क्या बड़े उद्योगों का विलयन होना चाहिए? (निबन्ध) | Essay on Are Big Business Mergers Desirable? in Hindi!

सभी आधुनिक मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में पूर्ण एकाधिपत्य या त्रुटिपूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृति हानिकारक होती है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि बड़े लोगों के सम्मुख प्रतियोगिता का क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है ।

वे सदैव छोटे उद्योगों के प्रभाव को कम करने में लगे रहते हैं । बड़े उद्योगों में उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है । इससे उनकी लागत दर छोटे उद्योगों की अपेक्षा कम होती है । उपभोक्ता को कम दाम में वही वस्तु उपलब्ध कराकर, बड़े उद्योग एक प्रकार से मुनाफा ही कमाते हैं, क्योंकि उपभोक्ता कम दाम वाली वस्तुओं को ही अधिक मात्रा में खरीदता है । यदि बड़े उद्योग विलयन द्वारा किसी वस्तु के उत्पादन पर एकाधिकार स्थापित कर लें तो इस बड़े स्तर के उत्पादन का लाभ केवल उन्हीं तक सीमित हो जाएगा ।

उपभोक्ता को इससे कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वस्तु के उत्पादन पर सम्पूर्ण एकाधिकार होने से वे मनमानी कीमतों पर उसे बेचेंगे लेकिन बाजार में उपभोक्ता की माँग अस्थिर होती है, वस्तु के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि से माँग की दर गिर जाती है, जबकि उनके पास उस वस्तु का पर्याप्त भंडार होता है । अत: बड़े उद्योगों के विलयन की संभावना के कारण डरने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि उद्योगपति सदैव अपने निजी स्वार्थो के लिए वस्तुओं की कीमतों को बढ़ा नहीं सकते हैं ।

तथापि कुछ सीमा तक इस प्रकार का शोषण होता ही है, क्योंकि कुछ आवश्यक वस्तुओं या उपभोक्ता जिनके आदी हो चुके हैं, उन वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि से बड़े उद्योगों को लाभ पहुँचता है । इन परिस्थितियों में बड़े उद्योगों का एकीकरण वांछित नहीं है । आधुनिक सरकारें इसमें व्यवस्था और नियंत्रण स्थापित करने की दिशा में कई प्रयास कर रही हैं ।

एकाधिकार के आविर्भाव पर विचार करते समय हमें यह देखना चाहिए कि किस प्रकार एक फर्म एकाधिकारी शक्ति के रूप में उभरती हैं और इसकी अवधि कितनी हो सकती है । इस प्रक्रिया के कई कारण हो सकते हैं । एक एकाधिकारी फर्म तभी तक लाभ कमा सकती है, जब तक कि कोई अन्य प्रतियोगी इस क्षेत्र में नही आता है ।

उदाहरण के लिए यह तब सम्भव हो सकता है जब किसी एक फर्म का किसी विशेष उद्योग के लिए कच्चे माल की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण हो । प्रकृति द्वारा प्रदत्त परिस्थितियाँ के कारण भी एकाधिपत्य उत्पन्न होता है, जैसे किसी विशेष क्षेत्र में किसी वस्तु का प्रचलन । ऐसी स्थिति में प्रतियोगिता की संभावना कम ही रहती हैं ।

जब कई औद्योगिक फर्मे मूल्य, उत्पादन और क्षेत्रों के वर्गीकरण के संबंध में आम निर्णय द्वारा प्रतियोगिता का बहिष्कार कर देती हैं, तो इससे उपभोक्ताओं को हानि उठानी पड़ती है । किसी आवश्यक वस्तु के उत्पादन के संबंध में उद्योगों का यह रवैया निजी स्वार्थ से प्ररित होता है । क्योंकि प्रतियोगी के न होने से उद्योगपति उच्च मूल्य पर अपनी वस्तु बेच सकता है ।

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इस प्रकार के पूर्ण और अर्द्ध एकाधिकार का सदैव विरोध होता आया है । इसका मुख्य कारण एकाधिकार की शक्ति का दुरुपयोग रहा है । एकाधिकार के विरोध में जो मुख्य आपत्ति प्रस्तुत की जाती है, वह यह है कि इसका मूल्य वृद्धि का पूरा दायित्व उपभोक्ता के सिर पर पड़ता है । इसके कारण मूल्यों में असीमित वृद्धि का पूरा दायित्व उपभोक्ता के सिर पर पड़ता है । इसके कारण मूल्यों में असीमित वृद्धि और सीमित उत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाती है ।

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कभी-कभी उच्च लाभ के अवसरों को देखकर नई फर्मो का प्रवेश होता है । एकाधिपत्य की दूसरी बुराई आर्थिक स्रोतों का अनुचित प्रयोग है । अपने लाभ के लिए उत्पादन में प्रतिबंध लगाकर एकीकृत शक्तियाँ उच्च लाभ प्राप्त करती है ।

निवेशकर्ताओं की पूँजी का लाभ उठाकर ही इन एकाधिकारी शक्तियों का विकास होता हैं । अधिक मुनाफे के आँकड़ों को प्रस्तुत कर एकाधिकारी शक्तियाँ स्वतंत्र व्यापारियों और पूंजीपतियों को अपने में विलयन के लिए आकर्षित करती है ।

एकाधिकार के विरुद्ध जो अन्य आक्षेप लगाया जाता है वह यह है कि वे उत्पादन के नए तरीकों की खोज तथा विकास की दिशा में कोई कार्य नहीं करती है । उनका उद्देश्य केवल अपना लाभ होता है, जिसके लिए किसी प्रकार के अनुसंधान आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।

बाजार में अव्यवस्था फैलाने वाली नई खोंजों को कभी-कभी ये शक्तियाँ दबा देती हैं, क्योंकि इससे उनके लाभ को धक्का पहुँचता है । इस प्रकार देश के आर्थिक और औद्योगिक विकास में एकाधिकार बाधा उत्पन्न करता हैं ।

एकाधिकार के कारण धंधे के तेज होने के दौरान भी वस्तुओं के मूल्य में कमी आती हैं, उनका उदेश्य स्थिर मूल्य स्थिति उत्पन्न करना होता है । यहाँ तक कि सामान्य मंदी की स्थितियों में भी मूल्यों में स्थिरता रहती है । कम मूल्य में अधिक बेचना इनकी नीति नहीं है ।

इससे बेरोजगारी तथा उत्पादन से संबंधित अन्य कारकों जैसे उपभोक्ता वर्ग में कमी और फलत: सामान्य अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । एकाधिकारी शक्तियाँ अन्य उद्योगपतियों ज्यादातर छोटे उद्योगपतियों को अनुचित उपायों द्वारा नष्ट कर देती हैं ।

मूल्यों के विभेदीकरण में भी इनका हाथ होता हैं । ये एकाधिकारी राजनैतिक शक्तियों के साथ मिलकर भ्रष्टाचार फैलाते हैं । बड़े-बड़े वकीलों को मोटी रकमें देकर ये उद्योगपति क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने के लिए एक ही वस्तु के लिए अपने पक्ष में फैसला करवा देते हैं, इस कारण कानून भी इनके आगे हार जाता है ।

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यहाँ तक कि ये राजनैतिक दलों में नियंत्रण स्थापित कर सरकारी नीतियों को प्रभावित करते हैं क्योंकि उद्योगपति चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों को आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं । चुनाव जीतने के बाद जो दल सरकार बनाता है, वह इनके हितों का ध्यान रखता है । इन्हीं कारणों से एकीकरण को आर्थिक उन्नति का बड़ा बाधक माना जाता है । इसके नियंत्रण और समाप्ति के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं ।

कुछ स्थितियों में एकाधिकार में कुछ गुण भी हैं । एकीकृत उद्योग आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हैं, गिरते हुए मूल्य भी इसे प्रभावित नहीं कर सकते हैं, जबकि अन्य छोटे उद्योग अपने सीमित आकार और पूँजी के कारण घाटे को सहन नहीं कर सकते हैं ।

दूसरे, एकीकृत उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या अधिक होती हैं । नए आविष्कारों और तकनीक में सुधार के अवसर यहाँ पर अधिक होते हैं । बड़े पैमाने में उत्पादन के कारण लागत दर कम होती है । लागत का प्रभाव निश्चित रूप से वस्तु के मूल्य पर पड़ता है ।

तीसरा, उद्योगों का एकीकरण विदेशी प्रतियोगिता का प्रभावी ढंग से सामना करने और नए बाजारों को खोजने की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होता है । भारतीय संविधान में यह वर्णित है कि सरकार का कार्य यह देखना है कि आर्थिक प्रक्रिया के कारण सम्पत्ति के केन्द्रीकरण अथवा उत्पादन के साधनों से सामान्य हानि न हो ।

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इसी कारण भारत की सरकार ने एक ऐसे संगठन की स्थापना की है, जिसका उद्देश्य भारत में एकीकृत उद्योगों के पनपने पर प्रतिबंध लगाना और सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना करना है, जिससे लोगों में धन का समान वितरण बना रहे । भारत में गरीबी को रोकने के लिए यह अत्यावश्यक है ।

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