से लड़कियाँ अधिक सहिष्णु होती है, तकलीफों को धैर्य के साथ सह लेती हैं । यही कारण है कि समय से पूर्व जन्मी लड़कियाँ (प्रिमेचुअर चाइल्ड) उपचार के बाद सामान्यत: जीवित रह जाती है जबकि अधिकांश ही नवजात लडके देर-सबेर दम तोड़ देते है ।

बहरहाल, बात पुरूष दिल और स्त्री दिल की भिन्नता की चल रही थी । औरत के दिल को नाजुक और संवेदनशील कहा गया है । फिर वह ऊँच-नीच, जात-पात, रंग- रूप का अन्तर और विवाहित-अविवाहित का भेद नहीं देखता ।

वह कब किसे अपने माथे का सिन्दूर बना ले और कब पति को त्याग कर प्रेमी को अपना ले, कहना कठिन है । जानकर शायद आश्चर्य हो कि बांग्लादेश की अठारह वर्षीय सायरा रहमान घोर अपराधी चार्ल्स ब्रोवासन से, जो सत्ताईस वर्षो से जेल में था, शादी रचाकर लौटी, जबकि वह चार्ल्स से केवल तीन बार मिली थी ।

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परित्यक्ता और वैधव्य झेलती स्त्री की व्यथा-कथा और भी त्रासद है । हमारे यहाँ तलाकशुदा, परित्यक्ता और विधवा स्त्री के प्रति समाज स्वस्थ अवधारणा नहीं रखता । वह उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखता । पति ने पत्नी को छोड़ दिया है तो मान लिया जाता है कि खोट पत्नी में ही होगी, जबकि हो यह भी सकता है कि पति की ज्यादतियों की वजह से पत्नी अलग रहने लगी हो । काफी समय तक परित्यक्ता को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार नहीं था । लम्बे संघर्ष के बाद, परित्यक्ता के पक्ष में फैसला हुआ है ।

तलाकशुदा औरत को भी एक तरह की जूठन समझा जाता है, जबकि पुरूष दो-दो, तीन-तीन शादी कर ले, तब भी उसे लेकर ऐसी सोच प्राय: नहीं होती । सच्चाई यह है कि परिवार से अलग हुई या परिवार से अलग कर दी गई औरत का वर्तमान और भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं । वह समाजविहीनता के बोध से ग्रस्त रहती है । दुर्भाग्यवश यदि युवा स्त्री विधवा हो जाती है, तो उसका दोष भी उसी के माथे मढ़ दिया जाता है ।

सास कहती पाई जाती है-अभागन तेरी ही भाग्य फूटे थे, जो मेरे बेटे की मौत हो गई, नहीं तो ऐसी कौन-सी खोट थी, कि उसकी असमय मृत्यु होती । दुःख में डूबी बहू यह भी नहीं कह पाती कि तुम्हारा भी तो बेटा था । क्या यह तुम्हारा दुर्भाग्य नहीं हो सकता ।

यदि तुम धर्मात्मा हो तो तुम्हारे पुण्य मौत के आड़े क्यों नही आए? यह भी देखा गया है कि कई बार सम्पन्न परिवारों में युवा विधवा बहू को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित करने की कोशिश की जाती है । अभी-अभी परिवार में शामिल हुई लड़की कहीं अपार सम्पत्ति की मालकिन न बन बैठे । इसके लिए अनेक प्रकार के षडयंत्र रचे जाते हैं ।

अतीत में जाएँ तो मनु महाराज ने तो यहाँ तक कह दिया था कि स्त्री को स्वाधीन नहीं रखना चाहिए । ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवन पुत्रस्तु सहिविरें भावे, न स्त्री स्वातंन्य मर्हति’ । अर्थात् स्त्री के बाल्यकाल में पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति के संरक्षण में तथा पति की मृत्यु के पश्चात बेटे के संरक्षण में रहना चाहिए । लगता है जैसे स्त्री का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं है ।

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परम्परागत भारतीय परिवारों में बेटियों को शुरू से दबाकर रखा जाता है-ज्यादा हँसो मत, जोर से बोलो मत, सुपारी खाना अच्छी बात नहीं, पराए घर जाना है । लड़कियों को अधिक मिर्च मसाला खाने से रोका जाता है, क्योंकि इससे मासिक जल्द शुरू होने की संभावना बनी रहती है ।

चीन में औरतों के पांवों को लकड़ी की चौखट से बांध देने का रिवाज था, ताकि वे ठिगनी रहें । सिमोन द बाउवार ने ठीक ही कहा कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है । कई परिवारों में तो स्त्री की कमाई भी उसकी अपनी नहीं होती । उसे अपना वेतन लाकर सास या पति के हाथों में रखना होता है ।

पुरूष मानसिकता की बात करें तो उसे सदैव कोरी-कुआरी कन्या चाहिए । पत्नी ऐसी जो सुन्दर, सुशील और गृह कार्य में दक्ष हो अर्थात् उसके नौकरानी या सेविका होने का संकेत पहले ही दे दिया जाता है । विवाह के बाद लड़की को घर का सारा कामकाज करना है, यह मान लिया जाता है बेटी भले ही कामकाज में दक्ष न हो, बहू अवश्य होनी चाहिए । पत्नी चरित्रवान हो, भले ही पति का विवाहोत्तर संबंध हो ।

यह कैसी मानसिकता है कि अभिनेत्री के विवाहित होते ही या माँ बनते ही उसकी मार्केट वेल्यू कम हो जाती हैं और उसे फिल्में मिलना बंद हो जाती है, जबकि बड़ी-बड़ी संतानों वाले विवाहित अभिनेता लम्बे समय तक अपने से आधी उम्र की अभिनेत्रियों के साथ पेड़ों के चक्कर लगाते गाते-नाचते रहते हैं । एक का स्वीकार और दूसरे का अस्वीकार क्यों? विवाहित होते ही स्त्री के प्रति नजरिया बदल क्यों जाता है ।

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इस पूरे ब्यौरे का यह अर्थ नहीं कि स्त्री एकदम दयनीय, असहाय और पराधीन है । आज औरत की दुनिया बदल रही है । नारी चेतना का विकास हुआ है । कई क्षेत्रों में वह पुरूष के कंधे से कंधे मिलाकर काम कर रही है । अंतरिक्ष में उड़ान भर रही है । शिक्षा, साहित्य और कला के क्षेत्र में नइ ऊचाइयों छू रही है ।

पर औरत की दुनिया क्या सचमुच बदली है? क्या उसे वह सब मिल पा रहा है, जिसकी वह हकदार है? आज भी वह वांछित, आदर या सम्मान और बराबरी के दर्जे से वंचित है । उसका एक पैर आज भी रसोई में और दूसरा देहरी के बाहर है । अशिक्षा की वजह से कई अंधविश्वास आज भी जड़ जमाए बैठे हैं ।

स्त्री का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता । कैसी विडम्बना है कि महिला आरक्षण बिल वर्षो से अटका पडा है । सरकारें बदल गईं पर स्थिति वहीं की वहीं है । क्या पुरूष सांसदों और राजनेताओं को भय है कि यदि स्त्रियाँ पार्टी लाईन में आ गईं तो केवल महिलाएँ ही राज करेंगी, तथा पुरूषों को सत्ता से अलग कर देंगी ।

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जाहिर है हमारे कर्णधारों का नारी-उत्थान, नारी स्वातंत्र्य और नारी-अधिकार का नारा झूठा है, छल है दिखावा है । कुछ दिनों पूर्व ही सभी राजनीतिक दलों की महिला सांसदों ने एकजुट होकर महिला आरक्षण बिल पास करने की माँग लेकर संसद के समक्ष प्रदर्शन किया था, लेकिन पता नहीं लाल पत्थरों की दीवारों के पीछे बैठे सांसदों के कानों पर जू रेगी भी या नहीं?

जरूरत इस बात की है कि स्त्री शिक्षित, विवेकी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बने । विरोध प्रतियोगी भाव से नहीं, मैत्री भाव से हो अन्यथा आवेशपूर्ण विरोध संघर्ष को गलत मोड़ दे सकता है । सवाल यह नहीं है कि स्त्री-पुरूष के लिए जिये, बल्कि पुरूष के साथ जिये । बराबरी से जिये । सम्मान के साथ जियें ।

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