Life Stories of Hindu Devotees in Hindi!
Life Story # 1. बालक गदाधर से रामकृष्ण परमहंस |
पश्चिम बंगाल में हुगली तालुके में कामार नाम के गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था । इसी ब्राह्मण परिवार में 18 फरवरी, 1836 को एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया ।
तब कौन कह सकता था कि उस साधारण ब्राह्यण परिवार में जन्मा वह बालक एक दिन संसार भर में अध्यात्म गुरु के रूप में जाना जाएगा । बालक का नाम गदाधर रखा गया । पांच वर्ष की अल्पायु में ही बालक गदाधर की प्रखर बुद्धि और स्मृति ने सबको अचम्भित कर दिया ।
गदाधर अपने पूर्वजों की नामावली को धाराप्रवाह बखान करते तो सब लोग दांतों तले उंगली दबा लेते । रामायण गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ भी गदाधर को कंठस्थ थे । उनकी विद्वत्ता देखकर उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) शहर में यज्ञ हवनादि कार्य करने के लिए कहा गया ।
उस समय कलकत्ता में रानी रासमणि नाम की एक उदार भगवद्भक्त धनी स्त्री रहती थी । कई मंदिर और धर्मस्थानों का निर्माण कर चुकी रानी रासमणि ने दक्षिणेश्वर में काली मां का एक भव्य और विशाल मंदिर बनवाया । यही मंदिर गदाधर जी की साधना-स्थली बना ।
इसी मंदिर में आध्यात्मिक साधना का अवसर मिला तो युवा गदाधर ने अनन्य भाव से माता जगदम्बा की आराधना की । वह स्वयं माता को अपने हाथों से भले लगाते । उनके हृदय में कोई इच्छा तो थी ही नहीं । अन्य पुजारियों की भांति वह मां के सुमिरन में धन, ऐश्वर्य या भौतिक साधनों की इच्छा नहीं करते थे ।
उनकी तो सिर्फ एक ही इच्छा थी कि माता भगवती उन्हें साक्षात रूप में दर्शन दें । वह बहुत देर तक माता के सामने बैठकर मां से विनती करते कि : “हे आनंदमयी जगद्जननी जगरूपा मुझ अज्ञानी को दर्शन देकर कृतार्थ करो । दर्शन बिना जीवन अधूरा है । मेरी यही एकमात्र अभिलाषा है मां ।”
इनके अंतर में दर्शन की अभिलाषा इतनी बढ़ गई कि यह व्याकुल हो उठे । इनका मन कहीं भी नहीं लगता था । एक दिन दर्शन विरह इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अपना जीवन समाप्त करने का निश्चय किया । जब माता के दर्शन ही न हों तो ऐसे जीवन का क्या लाभ ! यही सोचकर इन्होंने अपना श्वास रोक लिया ।
तभी मंदिर का कण-कण दिव्य प्रकाश से नहा उठा । माता जगदम्बा अपने मनभावन तेजमय स्वरूप में साक्षात इनके सम्मुख थीं । गदाधर माता के चरणों में नतमस्तक हो गए । उसके बाद माता ने इन्हें कई बार दर्शन दिया । माता की कृपा से इन्हें तत्त्वज्ञान हो गया ।
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तत्पश्चात इन्होंने संन्यासी तोतापुरीजी से संन्यास की दीक्षा ली और उन्होंने ही इन्हें ‘रामकृष्ण परमहंस’ का नाम दिया । माता की कृपा से परमहंस का मन अन्य सभी कार्यों से विरक्त हो गया । अब भगवान के भिन्न स्वरूपों के दर्शन पाने की इच्छा से इन्होंने भगवान राम की उपासना की ।
इन्हें श्रीराम और माता सीता के साक्षात दर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ । सन् 1862 ई. में श्री परमहंस ने एक महायोगिनी तपस्विनी के मार्गदर्शन में तंत्र-मंत्र की कठिन साधना की । परमहंस प्रेम-पंथ की चरमसीमा पर पहुंच गए थे । अब वे ब्रह्म के अद्वैत साक्षात्कार के अधिकारी बन गए थे ।
जब इनकी भक्ति शिखर पर पहुच गई तौ मा जगदम्बा ने ब्रह्मज्ञान के महारहस्य की दीक्षा देने हेतु वेदांत के प्रकाड विद्वान को भेजा । उनकी कृपा से यह भगवान के सर्वरूपों में समाहित हो गए और छह माह की कठिन साधना-समाधि में लीन हो गए ।
इस समाधि के बाद परमहंस को माता जगदम्बिका का साध्य प्राप्त हो गया । अब माता स्वयं साकार होकर उनके हाथों से भोग ग्रहण करतीं और वे एक बालक की भांति मां को भोग लगाकर प्रसन्न होते । इनके पास कितने ही साधकों ने साधना-सिद्धि की ।
इनके शिष्यों में नरेन्द्रनाथ सर्वगुणसम्पन्न और सच्चे साधक थे । उनकी दृढ़ता और जिज्ञासा अपार थी । परमहंस ने नरेन्द्रनाथ को ही अपने उद्देश्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया । यही नरेन्द्रनाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विश्वविख्यात हुए ।
रामकृष्ण परमहंस ने मां दुर्गा में ही भगवान के दर्शन कर लिए थे । उनका मूर्ति में ही सजीव भाव था । बताते हैं कि एक बार मां की मूर्ति खंडित हो गई थी तो वे बहुत रोए थे और उन्होंने मूर्ति की खंडित टांगों को स्वयं चिपकाया था आज भी वह मूर्ति दक्षिणेश्वर में विराजमान है ।
अत में इन्हें गले का कैंसर हो गया और एक वर्ष पश्चात 15 अगस्त, 1886 को इन्होंने महासमाधि ले ली और ब्रह्मलीन हो गए । परमहंसजी अध्यात्म के तत्त्वद्रष्टा युगद्रष्टा थे । वह भारत की प्राचीन संस्कृति पर अटूट श्रद्धा रखते थे । हिन्दू धर्म और आर्य संस्कृति के महान आदर्शों को प्रकट करते हुए उस छोटे से बालक गदाधर ने रामकृष्ण परमहंस के रूप में अपना जीवन सार्थक कर दिखाया ।
Life Story # 2. समर्थग्रस रामदास और शिवाजी |
क्षत्रपति शिवाजी इतिहास पुरुष हैं । भारत के इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है । वो महावीर होने के साथ-साथ महान गुरु भक्त भी थे ।
यह सच हें कि यदि किसी के व्यक्तित्व में शुद्ध सोने-सा निखार आता है तो उसके पीछे किसी पारसमणि का हाथ अवश्य है शिवाजी के जीवन में वो पारसमणि थे समर्थ गुरु रामदास । विरक्तों-सा जीवन-जीने वाले बाबा रामदास देखने में जितने साधारण थे उनकी अंतरआत्मा में परमज्ञान की उतनी विलक्षण ज्योति प्रज्वलित थी ।
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उन्होंने ‘दासबोध’ जैसे महान ग्रंथ की रचना करके अपने विलक्षण ज्ञान का परिचय दिया । जब गुरु रामदास की शिवाजी से भेंट हुई तो उन्हें उस मानवप्रतिमा में सोई पड़ी प्रबल ऊर्जा का आभास हुआ उन्होने शिवा को आपने शिष्य स्वीकार किया । इस प्रकार एक समर्थ गुरु की देखरेख में उनकी शिक्षा आरंभ हुई ।
बालक शिवा पूर्ण लगन के साथ द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का अमृत पान करने लगा । दासबोध ग्रंथ में वर्णित दिव्य दिव्य ज्ञान का प्रसाद भी शिवाजी को मिला । गुरु ने अपनी दूरदृष्टि से जान लिया था कि शिवा को शास्त्र ज्ञान के अलवा शस्त्र ज्ञान की भी आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए शिवाजी को शस्त्र संचालन का ज्ञान भी दिया जाने लगा ।
अपनी एकाग्रता और गुरु पर पूर्ण श्रद्धा रखने के कारण शिवाजी ने शीघ्र ही शास्त्रों और शस्त्रो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया लेकिन फिर भी शिवा की जिज्ञासा शांत न होती थी और शिवाजी की उसी जिज्ञासा के कारण गुरु भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान अपने शिष्य में अड़ेल देना चाहते थे ।
गुरु रामदास को अपने योग्य शिष्य शिवा जी की निष्ठा पर कोई संदेह तो नहीं था फिर भी वो शिवा की एक परीक्षा लेना चाहते थे । एक सुबह उन्होने अपने सभी शिष्यों को पुकारा और कहा कि अब कुछ दिन वो उन्हें शिक्षा न दे सकेंगे क्योंकि उनके पांव में एक भयंकर फोड़ा उग आया है ।
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जो पकने के कारण भीषण पीड़ा दे रहा है । गुरु रामदास के पांव में पट्टी बंधी थी । पांव फूला-फूला और भयंकर-सा दिखाई दे रहा था । कुछ शिष्य तो इतने डर गए कि रोने लगे कुछ ने मुंह फेर लिया और कुछ ने साहस करके गुरु से पूछा : ”आप तो सामर्थवान हैं गुरुदेव इस फोड़े से छुटकारा पाने का कोड तो उपाय अवश्य जानते होंगे ।”
गुरु ने एक आह भरी और कहा : ”नहीं वत्स इसका कोई उपाय मैं जानता होता तो अवश्य ही इससे छटकारा पा चुका होता । लगता है ये मेरे द्वारा पूर्व जन्म में किए गए किसी अपराध का फल है ।” ”गुरुदेव! क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते हैं ।” शिवा ने उत्सुकता से पूछा : ”हां-हां गुरुदेव हमें भी बताइए हम आपका कष्ट दूर करने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे ।” अन्य शिष्य भी आगे बढ़कर बोले ।
गुरु रामदास बोले : ”हाँ वत्स एक उपाय तो है परंतु वह बहुत मुश्किल है । उसे मैं बताना तो नहीं चाहता था परतु तुम सब जब इतना पूछ रहे हो तो बताता हूं । यदि इस फोड़े का मवाद कोई अपने मुख से खींच कर निकाल दे तो मुझे निश्चित ही आराम मिल सकता है ।”
गुरु ने शिष्यों के आग्रह पर पीड़ा से छुटकारा पाने का उपाय बताया । अब उनकी नजर सहायता के लिए अपने शिष्यों पर थी । सभी शिष्य एक दूसरे का मुख ताक रहे थे किसी से कोई उत्तर देते न बन रहा था । गुरु ने पुन : पूछा : ”क्या तुममें से कोई मुझे पीड़ा से मुक्ति दिला सकता है या फिर मैं विश्राम के लिए चला जाऊँ ।”
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”मैं दिलाऊंगा आपको पीड़ा से मुक्ति । मैं अपने मुख से खींच कर निकालूंगा आपको पीड़ा देने वाला ये मवाद ।” शिवा ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़कर कहा । गुरु रामदास को शिवा से ऐसी ही आशा थी उन्होंने तुरंत अपना पाव आगे किया और फोड़े से थोड़ी-सी पट्टी हटाकर शिवा से कहा : ”लो वत्स अब देर न करो मुझे असहनीय पीड़ा हो रही है ।”
शिवा ने आंख मुंदकर ईश्वर से प्रार्थना की और गुरु के चरण स्पर्श करके उस घाव में अपना मुख लगा दिया । ये क्या उस फोड़े पर मुख लगाते ही शिवा हैरान रह गया वो मवाद नहीं आम का रस था । उसके गुरु ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए एक पके आम को अपने पैर पर बाध लिया था ।
शिवा ने आश्चर्य भरी दृष्टि से जब गुरु की ओर देखा तो उनकी आखों से प्रेमाश्रु छलक रहे थे उन्होंने शिवा को अपने हृदय से लगा लिया और कहा : ”वत्स तूने मेरी दी हुई शिक्षा को सार्थक कर दिया, मैं तुझे अशीर्वाद देता हूं कि इस नश्वर संसार में तेरी कीर्ति अमर हो जाएगी, तेरा नाम इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा ।”
गुरु का आशीर्वाद शिवाजी के जीवन में फलीभूत हुआ उनमें निर्भीकता अन्याय से मुकाबला करने की क्षमता और संगठनात्मक योगदान का विकास गुरु की कृपा से ही आया । शिवाजी ने अन्याय के विरुद्ध लड़ने का फैसला किया उनके नेतृत्व में जो लड़ता वो साक्षात शिव का रूप नजर आता था । उनके सधे हुए आक्रमणों से शत्रु थर्रा उठता था ।
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शिवाजी के युद्ध का उद्देश्य रक्तपात नहीं अन्याय का अत करके शांति स्थापित करना था जिसमें उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त हुई और वो शिवा से छत्रपति शिवाजी बन गए । अब शिवाजी सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य के एक मात्र अधिपति थे ।
शिवाजी की विजय यात्रा की सूचना यदा-कदा उनके गुरु के कानों तक पहुंचती रहती थी । एक बार उनके गुरु भिक्षा लेने उनके साम्राज्य में पहुंचे और भिक्षा के लिए आवाज लगाई । चिरपरिचित आवाज सुनकर शिवाजी आदोलित हो गए वो सब काम छोड्कर द्वार पर पहुंचे और गुरु के चरणों में गिर पड़े । गुरु रामदास ने उन्हें उठाया और कहा:
”शिवा! अब तू मेरा शिष्य नहीं एक सम्राट है मैं तो भिक्षा की आशा लेकर यहा आया था क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु का आग्रह सुनकर एक पल को तो शिवाजी स्तब्ध रह गए । उन्हें लगा कि उनके गुरु ने उनकी किसी अंजानी भूल के कारण उनका त्याग तो नहीं कर दिया ।
”किस सोच में पड़ गए राजन”: गुरु रामदास ने पुन: कहा: ” क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु की वाणी ने शिवाजी की तंद्रा भंग की । ”हां गुरुदेव मैं अभी आया”: शिवाजी तुरंत अपने कक्ष में गए और एक कागज का टुकड़ा लेकर लौटे और गुरु के भिक्षापात्र में डाल कर बोले: ”मैं आपको क्या दे सकता हूं ये सब कुछ तो आप ही का दिया हुआ है ।”
शिवाजी ने गुरु को प्राणाम किया, गुरु उन्हें आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए । कुटिया में आकर रामदास ने उस पर्चे को पड़ा । उसमें लिखा था : ‘सारा राज्य आपको समर्पित है’ और उसके नीचे राजमूहर भी अंकित थी । समर्थ गुरु रामदास ने अपने शिष्य की देन की सराहना की और ईश्वर का धान्यवाद किया कि उनकी शिक्षा में कोई त्रुटि नहीं रही ।
शिवाजी ने केवल अपने गुरु को एक पत्र में चन्द लाइनें ही नहीं लिखी थीं उन्होंने उसी दिन से अपने गुरु की खड़ाऊ को सिंहासन पर आसीन कर दिया और गुरु के भगवाध्वज को अपने राज्य का राज्य-चिन्ह बना दिया । उस काल की मुद्रा पर भी शिवाजी के गुरु समर्थगुरु रामदास का चित्र देखा जा सकता है ।
एक बार शिवाजी को औरंगजेब ने उनके पुत्र के साथ बंदी बना लिया । कुछ महीने वे औरंगजेब की कैद में रहने के बाद भाग निकले । बाद में जब उनके साथियों ने उनसे पूछा कि : ”महाराज आप औरंगजेब जैसे क्रूर राजा के कैद से कैसे निकल पाए” तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा : ”कैद में बराबर मुझे समर्थगुरु रामदास की छाया नजर आती थी ।
जब मैंने भागने की तैयारी कर ली तो लगा कि गुरुवर मेरे सामने खड़े हैं और कह रहे हैं : शिवा तू डर मत निकल जा । जब मैं वहा से मिठाई के टोकरे में छिपकर निकलने लगा तो मुझे लगा कि गुरुदेव मेरे साथ हैं । सारे-पहरेदारों की आखों पर जैसे पर्दा-सा पड़ गया और मैं बाहर निकल गया ।”
ये एक समर्थ गुरु के समर्थ शिष्य की कहानी है जो सदियों तक एक वैरागी गुरु और एक त्यागी शिष्य की याद दिलाती रहेगी । सच तो यह है कि जिसे गुरु कृपा प्राप्त हो जाती है उसके लिए ससार के सारे साधन सुलभ हो जाते हैं । आग का तपता दरिया भी उसके लिए शीतल हो जाता है ।
Life Story # 3. परमभक्त रैदासजी |
स्वकर्म करते हुए भगवद्भक्ति में पराकाष्ठा को छूने का प्रमाण परमभक्त रैदास से बड़ा कोई अन्य नहीं हो सकता । रैदासजी का जन्म भगवान विश्वनाथ की पवित्र नगरी काशी में हुआ था ।
इनके बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि यह पूर्वजन्म में ब्राह्मण के घर में पैदा हुए थे । किसी कारणवश गुरु रामानंदजी ने इन्हे श्राप दिया जिसके फलस्वरूप इन्हें चमार के घर जन्म मिला । चूंकि पूर्वजन्म में यह भगवान के परमभक्त थे इसलिए भगवान की कृपा से इन्हें अपने पूर्वजन्म का ज्ञान रहा ।
इन्होंने जन्म से ही माता का दूध नहीं पिया । बिना गुरुमंत्र के कुछ भी ग्रहण न करने का इन्होंने सकल्प लिखा था । इधर भगवान को अपने भक्त के संकल्प पर दया आ गड् नवजात शिशु यदि दुग्धपान भी न करेगा तो कैसे जीवित रहेगा ? उन्होंने उसी क्षण स्वामी रामानद जी को स्वप्न में दर्शन दिए ।
”आपने जिस ब्राह्मण को कठिन श्राप दिया था वह चमार कुल मैं जन्म ले चुका है । उसने जन्म से ही गुरुमंत्र के बिना दुग्धपान न करने का सकल्प किया है । अब आप उसके पास जाकर उसे गुरुमंत्र दें ।” भगवान ने उन्हें आदेश दिया रामानंदजी रश्चण चर्मकार के घर पहुंचे और नवजात शिशु को देखा ।
उन्होंने शिशु का नाम ‘रैदास’ रखा और उसके कान में गुरुमंत्र दिया । रैदास का सकल्प पूरा हुआ । जब रैदास कुछ बड़े हुए तो वह साधु सेवा में लग गए । जो कुछ भी घर में मिलता वह दीन-दुखियों को दे देते । कुछ समय बाद इनका विवाह कर दिया गया परतु इन्हें तो भगवद्भजन में अधिक आनंद आता था ।
जब पिता ने इनका आचरण देखा तो इन्हें परिवार से अलग कर दिया । यद्यपि इनके पिता के पास बहुत धन था परंतु पिता ने क्रोधवश इन्हें कुछ भी नहीं दिया । दास पत्नी सहित घर के पीछे एक कमरे में रहने लगे । जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने अपना पुश्तैनी कार्य प्रारम्भ कर दिया ।
वे जूतियां बनाने लगे । जब भी किसी साधु या फकीर को देखते कि उसके पैरों में जूते नहीं हैं वे उसे बिना कुछ लिए जूते पहना देते । इन्होंने एक छप्पर डाल रखा था, उसी में भगवान की मूर्ति स्थापित कर ली और उसकी पूजा-अर्चना करते रहते ।
भगवान इनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और इनकी दरिद्रता दूर करने के विचार से साधु वेश में इनके घर आए । रैदासजी ने उन्हें दण्डवत करके भली प्रकार उनकी सेवा की । साधु इनकी सेवा और भक्ति भाव से प्रसन्न हुए और अपने कमंडल से पत्थर निकालकर इन्हें दिया ।
”भक्त, यह पारस पत्थर है । इसे जिस वस्तु से भी स्पर्श करा दोगे वह वस्तु स्वर्ण बन जाएगी । इसे बड़े यत्न से रखना और इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करना ।” साधु ने कहा । ”महाराज मुझे स्वर्ण-धनादि से क्या लेना है । मेरे पास तो केवल रामनाम का धन ही पर्याप्त है ।” रैदास ने सहज स्वर में कहा ।
साधु रूपी भगवान चले गए । कुछ दिनों बाद रैदास को अपनी पिटारी में पाँच स्वर्ण मुहरें मिलीं । अब वह भगवत्भजन से भी भयभीत होने लगे । तब एक दिन प्रभु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर स्नेह-स्वर में समझाया ।
”भक्त मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर लोभ विकार नहीं है परंतु हम जो देते हैं उसे ग्रहण किया करो ।”
भगवान की आज्ञा पाकर रैदास ने भगवान से प्राप्त धन स्वीकार तो किया परंतु वह स्वहित में इसका उपयोग नहीं करते थे । इन्होंने उस धन से एक सुंदर विशाल धर्मशाला बनवाई और भगवद्भक्तों को ला-लाकर उसमें बसाया ।
धर्मशाला के अदर ही इन्होंने एक अति सुदर मंदिर का निर्माण किया और इसे अति सुंदर सजाया । जब वहां के ब्राह्मणों एक चर्मकार की ऐसी शान और प्रसिद्धि देखी तो उन्हें ईर्ष्या हो उठी । एक साधारण चमार और कर्म ब्राह्मणों जैसा तत्काल ब्राह्मण मिलकर राजा के पास पहुंचे ।
”महाराज, आपके राज्य में घोर पाप हो रहा है और आप निश्चिंत बैठे हैं । यह अशुभ संकेत हैं ।” ब्राह्मणों ने कहा । ”ऐसा क्या हुआ ब्राह्मणो ।” राजा घबरा गया । ”हमारे धर्मशास्त्रों में कहीं भी किसी शूद्र के द्वारा भगवान की पूजा का कोई लेख नहीं जलता । परंतु आपके राज्य में रैदास चमार मंदिर में भगवान की पूजा कर रहा है ।
उसने निर्भय होकर मंदिर का निर्माण कर लिया है । हे राजन ! वह शूद्र समाज को दूषित कर न्ह है अत: उसे दंड दिया जाए ।” राजा ने ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर रैदास को बुला भेजा । रेंदास आए तो सभी ब्राह्मण भी वहीं थे ।
”तुम शूद्र होकर भगवान की पूजा क्यों करते हो?” राजा ने कहा । ”महाराज, जातिभेद तो सांसारिक वर्गीकरण है । भगवान की दृष्टि में जाति रंग और गोभेद नहीं है ।” रैदास ने सहज उत्तर दिया । ”यह गलत है ।” ब्राह्यण चीखकर बोले: ”ईश्वर कभी शूद्र की पूजा नहीं मानता । इससे उन्हें केवल कष्ट होता है ।”
”श्रेष्ठ ब्राह्मणो मैं इस बात को नहीं मानता ।” रैदासजी ने कहा: ” आप सब निरर्थक आधारहीन बात कह रहे हैं । इस बात में कोई सत्यता नहीं है । यदि है तो प्रमाण दो ।” ”तुम इस बात का प्रमाण दे सकते हो कि भगवान जाति भेद नहीं केवल भक्ति भाव ही देखते हैं?” ब्राह्मण ने कहा ।
”यह तो केवल भगवान ही कर सकते हैं ।” ”फिर क्या है । यहां सिंहासन पर भगवान की मूर्ति विराजमान है । तुम अपनी भक्ति से भगवान द्वारा सिद्ध कराओ ।” ”यह न्याय नहीं होगा ।” राजा ने कहा: ”दोनों पला को अपनी बात सिद्ध करनी चाहिए ।
जो भी पक्ष अपने भाव से भगवान को अपने समीप बुला लेगा वही सच्चा होगा ।” पहले ब्राह्मणों को अवसर दिया गया । ब्राह्मणों ने समवत् स्वर में भगवान की स्तुति की । तीन पहर तक वेद पढ़ा परतु कुछ भी नहीं हुआ । ब्राह्मण निराश होकर बैठ गए । फिर रैदास की बारी आई ।
”हे पतित पावन यह उच्चकुली ब्राह्मण आपकी भक्ति और दया में भी भेदभाव करते हैं । हे नाथ आप इन्हें बताइए कि आपने व्यक्ति की वग या जाति नहीं दी ।” रैदास ने प्रार्थना की । इनकी प्रार्थना में वेदना थी । ऐसी करुण पुकार सुनकर सर्वेश्वर कैसे मौन रह सकते हैं ? सिंहासन पर विराजमान मूर्ति उठ खड़ी हुई और चलकर रैदासजी की गोद में बैठ गई ।
समस्त राजदरबार आश्चर्यचकित हो गया । ब्राह्मण ते लज्जा से आखें चुराने लगे । राजा और रानी ने रैदास को अपना गुरु मान लिया । ब्राह्मण अभी भी अपनी मानसिकता पर अडिग थे । ”ब्राह्मणो मैं भी पूर्वजन्म में ब्राह्मण था । अपने गुरु ऊ श्राप से मैंने यह जन्म लिया है ।
जन्म से कोई ब्राह्मण या चमार नहीं होता । आपको अपनी सत्यता सिद्ध करने के लिए मैं अपनी चमड़ी इस देह से उतारता हूं ।” रैदासजी ने अपनी देह से चमड़ी उतारकर अपना यज्ञोपवीत दिखाया । सब इनके प्रति श्रद्धा से भर उठे और इनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया ।
रैदासजी जीवन-भर साधना पथ पर चलते रहे । इनके लाखो शिष्य इन्हें उच्च कोटि का विरक्त सत कहते थे । उच्च भक्ति पद प्राप्त रैदासजी न अपनी अनन्य साधना से जीवन-मृत्यु का चक्र काट दिया और अपने निजधाम जाकर पुन: जन्म लेने के नियम से छूट गए ।
Life Story # 4. संत ज्ञानेश्वर |
महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव आलंदी में रहने वाले विट्ठल पत को जब परमसत स्वामी रामानंदजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । तो वे स्वामीजी के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि स्वामीजी से दीक्षा लेने क सकल्प कर लिया और सन्यस्थ हो गए ।
जब रुक्मिणी देवी को अपने पति के सन्यासी हाने की जानकारी हुई तो वह भौंचक्की रह गईं । उन्हें अपने पति से ऐसी आशा नहीं थी । इस विकट समस्या का कोई समाधान न देखकर रुक्मिणी देवी ने भगवान का आश्रय चेय उन्होंने ईश्वर से विनय की कि उनके पति को गृहस्थी के रास्ते पर ले आए ।
कुछ समय बाद ऐसा संयोग बना कि स्वामी रामानंदजी आलंदी होकर रामेश्वरजी के दर्शनार्थ जा रहे थे । रुक्मिणी देवी ने स्वामीजी क उन के विषय में सुना और उनके दर्शनों को पहुंचीं । जब दर्शन हुए तो इन्होंने उन्हें साष्टाग प्रणाम किया ।
”अष्ट पुत्रवती भव: ।” स्वामीजी ने आशीर्वाद दिया । रुक्मिणी देवी उस आशीर्वाद पर रोने लगीं । ”क्या समस्या है पुत्री?” स्वामीजी शंकित हो गए । “जिस स्त्री का पति संन्यासी हो जाए उसे यदि कोई योगी पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे तो उस स्त्री की आखों से अश्रु नहीं आएंगे?”
स्वामीजी विचलित हो उठे । “देवि, हमारी वाणी असत्य नहीं हो सकती ।” ”आप योगी हैं स्वामीजी । सत्य ही कहते होंगे परतु में भुक्तभोगी हूं । मेरे पति ने आपसे ही संन्यास की दीक्षा ली है अत: मुझे संदेह है कि आपका आशीर्वाद फलीभूत होगा ।”
स्वामीजी उस विकट स्थिति पर विचारमग्न हो गए वह पत्नी को आशीर्वाद दे चुके थे और साथ ही पति को संन्यास भी । उन्होंने अपनी यात्रा का कार्यक्रम स्थगित कर दिया और वापस वाराणसी के लिए प्रस्थान किया । वहा अपने नवीन शिष्य को बुलाया और कहा : ”वत्स हमने तुम्हारी धर्मपरायणा पत्नी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया है ।
हमारा यह आशीर्वाद तभी फलीभूत हो सकेगा जब तुम संन्यासाश्रम त्यागकर गृहस्थाश्रम का मार्ग पकड़ो । हमारा आदेश है कि तुम अपनी पत्नी के पास लौट जाओ और हमारा कथन सत्य करो ।” गुरु की आज्ञा सच्चा शिष्य कैसे टाल सकता है । गुरु की आज्ञा से विट्ठल पंत वापस अपने घर आ गए ।
जब विट्ठल पंत का संन्यासाश्रम से गृहस्थाश्रम में लौटने का पता लोगों को चला तो चर्चा होने लगी । जूनागढ़ी ब्राह्मणों को यह बात सबसे अधिक बुरी लगी । तत्काल एक धर्म सभा हुई । ”संन्यासी का संन्यास छोड़कर गृहस्थ में आना धर्म की मर्यादा के विरुद्ध है ।
यह एक अक्षम्य अपराध है । जब संन्यासी ही धर्म के विपरीत चलेंगे तो धर्म की रक्षा कौन करेगा?” धर्म सभा में बात उठी । ”धर्म सभा के विद्वान सदस्यों को विट्ठल पंत का साष्टांग दंडवत स्वीकार हो ।” विट्ठल पंत ने सरल स्वर में कहा: ”आपका आरोप मुझे स्वीकार है परतु मेरा एक प्रश्न है ।
यदि गुरु स्वयं शिष्य को आदेश दे और शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करे तो यह अपराध कैसे हुआ । गुरु की आज्ञा का उल्लंघन क्या धर्म की मर्यादा के विरुद्ध नहीं है ?” ”धार्मिक अपराध तर्कों से कम नहीं होते विट्ठल पंत । धर्मसभा के नियमानुसार तुम्हें समाज से बहिष्कृत किया जाता है ।”
रुढ़िवादी धर्मान्धता के खिलाफ तत्कालीन समय में एकमात्र भगवान से ही अपील करने का विकल्प था । विट्ठल पंत ने यह दंड स्वीकार किया । गृहस्थाश्रम में रहते हुए विट्ठल पंत के यहां चार संतानें हुईं । विक्रमी संवत् 1312 (सन् 1255) भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी को ज्ञानदेवजी का जन्म हुआ ।
चूंकि इसी दिन महायोगी भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था तो ज्ञानदेवजी को भी कृष्ण का अवतार कहा जाने लगा । यज्ञोपवीत संस्कार का समय आया तो विट्ठल पंत ब्राह्मणों के पास गए । ब्राह्मण समाज तौ ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में था ।
”तुम स्वयं को ब्राह्मण कहते हो ? तुम पति-पत्नी ने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है । अब तुम्हारा यही प्रायश्चित है कि प्रयाग जाकर त्रिवेणी. के संगम में डूबकर प्राण दे दो ।” और विट्ठल पंत ने पत्नी सहित संगम में कूदकर प्राण दे दिए । उनका विचार था कि उनकी मृत्यु के पश्चात समाज उनके पुत्रों को निर्दोष जानकर दयापूर्ण व्यवहार करेगा ।
ज्ञानदेव अपने बहन-भाइयों में सबसे बड़े थे । माता-पिता की असमय मृत्यु से उनका भार ज्ञानदेव को उठाना था । पिता की इच्छा की पूर्ति के लिए ज्ञानदेव यज्ञोपवीत सस्कार के लिए ब्राह्मणों के पास गए । बालक ज्ञानदेव एक कुशाग्र बुद्धि वेदज्ञानी और शास्त्रज्ञ थे ।
ब्राह्मणों ने उनकी बुद्धि से प्रभावित होकर शर्त रखी कि यदि पैठण के ब्राह्मण स्वीकृति दे दें तो उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया जाएगा । ज्ञानदेव पैठण पहुंचे और ब्राह्मणों की स्तुति करके वेदगान करने लगे । ”तुम ब्राह्मण नहीं हो तुम्हें वेदगान का अधिकार नहीं है ।” ब्राह्मणों ने कहा: ” तुम्हारे पिता ने धर्महीन आचरण किया था ।”
ब्राह्मणों ने शर्त रखी कि अगर भैंस वेदगान करने लगे तो वे उन्हें ब्राह्मण स्वीकार कर लेग । ज्ञानदेवजी ने अपने अतर में अग्नि का आभास किया और ईश्वर की स्तुति की । जैसे चमत्कार हुआ । समीप ही एक भैंस खड़ी थी । ज्ञानदेवजी ने जहा से वेदगान बंद किया था वहीं से वेदगान की स्तुति बड़े ही लय से भैंस ने प्रारम्भ की ।
ब्राह्मण समाज हतप्रभ रह गया । वे उन्हें ईश्वरीय अवतार मानने लगे । ज्ञानदेवजी वहीं पैंका में निवास करने लगे और जनता को गीता का उपदेश देने लगे । कुछ ही दिनों में उन्हें परमविद्वान और महायोगी के रूप में स्वीकार किया जाने लगा ।
ज्ञानदेव ने अपने योगबल से कितने ही चमत्कार दिखाए । एक मृत व्यक्ति को पुन: जीवित कर दिया । तेरह वर्ष की अवस्था में इन्होंने अहमदनगर में प्रवरा नदी के तट पर गीताजी को विषय बनाकर ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ लिखी जो हिन्दू धर्म का एक अद्भुत और प्रसिद्ध ग्रंथ है ।
उन्हीं दिनों चांगदेव नाम के एक महायोगी थे जो शेर पर सवारी करते थे । उन्हें अपने योगबल पर बहुत अभिमान था । जब उन्होंने ज्ञानदेव की ख्याति सुनी तो उनके पास सैकड़ों शिष्यों सहित आए । ज्ञानदेवजी अपने भाइयों सहित एक दीवार की मुंडेर पर बैठे थे ।
उन्होंने जब चांगदेव को अहंकार में भरकर अपनी और आते देखा तो उनके अहंकार को दूर करने के लिए अपना योगबल दिखाया । उनके आदेश पर दीवार गतिमान होकर चांगदेव की तरफ बढ़ चली । चांगदेव उस कौतुक पर नतमस्तक हो गए ।
उनका दर्प चूर-चूर हो गया उन्होंने सोचा मैं तो अपने योगबल से केवल जीवंत पदार्थो पर ही प्रभाव डाल सकता हूं जब कि ज्ञानदेव ने अपने योगबल से निर्जीव दीवार को ही अपने वश में कर लिया । इस घटना के बाद उन्होंने ज्ञानदेव को अपना गुरु बना लिया ।
ज्ञानदेव महान योगवेत्ता थे । प्रकृति के सभी तत्त्वों पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था । जीवन के रहस्यों का सार इन्होंने ज्ञानेश्वरी गीता में लिखा । मान्यता है कि ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ के पाठ से सब बंधन छूट जाते हैं । ज्ञानदेव संत ज्ञानेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्होंने ‘वारकरी सम्प्रदाय ‘ की स्थापना की ।
महाराष्ट्र में आज भी वारकरी सम्प्रदाय के अनुयायी प्रतिवर्ष संत ज्ञानेश्वर की समाधि पर आषाढ़ और कार्तिक की एकादशी पर मेलों का आयोजन करते हैं । ऐसे सिद्ध पुरुष युगों में बिरले ही होते हैं जिन्हें जन्म से ही महाज्ञान ईश्वर प्रदत्त होता है ।
उच्चकोटि के योगी संत ज्ञानेश्वर अल्पायु में ही अलौकिक अध्यात्म साक्षात्कार के अनुभवी योगी थे । भक्ति सम्प्रदाय को मान्यता देने वाले परमसंत ज्ञानेश्वर तत्कालीन समय में धर्म के ध्वजावाहक थे । 21 वर्ष 3 माह और 5 दिन की अल्पायु में ही इस परमसंत ने जीवित समाधि लेकर भौतिक देह का त्याग कर दिया और दिव्यलोक गमन किया । विक्रम संवत् 1353 (सन् 1296) मार्गशीर्ष माह की त्रयोदशी तिथि को पण्ढरपुर में ही इस महायोगी ने महासमाधि ली ।
Life Story # 5. परशुराम और कर्ण |
ये कर्ण का दुर्भाग्य ही था कि एक सूर्य-पुत्र को सारथी-पुत्र कहा गया । महारानी कुंती की कोख से जन्म लेने के बाद भी उसे अस्पृश्य समझी जाने वाली एक सूतली ने पाला ।
ज्येष्ठ पांण्डव होने के बाद भी उसे वो सम्मान नहीं मिला जिसका वो हकदार था । ये भाग्य की विडम्बना ही थी कि कर्ण को सदैव ऐसे अपराधों का दंड मिला जो उसने किए ही नहीं । कर्ण के जन्म लेते ही माता कुंती ने लोक लाज के भय से उसे नदी में बहा दिया ।
निसंतान अधिरथ को जब एक तेजस्वी नवजात बालक नदी में बहता मिला तो उन्होंने उसे ईश्वर का वरदान समझ कर स्वीकार कर लिया । अधिरथ की पत्नी राधा भी उसे पुत्रवत प्रेम करने लगी । उस दिव्य बालक के शरीर पर कवच और कानों में जन्मजात कुंडल थे इसलिए उसकी पोस्य माता ने उसका नाम कर्ण रखा ।
कर्ण अधिरथ की छत्रछाया और राधामाता की ममता में पलने बढ़ने लगा । अधिरथ हस्तिनापुर के राज सारथी थे इस लिए उनका आना-जाना हस्तिनापुर में लगा रहता था । कर्ण भी यदा-कदा उनके साथ हस्तिनापुर के राजमहल में चला जाया करता था ।
एकबार उसका सामना राजकुमार दुर्योधन से हो गया । दुर्योधन कर्ण के सूर्य से चमकते चेहरे और उसके कुंडलों को देखता ही रह गया वो उसके व्यक्तित्व के चुम्बकीय आकर्षण से बच न सका और दोनों में मित्रता हो गई ।
अब कर्ण अक्सर अपने पिता अधिरथ के साथ दुर्योधान से मिलने राजमहल आने लगा । कर्ण की अस्त्र-शस्त्रों और उनके संचालन में गहरी रुचि थी । एक दिन दुर्योधन ने उसे एकांत में अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास करते देखा तो वो हतप्रभ रह गया ।
उसने कहा : ”मित्र तुम्हारा जन्म रथ की वलघए पकडूने के लिए नहीं शस्त्र उठाने के लिए हुआ है ।” दुर्योधान ने गुरु द्रोणाचार्य से उसे शस्त्र-ज्ञान देने का आग्रह किया तो द्रोणाचार्य ने एक सारथी-पुत्र होने के कारण उसे राजकुमारों के साथ शिक्षा देने से इंकार कर दिया ।
दुर्योधन को बड़ी निराशा हुई पर कर्ण निराश नहीं था । उसने दुर्योधन से कहा वो अपने आत्मविश्वास को अपना गुरु मानकर शस्त्र-ज्ञान प्राप्त करेगा और एक दिन अवश्य ही उसे संसार के सबसे श्रेष्ठ गुरु से भी चरम शस्त्र-ज्ञान प्राप्त होगा ।
कर्ण के उसी आत्मविश्वास ने एक दिन उसे ससार के सबसे महान योद्धा और महान गुरु परशुराम के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया । यहा भी कर्ण के दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा परशुराम ने केवल ब्राह्मणों को शस्त्र-ज्ञान देने का प्रण किया हुआ था ।
कर्ण ने अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने के लिए परशुराम को अपना परिचय एक ब्राह्मण के रूप में दिया । कर्ण होनहार तो था ही उसकी लगन और श्रद्धा को देखकर परशुराम ने उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया ।
कर्ण ने सबकुछ भुलाकर गुरु की सेवा की और उनसे शस्त्र-ज्ञान प्राप्त किया । कर्ण का शस्त्र सचालन देखकर कभी-कभी गुरु परशुराम भी आश्चर्यचकित रह जाते थे । उन्होंने इससे पूर्व किसी ब्राह्मण में ऐसी अद्भुत क्षमताएं नहीं देखी थीं ।
परशुराम ने कर्ण की लगन देखकर उसे शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान देना शुरू कर दिया और अत में उसे ब्रस्मास्त्र का ज्ञान भी प्रदान कर दिया । कर्ण की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी और निसंदेह एक सर्वश्रेष्ठ गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत वो ससार का सर्वश्रेष्ठ योद्धा बन चुका था ।
कर्ण अपने गुरु का आभार व्यक्त करने के लिए उनकी सेवा करना चाहता था इसलिए कुछ और समय के लिए वो आश्रम में रुककर उनकी सेवा करने लगा । कर्ण सदैव उनकी अव्यक्त इच्छा को भापकर उनके कार्य को पूर्ण श्रद्धा के साथ सम्पन्न किया करता था और गुरु भी सदैव उससे प्रसन्न रहा करते थे ।
एक बार परशुराम के साथ कर्ण वन में भ्रमण कर रहे थे । चलते-चलते जब परशुराम थक गए तो उन्होंने कर्ण से कुछ विश्राम करने की इच्छा व्यक्त की और एक छायादार वृक्ष के नीचे कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गए । गुरु परशुराम निश्चिंतता से सो रहे थे तभी एक कीड़ा कर्ण के शरीर पर चढ़ गया और उसे काटने लगा ।
गुरु की निद्रा भंग न हो इसलिए कर्ण पीड़ा को सहता रहा और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की । होनी को न जाने क्या मजूर था कि वो कीडा अपने तीक्षादंत कर्ण के मांस में गड़ाए चला जा रहा था । जख्मगहरा हों जाने के कारण कर्ण के शरीर से रक्त बहने लगा ।
कर्ण को सिर्फ एक ही चिंता थी कि कहीं उसके प्रिय गुरु की निद्रा में कोई व्यवधान न पड़ जाए वो स्थिर बैठा रहा और कीड़ा उसके धैर्य की परीक्षा लेता रहा । अब तक कर्ण के शरीर से रक्त की धार बहने लगी थी । कर्ण ने बहुत प्रयत्न किया कि उसका रक्त गुरु तक न पहुंचे पर वो सफल न हो पाया ।
अतत: रक्त की कुछ बूंदें गुरु परशुराम के गले पर जा गिरी जिससे गुरु की नींद खुल गई । जब उनकी दृष्टि लहूलुहान कर्ण पर पड़ी तो वो हैरान रह गए उन्होंने झट उस मास खाए कीड़े को कर्ण के जख्म से अलग किया और कहा : ”तूने इतना भीषण कष्ट सहा और मुझे जगाया भी नहीं ।
मैं तेरी गुरुभक्ति से अत्यत प्रसन्न हूं किंतु तेरी सहनशक्ति ने मुझे संशय में डाल दिया है ।” ”कैसा संशय गुरुदेव मैंने जो उचित समझा वही किया ।” कर्ण ने सदा की तरह सहज दिया परशुराम की भूकुटियां गईं और वो बोले: ”सत्य बता कर्ण तू कौन है ? तू मेरे अनु भव को छल तो नहीं रहा ।”
कर्ण ने घटना के बल बैठकर कहा : ”भगवान ! मुझे क्षमा करें आप जैसे योग्य गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के लिए मेरे पास इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं था । मैं जानता था कि आप ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को शिक्षा प्रदान नहीं करेंगे इसीलिए मैंने अपना परिचय एक ब्राह्मण के रूप में दिया ।”
”मेरा अनुभव कहता है कि निश्चित ही तू एक कुलीन क्षत्रिय है ।” गुरु ने कर्ण को घूरते हुए कहा: ”सत्य बोल तू कौन है ।” ”मैं एक सारथी पुत्र हूं । मैंने असत्य बोल कर आपसे धनुर्विद्या सीखी । यदि मैंने स्वय को एक योग्य शिष्य प्रमाणित किया हो तो मुझे क्षमा कर दें ।”
गुरु की पारदर्शी दृष्टि के समक्ष कर्ण कुछ भी छुपा न सका । गुरु परशुराम असमंजस में थे कि वे अपने योग्य शिष्य के साथ कैसा व्यवहार कर । उसने गुरु के साथ छल तो किया था पर उसमें पात्रता की रच मात्र भी कमी नहीं थी ।
जब परशुराम को अपने वचन का खयाल आया तो उनका चिरपरिचित क्रोध जाग उठा उन्होंने कर्ण को श्राप दिया जिस समय उसे धनुर्विद्या की सबसे अधिक आवश्यकता होगी उस समय उनकी सिखाई कोई भी विद्या उसके काम न आएगी । और गुरु के साथ किए गए छल का प्रत्युत्तर उसे भी छल के द्वारा मिलेगा ।
परशुराम कर्ण को श्राप देकर मुंह मोडकर चले गए । कण ने उनकी शिक्षा की तरह उनका श्राप भी स्वीकार किया और उनके चरणों की धूल को माथे पर लगाकर बोझिल आखों से उसने अपने पिता सूर्य की ओर निहारा । जैसे कह रहा हो उसका क्या अपराध था क्या किसी मनुष्य के जन्म लेने पर उसका अधिकार है ।
यदि नहीं तो फिर मनुष्य और मनुष्य में केवल जाति के आधार पर भेद क्यों । पल भर के लिए सूर्य देव निस्तेज हुए और फिर चमकने लगे जैसे कह रहे हों : ”पुत्र तू कुलीन भी है और योग्य भी उसमें तेरा कोई दोष नहीं । विधाता की इच्छा के आगे किसी का वश नहीं चलता ।”
कर्ण को लगा कि उसके सिर पर किसी दिव्य शक्ति ने हाथ फेरा है उसके धधकते सीने की अग्नि कुछ शांत हुई उसका आत्म विश्वास पुन: लौटा और उसने गुरु के आश्रम की ओर मुख कर के कहा : ”आप मुझे श्राप दे सकते हैं चाहे तो मेरे प्राण भी ले सकते हैं किंतु कर्ण आपका योग्य शिष्य है । ये अधिकार आप मुझसे छीन नहीं सकते । आज भी कर्ण का परिचय परशुराम शिष्य के रूप में ही दिया जाता है ।”
Life Story # 6. भक्त प्रहलाद |
प्राचीन काल में दैत्य वंश में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नाम के दो अति बलशाली दैत्य सम्राट थे । दोनों सगे भाई थे और अपने अत्याचारों से सदनों को पीड़ित किया करते थे ।
हिरण्याक्ष के अत्याचार जब अपने चरम पर पहुंच गए तो मानवता की करुण पुकार से द्रवित होकर दुष्ट-संहारक श्री भगवान ने वराह अवतार के रूप में जन्म लिया और हिरण्याक्ष का वध करके मानवता की रक्षा की ।
अपने शक्तिशाली भाई के अंत का समाचार सुनकर हिरण्यकशिपु अपने शक्तिमद में फुफकार उठा और उसने एक भीषण प्रतिज्ञा की : ”मैं हिरण्यकशिपु दसों दिशाओं को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता हू कि अपने भाई के वधिक से प्रतिशोध अवश्य लूंगा ।”
इसी प्रतिज्ञा के साथ वह ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या पर बैठ गया । उसके कठोर व्रत से चराचर हिल उठा तब स्वयं जगत पिता ब्रह्माजी उसके पास आए । ”हे दैत्यराज ! मैं तुम्हारे कठोर व्रत से अत्यत प्रसन्न हूं ।” ब्रह्माजी ने कहा : ”तुम अपनी इच्छानुसार कोई एक वरदान मांग सकते हो ।”
”ब्रह्माजी! यदि मेरे असाध्य घोर तप से आप प्रसन्न हैं तो मुझे अमरत्व का वरदान प्रदान कीजिए ।” हिरण्यकशिपु ने वर मांगा । ”हे दैत्यराज! तुम स्वयं सर्वज्ञाता हो । सृष्टि के नियमों से भली-भांति परिचित हो । इस मर्त्यलोक में नश्वरता प्रथम शर्त है । जिसने पृथ्वी पर जन्म लिया वह अपना समय पूर्ण होने पर वापस अवश्य जाता है ।”
हिरण्यकशिपु दैत्यराज ब्रह्माजी के इस तर्क से सोच में पड़ गया मगर उसकी राक्षस-बुद्धि ने उसे एक तिकड़मी शब्द जाल सुझा दिया । ”आप सत्य कहते हैं सृष्टिकर्ता ! मृत्युलोक में जीवन के पश्चात मृत्यु निश्चित है । आप ऐसा वरदान नहीं दे सकते फिर मैं कुछ और माँगता हूं ।”
”अवश्य दैत्य सम्राट !” ”भगवन! मैं आपसे यह वरदान चाहता हूं कि मैं आप द्वारा निर्मित किसी नर पशु किन्नर गंधर्व देव लोकपाल दिग्पाल अस्त्र-शस्त्र आदि के मारे न मरूं । मैं दिन या रात में न मरूं । मेरी मृत्यु न पृथ्वी पर हो न व्योम में । न मैं घर के भीतर मरूं, न बाहर ।”
ब्रह्माजी एक क्षण को मौन रह गए । उनकी दृष्टि भविष्य के पार झांकी तो उन्हें वह वरदान श्री भगवान के अवतार का श्रेष्ठ कारण लगा । ”तथास्तु! ऐसा ही होगा !” ब्रह्माजी ने कहा और अंतर्धान हो गए । हिरण्यकशिपु मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ ।
उसने अपनी समझ में तो ब्रह्माजी को शब्दजाल में उलझाकर वही वरदान माग लिया था जिसकी इच्छा में उसने वह कठोर तप किया था । अपने वरदान और असीमित राक्षसी शक्ति से उसने समस्त पृथ्वी पर उत्पात मचा दिया । चहुँ ओर उसका ही शासन हो गया ।
वह धर्म का घोर विरोधी हो गया और साथ ही उसने श्री भगवान की व्यापक आलोचना के साथ-साथ भजन-कीर्तन हरिनाम इत्यादि पर प्रतिबंध लगा दिया । जगतपिता नारायण का वह इतना घोर शत्रु हो गया कि उसकी आज्ञा से मंदिरों के पट बद कर दिए गए । यज्ञादि प्रतिबंधित हो गए ।
इतना सब करने पर भी दैत्यराज एक काम न कर सका । उसका अपना पुत्र प्रस्ताद भगवन्नाम का नित्य उच्चारण करता था । वह समस्त जीव-जगत के जन्म पालन और मृत्यु का श्रेय ईश्वर को देता था । हिरण्यकशिपु ने इसे उसकी बालहठ जानकर उसे शिक्षा के लिए अपने गुरुपुत्रों षंड और अमर्क के पास भेज दिया और कठोर आदेश दिया कि उसे समस्त राक्षस रीति का पठन-पाठन कराया जाए ।
कुछ वर्षों में शिक्षा पूर्ण हुई तो प्रस्ताद घर आए । माता-पिता अपने पुत्र के तेजस्वी मुखमंडल पर बलिहारी हो गए । ”पुत्र!” पिता ने पूछा: ”तुम्हारी शिक्षा कैसी रही है? क्या मुझे उस शिक्षा का कोई सार बता सकते हो जो तुमने अब तक ली है ।”
”अवश्य पिताश्री!” प्रस्ताद नि संकोच बोले: ”यह ससार घोरतम तिमिर से घिरा है । महामाया के वशीभूत समस्त प्राणी सुखों की कामना में जीवन के उद्देश्य को भूल जाते हैं जबकि परमपिता ने यह जीवन देकर हम पर अति कृपा की है ।
इस सुअवसर से हम इस लोक के समस्त सुख भोगकर परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं । केवल परमात्मा ही एक सत्य है बाकी सब माया है ।” हिरण्यकशिपु सन्त रह गया । उसका अपना पुत्र उसके वनाए नियमों को नहीं मान रहा था जिस भगवान से उसे घोर ईर्ष्या थी उसका पुत्र उसे ही सत्य मान रहा था ।
यह अच्छा संकेत नहीं था । उसने षंड और अमर्क को बुलाकर लताड़ा : ”यह कैसी शिक्षा दी है तुमने । हमने प्रह्लाद को तुम लोगों के पास दैत्य वश की परम्परागत शिक्षा हेतु भेजा था जिसमें तुम विफल रहे हो । उसके विचारों में परिवर्तन लाओ अन्यथा मुझसे बुरा कोई नहीं होगा ।”
गुरु-पुत्रों ने सहमकर वह आदेश सुना और प्रस्ताद को वापस अपने विद्यालय ले गए । वहा उन्होंने प्रस्ताद को डराया धमकाया और उसे अर्थशास्त्र दंडनीति और राजनीति की शिक्षा दी । प्रहलाद ने ध्यान से सब शिक्षाएं सुनीं परंतु उन शिक्षाओं को आत्मसात न कर सके ।
गुरुओं के सम्मान के लिए अपने हृदय की बात तो कभी न कही मगर उस विद्या पर आस्था न ला सके । जब गुरुजनों की दृष्टि में वह सुशिक्षित हो गए तो उन्होंने उन्हें राजमहल भेज दिया । हिरण्यकशिपु पुत्र के आगमन पर हर्षित हुआ और उसने स्नेहवत पुत्र को गोद में लिया और प्रेम से दुलारा ।
”अब बताओ पुत्र! तुम्हारी समझ में उत्तम ज्ञान क्या है ?” उसने पूछा । ”जगतपिता श्रीनारायण की स्तुति उनके चरित्र वर्णनों का श्रवण उनकी कृपामयी दृष्टि के लिए आतुर रहना उनकी सखाभाव से वदना ही सबसे उत्तम ज्ञान है । भक्तिमय आश्रय भाव से प्रभु में चित्त लगाना ही समस्त शिक्षाओं का सार है ।”
पुत्र के इस उपदेश से दैत्यराज क्रोधित हो उठा । गोद से प्रह्वाद को फेंक दिया और क्रोध से काप उठा । प्रस्ताद उस तिरस्कार पर भी व्यथित न हुए । ”तू दैत्य कुल के मस्तक पर कलंक है दुष्ट!” हिरण्यकशिपु बोला: ”तू मेरा पुत्र नहीं हो सकता । समस्त भूमंडल दैत्य सम्राट हिरण्यकशिपु को ही भगवान मानता है और तू मूर्ख मेरा घोर विरोध करता है?
ऐसे कुलघाती पुत्र की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है । सैनिको ! मैं आदेश देता हूं कि इस कुलघाती को तत्काल मार दिया जाए ।” प्रहलाद किंचित मात्र भी न घबराए । हाथ जोड़कर अपने इष्ट को याद करने लगे । औखें बद किए प्रहलाद का वह रूप कितना सौम्य था !
दैत्यराज की आज्ञा से सैनिक उस मासूम पर शस्त्रों से सुसज्जित होकर टूट पड़े परंतु जिसकी लौ नारायण से लगी थी उसका कोई क्या बिगाड़ सकता था ? शस्त्र उसके शरीर से छूते ही खंडित हो जाते थे । हिरण्यकशिपु उस दृश्य से आश्चर्यचकित तो था साथ ही शंकित भी हो गया ।
उसे प्रस्ताद अपने लिए बड़ा खतरा लगने लगा । उसने सोच लिया कि प्रहलाद की मृत्यु ही श्रेयस्कर थी । हिरण्यकशिपु के आदेश पर प्रस्ताद को एक मदमस्त हाथी के सामने डाला गया परंतु प्रभु की कृपा जिस पर हो उसका कौन क्या बिगाड़े ? हाथी ने प्रस्ताद को छ से उठाकर मस्तक पर बिठा लिया । दैत्यराज और भी क्रोधित हो गया ।
उसने दूसरी युक्ति सोची । एक नरभक्षी सिंह के सामने प्रस्ताद को फेंका गया परंतु आश्चर्य! सिंह भी उनके समक्ष मेमना बन गया फिर उनके भोजन में तीव्र हलाहल मिला दिया गया परंतु प्रस्ताद के मुख से नीले झाग देखने के अभिलाषी हिरण्यकशिपु को उनके श्रीमुख से नारायण का सुमिरन ही निकलता सुनाई पड़ा ।
अब तो हिरण्यकशिपु हठी हो गया । उसने गगनचुम्बी पर्वत शिखर से प्रस्ताद को नीचे फेंक दिया, जहां स्वयं सृष्टि संचालक श्रीविष्णु भगवान गोद पसारे अपने भक्त की रक्षा में तत्पर खड़े थे । दैत्यराज ने और युक्ति सोची । एक अतिविशाल शिलाखंड से प्रस्ताद को बाधकर समुद्र में फेंक दिया । क्षीरसागर में जैसे शेषशैया पर श्रीनारायण विराजते हैं वैसे ही शिलाखंड प्रस्ताद की शैया बन गया ।
वे निरंतर अपने प्रभु का स्मरण करते रहे और सकुशल लौट आए । तब हिरण्यकशिपु की राक्षसी बहन होलिका अपने भाई की मनोदशा पर चिंतित हुई । उसे प्रहलाद को मारने की एक युक्ति सूझी । उसने हिरण्यकशिपु से विचार-विमर्श किया ।
”भ्राताश्री! मुझे लगता है कि प्रहलाद के पास काइ चामत्कारिक शक्ति है जो उसे बचाती रहती है । अत: उसे ऐसी ही किसी युक्ति से खत्म किया जा सकता है ।” होलिका ने परामर्श दिया । ”हम तो कुछ नहीं सोच पा रहे होलिका!” हिरण्यकशिपु हताश स्वर में बोला: ”यदि तुम्हारे मस्तिष्क में कोई योजना है तो बताओ ।”
”अवश्य भ्राताश्री यह तो आप जानते हैं कि मैंने घोर तप करके अग्नि देव से यह वर प्राप्त कर रखा है कि मैं अग्नि में नहीं जल सकती । मैं इसी वर के प्रभाव से प्रहलाद की मृत्यु का आश्वासन देती हूं ।” दैत्यराज के हृदय में आशा की किरण चमकी ।
उसके आदेश पर नगर के बाहर लकड़ियों का एक विशाल ढेर लगाया गया । नियत समय पर होलिका प्रस्ताद को लेकर उस ढेर पर बैठ गई और उसमें आग लगा दी गई । प्रचंड अग्नि लपलपाकर आकाश छूने लगी । प्रहलाद निर्विकार भाव से प्रभु का स्मरण करते रहे ।
उस प्रभु स्मरण का ही प्रताप था कि होलिका का वरदान ही उसके लिए अभिशाप बन गया । वह जलकर भस्म हो गई और भगवन्नाम रटते हुए प्रस्ताद उस विशाल ज्वाला से सकुशल लौट आए । हिरण्यकशिपु का दिल कांप उठा । अब उसे प्रस्ताद से भय लगने लगा । उसने निश्चय किया कि अब वह खुद प्रस्ताद को खत्म कर देगा ।
उसके आदेश पर एक विशाल लोहे का खम्भा तैयार किया गया और उसे अग्नि से तपाकर लाल कर दिया गया । तत्पश्चात प्रस्ताद को उससे बांधने का हुक्म दिया । प्रह्लाद प्रभुनाम लेते खम्भे से लिपट गए तो वह दहकता खम्भा भी शीतल प्रतीत हुआ । दैत्यराज अचम्भित रह गया !
”अरे मूर्ख प्रहलाद ! तू किसके बल पर जीवित रहता है ? तू बार-बार मुझे परास्त करता है । तू इस तरह नहीं मरेगा । अब मैं स्वयं अपने हाथों से तेरा वध करूंगा । मैं भी देर्सू कि तेरा वह रक्षक कौन है जो तुझे बार-बार बचाता है । यदि अब वह तुझे मेरे खुदरा से बचाए तो मैं मा !”
”पिताश्री! आप अकारण क्रोधित हैं ।” प्रस्ताद संयत स्वर में बोले : ”सबका बल एक ही शक्ति पर निर्भर है और वह परमात्मा है । वह हर जगह होता है । कण-कण में सदृश्य रहता है पत्ते-पत्ते पर उसका प्रतिबिम्ब है ।” पिताजी यह समस्त जगत उसकी छाया मात्र है ।
”तो क्या वह यहां भी है?” दैत्यराज ने व्यंग्य से पूछा । ”अवश्य है । वह आपके हाथ में थमी खड़ा में है । प्रत्येक सैनिक के अस्त्र में है । इस स्थान के कण-कण में है । आपमें है मुझमें है इस खंभे में है । हर जगह व्याप्त है वो सर्वेश्वर ।”
”अच्छा इस खंभे में है फिर तो अवश्य ही वो मेरे प्रहार से तुझे बचा लेगा । पुकार उसे स्मरण कर उसका ।” प्रहलाद निर्भय थे । उनका मन जगत के आधार स्वरूप परमात्मा के चरण कमलों में एकाग्र हो गया । उनका अन्तर्मन पुकार उठा : ”हे परमात्मा ! तुम मेरे पिता को सत्य-ज्ञान प्रदान करो ।
हे प्रभु इन्हें इनके घोर अहकार से मुक्ति दो सर्वेश्वर मुक्ति दो ।” हिरण्यकशिपु ने प्रस्ताद की गरदन को लक्ष्य करके खड़ग चलाई तो वह खंभे से टकराई और एक महाघोर नाद हुआ । जैसे ब्रह्माड में दरार पड़ गई थी भयंकर गर्जना के साथ खंभा फट गया । हिरण्यकशिपु की आखें भय से फटी रह गईं ।
उसके कई सैनिक तो उस भयंकर गर्जना से ही मूर्च्छित हो गए । सम्पूर्ण सृष्टि कांप उठी । वायु क्षण मात्र के लिए स्तम्भित हो गया आकाश डोल उठा सागर की तरंगे अपनी मर्यादा छोड़ने के आतुर हो उठीं । पर्वत डोल उठे । प्रहलाद अब भी निर्भय खड़े अपने आराध्य की लीला देख रहे थे ।
तब उस खंभे से एक अद्भुत भयकर आकृति प्रकट हुई । उस आकृति का मुख सिंह और शरीर मनुष्य का था । नृसिंह की यह अद्भुत आकृति भयकर गर्जना कर रही थी । उनकी गर्जना से दसों दिशाएं गूज उठी थीं । भगवान नृसिंह का अवतार हो चुका था ।
दैत्यराज और नृसिंह भगवान के बीच युद्ध शुरू हो गया । दैत्य ने बचने की भरसक कोशिश की परतु काल के पंजे में आ गया । उस समय शाम ढल रही थी रात आने वाली थी । नृसिंह दैत्य को पकड़कर घर की दहलीज पर लाए और घुटनों पर रखकर अपने नखों से उसका पेट फाड़कर उसका अंत कर दिया ।
ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार वह न दिन न रात में न नर के हाथों न पशु के हाथों न घर के बाहर न अंदर न अस्त्र से न शस्त्र से मारा गया । श्रीनारायण ने उसके अंत के लिए अद्भुत अवतार लिया । हिरण्यकशिपु की मृत्यु के बाद भी नृसिंह का क्रोध शात नहीं हुआ ।
सभी देवगण उनके क्रोध को शांत करने का उपाय कर रहे थे परंतु नृसिंह निरंतर गर्जना कर रहे थे । लक्ष्मीजी की स्तुति भी व्यर्थ हुई । तब ब्रह्माजी ने प्रस्ताद से ही याचना की । प्रस्ताद निर्भय होकर क्रोध से गरजते भगवान नृसिंह के समक्ष गए और उनके चरणों में गिर पड़े । नृसिंह का क्रोध भक्त पर क्यों होता ?
उन्होंने प्रस्ताद को स्नेहपूर्वक उठाकर हृदय से लगाया । ”महाभक्त वत्स प्रस्ताद मुझे आने में विलम्ब हुआ परतु नियत समय पर मेरा भी वश नहीं । तुझे बहुत कष्ट सहने पड़े । मुझे क्षमा कर ।” भगवान ने कहा । प्रस्ताद ने बड़े ही भक्तिभाव से उनकी स्तुति की ।
”वत्स! मैं तेरी भक्ति से अति प्रसन्न हूं । तू कोई वरदान माग ।” ”भगवन! मुझे आपके दर्शन हुए मैं कृतार्थ हो गया । अब मुझे कोई कामना नहीं रही फिर भी आप अपने भक्त पर प्रसन्न हैं तो आप मुझे यही वर दीजिए कि मेरे पिता को सद्गति मिले ।
वे आपके और आपके भक्तों के निंदक थे । अत: उन्हें इस पाप से मुक्ति मिले । यही मेरी इच्छा है ।” ”तू धन्य है प्रस्ताद तेरे जैसा पुत्र हर किसी को मिले । ऐसा ही होगा । जिस कुल में मेरा भक्त होता है वह कुल ही पवित्र हो जाता है ।
तुम्हारे पिता तो परम पवित्र हो चुके । मैं तुझे अमरत्व प्रदान करता हूं ।” भगवान ने भक्त को वर दिया । प्रस्ताद अमर हुए । वेदानुसार महाभक्त विष्णुप्रिय भक्तश्रेष्ठ प्रस्ताद आज भी सुतल में अपने इष्ट की नित्य साधना में निरत हैं ।
Life Story # 7. भक्त श्री भक्ति वेदांत |
कृष्णमार्गी भक्तों की शृंखला में जितने भी भक्त हुए हैं सभी में एक समानता तो अवश्य मिलती है कि कृष्णमार्गी प्रेम की परिभाषा के पर्याय बने हैं । पश्चिम बंगाल में कलकत्ता के हरिसन रोड पर एक वैष्णव परिवार निवास करता था ।
गौरमोहन और रजनी नाम के वैच्यव दम्पती भगवद्भजन में रुचि रखने वाले कृष्णभक्त थे । शुद्ध शाकाहारी तो यह थे ही जब तक प्रात: वदन न कर लेते कुछ ग्रहण तक नहीं करते थे । दम्पती सोने से पूर्व अपनी माला से भगवान का स्मरण करते भगवान की पूजा करते और श्रीमद्भागवत गीता का पाठ करते ।
इन्हीं दम्पती के घर 1 सितम्बर : 1868 को एक पुत्र-रत्न ने जन्म लिया जिसका नाम अभयचरण डे रखा गया । जन्म के समय ही वालक की जन्मपत्री बनी और ज्योतिषी ने कहा कि वह बालक साधारण नहीं था । कुंडली के अनुसार बालक सत्तर वर्ष की आयु में विदेश भ्रमण करेगा और कृष्ण भक्ति का प्रचार कर विश्व को कृष्ण की लीलामयी महिमा से अवगत कराएगा ।
बालक अभय को कृष्ण भक्ति तो उत्तराधिकार मैं मिली थी । उसकी यह भक्ति आयु के साथ-साथ प्रबल होती गई । कृष्ण की बाल लीलाएं और कृष्ण की उपासना से अभय कृष्ण के रूप पर मोहित हो गया । छ : वर्ष की आयु में अभय ने अपने पिता से उपहार में कृष्ण की मूर्ति मांगी ।
पिता ने राधाकृष्ण की एक सुंदर-सी मूर्ति अपने पुत्र को ला दी । अभय तो बचपन से ही घर में राधा-कृष्ण की पूजा देखता था । घर से कुछ ही दूरी पर राधामाधव मंदिर भी था । अब स्वय भगवान की मूर्ति उसके पास थी तो वह उनका अनन्य पुजारी बन गया । विधिपूर्वक पूजा करने लगा ।
अभय की माता की एक ही हार्दिक इच्छा थी कि उनका पुत्र लदन में जाकर वकालत की शिक्षा प्राप्त करे परतु अभय के पिता तत्कालीन पाश्चात्य संस्कृति से भयभीत थे । ”यदि अभय लंदन गया तो वहा का वातावरण इसके वैष्णव संस्कारों का हनन कर सकता है ।” पिता ने कहा ।
”ऐसा क्यों?” माता ने विस्मय से पूछा । ”क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में लज्जा संस्कार और धर्माचरण का स्थान नहीं है ।” पिता ने स्पष्ट कहा । माता को कारण उचित लगा और अभय को स्थानीय कॉलेज में प्रवेश दिला दिया गया । कुशाग्र बुद्धि अभय ने स्नातक की परीक्षा पास कर ली ।
कॉलेज की परीक्षा खत्म हुई तो पिता ने अभय को अपने मित्र डॉक्टर कार्तिक चद्र बोस के पास कलकत्ता भेज दिया । वहां डॉक्टर बोस ने उन्हें अपनी प्रयोगशाला में काम दे दिया । सन् 1922 में अभय की मुलाकात अध्यात्म गुरु श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती से हुई ।
अभय ने उन्हें अपना गुरु मान लिया और उनसे दीक्षा ली । ”अभय यदि जीवन की सार्थकता सिद्ध करनी है तो चैतन्य महाप्रभु के संदेशों को समस्त संसार में फैलाओ ।” गुरुजी ने कहा । परंतु दासता में जकड़ा भारतीय समाज अभय को शंकाग्रस्त कर रहा था ।
वह सोचते थे कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता तब तक कोई भी धर्म की आवाज न सुनेगा जबकि स्वामीजी का कहना था कि कृष्ण-चेतना का विश्वव्यापी प्रचार कभी भी किया जा सकता है । अभय किसी कार्य से इलाहाबाद पहुंचे । अपने गुरु से उन्होंने फिर भी सम्पर्क खत्म नहीं किया ।
सन् 1935 में वह अपने गुरु के दर्शनार्थ गोवर्धन पहुंचे । वहां राधाकुड के तट पर गुरु-शिष्य की यह भेंट अभय के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना बन गई । इसी भेंट में अभय अपने गुरु के असीमित ज्ञान से अवगत हुए और उन्हें गुरु के उद्देश्य को स्वीकारने में कोई शंका न हुई ।
”अभय किसी भी समाज में अपना अनुभव वितरण करने का सबसे सुगम साधन पुस्तक है । यदि अवसर और सामर्थ्य हो जाए तो पुस्तकें अवश्य प्रकाशित करना ।” गुरुजी ने अभय को ज्ञान दिया । नवम्बर 1936 में फिर दोनों मिले ।
”गुरुदेव मेरे योग्य कोई सेवा बताइए ।” अभय ने गुरु से पूछा । ”अभय मैं समझता हूं कि तुम उन लोगों को जो हमारी भाषा नहीं जानते हमारे अनुभव और विचारों को अंग्रेजी में अनुवाद करके पढ़ा सकते हो । इस कार्य से तुम एक दिन बहुत बड़े धर्म-प्रचारक सिद्ध हो जाओगे ।”
अभय ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की । और एक महीने बाद ही स्वामी भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने अपने शिष्य को अपना मिशन सौंपकर महानिर्वाण प्राप्त किया और निजधाम जा बसे । स्वामी भक्तिसिद्धांत की मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों में मंदिर के स्वामित्व के लिए झगड़ा होने लगा ।
उधर अभय अपने गुरु की इच्छा और आज्ञा पूर्ण करने के लिए एक पत्रिका प्रकाशित कराने के लिए संघर्षरत थे । इस पत्रिका का नाम उन्होंने ‘बैक टू गॉड हैंड’ रखा था । अभय गीता के तत्त्वों का प्रवचन करने में अधिक आनंद का अनुभव करते थे परंतु उनकी धर्मपत्नी को उनके धार्मिक कर्मकांड नहीं सुहाते थे ।
यहां तक कि उनकी पत्नी ने एक दिन श्रीमद्भागवत गीता बेचकर उससे प्राप्त पैसों से चाय और बिस्कुट खरीद लिए । अभय बुरी तरह व्यथित हो गए और उन्होंने तत्काल अपने परिवार से सम्बध तोड़ दिए और अपने धर्ममार्ग पर बढ़ चले ।
वह कलकत्ता से दिल्ली आ गए और यहा कुछ धार्मिक संस्थाओं और दानी सदनों के सहयोग से अपनी पत्रिका ‘बैक टू गॉड हैंड’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया । पत्रिका का सम्पादकीय और सभी लेख उन्होंने स्वयं लिखे और किताब का स्वय ही विक्रय भी किया ।
कुछ प्रतियां विदेशों में भी भेजीं । यह कठिन परीक्षा का समय था । फिर भी अभय परिश्रम करते रहे । अब वह वृदावन आकर रहने लगे । फिर अभय ने स्वप्न में गुरु का नवीन आदेश सुना और उसी के अनुसार सन्यास ग्रहण कर लिया ।
सन्यास के पश्चात उनका नाम ‘अभयचरणारविंद भक्ति वेदांत स्वामी’ पड़ गया । वे दिल्ली पहुंचे और चांदनी चौक में स्थित राधा-कृष्ण मंदिर में रहने लगे । यहीं उन्होंने श्रीमदभागवत् का अंग्रेजी में अनुवाद किया । इसका पहला खड सन् 1962 में प्रकाशित हुआ जिसे विद्वानों ने सराहा ।
13 अगस्त, 1965 को भक्ति वेदांत स्वामी को अमेरिका जाने का बहु प्रतीक्षित अवसर मिला । उनके गुरु का यही आदेश भी था । वहा पहुचकर उन्होंने भागवत गीता का अनुवाद भी जारी रखा और अमेरिकी समाज को गीता के दर्शन से परिचित कराने लगे ।
धीरे-धीरे इन्हें ख्याति मिलती जा रही थी । लोग उन्हें सुनने और समझने लगे थे और उन्होंने अपने लक्ष्य की तरफ अग्रसर होकर कृष्णा चेतना के प्रचार-प्रसार और साहित्य प्रकाशन का कार्य त्वरित कर दिया । साहित्य प्रकाशन और वितरण के लिए उन्होंने ‘इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्हासनेस’ इस्कॉन की स्थापना की ।
यह अंतर्राष्ट्रीय संघ था और यही भक्ति वेदांत स्वामी के पावन लक्ष्य की पहली प्राप्ति थी । यहीं से उनके जीवन की धार्मिक यात्रा को विश्वस्तर पर मान्यता मिली । उनका प्रभाव बढ़ता गया और अमेरिका की तरुण पीड़ा उनकी ओर आकर्षित होने लगी ।
आचार्य भक्ति वेदांत ने उन्हें गायत्री महामंत्र का जाप और जाप के समय माला फेरना सिखा दिया । पुर सितम्बर 1966 को उन्होंने प्रथम दीक्षा समारोह आयोजित किया । इस दीक्षांत समारोह में उन्होंने ग्यारह शिष्यों को मादक पदार्थ और अन्य अनैतिक प्रवृत्तियों के परित्याग की शपथ दिलाई ।
भक्ति वेदांत स्वामी अनुशासनप्रिय थे । उनके नियम बड़े कठोर थे । फिर भी उनके शिष्यों में उनके प्रति पूर्ण आस्था थी । स्वामीजी ने शिष्यों की दिनचर्या निश्चित कर दी थी । प्रात: काल सड़कों पर गायत्री महामंत्र का जाप करना और अन्य लोगों को जाग्रत करना उनका नियमित कार्य था ।
आचार्य ने कई कृष्ण मंदिर स्थापित किए और जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सवों का सफल आयोजन किया । कई धर्मग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया । सन् 1967 में अपने पश्चिमी शिष्यों सहित वे भारत आए । भारतीय वेशभूषा में अमेरिकी शिष्य महमित्र का जाप करते कौतूहल का विषय बन गए ।
स्वामीजी ने सबके नाम भी सस्कृत भाषा में रखे । कुछ समय भारत में रहकर यह धर्मदल अमेरिका लौट गया । स्वामीजी ने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं । उनकी पुस्तकें करोड़ों की संख्या में विक्रय होती थीं । उनकी कई पुस्तकें तो अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तक के रूप में पढ़ाई जाने लगी थीं ।
तेईस भाषाओं में उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं । दस करोड़ पाठकों ने उनकी पुस्तकें पड़ी । वह अपने शिष्यों से कहते थे कि : ”समर्पण का अर्थ गुरु की अंधभक्ति करना नहीं है । जब तक जिज्ञासा पूर्ण शात न हो जाए तब तक गुरुता भी पूर्ण नहीं है ।
जब तक तुम्हें विश्वास न हो जाए कि गुरु पूर्ण ज्ञानी है तब तक समर्पण उचित नहीं है । फिर भी विवेक को जाग्रत रखो । तब दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति होगी ।” स्वय को कृष्ण नाम के प्रसार का उपकरण मानने वाले श्री भक्ति वेदांत स्वामी ने अपना जीवन सार्थक सिद्ध कर दिखाया ।
और 14 नवम्बर, 1977 में 81 वर्ष की अवस्था में इन्होंने इस असार संसार को त्यागकर गोलोक में वास किया । कृष्ण की भूमि वृंदावन इनका मोक्ष बनी जहां इन्होंने देह त्यागी ।
Life Story # 8. परमभक्त तुलसीदास |
कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष की सफलता के पीछे किसी स्त्री का बहुत योगदान रहता है । जिस समय राष्ट्र भारत पर कई प्रकार के सकट गहरा रहे थे हिन्दुत्व खतरे में था चहुं ओर अधार्मिक गतिविधियां पैर फैला रही थीं और किसी को कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था उस समय समस्त हिन्दू समाज किसी ऐसे मार्गदर्शक की प्रतीक्षा में था जो हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति की रक्षा कर सके ।
तभी बांदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में आत्माराम दुबे नाम के सरयूपारीण ब्राह्मण की पत्नी हुलसी के गर्भ से तुलसी का जन्म हुआ जिन्होंने हिन्दू जाति के भविष्य में एक आशापूर्ण प्रकाश को आलोकित कर दिया । संवत् 1554 (सन् 1497) श्रावण मास की शुक्ल सप्तमी को तुलसीदास का जन्म हुआ ।
जन्म से ही नहीं गर्भ से भी तुलसी एक असाधारण, आत्मा थे । जीवनचक्र के नियमानुसार नर तन पाने के लिए जीव को नौ मास तक माता के… गर्भ में रहना पड़ता है परतु तुलसी बारह माह तक माता के गर्भ में रहे । यह एक अद्वितीय और अविश्वसनीय घटना थी ।
जन्म के समय भी तुलसीदास कम विचित्र कौतुक वाले नहीं थे । नवजात शिशु की भांति वह तनिक भी न रोए । उनका नवजात शरीर पांच वर्ष के बालक के जैसा था । उनके मुंह में पूरे दांत थे । सारा गांव ऐसे बालक के जन्म से अचम्भित था ।
जब उनके पिता ने सुना कि उनकी पत्नी के गर्भ से ऐसा बालक जन्मा है तो वह किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठे । माता हुलसी भी घबरा गईं और तीसरे दिन ही तुलसी को अपनी दासी मुनियां के साथ अन्यत्र भेज दिया ।
उधर मुनियां ने बालक का नाम ‘रामबोला’ रख दिया था । कारण भी था । जन्मते ही बालक के मुख से ‘राम’ निकला था । साढ़े पाच वर्ष तक मुनियां रामबोला को अपने बच्चे की तरह पालती रही और अंतत: काल की क्रूर दृष्टि मुनियां पर पड़ गई । रामबोला को अनाथ करके मुनियां अपने मूल से जा मिली ।
अब रामबोला पूरी तरह अनाथ हो गए थे और वह इधर-उधर भटकने लगे थे । किसी तरह वह अपना जीवन-यापन कर रहे थे । भगवान शंकर और माता पार्वती ने जब उज्जल भविष्य को वर्तमान में इस दीन अवस्था में देखा तो भगवान शंकर की आज्ञा से पार्वतीजी एक ब्राह्मणी का वेष बनाकर तुलसीदास को नित्यप्रति भोजन देने आने लगीं ।
परंतु यह न तो सटीक समाधान था और न अनवरत चल सकता था । तब भगवान भोलेनाथ ने अयोध्या के परमसंत श्री नरहर्यानंदजी को स्वप्न में तुलसीदासजी के बारे में निर्देश दिए । और श्री नरहर्यानंदजी रामबोला को ढूंढकर उन्हें अपने साथ अयोध्या ले गए और संवत् 1561 (सन् 1504) माघ मास की शुक्ल पंचमी को रामबोला का यज्ञोपवीत संस्कार करके उनका नाम तुलसीदास रख दिया ।
तुलसीदास की ज्ञान शक्ति से स्वयं नरहर्यानंदजी भी उस समय चकित रह गए जब तुलसीदास ने बिना सिखाए ही गायत्री महामंत्र का शुद्ध उच्चारण किया । तत्पश्चात नरहर्यानंदजी ने पांचों वैष्णव संस्कार करके तुलसीदास को राममत्र से दीक्षित किया ।
फिर तो तुलसीदास ने गुरु की सिखाई प्रत्येक बात को सीख लिया । प्रखर ग्रास्य शक्ति के शिष्य पर प्रत्येक गुरु को गर्व होता है । गुरुजी अपने शिष्य को लेकर सोरों पहुंचे और वहा उन्हें रामकथा का सुंदर श्रवण कराया । फिर उन्होंने अपने पारंगत शिष्य को स्वतत्र छोड़कर स्वय काशी प्रस्थान किया ।
संवत् 1573 (सन् 1516) ज्येष्ठ मास की शुक्ल त्रयोदशी को तुलसीदास का विवाह हुआ । उनकी पत्नी रत्नावली अत्यत रूपवान और धार्मिक महिला थीं । सुंदर जीवनसंगिनी पाकर तुलसीदास अपने लक्ष्य को भूलकर पत्नी के सौंदर्य आकर्षण में फस गए। रत्नावली से क्षण-भर का विछोह भी उन्हें असहनीय था ।
एक बार रत्नावली अपने पीहर चली गई । तुलसीदास उस समय घर पर नहीं थे । उन्हें जब पता चला कि उनकी पत्नी पीहर चली गई है तो वह भी उसके पीछे ससुराल पहुँच गए । रत्नावली को अपने पति का इस प्रकार पीछे-पीछे आना बड़ा ही लज्जाजनक लगा ।
जब तुलसीदास रत्नावली के सामने आए तो वह उन पर बड़ी क्रोधित हुईं । ”तुमने मेरे पीछे-पीछे आकर उचित नहीं किया । एक पुरुष को यह शोभा नहीं देता कि ऐसा अशोभनीय व्यवहार करे । मानव जीवन को मात्र सुख-भोग विलास में व्यतीत करना उचित नहीं है ।
जैसी प्रीति तुमने चर्म से की है वैसी प्रति धर्म से करो तो उद्धार हो जाए । जैसी इच्छा ‘काम’ की है वैसी ‘राम’ की होती तो जन्म सफल हो जाता । धिक्कार है तुम्हारे पुरुषार्थ को ! रत्नावली ने कहा । तुलसीदास का सिर लज्जा से झुका ही था ।
पत्नी के तिरस्कार भरे वचन सुनकर उनके अंदर का पुरुष जाग उठा । अंतर में ऐसी विरक्ति उत्पन्न हुई कि अंतर्पट खुलते गए और ज्ञानचक्षु खुल गए । उसी क्षण भगवान श्रीराम के चरणों में लौ लगा ली और सांसारिक सम्बंधों को त्यागकर काशी चल पड़े ।
काशी में भगवान की आज्ञा से वीर हनुमान ने उन्हें भगवान श्रीराम से मिलाने का स्थान चित्रकूट बता दिया । तुलसीदास चित्रकूट आ गए । चित्रकूट में रामघाट पर निवास किया और भिक्षा मागकर उदरपूर्ति करने लगे । एक दिन प्रदक्षिणा करने लगे तो मार्ग में दो सुदर कुमार सुसज्जित घोड़ों पर सवार मिले।
इनका हनुमानजी से साक्षात्कार था । हनुमानजी ने इन्हें बताया कि मार्ग में मिले दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण थे । तुलसीदास को बड़ा पश्चात्ताप हुआ । हनुमानजी ने सात्वना दी कि प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे । संवत् 1607 (सन् 1550) मौनी अमावस बुधवार को तुलसीदास घाट पर चदन घिस रहे थे कि दो सुकुमार बालक उनके सामने आए ।
”बाबा, थोड़ा-सा चदन हमें भी दो ।” वालको न कहा । वहीं समीप एक वृक्ष पर हनुमान भी तोता रूप में बैठे थे । उन्होंने तुलसीदासजी को सांकेतिक भाषा में बताया कि उनके समक्ष श्रीभगवान हैं। तुलसीदासजी उस अद्भुत छवि पर मोहित हो गए । भगवान ने अपने हाथों स अन्य और तुलसीदास के मस्तक पर चदन लगाया और फिर अंतर्धान हो गए।
सवत् 1627 (सन् 1507) को तुलसीदास आयोध्या आए । वहा उन्हें अपने अंदर कवित्व का आभास हुआ और वह संस्कृत वहन्-लिखने लगे। परतु वे दिन में जो भी लिखते वह रात्रि में लुप्त हो जाता। एक दिन हनुमानजा स आदेश मिला कि अपनी भाषा में पद लिखें ।
तब संवत् 1631 (सन् 1574) में रामनवमा दिन उन्हीने ‘श्री रामचरितमानस’ की रचना प्रारम्भ कर दी । दो वर्ष सात माह पच्चास दिना ग्रथ को उन्होंने पूर्ण किया। काशी जाकर उन्होंने भगवान विश्वनाथ और के समक्ष अपने स्वलिखित ग्रेंथ का पाठ किया।
और यह रामचरितमानस हिन्दू और हिन्दुत्व क्य टूट जैसे रामवाण ही बन गया । जिसपर भगवान ने अपने हस्ताक्षर करके उन्हें अपन भक्य हाल क्य अद्भुत पुरस्कार दिया । आज रामचरितमानस प्रत्येक हिन्दू के लिए एक बन्द धर्म है । संसार भर के साहित्य में इसका स्थान अग्रणी है ।
जिस हिन्दू घर रामचरितमानस की प्रति नहीं है वह हिन्दू ही नहीं है । तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का एक अद्भुत पुस्तक भेंट की। फिर सवत् 1680 (सन् 1623) को अस्सीघाट पर गंगा किनार इस महाकवि ने राम नाम कहते हुए अपने श्वास को राम में मिला दिया ।
Life Story # 9. भक्त कवि रसखान |
‘रसखान’ अर्थात रस की खान उस कवि हृदय भगवद्भक्त और कृष्णमार्गी व्यक्तित्व का नाम था जिसने यशोदानंदन श्रीकृष्ण की भक्ति में अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दिया ।
भक्त-शिरोमणि रसखान का जन्म विक्रम संवत् 1635 (सन् 1578) में हुआ था । इनका परिवार भी भगवद्भक्त था । पठान कुल में जन्मे रसखान को माता-पिता के स्नेह के साथ-साथ सुख-ऐश्वर्य भी मिले । घर में कोई अभाव नहीं था ।
चूंकि परिवार भर में भगवद्भक्ति के सस्कार थे इस कारण रसखान को भी बचपन से धार्मिक जिज्ञासा विरासत में मिली । बृज के ठाकुर नटवरनागर नंदकिशोर भगवान श्रीकृष्ण पर इनकी अगाध श्रद्धा थी । एक बार कहीं भगवत्कथा का आयोजन हो रहा था ।
व्यासगद्दी पर बैठे कथावाचक बड़ी ही सुबोध और सरल भाषा में महिमामय भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का सूंदर वर्णन कर रहे थे । उनके समीप ही वृजराय श्यामसुदर का मनोहारी चित्र रखा था । रसखान भी उस समय कथा श्रवण करने पहुंचे ।
ज्योंही उनकी दृष्टि व्यासगद्दी के समीप रखे कृष्ण-कन्हैया के चित्र पर पड़ी वह जैसे स्तम्भित हो गए । उनके नेत्र भगवान के रूप माधुर्य को निहारते रह गए । जैसे चुम्बक लोहे को अपनी तरफ खींचता है उसी प्रकार रसखान का हृदय उस मनमोहन की मोहिनी सूरत की तरफ खिंचा जा रहा था ।
कथा की समाप्ति तक रसखान एकटक उन्हें ही देखते रहे । जब सब लोग चले गए तो व्यासजी ने उनकी तरफ देखा और जब उनकी अपलक दृष्टि का केंद्र देखा तो व्यास महाराज भी मुस्कराने लगे । वह उठकर रसखान के पास आए ।
”वत्स! क्या देख रहे हो ?” उन्होंने सप्रेम पूछा । ”पंडितजी सामने रखा चित्र भगवान श्रीकृष्ण का ही है न ?” ”ही । यह उन्हीं नटवर नागर का चित्र है ।” ”कितना सुंदर चित्र है! क्या कोई इतना दर्शनीय और मनभावन भी हो सकता है ?” रसखान गद्गद् कंठ से बोले ।
”जिसने इतनी दर्शनीय सृष्टि का निर्माण कर दिया वह दर्शनीय और मनभावन तो होगा ही ।” व्यासजी ने कहा । ”पंडितजी यह मनमोहिनी सूरत मेरे हृदय में बस गई है । मैं साक्षात इस अद्भुत मुखमण्डल के दर्शन करने का अभिलाषी हूं । क्या आप मुझे उनका पता बता सकते हैं ?”
”वत्स बृज के नायक तो बृज में ही मिलेंगे न !” ”फिर तो मैं बृज को ही जाता हूं ।” जिसके हृदय में भाव जाग्रत हो जाएं और प्रभु से मिलन की उत्कठा तीव्र हो जाए उसे संसार में कुछ और दिखाई नहीं पड़ता । रसखान भी बृज की तरफ चल पड़े और वृदावन धाम में जाकर निवास किया ।
वृज की रज से स्पर्श होते ही मलीनता नष्ट हो जाती है । भगवती कालिंदी के पावन जल की पवित्र शीतलता के स्पर्श से ही रसखान के भावपूर्ण हृदय में प्रेमावेग से कम्पन होने लगा । वृदावन के कण-कण से गूंजती कृष्णनाम की सुरीली धुन ने उन्हें भावविभोर कर दिया । धामों का धाम परमधाम वृदावन जैसे स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था ।
रसखान ने इस दिव्य धाम की अनुभूति को अपने पद में व्यक्त किया:
या लकुटी अरु कमरिया पर राज तिहु पुर कौ तजि डारौं । आठहु सिद्धि नवौं निधि कौ सुख नंद की गाय चराय बिसारौं । ‘रसखान’ सदा इन नयनन्हिं सौ बृज के वन बाग तड़ाग निहारौ । कोनहि कलधौत के धाम करील को कुंजन ऊपर वारौं ।
फिर रसखान के हृदय में गिरधारी के गिरि गोवर्धन को देखने की इच्छा हुई तो यह गोवर्धन जा पहुंचे । वहां श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए मंदिर में घुसने लगे । ”अरे-रे…रे…कहां घुसे जा रहे हो?” द्वारपाल ने टोक दिया: ”तुम्हारी वेशभूषा तो मुस्लिम है । तुम मंदिर में नहीं जा सकते ।”
”यह कैसा प्रतिबंध! वेशभूषा से भक्ति का क्या सम्बंध ?” ”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता । मैं तुम्हें अंदर नहीं घुसने दूंगा ।” ”भाई मैं भी इंसान ही हूं । तुम्हारी ही तरह मैंने भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है । तुम्हारी ही तरह ईश्वर ने मुझे भी भजन-सुमिरन और दर्शन का अधिकार दिया है ।
फिर तुम मुझे प्रभु के दर्शनों से क्यों वंचित रखना चाहते हो?” ”अपने यह तर्क किसी और को सुनाना । मैं विधर्मी को मंदिर में नहीं घुसने दे सकता । मैं इसलिए यहां तैनात हूं ।” “परंतु…।” ”तुम इस प्रकार नहीं मानोगे ।” द्वारपाल ने गुस्से से रसखान को सीढ़ियों से धक्का दे दिया ।
रसखान उस व्यवहार पर व्यथित तो हुए और उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि बृज में ऐसी मतिबुद्धि वाले इसान भी रहते हैं परतु अपने श्यामसखा पर उन्हें विश्वास था । रसखान ने अपने को पूरी तरह से अपने कृष्ण सखा के हवाले करके अन्न जल त्याग दिया ।
देस बिदेस के देखे नरेसन, रीझि की कोउ न बूझ करैगो । तातें तिन्हें तजजि जान गिरयौ गुन सौं गुन औगुन गांठि परैगो । बांसुरी वारौ बड़ौ रिसवार है श्याम जो नैकु सुठार ठरैगो । लाडिलौ छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो ।
भगवान भी कब अपने भक्त की हृदय वेदना से अनभिज्ञ थे । भक्त की विकलता तो भगवान को भी विकल कर देती है । प्राणवल्लभ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त की विकलता का आभास किया और भक्त की सारी पीड़ा हर ली । हरि का तो यही कार्य होता है ।
भक्त के समक्ष साक्षात प्रकट होकर भगवान ने द्वारपाल के दुर्व्यव्यवहार की क्षमा मांगी । फिर रसखान को गोसाईं विट्ठलनाथजी क पास जाने का आदेश दिया । रसखान प्रभु का आदेश पाकर गोसाईजी के पास पहुच अन्त्रं उन्होंने उन्हें गोविंदकुण्ड में स्नान कराकर दीक्षित कर दिया ।
फिर तो जैसे रसखान के अंदर से भक्ति काव्य के स्रोत फूट पड़े । आजीवन भगवान कृष्ण की लीला को काव्य रूद्र में वर्णन करते हुए बृज में रहे । केवल भगवान ही उनके सखा थे, सम्बंधी थे, मित्र थे । अन्य कोई चाह नहीं थी । कोई लालसा नहीं थी ।
परंतु एक इच्छा जो उनके पदो से स्पप्ट झलकती है वह जन्म-जन्मातर बृज की भूमि पर ही जन्म लेने की थी । उन्होंने कहा कि:
मानुष हों तो वही ‘रसखान’ बसौं बृज गोकुल गांव के गवारन । जो पसु हों तो कहा बस मेरौ चरौं नितनंद की धेनु मंझारन । पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरंदर कारन । जो खग हों तौ बसेरों करौं नित कालिन्दी कूल कदंब की डारन ।
यह उनकी इच्छा थी कि उन्हें किसी भी योनि में जन्म मिले पर जन्मभूमि बृज ही हो । उच्च कोटि के काव्य और भक्ति के धनी रसखान ने प्रभु स्मरण करते हुए पैंतालीस वर्ष की आयु में भगवान के निजधाम की यात्रा की ।
जिनके दर्शनों के लिए कितने ही योगी सिद्धपुरुष तरसा करते हैं उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण भक्तवत्सल भगवान ने अपने हाथों से अपने इस भक्त की अंत्येष्टि कर भक्त की कीर्ति को बढ़ाया । प्रेमपाश में बंधे भगवान की कृपा और दर्शन का परम सौभाग्य विरलों को ही मिलता है और रसखान भी उन्हीं में से थे ।
Life Story # 10. परमभक्त नागेश |
धर्म और दर्शन साहित्य एवं संस्कृति का पतन देख नागेश भट्ट का स्वाभिमानी मन विचलित हो उठा । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक साहित्य का व्यर्थ भाग सुधार नहीं डालेंगे जब तक शुद्ध और सच्चे दर्शन का निर्माण नहीं कर लेंगे तब तक और कोई काम करेंगे ही नहीं चाहे मुझे भूखों ही क्यों न मरना पड़ ।
शाम तक जो कुछ मिल जाता खाकर वे दिन भर ग्रंथों की खोज पठन-पाठन मनन-चिंतन और लेखन-संकलन में ही लगे रहते । अपनी संस्कृति को जीवित करने की उनकी अदम्य भावना ने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखने दिया ।
आयु जैसे-जैसे ढलती गई वैसे-वैसे उनका शरीर ही निर्बल नहीं होता गया वरन पीठ मे कूबड़ भी निकल आया । लोग हंसते और कहते : ‘यह देखो भगवान का काम कहते हैं जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा स्वयं करता है । अब भगवान को क्या हो गया जो अपने इस प्रेमी की भी रक्षा नहीं कर पाए ?’
कहने वाले तो नागेश के सामने भी न जाने क्या-क्या बक जाते पर उस निस्पृह सेवक का मन जैसे कमल का पत्र वन गया था । कोई कुछ भी कहता वह उसके मन से उसी तरह हुलक जाता जैसे पत्ते पर से पानी ।
जिस दीवार के सहारे बैठते थे जब वह चुभने और कूबड़ को कष्ट देने लगी तौ नागेश भट्ट ने उस दीवार को कटवाकर छेद करा लिया । छेद इतना बड़ा था कि जव वे दीवार के सहारे बैठ जाते तो कूबड़ उसी में समा जाता और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होता ।
इस तरह निर्धनता और अभाव के मध्य नागेश भट्ट की साधना निरंतर चलती रही । स्वार्थी तत्त्वों द्वारा मिथ्या विचारों श्लोकों को अपने साहित्य में से वे ऐसे निकाल-निकालकर फेंकते गए जैसे किसान खेत के झाडू-झखाड् को ।
नागेश भट्ट प्रकांड पंडित गिने जाने लगे । उनकी योग्यता के आगे कोई भी प्रतिक्रियावादी व्यक्ति टिक नहीं पाता था । महाराज पेशवा बाजीराव ने यह सब सुना तो स्तब्ध रह गए । सचमुच ऐसा भी पंडित और लगनशील तपस्वी अब भी इस देश में हो सकता है इस पर उन्हं सहसा विश्वास नहीं हुआ ।
उन्होंने ऐसे महान साधक और संस्कृतिनिष्ठ देवपुरुष के दर्शन और सहायता करने का निश्चय किया । पेशवा बाजीराव महाराष्ट्र से चलकर स्वय ही वाराणसी पहुंचे । वस्तुत: जैसा सुना था वैसा ही पाया । नागेश भट्ट का शरीर काल का कौर बन चला था पर वह थे कि अब भी पुस्तकों का ढेर जमा किए अपनी साधना में जुटे पड़े थे ।
जैसे शेष संसार उनके लिए किसी श्मशान की तरह हो जहां न तो कुछ दर्शनीय होता है न ग्रहणीय । संसार में कोई भौतिक सुख भी होता है यह उन्होंने जाना ही नहीं । पेशवा ने उन्हें देखा तो उनकी औखें डबडबा आईं । अपने दुर्भाग्य पर उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।
ऐसे को तो बहुत पहले सहयोग दिया जाना चाहिए था । सम्भवत: तब वे अब की आपेक्षा गुणा अधिक काम कर सके होते । बाजीराव ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया और बड़े आदर के साथ कहा : ”आचार्य प्रवर ! आज्ञा दें । मैं कुछ सहायता कर सकूं तो यह मेरा बड़ा सौभाग्य होगा ।”
ध्यानभंग हुआ तो नागेश ने सिर ऊपर उठाकर महाराज की ओर देखा और उन्हें बड़े आदर के साथ पास में बैठाते हुए कहा : ”हा महाराज ! आत्मा के अस्तित्त्व को प्रमाणित करने के लिए एक सूत्र कठिनाई से हाथ लगा है पर उसकी व्याख्या नहीं हो पा रही । आप उसमें मेरी सहायता कर दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी ।”
आर्थिक सहायता देने के लिए आए महाराज पेशवा यह सुनकर आश्चर्यचकित हो बोले : ”मैं तुच्छ प्राणी इसमें आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता । मैं आपकी साधना को धन से तोलने की भूल कर बैठा था मुझे क्षमा करें । मैं आपके किसी भी काम आ सका तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा ।”
ऐसा कहते-कहते महाराज पेशवा की आखों से आसू छलछला उठे । नागेश भट्ट जीवन पर्यंत ग्रंथ शुद्धि के कार्य में लगे रहे और अंत में आत्म शुद्धि को प्राप्त कर परमगति को प्राप्त हुए ।
Life Story # 11. एकलव्य की गुरु भक्ति |
निषाद पुत्र एकलव्य निश्चित ही अर्जुन के समान महान धर्नुधर होता या फिर उससे भी बढ्कर ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन एक बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि गुरु भक्ति में उसका मुकाबला अर्जुन भी नहीं कर सकता था ।
एकलव्य हस्तिनापुर के शस्त्रगुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या की शिक्षा लेने आया था उसने बचपन से ही कौरव-पाण्डवों के उस महान गुरु के विषय में सुन रखा था और हृदय में गुरु रूप में उनकी काल्पनिक छवि बना रखी थी ।
जब उसका सामना गुरु द्रोणाचार्य से हुआ तो वो अभिभूत हो गया उसने दूर से ही अपने भावी गुरु को साष्टांग दण्डवत किया और हाथ जोड़ कर निवेदन किया: ”आपके दर्शन करके में धन्य हो गया मैं आपके श्रीचरणों में रहकर धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं ।”
गुरु द्रोणाचार्य उस निषादपुत्र के निश्छल आग्रह पर स्तब्ध रह गए परतु उन्होंने पितामह भीष्म को केवल राजपुत्रों को ही शिक्षा देने का वचन दे रखा था । उन्होंने अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहा : ”वत्स मैं राजकुमारों के अतिरिक्त किसी को शस्त्र शिक्षा नहीं दे सकता ।”
”मेरा हृदय आपको गुरु मान चुका है गुरुदेव”: एकलव्य के शब्दों में एक अद्भुत-सा आत्मविश्वास झलक रहा था । उसने कहा: ”बस आप मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए । मैं आपको कभी निराश नहीं करूगा ।” गुरु द्रोणाचार्य को एकलव्य का आशय समझ में नहीं आया किंतु न जाने क्यों उनके हृदय से आशीर्वाद के स्पंदन निकलकर एकलव्य को सराबोर कर रहे थे ।
सम्भवत : गुरु द्रोणाचार्य उस भावपूर्ण घटना को भूल गए थे परतु एकलव्य के लिए वो घटना भक्त का भगवान से मिलन था । एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर फिर घर नहीं गया । उसने वहीं वन में एक पवित्र स्थान पर गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनाई और उन्हें प्रणाम करके धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा ।
उसकी लगन और एकाग्रता ईश्वर की आराधना के समरूप हो गई । मूर्ति में दिव्यप्रकाश झलकने लगा । सबका गुरु तो ईश्वर ही है शायद उसकी गुरु भक्ति ने परमगुरु को उस मिट्टी की मूर्ति में प्रतिष्ठित कर दिया था । कई मास बीत गए, एकलव्य का अखंड अभ्यास चलता रहा ।
उसके बाणों में लक्ष्य भेदन की वो शक्ति समा गई जिसे पाने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है । एकलव्य महान धनुर्धर बन चुका था । उधर कौरव और पाण्डवों ने भी धनुर्विद्या के कई कौशल सीख लिए थे । अर्जुन की धनुर्विद्या पर गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा गर्व था ।
एक दिन वे कौरव और पाण्डवों को उसी वन में आखेट के लिए ले गए जहां एकलव्य अभ्यास किया करता था । आखेट में सहयोग के लिए राजकुमार अपने साथ एक कुत्ता भी ले गए थे न जाने उस कुत्ते को कैसे एकलव्य की उपस्थिति का आभास हो गया और वो उसके निकट जाकर भौंकने लगा ।
कुत्ते के भौंकने से अभ्यास करते एकलव्य की एकाग्रता भग हो रही थी उसने कुत्ते को भगाने की कोशिश की पर वो नहीं माना । एकलव्य उसका कोई अहित नहीं करना चाहता था उसने सात बाण अपने धनुष पर चढ़ाए और बिना कोई नुकसान पहुंचाए उस कुत्ते का भौंकना बद कर दिया ।
कुत्ता भागता हुआ अपने स्वामी के पास पहुंचा । गुरु द्रोणाचार्य समेत सभी उस कुत्ते के मुख में धंसे आड़े-तिरछे बाणों को देख कर आश्चर्यचकित रह गए । बिना चोट पहुचाए कुत्ते के मुख को इस प्रकार बद कर देना बहुत बड़ा कौशल था ।
सबसे अधिक चकित तो अर्जुन था उसने गुरु द्रोणाचार्य से कहा : ”गुरुदेव ! आपने तो कहा था कि आप मुझे संसार का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाएंगे किंतु ऐसा कौशल कर दिखाने की क्षमता तो मुझमें अब तक नहीं है ।” ”तुम सत्य कह रहे हो वत्स चलो हम उस अद्भुत धनुर्धर को खोजें जिसने मुझे भी आश्चर्य के सागर में डुबो दिया है ।”
द्रोणाचार्य ने राजकुमारों के साथ वन में उस अद्भुत धनुर्धर को खोजना शुरू किया । कुछ ही देर में वो एकलव्य के सामने थे । एकलव्य अपने गुरु को अपने सामने देखकर उनके चरणों में जा गिरा । गुरु द्रोणाचार्य ने उसे उठाया और पूछा : ”वत्स मैं तुम्हारी धनुर्विद्या के अद्भुत कौशल से अति प्रसन्न हूं ।
ये अद्भुत ज्ञान तुमने कहा से पाया ।” एकलव्य ने हाथ जोड़कर द्रोणाचार्य की मूर्ति की ओर इशारा करके कहा : ”गुरुदेव इस संसार में आपके अलावा धनुर्विद्या का ऐसा अद्भुत ज्ञान और कौन दे सकता है ये सब मैंने आपकी कृपा से ही सीखा है ।”
गुरु द्रोणाचार्य उसकी गुरु भक्ति और लगन को देखकर हैरान थे किंतु उन्होंने अर्जुन को संसार का सबसे महान धनुर्धर बनाने का वचन दिया था । कुछ चिंतन करके वो एकलव्य से बोले : ”आखिर तुमने मुझे गुरु मान कर अपनी इच्छा पूर्ण कर ही ली । क्या तुम मुझे गुरु-दक्षिणा नहीं दोगे ।”
एकलव्य के हर्ष की कोई सीमा न रही वो दोनों हाथ फैलाकर बोला : ”गुरुदेव आप अपनी इच्छा व्यक्त करें संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मैं आपके भेंट न कर सकुं ।” द्रोणाचार्य ने गहरे संकोच के साथ अपनी इच्छा व्यक्त की : “वत्स हो सके तो मुझे क्षमा कर देना, मुझे तुम्हारे दाएं हाथ का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में चाहिए ।”
दाहिने हाथ का अंगूठा ये कैसी गुरु-दक्षिणा थी । दाहिने हाथ का अंगूठा न रहने से बाण चलाया ही नहीं जा सकता था । उसके जीवन भर का सपना, उसकी तपस्या उसका परिश्रम, उसका अभ्यास एक ही क्षण में व्यर्थ होने जा रहा था और उसके चेहरे पर खेद की एक रेखा तक नहीं थी ।
एकलव्य ने अपने बाए हाथ में एक तीक्षण बाण लिया और उसके फल से अपने दाएं हाथ का अगवा काट कर अपने गुरु को समर्पित कर दिया । एकलव्य की गुरु भक्ति देख समय की गति थम गई थी सभी राजकुमार मुंह फाड़े उस महान धनुर्धर और गुरु भक्त को देख रहे थै ।
गुरु द्रोणाचार्य जैसे धैर्यवान गुरु भी अपना धैर्य कायम न रख सके उनकी आखों से सिर झुकाए बैठे एकलव्य के सिर पर एक अश्रु विन्दु गिरा । वे अपनी शक्ति बटोर कर बोले : ”वत्स ! इस संसार में धनुर्विद्या के अनेक ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु दसो दिशाओं को साक्षी मानकर तुझे आशीर्वाद देता हूं कि तेरी हूं कि तेरी इस अभूतपूर्ण गुरु-दाक्षिणा के कारण तेरा यश इस दुनिया में सदा अमर रहंगा ।
Life Story # 12. कृष्णभक्त दामापंत |
तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा । जनता त्राहि-त्राहि करने लगी । अन्न की कमी से लोग भूखों मरने लगे । वृक्ष सूख गए । चारों दिशाओं में करुण क्रंदन होता था ।
उन दिनों गोवलगुंडा बेढरशाही राज्य में मंगलबेड्या प्रात का शासन भार दामाजी पंत ने संभाल रखा था । दामाजी पंत बादशाह के विश्वासपात्रों में थे । पत्नी सहित भगवद्भजन करते हुए भगवान के अनन्य भक्त दामाजी पत निष्काम भावना से अपना कार्य करते थे ।
अपने कर्त्तव्य के प्रति समर्पित दामाजी पंत सहृदयी थे । जब उन्होंने अपने प्रति की जनता को भूख-प्यास से रोते-तड़पते मरते देखा तो उन्होंने राज्य का अन्न भंडार प्रजा के लिए खोल दिया । यद्यपि बादशाह का आदेश नहीं था परंतु मानवता शाही फरमानों की गुलाम नहीं होती ।
हजारों मनुष्य भूखों मरने से बच गए । दामाजी आत्मसंतुष्ट हो गए । परंतु सच्चे लोगों के शत्रु तो ऐसे अवसर की ताक में रहते हैं । दामाजी पंत का एक सहायक नायब सूबेदार उनसे ईर्ष्या रखता था । उसने बादशाह को लिख भेजा कि दामाजी ने बिना शाही हुक्म के राज्य का अन्न भडार लुटा दिया है ।
बेढर का बादशाह क्रोधित हो उठा । उसने तत्काल सेनापति को एक हजार सैनिकों के साथ जाकर दामाजी को बंदी बना लेने की आज्ञा दे दी । सेनापति चल पड़ा और मंगलबेड्या पहुंचा । उस समय दामाजी श्री पांडुरंग की पूजा में खोए थे । उनकी पत्नी ने सेनापति से इस तरह आने का कारण पूछा ।
”बादशाह सलामत की आज्ञा से दामाजी को बंदी बनाने आए हैं ।” ”अभी वे पूजा कर रहे हैं । जब तक पूजा नहीं कर लेते मैं किसी को भी उनकी पूजा में विप्न न करने दूंगी ।” सेनापति उस तेजस्विनी के तेज के सम्मुख झुक गया । पूजा के बाद दामाजी सेनापति से मिले ।
”आपको बादशाह ने बुला भेजा है ।” ”मैं अपनी पत्नी को आश्वासन देता हूं । फिर चलता हूं ।” दामाजी ने कहा और पत्नी को समझाने लगे । ”हमने अपना कर्त्तव्य पालन किया है । अब बादशाह हमें दंडित करें तो भी हमें भयभीत नहीं होना चाहिए ।”
”नाथ भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं । निश्चय ही इसमें हमारा ही कोई हित होगा । आप श्री भगवान का सुमिरन करेंगे और मैं भी उन्हीं भक्तवत्सल श्रीनारायण का नाम लूंगी ।” पत्नी ने कहा । तत्पश्चात दामाजी सेनापति के साथ चल पड़े ।
उधर बेढर का बादशाह अपने कैदी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था । समय गुजर रहा था और बादशाह का क्रोध बढ़ रहा था । बादशाह अपने अपराधी के लिए कोई कड़ा दंड सोच रहा था कि इतने में द्वारपाल ने एक व्यक्ति के आने की सूचना दी जो मंगलबेड्या से आया था ।
बादशाह ने सोचा कि शायद सेनापति ने कोई सूचना भेजी है । उसने उस व्यक्ति को अपने पास लाने की आज्ञा दे दी । आगंतुक एक किशोरवय ग्रामीण था जिसकी सांवली सूरत बड़ी आकर्षक थी । ”जहांपनाह ।” युवक ने जोहार करके कहा: ”मैं मंगलबेड़या से आया हूं ।
अपने स्वामी दामाजी की आज्ञा से आपकी सेवा में हाजिर हूं ।” ”तुम्हारा क्या नाम है?” बादशाह ने सम्मोहित-सा होकर पूछा । ”मेरा नाम तो बिट्ठू है आलमपनाह ।” युवक के स्वर में जाने क्या था कि बादशाह को अपने अंतर में अनोखा भाव जाग्रत होता महसूस हुआ ।
”किस कार्य से आए हो ?” ”सरकार अपराध की माफी सहित अर्ज करता हूं कि मंगलबेड्या की प्रजा अकाल के कारण जब भूखों मर रही थी तब मेरे स्वामी ने राजा के अन्न भंडार को प्रजा में वितरित कर दिया और शाही खजाने में उस अन्न का मूल्य जमा करने हेतु मुझे भेज दिया ।
अब आप अन्न का मूल्य जमा करके उसकी रसीद मुझे दिलवाने की कृपा करें ।” बादशाह हैरान रह गया । वह पश्चात्ताप करने लगा कि क्यों सच्चे दामाजी पर संदेह किया । उस पर आरोप लगाया और बंदी बनाने का भी आदेश दिया । ‘या अल्लाह यह कैसा गुनाह कर दिया ।’
तब बिट्ठू ने अपनी बगल से छोटी-सी थैली निकालकर सामने रख दी । बादशाह की दृष्टि बिट्ठू पर जमी और जमी ही रह गई । ऐसा सुंदर अनूप स्वरूप तो उसने कभी न देखा था । ”सरकार मुझे देर हो रही है ।” बिट्ठू ने कहा: ”कृपा करके यह धन जमा करके मुझे रसीद दिलवाएं ।”
बादशाह अभी भी अपलक उसे ही देख रहा था । बिट्ठू के होंठों पर एक ऐसी निश्छल और रहस्यमयी मुस्कराहट थी कि आलमे-शहंशाह बेढर का बादशाह भी स्वयं को उसका दास महसूस कर रहा था । कुछ देर बाद बादशाह को बाहय ज्ञान हुआ । उसने बिट्ठू को खजाजी के पास भेज दिया और दीवान को अपने पास बुलाया ।
”दीवानजी तुम शीघ्र ही मंगलबेड्या प्रस्थान करो । राह में सेनापति दामाजी को बंदी बनाकर ला रहे होंगे । तुम उन्हें बाइज्जत हमारे पास लाओ ।” दीवान चला गया तो बादशाह व्याकुल हो उठा । उसे बिट्ठू के आकर्षण ने व्याकुल कर दिया था ।
बिट्ठू तो अपना कार्य करके चला भी गया था । अब बादशाह की बेचैनी अत्यधिक बढ़ गई तो उसने बिट्ठू को फिर से देखने की इच्छा से अपने सैनिकों को उसकी तलाश में इधर-उधर भेज दिया । उधर दामाजी बंदी बने अपने विट्ठल की धुन में मग्न हैं ।
उन्हें न अपने बंदी होने का दुख है और न किसी मिलने वाले दंड का भय । वह तो हर क्षण अपने विट्ठल का सुमिरन-कीर्तन कर रहे हैं । प्रात काल होने पर उन्होंने अपने ग्रंथ को पाठ के लिए खोला तो उसमें एक कागज मिला । ”दामाजी पंत ने शाही भंडार के अन्न का मूल्य चुकता किया जिसकी पावती रसीद यह रही ।”
कागज पर इतना ही लिखा था । साथ ही शाही मोहर और बादशाह के दस्तखत भी थे । दामाजी क्षण-भर आश्चर्य में पड़ गए । कुछ भी समझ में न आया तो अपना पाठ करने लगे । कैसे मस्त हो जाते हैं दामाजी अपने इष्ट के सुमिरन में ! आखों से प्रेम के अश्रु बह उठते हैं ! सेनापति सहित सभी सैनिक उनके भक्तिभाव को देखकर उनके प्रति श्रद्धा से भर उठते हैं ।
सभी की दृष्टि में दामाजी भगवान के अनन्य भक्त हैं । ऐसे भक्त की संगति भी लाभकारी होती है । अभी दामाजी का पाठ खत्म नहीं हुआ था कि दीवानजी आ गए । ”सेनापतिजी बादशाह सलामत का नया हुक्म है कि दामाजी को आदर सहित उनके पास लाया जाए । उनकी हथकड़ियां खोल दी जाए । ”
सेनापति को मन की मुराद मिल गई । वह तो स्वय ऐसे सहृदय भक्त को हथकड़ियां लगाकर पछता रहा था । उसने तत्काल दामाजी की हथिकडिया खोल दीं । दामाजी तो अपने पाठ में इतने निमग्न थे कि उन्हें जरा भी भान न हुआ । जब पाठ खत्म हुआ तो भी उन्हें आश्चर्य न हुआ ।
‘हरि इच्छा’ समझकर उन्होंने सेनापति से प्रस्थान की बात कही । उधर बादशाह की बिट्ठू दर्शन की व्याकुलता इतनी प्रबल हो गई कि वह पैदल ही महल से बाहर दौड़ चला । ‘बिट्ठू-बिट्ठू…’ की पुकार मचाता बेढर का बादशाह पागलों की भांति व्यवहार कर रहा था ।
महल भर में हड़कम्प मच गया । बेगमें हक्का-बक्का थीं कि बादशाह को क्या हो गया ? उधर से दामाजी हरिकीर्तन करते चले आ रहे थे । बादशाह भी निकट पहुंच गया और दामाजी से लिपट गया । ”दामाजी मुझे बिट्ठू से मिला दो । मैं उसके बिना नहीं रह सकता । वह प्यारा बिट्ठू कहां रहता है? मुझे उसका पता बता दो ।”
”आप किस बिट्ठू की बात कर रहे हैं जहांपनाह?” दामाजी हैरान थे । ”मजाक मत करो दामाजी । मेरे प्राण निकले जा रहे हैं । मुझे अपने उस बिट्ठू से मिला दो जो तुम्हारे यहां काम करता है । जिसे तुमने अन्न का मूल्य चुकता करने भेजा था ।” दामाजी के चक्षु खुल गए । ग्रथ में मिली रसीद का रहस्य सामने आ गया ।
”आप धन्य हैं जहांपनाह बड़भागी हैं जो त्रिलोक के स्वामी ने आपको प्रत्यक्ष दर्शन दिए । मेरे कारण जगतपिता को कितना कष्ट उठाना पड़ा मेरे लिए वे साधारण दास बने! मैं अधम हूं जो अपने प्राणों का भय जानकर प्रभु से अरदास कर बैठा और प्रभु को कष्ट उठाना पड़ा ।” दामाजी व्याकुल होकर रोने लगे ।
”दामाजी मेरा अपराध क्षमा करें । आपके कारण मुझे उस सत्ताधीश के प्रत्यक्ष दर्शन हुए । मेरा जीवन कृतार्थ हो गया । कृपा करके पुन: एक बार उस सांवली सूरत के दर्शन करा दो ।” ”मैं भाग्यहीन उनके दर्शन कैसे पा सकता हूं ! मुझ अधम ने तो उन्हें कष्ट दिया । मेरा अपराध अक्षम्य है ।”
रोते-बिलखते दामाजी अचेत हो गए । तभी वहां एक दिव्य झांकी प्रकट हुई । भक्तवत्सल सांवरिया ने स्वयं प्रकट होकर दामाजी को उठाकर गले लगाया । बादशाह की कामना पूर्ण हुई । और फिर दामाजी के साथ बादशाह ने भी जीवन-भर भक्तिभाव से भगवान विट्ठल की श्री आराधना की और अंत में मोक्षगामी हुए ।
Life Story # 13. भक्त श्रेष्ठ राजा मोरध्वज और वीर ताम्रध्वज |
द्वापर युग अपने अंतिम चरण में था । महाभारत का महायुद्ध समाप्त हो चुका था । पांडवों ने द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के परामर्श पर अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया । अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा गया जिसकी रक्षा के लिए महाधनुर्धारी अर्जुन सेना सहित नियुक्त हुए ।
घोड़ा जिधर भी जाता उधर ही युधिष्ठिर की दासता स्वीकार कर ली जाती । किसी भी राजा ने अर्जुन से युद्ध का साहस न दिखाया । कौन महाभारत के युद्ध के सर्वशक्तिशाली योद्धा से भिड़ता जिसने पितामह भीष्म और महाबली कर्ण जैसे योद्धाओं को मृत्यु का ग्रास बनाया था ?
घोड़ा निर्विप्न आगे बढ़ता जा रहा था और अर्जुन अपने गांडीव की प्रत्यचा से भयकर टकार करते बिना किसी युद्ध के चक्रवर्ती सम्राट का सहोदर होने का दम्भ भरते घोड़े के पीछे थे । अंतत : रतनपुर राज्य की सीमा आ गई । रतनपुर का राजा मोरध्वज (मयूरध्वज) बड़ा ही धर्मात्मा और भगवद् भक्त था ।
इन्हीं का अट्ठारह वर्षीय पुत्र धीरध्वज (ताम्रध्वज) था जो अल्पायु में ही युद्धकला की सर्वशिक्षा में प्रवीण था । उसने अपने राज्य में अश्वमेध का घोड़ा पकड़ लिया और घोड़े के रक्षक की प्रतीक्षा करने लगा । प्रतीक्षा समाप्त हुई और सेना सहित धनुर्धारी अर्जुन वहा आ गए ।
”हे बालक!” अर्जुन ने गर्वीले शब्दों में कहा: ”तुम जिस अश्व की लगाम थामे खड़े हो वह कोई साधारण अश्व नहीं है । यह चक्रवर्ती सम्राट इक्ष्याकु वंशी महाराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है जिसकी सुरक्षा में मैं स्वयं अर्जुन खड़ा हूं ।
इसे पकड़ने का साहस तो किसी ने नहीं किया । यह जिधर भी गया उसी राज्य ने महाराज युधिष्ठिर की दासता स्वीकार कर ली । तुम अभी अल्पायु के बालक हो अत: तुम्हारी यह भूल बालसुलभ समझकर मैं तुम्हें क्षमा करता हूं । घोड़ा छोड़ दो ।”
”हे श्रेष्ठ धनुर्धर!” ताम्रध्वज दृढ़ता से बोला: ”अपनी ही कहे जाओगे या मेरी भी सुनोगे । मैं रतनपुर का भावी सम्राट ताम्रध्वज हूं । मेरे पिता का नाम मयूरध्वज और माता का नाम विद्याधरणी है । मुझे अपने माता-पिता से जो शिक्षा मिली है उसके अनुसार क्षत्रिय किसी का दास नहीं होता ।
आप श्रेष्ठ धनुर्धर हो सकते हैं परंतु मैं भी क्षत्रिय पुत्र हूं मुझे दासता स्वीकार नहीं है ।” ”हे बालक! तुम नहीं जानते कि तुम क्या कह रहे हो । तुम्हारी बालहठ तुम्हारे राज्य पर युद्ध का भार लाद सकती है और इस युद्ध का परिणाम तुम नहीं जानते । अर्जुन के गांडीव की टकार से ही तुम्हारे राज्य की प्रजा में खलबली मच जाएगी ।
इसलिए घोड़ा छोड़ दो या अपने पिताश्री को सूचित करो ताकि वे तुम्हें समझा सकें ।” अर्जुन ने उसे समझाया । ”हे कुतीनंदन क्षत्रिय पुत्र बचपन अवश्य पिता की गोद में व्यतीत करता है जवानी में क्षत्रिय का क्षत्रित्व परिपक्व हो जाता है । यदि तुम्हें घोड़े की चाह है तो वह तो तुम्हें तभी मिलेगा जब तुम अपने बाहुबल से मुझे परास्त कर दोगे ।
व्यर्थ अपना यशोगान करके समय व्यर्थ क्यों कर रहे हो । मैं क्या तुम्हारे बाहुबल से परिचित नहीं हूं ?” अब अर्जुन को उस युवक की बातों से दृढ़ता का आभास हुआ । उसे लगा कि वह बालसुलभ हरकत नहीं थी बल्कि एक सोचा-समझा फैसला था । उसने गांडीव हाथ में लिया और बाण चढ़ाया ।
”हे मूर्ख ताम्रध्वज ! तुझसे युद्ध करके मैं संसार में अपयश का भागी नहीं होना चाहता इसलिए अपने इस बाण से तुझे तेरी माता की गोद में सकुशल पहुंचा देता हूं ।” अर्जुन ने बाण चलाया । परंतु सामने कोई कायर या बालक नहीं था बल्कि समस्त युद्ध कलाओं में प्रवीण क्षत्रिय था ।
अर्जुन का न सिर्फ बाण व्यर्थ गया बल्कि प्रत्युत्तर में ताम्रध्वज के सनसनाते तीर ने अर्जुन के सारथी को बेध दिया । अर्जुन चकित रह गया ! जिसे वह साधारण युवक समझ रहा था वह तो कोई कुशल धनुर्धर था ! अब अर्जुन ने उसमें शत्रु की झलक देखी और गम्भीरता से अपने तुणीर में हाथ डाला ।
ताम्रध्वज भी सतर्क था । शत्रु महाभारत का महानायक था । दोनों तरफ से ऐसी अद्भुत बाण-विद्या का प्रदर्शन हुआ कि देखने वाले दग रह गए । अर्जुन से तो सभी को ऐसी उम्मीद थी परंतु ताम्रध्वज का रण कौशल उन्हें आश्चर्य के सागर में डुबकी लगाने को विवश कर रहा था ।
अरे यह क्या ! ताम्रध्वज के धनुष से छूटे एक तीर ने महाबली अर्जुन को मूर्च्छित कर दिया ! असम्भव ! परंतु यही सत्य था । अर्जुन को वहीं मूर्च्छित पड़े छोड़कर ताम्रध्वज अश्व सहित अपने नगर को गए जहां उनका भव्य स्वागत हुआ । उधर जब अर्जुन की मूर्च्छा छूटी तो उसे अपने समक्ष मंद-मंद मुस्कराते मनमोहन श्रीकृष्ण नजर आए ।
अर्जुन को लज्जा आ गई । ”कहो पार्थ! कैसे हो ?” श्री कृष्प ने रहस्यमयी स्वर में पूछा । ”हे माधव! यह सब आपकी माया का चमत्कार है अन्यथा वह बालक युद्ध में अर्जुन से नहीं जीत सकता ।” ”हे कुंतीनंदन! तुम अभी भी भ्रम में हो! अभी भी तुम्हारे मस्तिष्क में यह बात घर किए है कि पृथ्वी पर तुमसे बड़ा योद्धा कोई नहीं है और तुमसे बड़ा मेरा भक्त भी कोई नहीं है ।” कृष्ण बोले ।
”क्या यह असत्य है माधव ?” ”तुम्हारी यह दशा क्या कहती है । तुम्हें अपने से बड़ा योद्धा तो मिल ही गया । अब अगर अपने से बड़ा दानी और भक्त भी देखने की इच्छा है तो बताओ ।” ”हे गिरधर ! आप ही इच्छा जाग्रत करते हो और आप ही प्रश्न करते हो । मैं अवश्य ही उस भक्त के दर्शन करना चाहूगा जो आपका मुझसे भी बड़ा भक्त है ।”
”आओ मेरे साथ । मैं जैसा करूं देखते रहना ।” ”जो आज्ञा भगवन् !” महायोगी श्रीकृष्ण ने तत्काल अपनी माया फैला दी स्वयं और अर्जुन को ब्राह्मण रूप दिया और धर्मराज को आह्वान करके सिंह का रूप दकर रतनपुर प्रस्थान किया । उस वक्त राजा मयूरध्वज का राजदरबार लगा हुए ।
जल वहा साधु रूपी कृष्ण व अर्जुन ने सिंह समेत प्रवेश किया । ”अलख निरंजन! अलख निरंजन !” दोनों ने अलख जगाया । राजा मयूरध्वज ने तत्काल सिंहासन छोड दिया और साधुओं को दडवत करके आशीर्वाद लिया । ”हे राजन्!” ब्राह्मणरूपी श्रीकृष्ण बोले: ”हमने तुम्हारे दान का बहुत यशोगान सुना है ।
चहुं ओर तुम्हारी कीर्ति है कि कभी कोई याचक तुम्हारे दरबार से निराश नहीं लौटा । क्या यह सच है ?” ”हे महात्मन्!” राजा ने विनयशील स्वर में कहा: ”हर किसी की इच्छा पूर्ण करने का असम्भव कार्य तो केवल दीनानाथ भक्तवत्सल श्री भगवान ही कर सकते हैं फिर भी नारायण की अनुकम्पा से यह आपका भक्त मयूरध्वज भी सामर्थ्यानुसार याचक की इच्छित वस्तु देने का प्रयास करता है और इसे श्री भगवान की ही दया-करुणा और इच्छा कहिए कि आज तक मेरे दरबार से कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटा ।”
”फिर तो राजन् हमें भी विश्वास है कि हमारी भी इच्छित वस्तु मिलेगी ।” ”यदि वह वस्तु मेरे अधिकार में हुई तो अवश्य मिलेगी ।” ”हम भी ऐसी कोई वस्तु नहीं मांगेंगे राजन! जो आपके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो परंतु इससे पहले हमें आप तीन वचन दीजिए ।”
”हे महात्मन! मैं क्षत्रिय हूं । क्षत्रिय का कर्त्तव्य है कि याचक को अपने द्वार से संतुष्ट भेजे । अत: मैं राजा प्रण करता हूं कि आप जो भी वस्तु मांगेंगे मैं दूगा मैं दूँगा मैं दूंगा ।” ”आप धन्य राजन्! अब हम आपको अपनी इच्छा बताते हैं । राजन् ! हम तीन प्राणी बहुत लम्बे समय से यात्रा पर हैं ।
हम दोनों तो सात्विक भोजन से खाकर अपनी क्षुधा शात कर लेते हैं परंतु हमारे साथ सिंहराज हैं जो मांसाहार करते । मास भी इन्हें मानव का ही सुहाता है ।” ”मैं प्रस्तुत हूं महात्मन! यदि वनराज मेरा भक्षण करना स्वीकार करें तो मैं स्वय को धन्य समझूगा ।” राजा ने सहर्ष कहा ।
”नहीं राजन! यदि सिंहराज ऐसा भोजन करते तो हमें आपके पास आने की आवश्यकता नहीं होती । स्वय को दान करने वालों की इस पृथ्वी पर कमी नहीं है । कितने ही महादानी ऐसे सुअवसर की खोज में रहते हैं ।” ”महात्मन! फिर आप ही बताइए कि सिंहराज के भोजन की व्यवस्था मैं कैसे कर सकता हूं ?” राजा ने हाथ जोड़ दिए ।
”हे राजन! आप त्रिवाचा हैं । वचनहार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता इसलिए हम आपसे अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं ।” ब्राह्मण बने श्रीकृष्ण ने कहा : ”हे क्षत्रिय श्रेष्ठ दानी राजा मयूरध्वज ! हमारे सिंह के भोजन की व्यवस्था हेतु आपको अपनी रानी सहित आरा लेकर अपने पुत्र ताम्रध्वज को चीरना होगा ताकि हमारा सिंह भोजन कर सके ।”
सारा दरबार हतप्रभ रह गया । स्वयं अर्जुन का हृदय काँप गया । एक क्षण को तो राजा मयूरध्वज भी डगमगाए परंतु सम्भल गए । ”हे महात्मन्! धन्य है मेरा पुत्र ताम्रध्वज जिसे आपने सिंह के आहार के लिए चुना । मेरा पुत्र अपने पिता के आदेश पर निश्चय ही अपने आपको मृत्यु के हवाले कर देगा ऐसा मेरा विश्वास है परंतु हे देव ! इस कार्य में रानी की जो भूमिका है वह तो मुझे ही रानी को बतानी होगी ।
अगर आदेश हो तो मैं रानी को इस सुअवसर से अवगत करा दूं ।” ”अवश्य राजन! परंतु शीघ्रता करना ।” राजा मयूरध्वज रनिवास में गए और रानी को सारी बात बताई । ”हे रानी विद्याधरणी नरयोनि में सच्चा मित्र अच्छी सतान और सच्चा जीवनसाथी मिल जाए तो जीवात्मा को अत तक कष्ट नहीं होता । मैंने संतों को तीन वचन दे दिए हैं अब मेरी लाज तुम्हारे हाथों में है ।”
”हे स्वामी!” रानी ने कहा: ”संतजनों का आग्रह बहुत कष्टकारी है परतु अवश्य ही इसमें परमेश्वर की कोई इच्छा है । अत: मैं हृदय पर पत्थर रखकर इस महादुखकारी कार्य में आपके साथ हूं । आप पुत्र ताम्रध्वज से भी विचार-विमर्श कर लेते तो उचित रहता ।”
”तुम धन्य हो रानी! तुमने मेरी चिंता हर ली । मैं ताम्रध्वज से बात करता हूं ।” राजा के आदेश पर ताम्रध्वज उपस्थित हो गया । राजा ने उसे सब कुछ स्पष्ट बता दिया ।” “हे मेरे जन्मदाता पालनहार ! ताम्रध्वज का यह जीवन तो आप ही की देन है । मैं तो आपका ऋणी हूं कि आपने मुझे पुत्र रूप में स्वीकार किया और अपना अगाध स्नेह मुझे दिया ।”
ताम्रध्वज सिर नवाकर बोला : ”यदि मेरा शरीर आपके किसी कार्य आ सके तो मैं स्वयं को धन्य समझूंगा । आप नि संकोच होकर अपने वचनों का पालन करें ।” माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से पुत्र को अंकपाश में भींच लिया । तत्पश्चात राजा और रानी अपने नयनतारे को लेकर साधुओं के पास पहुंचे ।
अर्जुन अचम्भित था । वचन के प्रति ऐसा अद्भुत समर्पण वह पहली बार देख रहा था । ”हे महात्मन! यह रहा हमारा पुत्र । आपकी सेवा में प्रस्तुत है ।” राजा ने कहा । ”राजन! अब एक पैनी धार का आरा मगाकर अपने पुत्र को चीरकर सिंह के सामने रखिए ।”
श्री कृष्ण ने कहा : ”परंतु स्मरण रहे पुत्र चीरते समय यदि माता-पिता किसी की औख में अश्रु आया तो हमारा सिंह भोजन नहीं करेगा । सब व्यर्थ हो जाएगा ।” ”हे महात्मन! यह कैसी कठोर परीक्षा है !” राजा कम्पित स्वर में बोला : ”कौन ऐसे अभागे माता-पिता होंगे जो अपने पुत्र को अपने हाथों से चीरकर भी अपने अश्रु रोक सकें ? यह घोर अन्याय है नाथ! मैं पिता हूं वज का हृदय है मेरा परतु इस अभागी पर ऐसा जुल्म क्यों ?”
”सोच लो राजन! अभी कुछ नहीं बिगड़ा । हम लौट जाते हैं ।” ”नहीं महात्मन!” रानी ने हाथ जोड़कर विनय की” ऐसा न कीजिए । मैं माता हूं इसलिए महाराज शंकित हो रहे हैं परंतु मैं एक क्षत्रियपत्नी हूं और अपने स्वामी के सुख-दुख में सहभागी हूं । आप निश्चिंत रहें । मैं भी अपना हृदय वज का कर लूंगी ।”
”माताश्री! पिताश्री !अब विलम्ब न कीजिए ।” ताम्रध्वज ने कहा : ”मैं उस शुभ घड़ी के लिए आतुर हूं जब मेरे माता-पिता मुझे अपने हाथों से सुरधाम विदा करेंगे ।” ताम्रध्वज पालथी मारकर बैठ गया और अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करने के पश्चात भगवद् भजन में लीन हो गया ।
उसके मुखमंडल पर सूर्य के समान तेज दमक रहा था । तब राजा-रानी ने आरा उठाया और अपने इकलौते पुत्र के सिर पर रखकर परमपिता परमात्मा का स्मरण करते हुए आरा खींच दिया । रक्त की धार फूट पड़ी । अर्जुन को तो मूर्च्छा आने लगी ।
ताम्रध्वज का सिर दो भागों में बंट गया था और आरा निरंतर उसके शरीर को दो भागों में काटता जा रहा था । मन में सिर्फ श्रीमन्ननारायण का जाप करते महादानी राजा मोरध्वज और उनकी पत्नी विद्याधारणी ने एक ऐसा स्वर्णिम इतिहास रच दिया था जिसकी चमक युगों-युगों तक भूमंडल पर सूर्य के समान ज्वलंत रहने वाली थी ।
दानवीर कर्ण का कवच कुंडल इंद्र को दान कर देना भले ही अपने आप में एक अनूठा दान था सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का सत्य के लिए बिक जाना भले ही एक अविस्मरणीय दान था परतु राजा मयूरध्वज के इस महादान की चमक में सब फीके थे । ताम्रध्वज का शरीर दो भागों में बटा पड़ा था ।
”लीजिए महात्मन! अपने सिंह को भोजन कराइए ।” राजा ने कहा । सिंह ने आगे बढ़कर ताम्रध्वज का दाया भाग खा लिया और बायां छोड़कर जोर से डकार ली । निश्चय ही उसका पेट भर गया था । तभी रानी की बाईं आख से अश्रु टपक पडे । ”यह क्या महारानी ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने टोका: ”अश्रु क्यों ?”
”महात्मन! ये अश्रु मातृत्व के नहीं हैं ।” रानी ने बताया : ”यह अश्रु तो आपके सिंह के व्यवहार से निकले हैं जिसने महा पितृभक्त ताम्रध्वज के दाहिने अंग को तो स्वीकार किया, परंतु वामअग को छोड़ दिया । इसी कारण मेरी बाईं आख से अश्रु निकल पड़े ।” मुरलीधर मुस्कराए । अर्जुन का गर्व तो चूर हो ही चुका था ।
”हे राजन! अब हमारे सात्विक भोजन की भी व्यवस्था करें ।” कृष्ण बोले । तत्काल उन दोनों के लिए भी भोजन की व्यवस्था हुई । ”राजन हम तुम्हारे दान दया धर्म के गुणों से अति प्रसन्न हैं । तुम्हारी कीर्ति समस्त संसार में फैलेगी ।”
कृष्ण ने कहा : ”तुम्हारे पुत्र को निश्चय ही परमधाम में स्थान मिलेगा । ईश्वर तुम्हारे जैसे सद्गुणी परमभक्त से अति प्रसन्न रहता है और अपने भक्त का कोई अहित नहीं कर सकता । अपने दाहिनी तरफ दृष्टिपात करो । तुम्हारे अलौकिक कार्य का फल मिल गया है ।”
राजा-रानी ने दाहिनी तरफ देखा तो अपने पुत्र ताम्रध्वज को जीवित अवस्था में देखा । रानी विह्वल होकर पुत्र की तरफ दौड़ी । ”हे महात्मन! यह कैसा विचित्र चमत्कार है ?” राजा ने कहा : ”आप कौन हैं और किस कारण इस भक्त की इतनी कठिन परीक्षा ली ?”
तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपना दुर्लभ दिव्य रूप प्रकट किया । शख चक्र गदा चतुर्भुज पीताम्बरधारी मोरमुकुट पहने भगवान श्रीकृष्ण का मनोहारी रूप सामने था । राजा उनके चरणों में गिर पड़े । ”हे माधव! हे देवकीनंदन !! मेरा जीवन सफल हुआ ।
आपके साक्षात दर्शन से मैं सुत नारी सहित भव से पार हो गया ।” राजा ने नटवर की स्तुति की । ”हे भक्त मयूरध्वज! यह मेरे साथ कुंती पुत्र अर्जुन हैं और सिंह रूप में स्वयं यमराज हैं । आपकी परीक्षा हेतु यह सब किया गया । हम तुमसे अति प्रसन्न हैं ।
अत: तुम हमसे कोई वरदान मांग सकते हो ।” ”जिसे आपका साक्षात्कार हो गया उसे कोई कामना नहीं रह जाती भगवन ! फिर भी आप मुझे एक वर तो अवश्य दें कि जैसी कठिन त्रास देने वाली परीक्षा मेरी ली है वैसी कभी किसी और की न लेना ।” राजा ने हाथ जोड़े ।
”तथास्तु!” जग के छलिया ने अपने भक्त को आशीर्वाद दिया । और अर्जुन उस महादानी वचन के पक्के राजा मयूरध्वज के पैरों में झुक गए । माधव मुस्करा उठे । अर्जुन का दम्भ चूर जो हो गया था ।
Life Story # 14. शिव-भक्त उपमन्यु |
वेदज्ञाता महर्षि व्याघ्रपाद के बड़े पुत्र थे-शिवभक्त उपमन्यू । एक दिन उपमन्यू ने माता से दूध मांगा । घर में दूध नहीं था । माता ने चावलों का आटा जल में घोलकर उपमन्तु को दे दिया ।
उसका घूंट भरकर उन्होंने माता से कहा : ”मां ! यह तो दूध नहीं है ।” ऋषि पत्नी झूठ बोलना नहीं जानती थीं उन्होंने कहा : ”बेटा ! तू सत्य कहता है यह दूध नहीं है । नदी-किनारे वनों और पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताने वाले हम तपस्वी मनुष्यों के यहां दूध कहां से मिल सकता है ।
हमारे तो सर्वस्व श्री शिवजी महाराज हैं । तू यदि दूध चाहता है तो उन जगन्नाथ श्री शिवजी को प्रसन्न कर! वे प्रसन्न होकर तुझे दूध-भात देंगे ।” माता की बात सुनकर बालक उपमनु ने पूछा : ”मां ! भगवान शिवजी कौन हैं ? कहा रहते हैं ? उनका कैसा रूप है मुझे वे किस प्रकार मिलेंगे ? और उन्हें प्रसन्न करने का उपाय क्या है ?”
बालक के सरल वचनों को सुनकर स्नेहवश माता की आखों में औसू भर आए और कहा : ”तू उनका भक्त बन उनमें मन लगा उनमें विश्वास रख एकमात्र उनकी शरण हो जा उन्हीं का भजन कर उन्हीं को नमस्कार कर । यू करने से वे कल्याणस्वरूप तेरा निश्चय ही कल्याण करेंगे । उनको प्रसन्न करने का महामत्र है : ‘नम : शिवाय’ ।”
माता से उपदेश पाकर बालक उपमम्मु शिव को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प करके घर से निकल पड़े । वन में जाकर प्रतिदिन ‘नम : शिवाय’ मत्र के द्वारा वन के पत्र-पुष्पों से भगवान शिवजी की पूजा करते और फिर सामर्थ्य के अनुसार मंत्र का जप करते हुए कठोर तप करने लगे ।
वन में अकेले रहने वाले तपस्वी उपमन्यू को पिशाचों ने बहुत सताया परंतु उपमनु के मन में न तो भय हुआ और न विप्न करने वालों के प्रति क्रोध ही! वे उच्च स्वर से ‘नम : शिवाय’ मंत्र का कीर्तन करने लगे । इस पवित्र मंत्र के सुनने से मरीचि के शाप से पिशाचयोनि को प्राप्त हुए मुनि पुन: मानव बनकर कृतज्ञता के साथ उपमत्यु की सेवा करने लगे ।
उपमनु की उग्र तपस्या को देखकर, भोलेनाथ श्री शंकर जी भक्त का गौरव बढ़ाने के लिए उनके अनन्य भाव की परीक्षा करने की इच्छा से इन्द्र का रूप धारण कर श्वेतवर्ण ऐरावत पर सवार हो उपमन्यू के समीप जा पहुंचे ।
मुनिकुमार भक्त श्रेष्ठ उपमन्यू ने इंद्ररूपी भगवान महादेव को देखकर धरती पर सिर टेककर प्रणाम किया और कहा : ”देवराज ! आपने कृपा करके स्वय मेरे समीप पधारकर मुझ पर बड़ी कृपा की है । बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं ?”
इंद्ररूपी परमात्मा शंकर ने प्रसन्न होकर कहा : ”हे सुव्रत ! तुम्हारी इस तपस्या से मैं बहुत ही प्रसन्न हूं तुम मुझसे मनचाहा वर मांगो तुम जो कुछ मांगोगे वही मैं तुम्हें दूंगा ।” उपमन्यू ने कहा : ”देवराज ! आपकी बड़ी कृपा है परतु मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता ।
मैं तो भगवान शिव शंकर का दासानुदास बनना चाहता हूं । जब तक वे प्रसन्न होकर मुझे दर्शन नहीं देंगे तब तक मैं तप को नहीं छोडूंगा ।” उपमन्यू ने देवराज से वर प्राप्त करना अस्वीकार कर दिया । उसने साफ कह दिया कि जब तब भगवान शिव मुझे दर्शन नहीं देते मैं अपना तप नहीं छोडूंगा ।
उनकी यह स्थिति देखकर भगवान शंकर परम प्रसन्न हो गए । इतने में ही उपमम्मु ने चकित होकर देखा कि ऐरावत हाथी ने चंद्रमा के समान सफेद कांति वाले बैल का रूप धरण कर लिया और इंद्र की जगह भगवान शिव अपने दिव्य रूप में जगजननी उमा के साथ उस पर विराजमान हैं ।
भगवान शंकर और माता उमा के दर्शन प्राप्त कर उपमनु की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । उपमन्यू गद्गद् कंठ से प्रार्थना करने लगे । भक्त की निष्कपट और सरल प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने कहा : ”बेटा उपमनु मैं तुझसे प्रसन्न हूं ।
मैंने तेरी परीक्षा करके देख लिया कि तू मेरा दृढ़ भक्त है । बता तू क्या चाहता है ?” भगवान शंकर के स्नेह भरे वचनों को सुनकर उपमम्मु गद्गद् स्वर से बोले : ”नाथ! आज मुझे क्या मिलना बाकी रह गया ? मेरा यह जन्म सदा के लिए सफल हो गया ।
देवता भी जिनको प्रत्यक्ष नहीं देख सकते वे देव आज कृपा करके मेरे सामने विराजमान हैं । इससे अधिक मुझे और क्या चाहिए । इस पर भी आप यदि देना ही चाहते हैं तो यही दीजिए कि आपके श्री चरणों में मेरी अविचल और अनन्य भक्ति सदा बनी रहे ।”
”बेटा उपमन्यू तू आज अजर अमर तेजस्वी यशस्वी और दिव्य ज्ञानयुक्त हो गया । तेरे सारे दुखों का सदा के लिए नाश हो गया । तू मेरा अनन्य भक्त है । यह दूध-भात की खीर ले ।” यह कहकर शिवजी अंतर्धान हो गए । उपमन्यू ने ही भगवान श्रीकृष्ण को शिवमंत्र की दीक्षा दी थी ।
Life Story # 15. सकटू चोर और नटखट कृष्ण |
प्राचीन काल में एक चोर था जिसका नाम ‘सकटू’ था । वह अपने शहर का नामी चोर था । प्रतिदिन चोरी करना उसकी आदत बन गई थी । जब तक वह रात को किसी के घर में कूदकर चोरी न कर लाता, उसे रात-भर नींद नहीं आती थी । भले ही चोरी में उसके हाथ दुअन्नी आती ।
एक रात सबद चोर अपने नित्यकर्म के लिए शहर की अंधेरी गलियों में घूम रहा था उसे उचित स्थान और अवसर की खोज थी । उसी शहर में एक धनी व्यक्ति के यहा रात्रि जागरण का कार्यक्रम हो रहा था जिसमें वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन के साथ भगवन्नाम का वर्णन किया जा रहा था ।
गायक जो भी था निश्चय ही सुरीले कठ का स्वामी तो था ही अच्छा भगवद्भक्त भी था । वह दो पंक्तियां गाने के बाद ईश्वर की महिमा का ऐसा वर्णन करता कि सुनने वाले मुग्ध हो जाते । सकटू चोर भी भटकता हुआ उस घर में आ गया जहाँ प्रागण में विशाल भीड़ के समक्ष गायक ने भगवन्नाम की स्वरलहरी छेड़ रखी थी ।
सबद का मस्तिष्क क्रियाशील हो गया । उसके विवेक में यह बात आ गई कि प्रांगण में जैसा रस बरस रहा था उसे सुनने के लिए निश्चय ही घर के सभी सदस्य वहीं उपस्थित होंगे थे और घर खाली पड़ा होगा । ऐसा सुअवसर सबद भला क्यों गवांने वाला था ? वह तत्काल भवन के पिछवाड़े गया और रस्सी डालकर घर में प्रवेश कर गया ।
उसका सोचना सही निकला । घर निर्जन था । सकटू चोर धन-दौलत छूने में जुट गया । अंधकार होने की वजह से उसे कुछ नहीं मिल पा रहा था तो वह एक खिड़की को जरा खोलने के इरादे से खिड़की के पास पहुंचा । उसने खिडकी जरा खोली तो थमक गया ।
अभी-अभी गायक ने रत्न-मणि-माणिक्य की चर्चा की थी । वह ध्यान से सुनने लगा । ”प्रात काल होने पर ग्वालबाल कृष्ण और बलदाऊ को खेलने के लिए बुलाने आ जाते हैं ।” गायक कह रहा था : ”तब तक माता यशोदा अपने दोनों पुत्रों को नहला चुकी थीं । अब वे कृष्ण और बलराम को गहनों से सजा रही थीं । करोड़ों रुपए के गहने ।
मुकुट में झिलमिलाते हीरे बाजूबद में दमकते हीरे गलहार में मणियां जिससे प्रकाश किरणें फूट रही थीं । कानों में स्वर्ण के बड़े-बड़े झिलमिलाते कुंडल । कितने सुंदर लग रहे थे दोनों ! यह वृंदावन की सबसे मनोहर झांकी है । तत्पश्चात स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित कृष्ण-बलराम गौ चराने वन की तरफ चल पड़ते हैं ।”
सकटू चोर ने जब यह सुना तो उसके दिमाग में खलबली मच गई । ‘मैं भी निरा मूरख हूं । थोड़े से धन-माल के लिए रातों को मारा-मारा फिरता हूं । जबकि यह पंडित बता रहा है कि दो बच्चे अरबों के गहने पहनकर जगंल में गाय चराने जाते हैं ।
इससे उनका पता पूछ लेता हूँ और जंगल में जा दबोचता हूं । बच्चे ही तो हैं । मेरा रूप देखकर ही भयभीत हो जाएंगे वरना एक-एक थप्पड़ जड़ दूंगा तो गहने उतारने ही पडेंगे ।’ सकटू सोच रहा था । अब सकटू को उस घर से कोई मोह नहीं रहा और वह वहां से निकलकर वापस कार्यक्रम में आ बैठा ।
अब उसे कार्यक्रम के समाप्त होने की प्रतीक्षा थी । अर्धरात्रि बीत जाने पर कार्यक्रम समाप्त हुआ तो प्रसाद वितरण हुआ । सबद ने भी प्रसाद लिया और बाहर गली में आ खड़ा हुआ । काफी देर पश्चात उसे वह गायक पंडित अकेला आता नजर आया । उसका चित्त प्रसन्न हो उठा ।
पंडित उसके पास से गुजर गया तो सकटू उसके पीछे लग गया । एक निर्जन स्थान देखकर सकटू ने पंडित की बाह पकडू ली । ”तनिक ठहर जाओ पंडितजी महाराज!” सकटू बोला: ”लपके कहा जाते हो? हम भी तो तुम्हारे पीछे हैं काम छोड़कर ।” ”क…क…कौन हो तुम?” पंडित जी भयभीत हो गए ।
”मैं सकटू चोर हूं । नाम तो अवश्य ही सुना होगा ?” ”ममुझसे क्या चाहते हो भाई! मैं तो निर्धन ब्राह्मण हूं ।” ”महाराज! आप अपनी मूर्खता से निर्धन हैं अन्यथा आपसे बड़ा धनवान कौन होता । आप तो ऐसे खजाने के बारे में जानते हैं जो करोडों से भी ज्यादा है ।”
पंडित जी कुछ भी नहीं समझे । ”अब आप मुझे उन दोनों बालकों का पता बताइए महाराज! जो इतने रत्न जड़ित स्वर्ण आभूषण पहनकर गौ चराने वन में जाते हैं । मैं उनसे गहने छीनकर लाऊंगा और निश्चय जानिए आपको भी मालामाल कर दूंगा ।”
पंडित जी पहले तो अचकचाए फिर उसकी मूर्खता पर मन-ही-मन हंस पड़े । ”अच्छा वे बालक! उनका पता जानना चाहते हो ? भाई, वे तो बड़ी दूर रहते हैं ।” “कोई बात नहीं । मैं चला जाऊंगा । आप बस मुझे उनका पता और उनके पास के धन-माल को सविस्तार बता दीजिए । उनके गहने कितने के होंगे ?”
”उन गहनों का मूल्य कोई नहीं आक सकता । वे तो अनमोल हैं । उनके गहनों में एक कौस्तुभ मणि है जो अकेली संसार की समस्त सम्पदा के बराबर है ।” ”अच्छा !” चोर के नेत्र आश्चर्य से फैले : ”इतनी बहुमूल्य मणि !” ”हां भाई ! उस मणि जैसा रत्न तो पृथ्वी पर दूसरा है ही नहीं । वह मणि जहां होती है वहाँ अंधकार नहीं रह सकता ।”
”महाराज ! अब मुझसे धैर्य नहीं हो रहा । मुझे जल्दी उन बालकों का पता और उनके नाम बताओ । नाम जानना भी आवश्यक है । नाम से ढूंढने में जरा सरलता भी रहेगी ।” सकटू व्यग्रता से बोला । ”नाम तो उनके कृष्ण और बलराम हैं ।” “किरशन और बल्लाराम !”
”तुम निपट वजमूर्ख हो ! अच्छा ऐसा करो नंदलाल याद रखो । यह भी नहीं रख सकते तो सांवरिया याद रखी ।” ”सांवरिया ! यह अच्छा है । रटता जाऊंगा । याद हो जाएगा । अब सुगम मार्ग बताओ जिससे जल्दी पहुंच सकुं ।” ”वृंदावन चले जाओ । वन में कदम्ब का पेड़ ढूंढ लेना । सांवरिया वहीं बांसुरी बजाता है । हो सकता है तुम्हें मिल जाए ।”
”मिलेगा कैसे नहीं ! अच्छा अब चलता हूँ । लौटकर आपका हिस्सा आपको अवश्य देकर जाऊंगा । प्रणाम पंडित जी !” ”प्रणाम !” पंडित जी ने चैन की सास ली । पीछा छूटा निपट मूर्ख से । अब भटकेगा वन-वन ‘सांवरिया-सांवरिया’ रटता हुआ ।
सब: वहां से चल दिया । मन-ही-मन वो ‘सांवरिया’ की रट लगाए हुए था । वह सीधा वृंदावन के मार्ग पर चल पड़ा । न उसे भूख सता रही थी और न ही प्यास लग रही थी । वह नहीं चाहता था कि खाने-पीने के चक्कर में वह उस बालक का नाम भूल जाए ।
इसी धुन में चलता हुआ गिरता-पड़ता सांवरिया रटता वह वृंदावन के मनोहारी वन में पहुंच गया । उसे वन में प्रवेश करते ही कदम्ब का वृक्ष दिखाई पड़ गया तो उसकी समस्त थकान दूर हो गई । अब वह अपने लक्ष्य के बिल्कुल समीप जो था !
चूंकि रात्रि थी इसलिए अब तो प्रात: काल में ही वे बालक गाय चराने आते । उसे सारी रात्रि प्रतीक्षा करनी ही होगी । वह फ्लेपर ही बैठा-बैठा सांवरिया रटता रहा और भोर की प्रतीक्षा करने लगा । प्रात: हुई तो पूर्व दिशा से सूर्य की लालिमा पृथ्वी पर पड़ी ।
बड़ा ही मनोहारी प्रकाश था । सकटू के हृदय में व्यग्रता घर किए थी वह कम-से-कम पचास बार पेड़ से कूदा और फिर चढ़ा । सूर्य देव गरमाने लगे थे । उसी अनुपात में सकट का हृदय भी व्याकुल हो रहा था । सच बात तो यह है कि ईश्वर को पाने के लिए इसी व्याकुलता की जरूरत होती है ।
ईश्वर पूजा-पाठ करने से नहीं मिलते उपवास-दान करने से भी उन्हे पाना मुश्किल है । उन्हें पाने के लिए तो बस उनके दर्शन की तीव्रतम् अभिलाषा मन में होनी चाहिए । भोले सबद के मन में प्रभु-दर्शन की वह अभिलाषा उत्पन्न हो गई थी ।
भाव के भूखे दीनानाथ को इससे क्या मतलब था वह कि कौन था क्या करता था उन्होंने तो सकटू के भाव को परखा और खुद उससे मिलने चल पड़े । अंतत: उसे एक दिशा में दूर कहीं बांसुरी की स्वर लहरी सुनाई दी । वह वृक्ष से नीचे कूद आया । बांसुरी की आवाज प्रतिपल करीब आती जा रही थी ।
उस स्वर लहरी में न जाने कैसा जादू था कि सबद को अपने मनो-मस्तिष्क लहराते प्रतीत हुए । एक अद्भुत नशा उसके विवेक से टकरा रहा था । वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और वहीं मूर्च्छित हो गया । जिस बांसुरी की धुन सुनकर कभी ब्रह्मा भी मोहित हो गए थे भला उस धुन से सबद मदहोश क्यों नहीं हो जाता ।
उसे चेत हुआ तो उछलकर खड़ा हुआ । अब उसे जगल में एक दिव्य प्रकाश फैला नजर आया । दूर धूल उड़ाती गाए नजर आईं । व्याकुल होकर वह दौड़कर उधर लपका तो गायों से बहुत पीछे उसे उस मनोहर प्रकाश की छटा बिखेरते वे मुरली मनोहर दाऊ के साथ नजर आए ।
”ओ सांवरिया ! तनिक ठहर तो लाला !” उसने उच्च स्वर में पुकारा । दोनों बालक मुड़े तो सकट सम्मोहित हो गया । ‘अहा कितने सुंदर मुख है इन बालकों के!’ उसका हृदय कह उठा : ‘आखों में ! कितनी सुलभता है ! इतने सुंदर और भोले बालक तो मैंने कहीं नहीं देखे ।
कैसे निर्दयी माता-पिता हैं इनके जो ऐसे सुकुमार बालकों को वन में गाय चराने भेज देते हैं । ऐसी मनोहारी छवि ! इन्हें तो देखते रहने को जी चाहता है ।’ ‘मैं इनसे गहने कैसे छीनूंगा । मेरा तो हृदय ही फट जाएगा परंतु मैं इतनी दूर आया हूं गहने तो छीनूंगा ।
पंडित से कौल करके आया है मैं तो चोर हूं र मुझे इनसे मोह क्यों हो रहा है ? मुझे तो गहने लेने हैं ।’ ”अरे लाला भागे कहां जा रहे हो ? मैं कितनी मुसीबत भुगतकर यहां आया हूं, कुछ पता है ? सबद चोर है मेरा नाम । सुना ही होगा । अब अपने सब गहने उतारो और चुपचाप घर चले जाओ ।” सकटू ने घुड़ककर कहा ।
”हम अपने गहने तुम्हें क्यों दें?” सांवला बालक मंद मुस्कान से बोला । ”देते हो या कसकर थप्पड़ जमाऊं” चोर ने आखें निकालीं । ”नहीं देंगे ।” ”अच्छा! तो मुझे तुम दोनों की पीठ तोड़नी पड़ेगी ” ”अरे बाप रे! कोई बचाओ । बाबा अरे ओ बाबा ! बचाओ !”
चोर ने झपटकर सांवरिया का मुह दबा लिया । जैसे बिजली चमक उठी । उस स्पर्श ने सक: के अंतर तक बिजली कौंधा दी । वह जैसे पाषाण में बदल गया । अंतर में अभी भी कहीं तार झंकृत हो रहे थे ।
और सबद चोर को जाने क्या हुआ वह रो पड़ा ।
”अरे तुम कौन हो ? क्यों तुम्हारे स्पर्श से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं बहुत हल्का हो गया हूं ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं किसी अलौकिक आनंद के सागर में डूब रहा हूं । तुम्हारी मुग्ध करने वाली छवि मुझे मेरे उद्देश्य से भटका रही है । तुम निश्चय ही नर रूप में कोई देव हो ।”
”अरे नहीं बाबा !” सांवरिया ने कहा : ” हम तो साधारण बालक हैं । हम तो नंदराम के बेटे हैं ।” ”जो भी हो । अब तुम जाओ । अब मैं तुम्हारे गहने नहीं लूगा । अब मेरे हृदय में कोई कामना नहीं रही । बस तुम एक बार अपनी छोटी सुदर हथेलियों को चूम लेने दो । मैं पूर्ण तृप्त हो जाऊंगा । अब मैं कहीं जाने वाला नहीं ।
यहीं इसी वृक्ष के नीचे रहूँगा ताकि प्रतिदिन तुम्हारी सलोनी सूरत निहार सकूं। तुम प्रतिदिन कुछ पल के लिए मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ करते रहना । जिस दिन तुमने दर्शन नहीं दिए मैं उसी दिन व्याकुल होकर प्राण त्याग दूंगा ।” ”और यदि हम तुम्हें अपने गहने दे दें तब ?”
”गहने ! गहनों का अब मैं क्या करूगा । नहीं मुझे तुम्हारे दर्शनों के अलावा किसी सुख की कामना नहीं है ।” ”फिर उस पंडित को क्या मुह दिखाओगे जिससे कहकर आए हो कि तुम निश्चय ही उसे मालामाल कर दोगे ?” ”अरे वाह! तुम्हें कैसे मालूम ?” चोर चकित हो गया ।
”हमें सब मालूम है । लो ये गहने ले जाओ अन्यथा वह पंडित तुम्हारी हंसी उड़ाएगा कि तुम दो छोटे बालकों से गहने न ला सके ।” ”बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु तुम्हारे माता-पिता तुम पर गहनों के लिए क्रोधित नहीं होगे ?” ”नहीं होंगे । हमारे पास बहुत गहने हैं ।
तुम फिर आना । हम तुम्हें और भी गहने देंगे ।” श्रीकृष्ण ने अपने गहने उतारे । ”फिर मैं ऐसा करता हूँ कि तुम्हारे गहने ले जाकर उस पंडित को दिखाता हूं । फिर आकर तुम्हारे गहने लौटा दूंगा । इस तरह मेरी भी बात रह जाएगी और तुम्हारे गहने भी तुम्हें मिल जाएंगे ।
मैं तो बस तुम्हारी मनमोहिनी छवि देखकर ही जीवित रह सकता हूं । इन गहनों से मेरा जीवन नहीं चलेगा ।” ”ठीक है । जैसा तुम्हें उचित लगे ।” श्रीकृष्ण ने कहा और दोनों ने अपने गहने उतारकर पोटली में बाँधकर उसे दे दिए । सकटू वहां से चल दिया इस उत्कठा में कि उसे शीघ्र वापस भी आना है बिना कहीं विश्राम किए उस पंडित के पास पहुचा ।
”महाराज!” वह पंडित से बोला: ”आप बड़े निर्दयी हैं । ऐसे सुकुमार बालकों के गहने लूटने भेज दिया । अरे मेरा हृदय उन्हें देखते ही बदल गया । कैसी मनोहारी छवि थी उनकी! मैं तो उनका दास बन गया ! कितने दयालु भी हैं ! मैं नहीं चाहता था फिर भी अपने गहने मुझे दे दिए ।
यह देखिए कितने सारे गहने हैं । यह रही वह अनमोल कौस्तुभ मणि ! यह रहा रत्नजडित बाजूबंद । देख-भर लो दूंगा नहीं । वापस करने का वचन दे आया हूं ।” पंडित तो खुली पोटली से जगमगाते रत्न आभूषण को देखकर ही चक्कर खा गया ।
यह कैसा चमत्कार था ! वह शठ पापी चोर कैसे उस दिव्य मूर्ति के दर्शन पा सका जिसके लिए बड़े-बड़े साधु योगी जगत को त्यागकर दिन-रात उसी की लौ में रमे रहते हैं ? ”यह सब कहा से ले आया तू ?” पंडित जी ने पूछा । ”कहाँ से ? अरे यह उन्हीं बालकों के गहने हैं जिनका पता तुमने मुझे बताया था । यह उसी सांवरिया के गहने हैं !”
”तेरी लीला अपरम्पार है गिरधारी!” पंडित जी के मुख से निकला : ”मैंने जीवन-भर तेरी स्तुति की । रात-रात भर जागकर तेरा गुणगान किया और तूने इस वजमूर्ख पापी चोर को जो अपने कर्मों से सज्जनों को त्रास देता है अपने गहने तक दे डाले ? वाह रे छलिया मेरी धूपबत्ती भी तुझे न सुहाई और इस दुष्ट की राहजनी पर प्रसन्न हो गया !”
”अब चलता हूं पंडित जी! सुबह तक पहुंचना है । उनके गहने वापस करने हैं मुझे तो अब वहीं बसेरा करना है और उन मनोहर बालकों के प्रतिदिन दर्शन करूंगा ।” ”अच्छा! मुझे तो तेरी बात पर विश्वास नहीं है । क्या तू मुझे उनसे मिला सकता है ?” पंडित जी ने कहा ।
”क्यों नहीं । चलो मेरे साथ । पर दूर बहुत है पंडित जी! मार्ग भी बहुत कठिन है । सुबह तक पइंचना है । कहीं भी रुकना नहीं है । सोच लीजिए परंतु लाला सांवरिया से विनती करके तुम्हें कुछ गहने अवश्य दिलवा दूंगा ।”
पंडित जी तत्काल उसके साथ चल पड़े । रास्ता बड़ा कठिन था । सकटू तो जाने किस धुन में चला जा रहा था मगर पंडित जी की तो पिंडलियां दुखने लगी थीं । जी चाह रहा था कि वहीं सो जाएं परंतु एक सुअवसर उसे मिलता प्रतीत हो रहा था जिसे वह किसी भी मूल्य पर गवाना नहीं चाहता था ।
रात्रि-भर की यात्रा के पश्चात भोर का प्रकाश फैला तो सकटू हर्षित स्वर में नाचने लगा । ”पंडित जी ! यही है वो स्थान जहां वे दोनों मुझे मिले । अब थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी होगी । वे गाएं लेकर आते होंगे । आप एक काम कीजिए पेड़ पर चढ़ जाए । नए आदमी को देखकर बच्चे डर सकते हैं ।”
पंडित जी उस कदम्ब के पेड़ पर चढ़ गए । थोड़ा समय बीता । ”पंडित जी! वो आ गया । उसकी बांसुरी की मधुर धुन सुन रहे हो न ?” सकटू प्रसन्नता से चीखा : ”वह आ रहा है । अब थोड़ी ही देर लगेगी ।” ”मुझे तो कोई बांसुरी नहीं सुनाई पड़ रही ।” पंडित व्यग्र हो उठा ।
”वह अभी आया जाता है । आपके कानों में कोई विकार लगता है ।” तब तक भक्तवत्सल भगवान कृष्ण और बलराम उसके समीप आ गए । दोनों ही बड़ी मंद-मंद मुस्कान से हस रहे थे । ”आओ लाला । यह लो अपने गहने । गिन लो । मैंने पंडित जी को एक भी नहीं दिया ।
पहन लो अपने गहने परतु एक बात बताओ मेरे साथ पंडित आए हैं उन्हें आपकी बांसुरी की आवाज क्यों नहीं सुनाई दी ?” करुणानिधि ने मुस्कराकर पेड़ पर छिपे पंडित को देखा । ”पंडित जी नीचे आओ । देख लो सांवरिया को और गहने मांग लो ।” पंडित जी नीचे तो उतरे परतु कुछ दिखाई तो दे ही न रहा था !
”यहां तो कोई नहीं है?” वह बोले । ”ऐं आपकी आखों में भी कुछ हो गया ? सामने खड़े बालक नजर नहीं आ रहे ? लाला ! ” सकटू भगवान से पूछ बैठा: ”यह क्या रहस्य हैं! पंडित जी को न सुनाई देता है न दिखाई देता है । यह मुझे झूठा कह रहे हैं ।
लाला ! ऐसा मत करो । गहने मत देना परंतु पंडित जी को अच्छा कर दो ।” ”अच्छी बात है! तुम मुझे और इन्हें एक साथ स्पर्श करो ।” कृष्ण ने कहा । सकटू ने ऐसा ही किया तो पंडित जी के दिव्य चक्षु खुल गए । और वह प्रेम विह्वल होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े ।
सकटू चोर निरंतर अपने ईष्ट की मोहक छवि निहार रहा था । आस्था और श्रद्धा के साथ लगन हो तो परमपिता परमात्मा व्यक्ति के निश्छल प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं । यह सकटू चोर की निष्कपट लगन से सिद्ध हो गया ।
Life Story # 16. भक्त शिरोमणि ध्रुव |
प्राचीन काल में एक प्रतापी राजा थे जिनका नाम उत्तानपाद था । राजा की दो रानियां थीं । बड़ी रानी का नाम सुनीति था । सुनीति अपने नाम के अनुसार अत्यत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी ।
छोटी रानी का नाम सुरुचि था जो स्वभाव से चचल और उच्छृंखल थी । सुरुचि की उच्छृंखलता में यौवन की अल्हड्ता थी इसलिए राजा उस पर पूरी तरह आसक्त थे । सुरुचि इस आसक्ति के कारण स्वय को सुनीति से श्रेष्ठ समझती थी ।
राजा को दोनों ही रानियों से एक-एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी । सुनीति से प्राप्त हुए पुत्र का नाम ध्रुव था । सुरुचि से प्राप्त हुए पुत्र का नाम उत्तम था । दोनों राजकुमार अत्यत सुदर थे । एक दिन राजा उत्तानपाद रानी सुरुचि के पास बैठे थे ।
राजकुमार उत्तम उनकी गोद में बैठा था जिसे वह नाना प्रकार से दुलार रहे थे । उत्तम भी पिता के स्नेह के उत्तर में बाल क्रीड़ाएं कर रहा था । सुरुचि मंद-मंद मुस्करा रही थी । तभी वहां राजकुमार ध्रुव आ गए और अपने पिता को उत्तम को दुलारते देखकर उत्साहित हो उठे ।
वह भी पिता के स्नेह के लिए उनकी गोद में बैठने का प्रयास करने लगे परंतु पिता ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया । ध्रुव मचल उठे । सुरुचि कुटिलता से हंस पड़ी । ”बेटा ध्रुव!” सुरुचि ने अपने अहंकार को चुभते शब्दों में ढाला: ”महाराज की गोद में बैठने के लिए राजकुमार होना ही काफी नहीं है ।
इसके लिए तुम्हें सुरुचि के गर्भ से जन्म लेना चाहिए था । यदि तू राज्यासन और पिता की गोद की इच्छा रखता है तो पहले कठोर तप कर और मेरे गर्भ से जन्म लेने का वरदान माग ।” ध्रुव बालक अवश्य थे परंतु विमाता की बात ने उनके हृदय में दुख पैदा कर दिया ।
उनका तेजस्वी मुखमंडल क्रोध से रक्तिम हो गया । तिरस्कार-भरी बात ने ध्रुव को उद्विग्न कर दिया था । वे वहां से रोते हुए भाग गए । ”सुरुचि! तुम्हें ध्रुव से ऐसा नहीं कहना चाहिए था ।” राजा ने सुरुचि से गम्भीरता से कहा : ”बच्चे का मन कोमल होता है ।”
”दोष तो आपका है महाराज! आपने ही उसे गोद में न बिठाया ।” सुरुचि ने नयनबाण चलाकर राजा को निरुत्तर कर दिया । सुरुचि के सुर्ख होंठों पर विजयी मुस्कान तैर उठी । उधर राजकुमार ध्रुव अपनी माता के पास पहुंचे और अपनी व्यथा कह डाली ।
रानी सुनीति ध्रुव से इस घटना को सुनकर रो पड़ी । उन्होंने ध्रुव को समझाते हुए कहा : ”पुत्र तुम दुख मत करो । सबसे बड़ी गोद तो परमपिता परमात्मा की होती है तुम तप द्वारा उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करो ।” माता की बात को बालक ध्रुव ने आत्मसात कर लिया ।
उनके व्यग्र चित्त में मा की यह बात जैसे शिला बन गई । उन्होंने तभी माता के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लिया और वन की ओर चल पड़े । ध्रुव के इस संकल्प की बात चहुं ओर फैल गई । तब स्वयं देवर्षि नारद बालक ध्रुव के संकल्प की परीक्षा हेतु चल पड़े ।
नारद ने राह में ही ध्रुव को रोक लिया । ”अरे वत्स! तुम इस निर्जन वन में अकेले कहा घूम रहे हो । इस वन में बड़े भयंकर जीव-जन्तु विचरण करते हैं । रात्रि में तेज दांतों वाले राक्षस भोजन की खोज में घूमते हैं । तुम्हें अकेला पाकर वे तुम्हारा भक्षण कर लेगे ।” नारद जी ने उन्हें डराया ।
”प्रभो! मृत्यु को जीवन का सबसे अटल सत्य कहा जाता है जब मृत्यु का समय होता है तो व्यक्ति चाहे शस्त्रों से सुसज्जित सेना की सुरक्षा में हो या अपने ऐश्वर्यशाली महलों में उसे कोई नहीं बचा सकता । यदि मेरी मृत्यु वन में निश्चित है तो मैं उसे कैसे टाल सकता हूं ।” ध्रुव ने दृढ़ता से उत्तर दिया ।
”परंतु तुम कहां जा रहे हो ?” ”मैं परमपिता परमात्मा की शरण में जा रहा हूं । मेरी माता ने मुझे उनकी शरण ही एकमात्र मुक्ति का मार्ग बताया है ।” ”अरे यह तो हमारे जैसे संन्यासियों का उद्देश्य होता है । तुम तो राजकुमार हो । तुम्हें तो भौतिक सुखों की कोई कमी नहीं है ।”
”यह उद्देश्य प्रत्येक जीवात्मा का है मुनिवर! भौतिक सुख तो क्षण-गुर हैं । मैं तो स्थायी सुख की खोज में जा रहा हूं जो केवल श्रीहरि के चरणों में ही सन्निहित है । उनका साक्षात्कार ही अटल और स्थायी सुख है ।” नारदजी बालक ध्रुव के दृढ़ संकल्प से बहुत खुश हुए ।
”हे वत्स ध्रुव! धन्य है तुम्हारी जननी जिसने तुम्हारे जैसा ज्ञानी भगवद्भक्त पुत्र जन्मा । तुम निश्चय ही अपने उद्देश्य में सफल होगे । मैं तुम्हें श्रीहरि की स्तुति का महामंत्र प्रदान करता हूं । उसके उच्चारण से तुम्हारी लौ उस परमपिता से लगी रहेगी ।”
नारद जी ने उन्हें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ की दीक्षा दी और श्रीहरि के भजन ध्यान और पूजा-विधि को सविस्तार बताकर उन्हें तपस्या हेतु मधुवन में यमुना तट पर जाने का आदेश दिया । ध्रुव अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ चले । पापहारिनी कालिंदी के तट पर पहुंचे और एक रमणीक एकांत स्थल देखकर अपने भजन-ध्यान पर बैठे ।
यमुना के शीतल जल में स्नानादि करके फल-फूल खाकर बड़े चाव से भगवान की पूजा करते और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करते । धीरे-धीरे उनके जाप में एकरसता आ गई । उनका अखंड जाप सांसों की प्रत्येक लड़ी में जैसे समाहित हो गया । चार माह के महा कठिन तप से बालक ध्रुव ने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया ।
भूख-प्यास तो उन्हें सताती ही न थी उन्होंने श्वास लेना भी छोड़ दिया । प्राणवायु वश में करके उन्होंने एक पैर पर खड़े रहकर भगवान की आराधना आरम्भ की । उनके कठोर तप से श्री भगवान उनके हृदय में स्थिर हो गए । उनके श्वास छोड़ देने से समस्त प्राणी जात का सास अवरुद्ध होने लगा ।
देव किन्नरादि भी उस महाजाप के प्रभाव से न बच सके । सब दौड़े-दौड़ क्षीरसागर पहुंचे जहां रमापति विष्णु भगवान शेषशैया पर लेटे मंद-मंद मुस्करा रहे थे । ”हे जगतनाथ यह कैसी माया है कि श्वास लेना दुष्कर हो रहा है ?”
”देवो बालक ध्रुव ने अपने चित्त में मुझे स्थिर करके अपना श्वास रोक दिया है । उसके प्राणायाम का प्रभाव ही है कि समस्त जीव जगत श्वास की पीड़ा से व्यथित है । अब मैं अपने बालभक्त के पास जाता हूं और उस अखंड निश्चल भक्त को तप से निवृत्त करता हूं ।”
भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर ध्रुव के पास पहुंचे । ”हे भक्त ध्रुव! औखें खोलो मैं तुम्हारे समक्ष हूं ।” नारायण ने उसे स्पर्श किया । ध्रुव ने आखें खोलीं तो अपने सामने दिव्यस्वरूप देखकर उनके आनंद की सीमा न रही । भावावेग में उनके मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे सिर्फ नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी ।
प्रभु अपने निश्छल भक्त की उस अवस्था पर बलिहारी हो गए । अपने श्रुतिरूपी शंख से भक्त के कपोल को स्पर्श किया । उसी क्षण जैसे ध्रुव के हृदय में आत्मज्ञान की ज्योति जल गई । उस आत्मज्ञान की पराकाष्ठा ने उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर दिया । क्षण-भर में वे समस्त विद्याओं के स्वामी बन गए ।
“हे वत्स ध्रुव ! तुमने इतना कठोर तप किया और कुछ भी नहीं मांगा ?” ”हे जगतपिता! मुझे आपका साक्षात्कार हो गया मेरे लिए अब किसी भी वस्तु की कामना नहीं रही ।” ध्रुव ने प्रेम विह्वल होकर कहा ।”पुत्र! तुमने नहीं मागा परंतु मैं तुम्हारे उद्देश्य से अनभिज्ञ नहीं हूँ ।
अत: मैं तुम्हें वह पद प्रदान करता हूं जो देव दानव नर आदि के लिए दुर्लभ है । उस अक्षत पद पर आज तक कोई नहीं पहुच सका । अंतरिक्ष तारे चद्रमा आदि सभी उसकी वंदना करते हैं । मेरे आशीर्वाद से तुम दीर्घकाल तक पृथ्वी के सर्वसुख भोगकर मेरा स्मरण करते हुए अपने प्रजाजनों को सुखी रखोगे ।
तत्पश्चात ब्रह्मधाम के मार्ग से होते हुए उस महाधाम पहुंचोगे जहा से फिर कभी नश्वर संसार में नहीं लौटोगे ।” वरदान देकर श्रीनारायण अंतर्धान हो गए । ध्रुव प्रसन्नचित्त अपने माता-पिता के पास लौट पड़े । उधर राजा उत्तानपाद बालक ध्रुव के मर्मस्पर्शी सकल्प पर इतने दुखी हुए कि उन्होंने दिन-रात ध्रुव को ही चित्त में धर लिया ।
जब उन्हें ध्रुव के लौटने का शुभ समाचार मिला तो बड़े हर्ष से उन्होंने अपने परम तेजस्वी पुत्र का स्वागत किया । पिता-पुत्र एक दूसरे की हृदय की व्यथा से अनभिज्ञ नहीं थे । अश्रुधारा फूट पड़ी । फिर ध्रुव ने माता सुनीति और सुरुचि को प्रणाम किया । सुरुचि भी अपने पूर्व व्यवहार से लज्जित थी और उसका हृदय परिवर्तित हो चुका था ।
कुछ समय पश्चात राजा उत्तानपाद ने वैराग्य लिया और ध्रुव को राज भार देकर तप करने वन में चले गए । ध्रुव ने भोग-विरक्त होकर भगवान को स्मरण करते हुए दीर्घकाल तक राज्य किया और अंत में विरक्त होकर बद्रिकाश्रम पहुंचे ।
वहा श्रीहरि का चिंतन करने लगे । जगतपिता ने उन्हें लेने के लिए एक दिव्य विमान भेजा जिसमें बैठकर वे परमधाम चल दिए । मार्ग में उन्होंने अपनी माता का चिंतन किया तो श्रीहरि ने उनके मनोभावों को समझकर उन्हें दिव्य दृष्टि से सुनीति को भी परमधाम में दिखा दिया ।
भगवद्भक्त पुत्र कई पीढ़ियों का उद्धारक होता है । आज भी महाभक्त ध्रुव अपने अखंड जाप के साथ आकाशगंघ के सर्वोच्च पद पर सुशोभित भगवान के भजन में लीन हैं । ध्रुवतारा उनका वही ज्योतिर्मय धाम है ।
Life Story # 17. परमभक्त हरिनारायण |
हरिनारायण का जन्म महाराष्ट्र प्रात में नारायणराव देशपांडे के घर हुआ था । इनका बचपन का नाम नीराजीराव देशपांडे था । नीराजीराव के एक चाचा अनंतराव देशपांडे थे जो नि संतान थे ।
नीराजी के पिता ने नीराजी को अनंतराव को गोद दे दिया । अनंतराव ने ही इनका नाम हरिनारायण रखा । काफी समय तक तो अनंतराव हरिनारायण को अपना पुत्र मानकर स्नेह करते रहे परतु कुछ दिनों बाद अनत राव की पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ ।
और अब अनंतराव का हरिनारायण पर स्नेह कम हो गया । यही तो मानवीय प्रवृत्ति है । अब बात-बात पर हरिनारायण की उपेक्षा की जाने लगी । अकारण उन्हें पीटा जाने लगा और अंतत: एक दिन अनंतराव ने इन्हें अपने घर से निकाल दिया ।
हरिनारायण सरल स्वभाव और भगवद्भक्त थे । सांसारिक विषयों में इनकी रुचि नहीं थी । अपने अंतर्मन में झांक लेने की जिज्ञासा के कारण यह स्वय में ही डूबे रहते थे । शायद यही कारण था कि घर के लोग इन्हें आलसी और अकर्मण्य समझने लगे थे ।
अनंतराव के घर से निकाल दिए जाने पर यह अपने जन्मदाता के पास पहुंचे परंतु पिता ने इनका तिरस्कार कर दिया और इन्हें वन जाने को कह दिया । हरिनारायण बहुत व्यथित हो उठे । तब इनकी स्नेहमयी माता ने इन्हें समझाया ।
”बेटा यह संसार के सम्बध बड़े विचित्र हैं । सब माया के बंधनों में जकड़े हुए हैं । पाप-पुण्य का विचार कोई नहीं करता जबकि सच्चा सुख केवल मन की शांति में है । शांति प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग विषयों से विरक्त हो जाना है ।
तुम अपने पिता के कहने को अन्यथा मत लेना । स्वयं को शांत चित्त रखो । मेरे पास रहकर अपने मन को विषयों से मुक्त कर लो । इसी से तुम्हें शांति प्राप्त होगी ।” माता का उपदेश सुनकर इन्हें बड़ा संतोष हुआ । फिर यह माता के आग्रह पर घर पर ही रहने लगे ।
कुछ समय बाद की बात है । इनके माता-पिता भगवान रुद्र की नगरी काशी की तीर्थयात्रा के लिए गए । अब घर की जिम्मेदारी हरिनारायण के ऊपर आ गई । हरिनारायण ठहरे भक्त आदमी । इन्हें तो सत्संग और साधुसेवा में बड़ा आनंद आता था । घर में किसी की रोक-टोक नहीं थी इसलिए घर की सम्पत्ति से साधु-संतों की सेवा करने लगे ।
हरिकीर्तन और दीनों की सहायता और दान करते-करते हरिनारायण ने घर की सम्पत्ति खर्च कर डाली । इस प्रकार घर की सम्पत्ति का सदुपयोग हो गया । माता-पिता तीर्थ यात्रा से लौटे । पिता ने जब घर की स्थिति देखी तो क्रोध से पुत्र को पीट दिया ।
”नालायक निर्बुद्धि तूने भिखमंगों में मेरे जीवन-भर की कमाई लुटा दी ? भाग जा यहां से । मैं तेरा मुख नहीं देखना चाहता ।” पिता ने कहा । भगवद्भक्तों को तो ऐसी परीक्षाएं देनी ही होती हैं । उन्हें आपत्तियां नहीं डरा सकतीं । पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर वन को चल दिए ।
माता से भी आज्ञा ले ली । परंतु इनकी पत्नी अन्नपूर्णा ने जब इनके वन जाने का समाचार सुना तो वह भी इनके साथ वन के लिए तैयार हो गईं । ”प्रिये तुम मेरे साथ क्यों जाती हो ?” हरिनारायण ने कहा : ”तुम एक धनी पिता की पुत्री हो । वन में केवल कष्ट हैं । मेरे साथ जाने की हठ न करो । अपने पिता के पास चली जाओ ।”
”स्वामी स्त्री के लिए पति से अधिक मूल्यवान कुछ नहीं होता । आप मेरा परित्याग न करें । यदि आप मुझे अपने साथ नहीं ले जा सकते तो कृपा करके मुझे मार दीजिए । आपके वियोग से अच्छी तो मृत्यु होगी । सुख-दुख तो जीवन की छाया हैं जो चलते रहते हैं ।” अन्नपूर्णा ने इनके चरण पकड़ लिए ।
जब पत्नी का करुण विलाप सुना तो हरिनारायण का हृदय पिघल गया । उन्होंने पत्नी को साथ चलने की अनुमति दे दी । गांव के लोगों में हरिनारायण के प्रति बड़ी श्रद्धा थी । लगे उन्हें नारद का अवतार मानते थे । जब लोगों ने उनके वनगमन की बात सुनी तो सारे गांव में हाहाकार मच गया । लोग उनके दर्शनों को दौड़ पड़े ।
हरिनारायण पत्नी सहित गाव से बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठे हरिकीर्तन कर रहे थे । वहीं लोगों की भीड़ एकत्र हो गई । उनकी पत्नी ने अपने सब आभूषण गरीबों को दान कर दिए । तीन दिन तक वहा हरिकीर्तन हुआ और चौथे दिन दोनों पति-पत्नी अपनी यात्रा पर चल पड़े ।
काशी, प्रयाग आदि पवित्र तीर्थों की यात्रा करके ‘जोगाइचे आवे’ नाम के गांव में आए । पत्नी को गांव में ठहराकर स्वय वन में कुटी बनाकर रहने लगे । उन्होंने बारह वर्ष तक कठोर तप करके माता भगवती के प्रत्यक्ष दर्शन किए ।
”भक्त अब तुम नरसिंहपुर जाओ । वहा तुम्हें सत्गुरु की प्राप्ति होगी और उन्हीं गुरु की कृपा से ईश्वर से साक्षात्कार होगा ।” माता भगवती ने आदेश दिया । देवी भगवती के आदेशानुसार पत्नी सहित हरिनारायण नरसिंहपुर चले आए । वहां पूरे भाव से अपना भजन-कीर्तन करने लगे ।
एक दिन हरिनारायण ब्रह्ममुहूर्त में जलकर नदी में स्नान करके ध्यान में मग्न थे कि नदी में बाढ़ आ गई । लोगों में हाहाकार मच गया । नदी की अथाह जलराशि कितना विनाश करने को आई थी कौन जानता था ? अन्नपूर्णा ने भी जब नदी में बाढ़ आने का समाचार सुना तो वह घबरा गईं ।
अपने पति की प्राणरक्षा के लिए भगवान नरसिंह की प्रार्थना करने लगीं । उधर हरिनारायण को अपने ध्यान में आभास तक न हुआ कि उनके सिर के ऊपर अथाह जलराशि बह रही है । व जल के भीतर अपने ध्यान में लीन थे । तब देवर्षि नारद वहां पधारे और उन्हें परमतत्त्व का उपदेश दिया ।
सात दिन तक नदी का जल स्तर निरंतर बढ़ता ही रहा और आठवें दिन जल स्तर घटने लगा । गांव के लोगों को यह विश्वास हो गया था कि हरिनारायण उस बाढ़ में मृत हो गए । अब तो उनके मृत शरीर की खोज करके उसका विधिवत् दाह संस्कार करना ही श्रेयस्कर था ।
लोग उन्हें दूर-दूर तक ढूंढने गए परंतु हरिनारायण तो प्रभु नाम के सहारे बैठे थे । जब नदी की जलराशि सामान्य हो गई तो लोगों ने हरिनारायण को हाथ में वीणा और करताल लेकर भगवद्भजन करते देखा । लोगों को आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति श्रद्धा भी बड़ी ।
लोग उन्हें नृसिंहजी के मंदिर में ले गए । उधर सती अन्नपूर्णा सात दिन से उनके मगंल की कामना करती निराहार निर्जल बैठी थीं । जब लोगों ने उनके पति की सकुशल वापसी की सूचना दी तो वह दौड़कर उनके पास पहुंचीं और उनके चरणों में गिर पडीं ।
फिर हरिनारायण ने पंढरपुर जाकर भगवान पांडुरंग के साक्षात दर्शन किए । उनकी भक्ति और साधना के पाश में बंधे स्वय भगवान पाडुरग ने उन्हें आशीर्वाद दिया । दक्षिण के सभी तीर्थों का दर्शन करके हरिनारायण ने अपने अंतिम समय में अपनी पत्नी को अपने परमधाम जाने की पूर्व सूचना दे दी और उस सती-साध्वी ने अपने नारी धर्म का पालन करते हुए प्राणायाम योग से अपना श्वास छोड़ दिया ।
हरिनारायण वहां से वैनबड़ी ग्राम आए जहां वह गंगा स्नान करना चाहते थे । वहां पतितपावनी गंगा ने प्रकट होकर उनकी यह इच्छा पूर्ण की । फिर हरिनारायणजी ने पूजा-अर्चना आदि नित्यकर्म पूर्ण किए । विक्रम संवत् 1647 (सन् 1590) में वह गीता में उल्लेखित योगासन मुद्रा में समाधिस्थ होकर बैठ गए ।
उनकी देह से दिव्य तेज निकलने लगा और वह इस ससार को त्यागकर ब्रह्मलोक चले गए । महाराष्ट्र के संतों में आज भी हरिभक्त हरिनारायणजी का स्मरण बड़ी श्रद्धा और आस्था से किया जाता है ।
Life Story # 18. गुरुभक्त आरुणि |
पुराने समय में ज्ञान सम्पन्न गुरु और योग्य शिष्यों को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । कुलीन राजघरानों और ब्राह्मणों के पुत्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल और आश्रमों की शरण लिया करते थे ।
उन दिनों आमोद धौम्य नाम के एक ज्ञान सम्पन्न गुरु थे जो अपने शिष्यों के परम आदरणीय थे । गुरु धौम्य ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों की ही शिक्षा प्रदान करते थे इसलिए उनके पास निर्धन और सम्पन्न दोनों ही वर्गो के शिष्य आया करते थे ।
वे बिना भेद-भाव के समान रूप से उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे । आश्रम का खर्च शिष्यों द्वारा की गई कृषि से ही चलता था । शिष्यों को आत्मनिर्भरता का पाठ पड़ाने के लिए ही गुरु धौम्य ने उन्हें कृषि करने की आज्ञा दी थी ।
वैदिकज्ञान कृषि और अनुशासन आदि क्षेत्रों में गुरु धौम्य के शिष्यों का कोई मुकाबला नहीं था फिर भी उनकी आखें किसी योग्य शिष्य को तलाशती रहती थीं । एक बार इंद्र के प्रकोप से बहुत भीषण वर्षा हुई जल और थल का भेद मिटने लगा था ।
लगता था प्रलय आकर ही रहेगी । गुरु धौम्य अपने सभी शिष्यों के साथ चिंतित खड़े वर्षा के रुकने की प्रतीक्षा कर रहे थे और वर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही थी । उन्होंने अपने शिष्यों से कहा : ”लगता है इस भीषण वर्षा के कारण हमारी फसल नष्ट हो जाएगी और इस वर्ष आश्रम का खर्च नहीं चल पाएगा ।”
गुरु द्वारा चिंता व्यक्त किए जाने पर भी किसी शिष्य ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । इस भीषण वर्षा में भला कोई कर भी क्या सकता था । पीछे खड़े एक शिष्य ने प्रश्न किया : ”गुरुदेव ! क्या इस समस्या का कोई समाधान भी है ।” ये आरुणि था ।
”हां आरुणि समाधान है”: गुरु धौम्य ने आत्मविश्वास के साथ कहा । ”यदि समय रहते खेत की मेड़ की मरम्मत कर दी जाए तो फसल को नष्ट होने से बचाया जा सकता है । किंतु इस प्रलयंकारी वर्षा और शर्द घनघोर रात्रि में कौन साहस करेगा खेत तक जाने का ।”
“हम सब मिलकर जाएंगे गुरुदेव” : आरुणि ने पूर्ण उत्साह के साथ कहा पर अन्य किसी भी शिष्य के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला । गुरु आमोद धौम्य इस मौन का कारण समझ चुके थे वे बोले : ”वत्स आरुणि तुम अकेले तो खेत की मेड़ ठीक नहीं कर पाओगे ।”
”गुरुदेव! आप आज्ञा दीजिए मैं प्रयास करके देखना चाहता हूं ।” ”नहीं वत्स! मैं तुम्हें अकेले जाने की आज्ञा नहीं दे सकता” : गुरु ने एक गहरी स्वास भरकर कहा । आरुणि दृढ़ता से बोला : ”आप ही तो कहते हैं कि बिना प्रयास किए हार नहीं माननी चाहिए फिर मैं इस वर्षा से कैसे हार मान सकता हूं ।”
गुरु धौम्य ने आरुणि के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया । आरुणि ने गुरु के मौन को उनकी स्वीकृति माना और वो सर्दी की उस भयावह रात्रि में वर्षा की परवाह किए बगैर अकेला ही खेतों की ओर निकल पड़ा । आरुणि जब खेतों के निकट पहुंचा तो वर्षा का पानी बाद का रूप लेकर खेत की मेड़ से टकरा रहा था ।
आरुणि ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर मिट्टी एकत्रित की और मेड की दरार में भर दी । पानी का बहाव बहुत तीव्र था जो दरार आरुणि ने भरी थी वो और भी चौड़ी हो चुकी थी । आरुणि दरार भरने के जो भी प्रयास करता उसका प्रभाव उल्टा ही पड़ता । उसके सामने गुरु जी का चिंतित चेहरा घूम रहा था उनके मौन में छुपी उनकी विवशता नजर आ रही थी ।
आरुणि किसी बड़े शिलाखंड की खोजकर रहा था जिसे वो दरार में लगाकर पानी को रोक सके । जब उसे कोई शिलाखंड न मिला तो वो स्वयं एक मजबूत शिला बनकर दरार के आगे लेट गया । वर्षा के पानी में अब इतनी शक्ति नहीं थी जो उस अभेद दुर्ग को बेध सके ।
आरुणि उसी तरह सुबह तक खेत की उस दरार के आगे लेटा रहा ठंड के कारण उसका पूरा शरीर अकड़ गया लेकिन उस गुरु भक्त ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया । सुबह गुरु ने उसे देखा तो उनके नेत्रों से आंसू छलक आए उन्होंने आरुणि के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा तो आरुणि की चेतना लौट आई । उसकी आखों में विजेताओं जैसी चमक थी ।
आकाश में इंद्रधनुष के दोनों सिरे धरा को छू रहे थे जैसे स्वयं इंद्र अपनी पराजय स्वीकार कर रहे हों । गुरु अमोद धौम्य को वर्षा से जिस योग्य शिष्य की तलाश थी वो उन्हें मिल चुका था । उन्होंने अपना सम्पूर्ण ज्ञान उस सच्चे उत्तराधिकारी को सौंप दिया और चिंता मुक्त हो गए ।
Life Story # 19. परम भक्त शांतोबा |
दक्षिण भारत की भूमि कितने ही संत-भक्तों की जन्मस्थली रही है । इसी भूमि पर ‘रंजनम्’ नाम का एक गांव था । इस गांव में शांतोबा नाम के एक धनवान व्यक्ति निवास करते थे ।
समृद्ध तो थे ही गांव में उचित सम्मान भी प्राप्त था । घर में सुंदर रूपवती स्त्री थी जिसके साथ वे सांसारिक सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे । दान ध्यान का कोई महत्त्व उनकी दृष्टि में नहीं था । एक बार भगवत्कृपा हुई । महाराष्ट्र के परमसंत तुकाराम भ्रमण करते हुए उनके घर आ ठहरे ।
सत्संग कीर्तन हुआ । कहते हैं कि सच्चे भक्त का क्षण भर का साथ पुण्यकारी होता है । तुकारामजी के प्रवचन शांतोबा के हृदय में जा बसे । उन्हें उस अद्भुत परमानंद की प्राप्ति हुई जिसके समक्ष ससार के सब भोग तुच्छ और अप्रिय लगने लगे । अपने गुजर चुके जीवन पर पश्चात्ताप होने लगा ।
‘मैंने विषय-वासना के जाल में फंसकर जीवन नष्ट कर दिया । इन भोगों से मुझे क्या प्राप्त हुआ ? अशांति और लालसा । अब मेरा उद्धार कैसे होगा ?’ शांतोबा मन में विचार करने लगे । जब विरक्ति पैदा हुई तो सम्पत्ति में क्या आसक्ति होगी ! उन्होंने अपनी सम्पत्ति को दीन-दुखियों में बांट दिया और सब मोह त्यागकर चल पड़े ।
तन पर एक लंगोटी के अलावा कुछ नहीं था । मार्ग में भीमा नदी थी जिसमें बाढ़ आई हुई थी । परंतु जिसे भवसागर से पार उतरने की लगन थी वह नदी के प्रवाह से क्यों डरता ? उन्होंने तैरकर नदी पार की और घोर जगंल में एक गुफा में रहकर भजन करने लगे ।
शांतोबा के घर वालों को उनका घर छोड़कर जाना दुखदायी लगा । उन्होंने उन्हें वापस लाने के लिए उनकी पत्नी को उनके पास भेजा । पत्नी भी पति के साथ रहने की इच्छुक थी । उसने निश्चय कर लिया था कि या तो पतिदेव घर लौटेंगे या वह स्वय उनके साथ रहेगी । यही एक सती स्त्री का धर्म होता है ।
वह जंगल में अपने पति के पास पहुंची और उनके समक्ष हाथ जोड़कर खड़ी हो गई । शांतोबा ने उन्हें देखा तक नहीं । उनके हृदय में कैसा भी मोह या उद्विग्नता नहीं आई । वह पूर्ववत् भजन में लगे रहे । साध्वी स्त्री उनके चरणों में गिर पड़ी ।
”स्वामी आपने सांसारिक माया से मुक्ति पा ली यह तो उचित है परंतु मेरे साथ यह अन्याय क्यों ! मैं आपकी भार्या हूँ और आप मेरे भगवान हैं । मैं आपके अलावा किसी अन्य भगवान को नहीं जानती । आप मुझे अपने चरणों से पृथक न करें ।”
शांतोबा के हृदय में कोई विकार नहीं था परतु पत्नी के प्रति उनका भी कोई धर्म था । ”यदि तुम वन में मेरी तरह रह सकती हो तो यहा रहो ।” शांतोबा ने कहा : ”यहां यह कार और आभूषण तुम्हें उतारने होंगे ।” ”जो आज्ञा नाथ!” पतिव्रता ने अपने आभूषण उतार फेंके और तपस्विनी बनकर अपने पति की सेवा में लीन हो गई ।
अब दोनों भजन-कीर्तन करने लगे । एक दिन शांतीबा ने पत्नी के धैर्य संयम की परीक्षा लेने के इरादे से उन्हें भिक्षा हेतु गाव भेजने का निश्चय किया । ”हमें रोटी खाए बहुत दिन हो गए । तुम पास के गाव जाकर कुछ भिक्षा लेकर आ सको तो चली जाओ ।” शांतोबा ने कहा ।
पत्नी को तो आदेश सुनना था । वह चल पड़ी और समीप के गाव में पहुंची । उस गांव में शांतोबा की बहन की ससुराल थी । संयोग से वह उसी के द्वार जाकर भिक्षा मांगने लगी । जब ननद ने अपनी भाभी को भिक्षुक बने देखा तो बड़ी व्यथित हुई ।
“भाभी, ऐसा क्या हो गया जिससे तुम्हें यह क्षुद्र कार्य करना पड़ा?” ननद ने कातर स्वर में पूछा: ”मेरे माता-पिता की छोड़ी सारी संपत्ति कहा गई ?” साध्वी ने सारी बात बताई और भिक्षा मांगी । ननद ने उन्हें प्रेम से बिठाया और अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर थाल भरकर उन्हें दिया ।
साध्वी भोजन लेकर वहा से चल पड़ी । बीहड़ जगंल और दुर्गम रास्ता ! पथरीली जमीन पर कई बार वह गिरते-गिरते बची । किसी प्रकार गिरती-पड़ती अपने पति के पास पहुंची और भोजन उनके सामने रख दिया । ”यह क्या न: मैंने तुम्हें भोजन में रोटी मांगने भेजा था और तुम यह गरिष्ठ भोजन ले आईं ।” शांतोबा ने शात स्वर में कहा ।
”स्वामी मैं भिक्षा मांगने समीप के गांव गई थी । वहां संयोग से आपकी बहन से भेंट हो गई । उन्होंने आग्रह करके मुझे यह भोजन दिया ।” ”यदि हमें ऐसा ही भोजन करना होता तो हम अपना घर क्यों छोड़ते ? उचित होगा कि तुम यह भोजन वापस लौटा आओ ।”
साध्वी ने किंचित मात्र भी विलम्ब न किया । यद्यपि थकान से उनका शरीर चूर-चूर हो रहा था । ठोकरों से पैरों की उंगलियों से रक्त निकल रहा था । फिर भी पति की आज्ञा मानकर वह भोजन का थाल लेकर वापस लौट पड़ी । ननद के घर जाकर भोजन का थाल साग्रह वापस किया और अन्य घर से रोटी लेकर फिर जंगल की तरफ चल पड़ी ।
इन दो फेरों में ही उसे शाम हो गई । शरीर थककर चलने से मना कर रहा था परंतु इस बात का संतोष था कि वह जिस कार्य से आई थी वह हो चुका था । रोटी के टुकड़े उनके पास थे जिनसे उनके पति की भूख शात होगी ।
तभी बादलों ने भीषण गर्जन के साथ वर्षा के आगमन का संकेत दिया । कुछ ही क्षणों में तेजी से बारिश आ गई । वह भीग गई और ठड से थर- थर कांपने लगी । वह नदी के तट पर पहुंची तो देखा कि नदी में भयकर बाढ़ आ रही थी । बाद देखकर साध्वी निराश हो गई ।
”हे प्रभु! मेरे स्वामी मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे । मैं किस प्रकार रोटी के इन टुकड़ों को अपने स्वामी तक पहूंचाऊँ । क्या मुझ दरिद्रा पर आपको दया नहीं आती !” साध्वी ने प्रभु से आस लगाई । और यदि ऐसी पतिव्रता की करुण पुकार सुनकर भी जगतपिता का हृदय न पसीजता तो उन्हें करुणानिधान कौन कहता २ प्रभु पाडुरग ने केवट का रूप धरा और वहां प्रकट हो गए ।
”बहन तुम कौन हो और इस वर्षा में क्यों भीग रही हो?” केवट रूपी भगवान पांडुरंग ने सस्नेह पूछा । ”भाई अवश्य ही तुम्हें भगवान ने मेरी सहायता के लिए भेजा है । मेरे स्वामी दूसरे किनारे पर भूखे बैठे हैं । मेरे पास रोटी के टुकड़े हैं ।”
”बहन निश्चिंत रहो । मैं तुम्हें नदी पार कराता हूं । आओ मेरे कंधों पर बैठो ।” भक्तवत्सल भगवान ने करुणापूर्वक कहा । और संसार को अपनी उंगली पर नचाने वाले सर्वेश्वर ने उस सती-साध्वी को अपने कंधों पर बिठा लिया और निर्भय नदी में उतर गए । कुछ ही क्षणों में महामल्लाह ने उसे दूसरे तट पर पहुंचा दिया ।
पति की कुटिया के पास पहुचकर उन्होंने केवट को धन्यवाद दिया और पति के पास पहुंची । शांतोबा उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे । उन्होंने रोटी निकालकर उनके समक्ष रख दी । शांतोबा ने रोटी की तरफ देखा तक नहीं । वह तो अपलक अपनी पत्नी को देख रहे थे जिनके शरीर से आज इतना दिव्य तेज निकल रहा था । इतना सौंदर्य और आकर्षण तो उनके शरीर में पहले कभी नहीं था ।
”साध्वी इस घनघोर वर्षा में तुम यहा तक कैसे पहुंचीं?” शांतोबा ने विस्मय से पूछा । पत्नी ने सब वृत्तांत कह सुनाया । शांतोबा ने सब सुना और सब समझ भी लिया । ”साध्वी ।” शांतोबा का स्वर भीग गया: ”तुम बड़भागिनी हो । भीमा नदी को इस प्रकार पार करना साधारण केवट के वश में नहीं है ।
निश्चय ही श्रीभगवान विट्ठल ने केवट का रूप धरकर तुम्हें नदी से पार उतारा है । जिनके दर्शनों के लिए मैं सब त्यागकर तप करने बैठा हूं तुम्हें उसने दर्शन दिया है । मेरे भजन में अवश्य ही कोई त्रुटि है जो सर्वेश्वर मेरे द्वार से लौट गए । अब मैं उनके दर्शन किए बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा ।”
शांतोबा ने सकल्प लिया और अन्न-जल छोड़ दिया । साध्वी ने भी पति का अनुसरण किया । कई दिन व्यतीत हो गए । समीप के गांव में एक हरिभक्त को भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा । ”भक्त नदी के पार जंगल में मेरा एक भक्त पत्नी सहित भूखा बैठा है । तुम भोजन लेकर जाओ और उन्हें भोजन करा आओ ।”
भक्त तत्काल भोजन लेकर जंगल में पहुंचा और शांतोबा को भगवान की आज्ञा सुनाई । ”भाई तुम जो भी हो और तुम्हें किसी ने भी भेजा हो । मैं तब तक भोजन नहीं करूंगा जब तक भोजन भेजने वाले के दर्शन नहीं कर लेता ।”
भक्त ने बहुत विनय की परंतु शांतोबा ने हठ न छोड़ी । हारकर भक्त वहा से चले गए । भोजन वहीं छोड़ गए । ”हे प्रभो! क्या यह पदार्थ ही जीवन का सार है ? इनका क्या महत्त्व है प्रभो मैं आपको छोड्कर इन्हें कैसे लूं । मुझे आपके दर्शन के अलावा और कोई इच्छा नहीं है । मुझे दर्शन दो प्रभु ।”
शांतोबा के स्वर में प्रभुमिलन की वेदना थी । उनकी करुण पुकार प्रभु के हृदय तक पहुंच चुकी थी । प्रभु प्रकट हो गए । शांतोबा का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा । वे प्रभु के चरणों में गिर पड़े । प्रभु ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और उन्हें दीक्षित करके अंतर्धान हो गए ।
अब शांतोबा का जीवन ही बदल गया । उनकी वाणी और स्वर में हरिनाम जैसे समाहित हो गया । उनका अध्यात्म ज्ञान स्तर प्रबल होता गया और सैकड़ों नर-नारी उनके दर्शनों को आने लगे । उसके बाद वह सपत्नीक पंढरपुर पहुंचे और भगवान पांडुरंग की पूजा-अर्चना में लीन रहने लगे ।
उनकी निष्काम पूजा से प्रभु प्रसन्न हुए और उन्हें पंढरपुर में ही रहने का आदेश दिया । प्रभु का निरंतर सामीप्य पाकर शांतोबा खिल उठे । तत्पश्चात प्रभु की आज्ञा से शांतोबा पत्नी सहित जीवनपर्यंत पंढरपुर में ही रहे । इस लोक में भगवत्येम की असीम गंगा में नहाते हुए उन्होंने परमधाम की यात्रा की ।
Life Story # 20. भक्त गोकर्ण |
अथाह जलराशि अपने गर्भ में समेटे दक्षिण भारत की तुंगभद्रा नदी के तट पर एक नगर था । इस नगर में एक विद्वान ब्राह्यण निवास करते थे । इनका नाम आत्मदेव था । कर्मकांडी ब्राह्मण थे । यजमानों की कोई कमी नहीं थी इसलिए धनाभाव का तो प्रश्न ही नहीं था ।
ब्राह्मण की पत्नी का नाम धुंधुली था । धुंधुली स्वभाव से ही दुष्टा और कलहप्रिय थी । ऊपर से अभी तक संतानविहीन थी । ब्राह्मण को यह महादुख सदैव कष्ट देता था । पत्नी का व्यवहार और नि: संतान होना ही इनके कष्ट का कारण था ।
संतान प्राप्ति के समस्त प्रयास विफल हो गए तो ब्राह्मण ने घर त्याग दिया । वन में जाकर तपस्या में लीन हो गए । कई दिनों के कठिन तप के पश्चात इन्हें एक संन्यासी मिला । ”वत्स! बड़ा कठोर तप कर रहे हो । क्या चाहते हो भगवान से ।”
”महाराज मैं पुत्र प्राप्ति के लिए तप कर रहा हूं ।” ब्राह्मण ने बताया । संन्यासी ने अपने नेत्र बद किए और कुछ सोचने लगे । ”ब्राह्मण!” तदुपरांत संन्यासी ने गम्भीर स्वर में कहा: ”तुम्हें जानकर अति कष्ट होगा कि तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है ।
इस जन्म की तो छोड़ो अगले सात जन्म भी संतान सुख तुम्हारे प्रारब्ध में नहीं ।” ”हे साधु महाराज ! ऐसा श्राप क्यों देते हो । मुझे आपका दिव्य ज्ञान नहीं चाहिए । यदि आप मुझे संतान प्राप्ति का कोई उपाय बताते हैं तो ठीक अन्यथा मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। मैं इसी अवस्था में अपने प्राण त्याग दूंगा ।”
ब्राह्मण के हठ और संकल्प से संन्यासी विचलित हुए । ”तुम्हारा यह हठ उचित नहीं ब्राह्मण! तुम विद्वान होकर भी विधाता के लेख को आत्मसात नहीं कर पा रहे । जब विधना ने ही तुम्हारे भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा तो क्यों अकारण शरीर को कष्ट देते हो ?”
”जो भी हो! मैं यहां से नहीं हटूंगा ।” ”तुम नहीं मानोगे । यह लो पुत्रफल । इसे अपनी पत्नी को खिला देना । ईश्वर की कृपा से तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी परतु इसके कुछ नियम हैं । तुम्हारी पत्नी को उन नियमों का पालन करना होगा । प्रसव तक उसे सदाचारिणी पतिव्रता रहना होगा । दाल-भात का भोजन करना
पड़ेगा । सत्य और मधुर वचन बोलने होंगे ।” संन्यासी ने एक सेब सदृश फल उसे दिया और अंतर्धान हो गए । ब्राह्मण फूला न समाया और तत्काल घर की राह ली । ब्राह्मण आत्मदेव ने फल लाकर अपनी पत्नी को दिया और वे सब निर्देश बताए जो संन्यासी ने कहे थे । धुंधुली ने तब तो कुछ नहीं कहा ।
‘भाड़ में जाए संतान!’ बाद में वह स्वयं से बोली: ‘संतान के लिए मैं क्यों कष्ट उठाऊं । दाल-भात तो मुझे जरा नहीं सुहाता । पकवान खीर और हलुवा खाए बिना तो मैं मर जाऊंगी । ऊपर से बच्चा हो गया तो उसके लालन-पालन में कितने ही कष्ट उठाने पड़ेंगे । पंडित जी का क्या है मजे से रहेंगे । सब खटराग मुझे करना पड़ेगा ।’
ऐसा सोचकर उस स्त्री ने वह फल गाय को खिला दिया । विधाता जो लिख देता है वह पूरा होकर रहता है । पंडित जी ने धुंधुली से दूसरे दिन पूछा : ”खा लिया ?” धुंधुली नाक चढ़ाकर बोली : ”भगवान जाने कहां से उठा लाए थे । कडुवा जहर था । सारा मुंह कड़वा हो गया ।”
पंडित जी प्रसन्न हो गए कि अब नौ माह बाद वे भी एक पुत्र के पिता कहे जाएंगे । धुंधुली भी खूब दिखावा कर रही थी । दाल-भात वो पका जरूर लेती थी, परंतु खाती उसे गौमाता ही थी । नौ माह बीतने को आए तो धुंधुली चिंतित हो उठी । उसने अपनी छोटी बहन से विचार-विमर्श किया जो उस समय गर्भवती थी ।
दोनों बहनों ने निर्णय किया कि छोटी बहन के जो संतान होगी वह धुंधुली को दी जाएगी । धुंधुली ने बहन को ढेर सारा धन दे डाला । अंतत : नौ माह बीते । धुंधुली की बहन ने एक बालक को जन्म दिया जिसे धुंधुली अपने साथ ले आई । पति को बता दिया कि वह उस फल का प्रसाद है ।
ब्राह्मण ने प्रसन्नता से पुत्र का नामकरण किया और उसका नाम धुंधुकारी रख दिया । गांव-भर का भोज हुआ । इधर समय पूर्ण होने पर गाय भी प्रसव से मुक्त हुई । उसने जिस जीव को जन्म दिया उसे देखकर सब विस्मित रह गए । वह रूप आकार और अंगों से मनुष्य था । सिर्फ उसके कान गाय जैसे थे ।
दूर-दूर से लोग उस विचित्र बालक रूपी बछड़े को देखने आ रहे थे । ब्राह्मण आत्मदेव ने उसे प्रभु की लीला समझकर उसके लालन-पालन का निर्णय कर लिया । उसका नाम गोकर्ण रखा गया । समय बीतने के साथ धुंधुकारी और गोकर्ण बड़े हुए ।
दोनों के व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर था । जहां गोकर्ण रूपवान सज्जन मृदुभाषी और बुद्धिमान युवक था वहीं धुंधुकारी कर्कश आचारविहीन चोर दुष्ट और परस्त्रीगामी निकला । उसका बर्ताव माता-पिता या भाई सभी के प्रति दुष्टता से भरा था ।
आत्मदेव धुंधुकारी के भय से कुछ न कहते थे । उन्होंने एक बार अपने मन का त्रास गोकर्ण से कहा । तब गोकर्ण ने इन्हें बड़े ही मनोहारी शब्दों में ज्ञान और भगवान का उपदेश दिया । वृद्ध ब्राह्मण गोकर्ण के ज्ञान से अभिभूत हो गए और गोकर्ण की राय पर गृहत्याग कर वन में श्री भगवान के चरणों की वंदना के लिए चले गए ।
अंत में वन में ही देह के बंधनों से छूटकर गोलोक चले गए । पिता का थोड़ा-बहुत अकुश भी हट गया तो धुंधुकारी निष्कंटक अपने पापकर्मों में लीन हो गया । धन निरंतर नष्ट हो रहा था । माता धुंधुली ने पुत्र के असहनीय पाप-कर्म देखे तो जीवन ही बोझ लगने लगा और उसने कुए में कूदकर प्राण ही त्याग दिए ।
गोकर्ण भी वहां क्यों रहते जहा हर तरफ पाप विचरण करता था । धुंधुकारी वेश्याओं को घर में ही रखने लगा था । गोकर्ण ने तीर्थयात्रा के उद्देश्य से घर त्याग दिया । इधर धुंधुकारी के व्यसन चरम पर थे । वह नहीं जानता था कि वेश्या की आसक्ति धन में होती जन में नहीं ।
धन समाप्त होने को आया तो वेश्याओं ने भी लात जमा दी । गुस्सैल तो था ही उनसे भिड़ गया और मारा गया । अपने पापकर्मों से धुंधुकारी प्रेत योनि में पहुंचकर नाना कष्ट भोगने लगा । गोकर्ण ने जब उसकी मृत्यु का समाचार सुना तो व्यथित हुए ।
वह उसे भाई मानते थे । उसकी मुक्ति हेतु उन्होंने ‘गया’ जाकर श्राद्ध किया फिर जिस तीर्थ में भी जाते वहीं उसका पिंडदान करते । अन्तत : गोकर्ण तीर्थ यात्रा से लौटे । अपना निर्जन घर स्वच्छ किया और उसमें रहने लगे । रात्रि में वह सो रहे थे ।
उन्होंने अजीब डरावनी आवाजें सुनीं । वह भयभीत नहीं हुए । अंधेरे में एक आकृति उन्हें नाना प्रकार के उत्पात करती नजर आई । ”हे भाई! तुम कौन हो और क्यों उत्पात कर रहे हो ?” गोकर्ण ने पूछा । ”मैं धुंधुकारी हूं ।” आकृति जोर-जोर से रोने लगी: ”अपने पापकर्मों से प्रेत योनि में भटक रहा हूं । अत्यधिक कष्ट भोग रहा हूं ।”
गोकर्ण को बड़ा दुख हुआ । धुंधुकारी हालांकि ऐसे ही परिणाम का अधिकारी था परंतु गोकर्ण तो दयालु थे । उनसे उसकी वह हालत नहीं देखी गई । ”मैं तुम्हारी मुक्ति का प्रयास करूंगा ।” गोकर्ण ने उसे सांत्वना दी: ”मैंने गया जाकर तुम्हारी आत्मिक शांति के लिए श्राद्ध भी किया था ।
अन्य तीर्थ स्थानों पर पिंड दान भी किए परंतु लगता है उनसे कोई लाभ नहीं हुआ । अब मुझे अन्य कोई श्रेष्ठ उपाय करना होगा ।” ”कुछ भी करो भाई! मुझे इस भीषण यातना से मुक्ति दिलाओ ।” धुंधुकारी का प्रेत उनसे मार्मिक स्वर में बोला : ”यह यातना असहनीय है ।”
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गोकर्ण का अंतर द्रवित हो गया । कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा : ”इस समय तुम जाओ । मैं शीघ्र ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग खोलूंगा ।” धुंधुकारी आश्वस्त होकर लुप्त हो गया । प्रात: होते ही गोकर्ण ने कई विद्वानों से सारा वृत्तात कहा और इसका कोई उपाय पूछा ।
परंतु किसी विद्वान के पास इस भीषण समस्या का कोई समाधान नहीं था । आखिरकार एक योगी ने बताया गोकर्ण ! यह बड़ि विकट परिस्थिति है । जैसे धुंधुकारी के पाप-कर्म थे उनसे मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है और यदि है तो स्वय सूर्य भगवान ही इसका निवारण करेंगे ।
वह समस्त विद्याओं के ज्ञाता साक्षात नारायण स्वरूप परमात्मा हैं । अत: वही बता सकते हैं कि क्या किया जा सकता है । गोकर्ण ने उसी समय अपनी अनत भक्ति और साधना के बल पर महातेजस्वी सूर्य के सप्ताश्व रथ की गति रोक कर उनकी स्तुति की ।
”हे महाभक्त गोकर्ण ! किस उद्देश्य से तुमने मेरा रथ रोका है ?” सूर्य भगवान ने पूछा : ”क्या तुम यह नहीं जानते हो कि इस प्रकार हमारा एक जगह ठहरना कितना अमंगलकारी हो सकता है । हमारे ताप को स्थिर अवस्था में पाषाण भी नहीं सह सकता ।”
“मैं जानता हूं प्रभो!” गोकर्ण ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा: ”परंतु मेरी समस्या का निवारण आप ही कर सकते हैं । ”अपनी समस्या शीघ्र बताओ वत्स!” गोकर्ण ने संक्षेप में अपनी समस्या बता दी । ”हे वत्स ! जिन पापकर्मों से धुंधुकारी प्रेत योनि में गया है उनसे मुक्ति का एक ही मार्ग है कि उसे श्रीमद्भागवत का श्रवण कराया जाए ।
सात दिन इसके श्रवण से जन्म-जन्म के पाप कट जाते हैं । हे पुत्र ! श्रीमद्भागवत एक मात्र ऐसा कल्पवृक्ष है जो समस्त प्रकार के पापों से उद्धार कर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने वाला है । अत: तुम बिना किसी संशय के श्रीमद्भागवत का पाठ करो ।
”धन्यवाद प्रभो मैं आपका सदैव ऋणी रहूंगा ।” सूर्यदेव चले गए । गोकर्ण ने अगले दिवस से ही श्रीमद्भागवत का पारायण प्रारम्भ कर दिया । आस-पास की जनता उनके श्रीमुख से श्रीमद्भागवत का पाठ सुनने आ गई । गोकर्ण ने कथा शुरू की तो प्रेत धुंधुकारी भी वहां आ गया ।
उसे अपने बैठने के लिए कोई उचित स्थान न दिखा तब उसे सात गांठों का एक बांस दिखाई दिया । वह उसी बांस में वायुरूप होकर प्रविष्ट हो गया और कथा का श्रवण करने लगा । सांयकाल प्रथम दिन का पाठ समाप्त हुआ । इसी के साथ बास की एक गांठ कड़-कड़ की तेज ध्वनि के साथ टूट गई । लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
दूसरे दिन फिर वही हुआ । दूसरी गांठ भी टूट गई थी । गोकर्ण उस रहस्य को जानते थे इसलिए संतुष्ट थे । अंतत : सातवें दिन कथा समाप्त हुई । बांस की सभी गांठें टूट चुकी थीं और धुंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया । अब वह सभी को दृष्टिगोचर हो रहा था ।
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उसके गले में तुलसी की माला पड़ी थी । उसका रग श्यामल हो गया था । पीताम्बर पहने वह दिव्य पुरुष लग रहा था । वह हाथ जोड़कर गोकर्ण के समक्ष नतमस्तक हो गया । ”हे भ्राता गोकर्ण! तुम्हारे कारण मैं इस प्रेत योनि से छूट सका इसके लिए मैं तुम्हारा सदैव आभारी रहुंगा । तुम्हारे ही तप और ज्ञान के कारण आज मैं यह दिव्य रूप पा सका हूं ।
अब मैं परमधाम को प्रस्थान करता हूं । समस्त ससार तुम्हारा यशोगान करे इस कामना के साथ मैं मायारूपी ससार को छोड़ जाता हूं ।” इतना कहकर धुंधुकारी एक दिव्य विमान में बेठकर परमधाम चला गया । गोकर्ण की कीर्ति चहुं ओर फैल गई थी ।
अव भगवद्भक्ति ही उनका एकमात्र कार्य था । श्रावण के महीने में उन्होंने फिर श्रीमद्भागवत का पाठ किया । कथा समाप्ति पर स्वयं भगवान अपने अनेक पार्षदों सहित अनक दिव्य विमान लेकर वहां आ गए । समस्त वातावरण दिव्य रूप हो गया ।
विष्णु भगवान ने पांचजन्य शख से गोकर्ण की कथा का समापन किया । तत्पश्चात उसे चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए । वहां उपस्थित सभी श्रोतागण गोकर्ण की भक्ति के कारण भगवान विष्णु के दर्शन पाकर कृतार्थ हुए ।
भगवान ने गोकर्ण को हृदय से लगाया और उन्हें अपने दिव्य विमान पर बैठाकर गोलोक ले गए । गोकर्ण की कृपा से सभी श्रोतागण भी गोलोक के अधिकारी बने और पृथ्वी के सुख भोगकर अंत समय में परमधाम पहुंचे । इस प्रकार उस परमभक्त गोकर्ण ने अपनी भक्ति से असंख्य लोगों का उद्धार कर दिया ।