Short Biography of Hindu Devotees in Hindi!

Hindu Devote # 1. गोपाल चरवाहा |

उत्तर प्रांत की कमलावती नगरी में गोपाल नाम का एक खाला रहता था । वह पढ़ा-लिखा नहीं था और उसने कथा-वार्ता भी नहीं सुनी थी । दिन-भर गायों को जंगल में चराया करता था ।

दोपहर को स्त्री छाक पहुचा दिया करती थी । गोपाल सीधा सरल और निश्चिंत था । उसे ‘राम-राम’ जपने की आदत पड़ गई थी सो उसका जप वह सुबह शाम थोड़ा-बहुत कर लेता था । इस प्रकार उसकी उम्र पचास वर्ष की हो गई । बराबर वाले उसे चिढ़ाया करते थे:

‘राम-राम रटने से बैकुंठ के विमान का पाया हाथ नहीं आएगा ।’  एक दिन गोपाल को उसके साथी चिवड़ा रहे थे । उसी रास्ते एक संत जा रहे थे । उन्होंने चिढ़ाने वालों से कहा : ”भाई ! तुम लोग बड़ी गलती कर रहे हो । भगवान के नाम की महिमा तुम नहीं जानते ।

यह बूढ़ा चरवाहा यदि इसी प्रकार श्रद्धा से भगवान का नाम लेता रहेगा तो इसे संसार-सागर से पार कर देने वाले गुरु अवश्य मिल जाएंगे । भगवान का नाम तो सारे पापों को तुरंत भस्म कर देता है ।” गोपाल को अब विश्वास हो गया : ‘मुझे अवश्य गुरु मिलेंगे और उनकी कृपा से मैं भगवान के दर्शन कर सकूंगा ।’ वह अब बराबर गुरुदेव की प्रतीक्षा करने लगा ।

वह सोचता : ‘गुरुजी को मैं झट संत के बताए लक्षणों से पहचान लूंगा । उन्हें ताजा दूध पिलाऊंगा । वे मुझ पर राजी हो जाएंगे । मेरे गुरुजी बड़े भारी ज्ञानी होंगे । भला उनका ज्ञान मेरी समझ में तो कैसे आ सकता है । मैं तो उनसे एक बात छूगा । मुझसे बहुत-सी झंझट नहीं होगी ।

गोपाल की उत्कंठा तीव्र थी । वह बार-बार रास्ते पर जाकर देखता पेड़ पर चढ़कर देखता लोगों से पूछता : ‘कोई सत तो इधर नहीं आए ?’ कभी-कभी व्याकुल होकर गुरुजी के न आने से रोने लगता । अपने अनदेखे अनजाने गुरु को जैसे वह खूब जान चुका है ।

एक दिन इसी प्रकार की प्रतीक्षा में गोपाल ने दूर से एक सत को आते देखा । उसका हृदय आनंद से पूर्ण हो गया । उसने समझ लिया कि उसके गुरुदेव आ गए । उन्हें ताजा दूध पिलाने के लिए झटपट वह गाय दूहने बैठ गया । इतने में वे संत पास आ गए ।

दूध दूहना अधूरा छोड़कर एक हाथ में दूध का बर्तन और दूसरे में अपनी लाठी लिए वह उनके पास खड़ा होकर बोला : ”महाराज ! तनिक दूध तो पीते जाओ ।” साधु ने आतुर शब्द सुना तो रुक गए । गोपाल के हाथ तो फंसे थे संत के सामने जाकर उसने मस्तक झुकाया और सरल भाव से बोला : ”लो ! यह दूध पी लो और मुझे उपदेश देकर कृतार्थ करो ।

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मुझे भवसागर से पार कर दो । महाराज! अब मैं तुम्हारे चरण नहीं छोडूंगा ।” दूध का बर्तन और लाठी एक ओर रखकर वह सत के चरणों से लिपट गया । उसके नेत्रों से झर-झर औसू गिरने लगे । संत एक बार तो यह सब देखकर चकित हो गए ।

फिर गोपाल के सरल भक्ति भाव को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने गोपाल से घर चलकर स्नान करके दीक्षा लेने को कहा । गोपाल बोला : ”महाराज ! मुझे तो वन में रहकर गाए चराना ही आता है । स्नान-पूजा तो मैं जानता नहीं । घर भी कभी-कभी जाता हूं । मैं गँवार हूं ।

मुझसे बहुत बातें सधेंगी भी नहीं । मैं तो उन्हें भूल ही जाऊंगा । मुझे तो आप कोई एक बात बतला दें और अभी यहीं बतला दें । मैं उसका पालन करूंगा ।” ऐसे भोले भक्त पर तो भगवान भी रीझ जाते हैं । सत ने मानसिक आसन-शुद्धि आदि करके अपने कमंडल के जल से उस पर छींटा मारा और मंत्र देकर बोले : ”देखो ! अब तुम्हें जो कुछ खाना हो भगवान गोविंद का भोग लगाकर ही खाया करो ।

इसी एक साधन से तुम पर गोविंद भगवान की कृपा हो जाएगी ।” गोपाल ने पूछा : ”महाराज ! मैं आपकी आज्ञा का पालन तो करूंगा ? पर गोविंद भगवान मुझे कहां मिलेंगे जो उन्हें रोज भोग लगाकर भोजन करूं ?” संत ने भगवान के स्वरूप का वर्णन करके कहा : ”भगवान तो सब जगह हैं सबके भीतर हैं। तुम उनके रूप का ध्यान करके उन्हें पुकार लेना और उनको भोग  लगाना ।

भूलना मत ! उन्हें भोग लगाए बिना कोई पदार्थ मत खा लेना ।”  यह उपदेश देकर गोपाल का दूध ग्रहण करके महात्मा जी चले गए । दोपहर को गोपाल की स्त्री आई और छाक देकर चली गई । गोपाल को अब गुरुजी की बात स्मरण आई ।

एकांत में जाकर पत्ते पर रोटियां परोसकर तुलसीदल डालकर वे गोविंद भगवान का ध्यान करते हुए प्रार्थना करने लगे : ”हे गोविंद ! लो ये रोटियां रखी हैं । इनका भोग लगाओ । मेरे गुरुदेव कह गए हैं कि भगवान को भोग लगाकर जो प्रसादी बचे वही खाना ।

मुझे बहुत भूख लगी है किंतु तुम्हारे भोग लगाए बिना मैं नहीं खाऊंगा । देर मत करो । जल्दी आकर भोग लगाओ ।” गोपाल प्रार्थना करते-करते थक गया संध्या हो गई पर गोविंद नहीं पधारे । जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तब गोपाल कैसे खा ले । उसने रोटियां जगंल में फेंक दीं और गोशाला लौट आया ।

गोपाल का शरीर उपवास से सूखता चला गया । इसी प्रकार अट्‌ठारह दिन बीत गए । खडे होने में चक्कर आने लगा । आखें गड्‌ढों में घुस गईं । स्त्री-पुत्र घबराकर बार-बार कारण पूछने लगे पर गोपाल कुछ नहीं बताता । वह सोचता : ‘एक दिन मरना तो है ही गुरु महाराज की आज्ञा तोड़ने का पाप करके क्यों मरूं ।

मेरे गुरुदेव की आज्ञा तो सत्य ही है । यहां न सही मरने पर परलोक में तो मुझे भगवान के दर्शन होंगे ।’  उपवास को नौ दिन और बीत गए । आज सत्ताईस दिन हो चुके । गोपाल के नेत्र अब सफेद हो गए हैं । वह उठकर बैठ भी नहीं सकता । आज जब उसकी स्त्री छाक लेकर आई तब गोशाला से जाना ही नहीं चाहती थी ।

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उसे किसी प्रकार गोपाल ने घर भेजा । बड़ी कठिनता से छाक परसकर वह भूमि पर लेट गया । आज बैठा न रह सका । उसे आज अंतिम प्रार्थना करनी है वह जानता है कि कल फिर प्रार्थना करने को देह में प्राण नहीं रहेंगे । आज वह गोविंद भगवान को रोटी खाने के लिए हृदय के अंतिम बल से पुकार रहा है ।

यह क्या हुआ ? तभी तेज प्रकाश गोशाला में आ गया ! गोपाल ने देखा कि उसके सामने गुरुजी के बताए वही गोविंद भगवान खड़े हैं ।  एक शब्द तक उसके मुख से नहीं निकला । भगवान के चरणों पर उसने सिर रख दिया । उसके नेत्रों की धारा ने उन लाल-लाल चरणों को धो दिया ।

भगवान ने भक्त को गोद में उठा लिया और बोले : ”गोपाल ! तू रो मत । देख मैं तेरी रोटियां खाता हूं । मुझे ऐसा ही अन्न प्रिय है । अब तू यहां से घर जा । अब तुझे कोई चिंता नहीं । अपने बंधु-बांधवों के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता ! अंत में तू मेरे गोलोक-धाम आएगा ।”

भगवान ने उसकी रोटियां खाईं और उसके लिए प्रसाद छोड्‌कर अंतर्धान हो गए । गोपाल ने ज्यों ही उस प्रसाद को ग्रहण किया उसका हृदय आनंद से भर गया । उसकी भूख-प्यास दुर्बलता थकावट सब क्षण-भर में चली गई । आज सत्ताईस दिन के उपवास की भूख-प्यास तथा दुर्बलता ही नहीं दूर हुई अनन्त काल की दुर्बलता दूर हो गई ।


Hindu Devote 2. गिरधर भक्त गिरवर |

कुरुक्षेत्र की समर भूमि में युद्ध से पूर्व पार्थ के हृदय में बंधु-बांधव का मोह जाग्रत हुआ तो उन्होंने अपने सारथी बने भगवान कृष्ण से कहा : ”हे माधव ! मैं लड़ना नहीं चाहता ।”

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तब भक्तवत्सल भगवान ने विराट रूप दिखाकर उन्हें गीता का वह अद्‌भुत उपदेश दिया कि अर्जुन के गांडीव से निकले तीर ही समरभूमि में दृष्टिगोचर होते थे । अपने उन्हीं उपदेशों में कृष्ण ने कहा था कि : ”हे पार्थ ! किस चिंता में पड़े हो ? जो देख रहे हो वह सब भ्रम है ।

तुमने कुछ पैदा नहीं किया था जिसके नष्ट होने की आशंका से तुम भयभीत हो । सब कुछ यहीं से लिया था । सब कुछ यहीं रह जाएगा । अपने कर्त्तव्य से विमुख मत हो जाओ । परिणाम की इच्छा ही न करो जो हो रहा है जो हो चुका है और जो होगा वह सब मेरी इच्छा के अनुसार है । तुम बस कर्म में समर्पित रहो ।”

गीता के इस महामंत्र महाज्ञान को आत्मसात करना ही सच्चे अर्थों में जीवन की सार्थकता है जिसे बिरले ही कर पाते हैं । नर्मदा नदी के किनारे एक गांव था । इस गाँव में गिरवर नाम के एक राजपूत किसान थे । परिवार में वृद्ध माता-पिता थे । पत्नी गौरी सुशील और सदाचारिणी स्त्री थी । ऊदा नाम का पांच वर्षीय पुत्र था ।

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पूरा परिवार धर्म और कर्म पर आश्रित था । वृद्ध माता-पिता ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते थे । स्वयं गिरवर और उनकी पत्नी उनकी सेवा को ईश्वर की सेवा मानकर रहते । बालक ऊदा भी अच्छे संस्कारों से धर्म की महिमा जान गया था ।

गिरवर की ईश्वर में प्रबल आस्था थी । वह अन्य लोगों को भी गीता का सही ज्ञान देते कि जो भी होता है कल्याण हेतु होता है । कई लोग तो इस बात से सहमत हो जाते और कई मीनमेख निकालने वाले विदूषक भी मिल जाते ।

”गिरवर जी! घर में सब सुख-साधन हैं इसलिए कल्याण ही कल्याण देखते हो । अच्छी पत्नी अच्छा पुत्र अच्छा भोजन ।”  विदूषक कहते : ”जब तक स्वयं पर दुख नहीं पड़ता तब तक दूसरे की पीड़ा का आभास नहीं होता । सुख में तो सब सुमिरन करते हैं दुख में भक्त का पता चलता है ।”

गिरवर की आस्था सच्ची थी इसलिए वह बहस नहीं करते । जिन्हें दयानिधि की दया पर विश्वास है उन्हें ऐसी बातों से क्या लेना ? कुछ समय पश्चात गिरवर के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । ”माता-पिता की सेवा का अल्प सौभाग्य था ।” उन्होंने दुखी हो रही पत्नी को समझाया : ”माता-पिता की सेवा बड़े सौभाग्य से मिलती है ।

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भगवान ने हमें थोड़ा ही अवसर दिया । भगवान ने जो किया है हमारे कल्याण के लिए ही किया होगा ।” समय गुजरता रहा । गिरवर का पुत्र आठ वर्ष का हो गया था । एक दिन ऊदा नदी में नहाने गया तो घड़ियाल ने दबोच लिया । घड़ियाल उसे पानी की अथाह गहराई में खींचने लगा ।

लोगों में हाहाकर मच गया । गिरवर और उनकी पत्नी भी पगलाए-से तट पर पहुंचे । ”हे ठाकुर जी, मेरी प्राण रक्षा करो ।” ऊदा ने भगवान को पुकारा । और देखते-ही-देखते ऊदा अनंत जलराशि में लुप्त हो गया । मां का हृदय फट गया । वह करुण विलाप करके पति से लिपट गई ।

”भगवान जो करते हैं कल्याण के लिए करते हैं ।” गिरवर ने अपनी आस्था से तिल-भर हिलना स्वीकार नहीं किया । गौरी को पति की वह बात उचित नहीं लगी । ”हे सहधर्मिणी! संसार एक अथाह समुद्र है । यहा कोई किसी का नहीं है जो इस जन्म में तुम्हारा पुत्र था वह किसी जन्म में तुम्हारा पिता भाई मित्र शत्रु रह चुका होगा ।

यह संसार एक सराय के समान है । यहां जीव अपने कर्मफल भोगने आता है । जिसका समय समाप्त हो जाता है वह चला जाता है । प्रिये यह संसार एक उपवन है । गृहस्थ उस उपवन का पेड़ है । हम उस पेड़ के माली होते हैं । उस पर कोई फूल-फल इत्यादि ईश्वर खिलाता है ।

यदि ईश्वर उस पेड़ के पुष्प को अपने लिए मांग ले तो क्या बुरा है ? जो हमारा है नहीं उसके जाने का शोक कैसा ? हमारा पुत्र भी ऐसा ही पुष्प था ?  जो ईश्वर को पसंद आया और उसने अपने पास बुला लिया । वह पुण्यात्मा था । अन्त समय में भी हमारी नहीं भगवान की मदद चाह रहा था ।

तुम्हें व्यर्थ ही शोक नहीं करना चाहिए । ईश्वर जो भी करता है कल्याण के लिए करता है । क्या पता ऊदा अभी जीवित हो ! अनंत जलराशि उसे कहीं ऐसी जगह पहुंचा दे जहा वह और भी सुख से रहे !” पति की ऐसी आध्यात्मिक बातों से गौरी को बड़ा बल मिला ।

उसका शोक खत्म हो गया । दोनों घर वापस आए । माता-पिता और पुत्र की मृत्यु के पश्चात गिरवर जी ने भजन-कीर्तन में ही रमे रहने का निश्चय किया । खेती को बंटाई पर दे दिया । अब दोनों पति-पत्नी ठाकुर जी की सेवा में ध्यान में मगन रहते । वेद पुराण, और विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते ।

”देखो गौरी ! यदि हमारा ऊदा होता तो उसके लालन-पालन से हमें इतना समय कैसे मिलता कि हम भगवान में लीन रहते । भगवान ने ऊदा के रूप में हमें एक सेवा सौंपी जो वापस ले ली । अब दूसरी सेवा सौंप दी तभी तो कहता हू कि ईश्वर जो भी करते हैं कल्याण हेतु करते हैं ।”

”सत्य कह रहे हैं स्वामी! भगवान की लीला अपरम्पार है ।” उधर भगवत कृपा ऐसी हुई कि नदी में घड़ियाल ने ऊदा को घायल करके छोड़ दिया था । जलप्रवाह में बहता वह राजा धर्मसिंह की नगरी के समीप पहुच गया जहा उस समय राजा स्वयँ उपस्थित थे ।

राजा ने उसे निकाला और अपने राजमहल ले गए । ऊदा का उपचार हुआ तो वह ठीक हो गया परतु वह अपना अतीत भूल गया उसे सिर्फ अपना नाम याद था तब राजा धर्मसिंह ने उसे पुत्र बना लिया और उसका नाम उदयराज रख दिया ।

वह भगवद्‌भक्त तो था ही शिक्षा में भी मेधावी था । समय व्यतीत होता रहा । शिक्षा पूर्ण होते ही उदयराज का विवाह विजयनगर की राजकुमारी कौशलेश से हो गया । इधर अकाल पड़ गया तो लोग अन्न-जल के लिए तड़पने लगे । गिरवर और गौरी भी हर सम्भव गरीबों की सहायता करते ।

वे स्वय भी उस दुर्भिक्ष की चपेट में आ गए । अंतत: उन्होंने गाव छोड़ दिया । चलते-चलते वे एक घने जगल में पहुंचे और एक वृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया । उसी वृक्ष की जड़ में एक विषधर रहता था जिसने सोती हुई गौरी को डस लिया और वह छटपटाती हुई भगवान का नाम लेती रही ।

अतत: उसकी श्वास बद हो गई । गिरवर ने अपनी आखों से अपनी पत्नी को छटपटाते देखा । ”जैसी प्रभु की इच्छा । सभव है कि इसमें भी कोई कल्याण हो ।” ऐसा कहकर गिरवर रात-भर पत्नी की मृत देह के पास बैठे भगवान का भजन करते रहे । प्रात: होने पर गौरी के पार्थिव शरीर को नर्मदा के पावन जल में प्रवाहित कर दिया ।

वहां से गिरवर जी के मन में वैराग्य तीव्र हो उठा । अब भगवान से साक्षात्कार की कामना प्रबल हो उठी थी । वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर भगवद् भजन में इतने लीन हुए कि उनकी आखों से अश्रु और मुख से ठाकुर जी का नाम निकलने लगा । उनकी लगन से नटवर नगर का हृदय पिघल गया । अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिए सर्वेश्वर गिरवर के पास पहुंचे ।

जैसे नर्मदा नदी का स्वरूप यमुना में परिवर्तित हो गया वह वन दिव्य वृदावन में बदल गया ईश्वर की अलौकिक लीला से एक कदम्ब का वृक्ष उगकर बड़ा हो आया और उस वृक्ष के नीचे यशोदानंदन द्वारिकाधीश श्रीकृष्णचंद्र जी अधरों से बांसुरी लगाकर दिव्य झांकी के दर्शन देने लगे । गिरवर जैसे कृतार्थ हो गए । वह अपने ठाकुर जी के चरणों में गिर पड़े ।

श्याम सुदर ने उन्हें उठाकर हृदय से लगाया । ”हे गिरवर! तेरी लगन आस्था निष्काम भावना और सब कुछ मुझे अर्पण कर देने की इच्छा ने मुझे तेरा भक्त बना दिया है । अब तू मेरे साथ मेरे धाम चल ।” गिरधारी के स्पर्श से ही गिरवर जैसे जन्म-मरण के बंधनों से छूट गए ।

उनके शरीर से एक ज्योतिपुंज निकला और वह पुंज एक शिखा में परिवर्तित हो गया । तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण उन्हें लेकर वृदावन सहित अपने धाम चले गए । इधर विषधर के विष के प्रभाव में गौरी जब नर्मदा की जीवनदायी लहरों पर यात्रा कर रही थी तो लहरों के प्रभाव और भगवत्कृपा से विष का प्रभाव कम होता गया ।

जिसके जीवन का भार स्वय जगन्नाथ ने उठाया हो उसका कौन क्या बिगाड़े ! गौरी बहती-बहती एक सिद्ध पुरुष के आश्रम के समीप पहुंची तो स्नानादि करने आए महात्मा ने उसे निकाल लिया । उसकी नाड़ी में स्पंदन जानकर महात्मा ने उसका उपचार किया ।

गौरी उस उपचार से ठीक हो गई । महात्मा उसे कुटी पर ले आए और पुत्रीवत स्नेह दिया । महात्मा के दिव्य उपदेश से गौरी के हृदय में सांसारिक मोह नष्ट हो गया । उसने भाव-नाम को सर्वस्व मानकर गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया । अब गौरी नित्य प्रति इकतारा हाथ में लेकर प्रभु के ध्यान में लगी रहती ।

कृष्ण नाम की धुन में मगन वह अपनी सुध-बुध भूल जाती और उसके पग जिधर चल पड़ते चली जाती । ऐसे ही एक दिन प्रभुनाम में लीन वह एक नगर में पहुंची । नगर में बड़ी चहल-पहल थी । हर तरफ हर्षोल्लास था । नर-नारी अत्यत प्रसन्न थे । ”क्या यहां कोई उत्सव है?” गौरी ने एक स्त्री से पूछा ।

”हां । कल हमारे नए राजा का राज्याभिषेक होने जा रहा है जो राजा धर्मसिंह की भांति ही न्यायप्रिय और दयालु हैं । प्रजा के हितकारी हैं । यह हर्षोल्लास युवराज उदयराज के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में है ।” ”ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करें ।

तुम्हारा नवीन राजा तुम्हारे हितों का पूर्ण ध्यान रखे ।” गौरी ने उसे आशीर्वाद दिया और एक सुंदर-सा मंदिर देखकर ध्यान में मगन हो गई । रात्रि हुई । युवराज उदयराज अपने शयनकक्ष में पलग पर लेटे अपने नए सम्राट जीवन की योजनाएं बना रहे थे कि उनकी औखें लग गईं और उन्होंने एक विचित्र स्वप्न देखा ।

”हे युवराज उदयराज!” एक दिव्य पुरुष उन्हें स्वप्न में कह रहा था: ”तुम महाराज धर्मसिंह के पुत्र नहीं हो । तुम्हारी माता भगवान कृष्ण की परमभक्त गौरी और पिता गोलोकवासी गिरवर हैं । बाल्यकाल में नदी में तुम्हें घड़ियाल ने खींच लिया था और तुम राजा धर्मसिंह को मिले थे ।

आज तुम्हारी माता तुम्हारे ही नगर में मुरली मनोहर कृष्प के मंदिर में आई हुई है ।  उसे तुम्हारी मृत्यु का विश्वास नहीं है और आज भी तुमसे मिलने की इच्छा उसके हृदय में कहीं दबी है ।” ऊदा हड़बड़ाकर जागा और उसी क्षण मंदिर पहुच गया । गौरी को देखते ही उसकी स्मृति लौट आई ।

”मां! मैं…मैं ऊदा तेरा ऊदा…।” ”बेटा ऊदा!” गौरी भावविह्वल हो गई: ”तू जीवित है! मेरा हृदय तो पहले ही कहता  था ! तेरे पिता का भी यह विश्वास सत्य था कि भगवान जो भी करते हैं कल्याण के लिए करते हैं !” प्रात: काल नगर में उत्सव की धूम दोगुनी हो गई । ऊदा राजा बना और गौरी संसार के समस्त सुख भोगकर परमधाम पहुंची जहा भक्त गिरवर पहले ही महाप्रभु कृष्ण की सेवा में निरत थे ।


Hindu Devote 3. महात्मा विदुर |

इस महान भारतवर्ष में प्राचीनकाल में कुछ ऐसे महान व्यक्तियों ने जन्म लिया है जो उच्च कुल से न होते हुए भी महान कहलाए जिनके ज्ञान और नीति ने उन्हें ऐसा उच्च सम्मान दिलाया कि बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने भी उनकी तीक्षा बुद्धि का लोहा माना और महानायकों ने उनके चरण पखारे ।

ऐसे ही एक महान विद्वान का जन्म भारतवर्ष में हुआ था उनका नाम था महात्मा विदुर ! विदुरजी का जन्म भी महाराज धृतराष्ट्र और भाड़ के समान ही महात्मा व्यास की कृपा से हुआ था लेकिन वे दोनों ही शारीरिक रूप से अपूर्ण थे जबकि विदुरजी बड़े ही नीतिवान धर्मपरायण और कुशल राजनीतिज्ञ थे ।

हस्तिनापुर के सिंहासन पर भले ही पाए व धृतराष्ट्र ने राज किया लेकिन प्रशासन को चलाने में बुद्धि महात्मा विदुर की थी । महाराज धृतराष्ट्र व पाए के शारीरिक रूप से कमजोर होने की कथा कुछ इस प्रकार है । जब महारानी सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य काल का ग्रास बन गए तब उन्होंने भीष्म से विचार-विमर्श कर कुल की रक्षार्थ नियोग हेतु विवाह से पहले पराशर मुनि से उत्पन्न अपने पुत्र कृष्ण द्वैपायन को बुलाया ।

इन्हें व्यास भी कहा जाता था । विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बिका ने नियोग के समय घबराकर आखें बद कर ली थीं अत: उन्होंने अंधे पुत्र को जन्म दिया जो आगे चलकर धृतराष्ट्र कहलाए । अम्बालिका नियोग के समय भय से पीली पड़ गई और उसने पाडु रोग से पीड़ित पुत्र पाडु को जन्म दिया ।

अम्बिका की दासी के साथ नियोग से विदुर का जन्म हुआ । इस प्रकार विदुर राजकुल में जन्म लेकर भी राज-अधिकार से पूरी तरह वंचित थे परंतु अपने बुद्धि-कौशल तथा माता सत्यवती व भीष्म पितामह के आशीर्वाद के कारण उनका हस्तिनापुर में विशेष स्थान था ।

वे राज-काज अथवा राज-परिवार के विषय में कोई निर्णयात्मक भूमिका नहीं निभा सकते थे परतु अपनी असाधारण प्रतिभा तथा बुद्धि-चातुर्य के कारण विदुर इतने लोकप्रिय हो गए थे कि पितामह भीष्म, माता सत्यवती, महाराज धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महारानी गांधारी व कुंती तथा पांचों पांडव उनका यथायोग्य आदर करते थे ।

विदुरजी हस्तिनापुर के महामंत्री थे अत: राज्य की नीति संबंधी जिम्मेदारी उन्हीं की थी । विदुरजी के ज्ञान से द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण भी प्रभावित थे । उनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी वे ज्ञानी और उच्च पद पर आसीन होने के बाद भी सादा जीवन व्यतीत करते थे ।

अहंकार तो उनको छू भी नहीं पाया था । उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र को नीति और ज्ञान की बातें बताकर पहले ही सचेत कर दिया था कि पांडवों का त्याग कर दुर्योधन को राज देना उनके पतन का कारण बनेगा परंतु पुत्र मोह में फंसे धृतराष्ट्र ने उनकी ज्ञान की बातों को महत्त्व न दिया और इस प्रकार महाभारत का संग्राम छिड़ा ।

महाभारत के युद्ध के पश्चात महाराज धृतराष्ट्र को अपनी भूल का एहसास हुआ तब उन्हें विदुरजी की नीति संगत बातों का स्मरण आया लेकिन जो हो चुका था उसे बदला नहीं जा सकता था लेकिन इस युग में महात्मा विदुर द्वारा कही गई ज्ञान की बातों को सुनकर उन्हें अपने जीवन में उतारकर हम सच्चाई व धर्म के मार्ग पर चलते हुए आने वाले किसी भी युद्ध को सरलतापूर्वक टाल सकते हैं । महात्मा विदुर की नीति व धर्म की बातों का अनुसरण कर हम आज भी सत्य के मार्ग पर चलकर महान बन सकते हैं |


Hindu Devote 4. भील भक्त तिष्ण |

”स्वाभाविक प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए सुदर शब्द लयबद्ध भजन, सुरीला कंठ या बहुमूल्य योगों की आवश्यकता नहीं होती यह तो वह जलतरग है जो भक्त के अंतर्मन से तरंगित होकर क्षीर सिधु में विराजे शेषाधीश श्रीनारायण में लीन हो जाती है ।”

दक्षिण में फैले अनत जगंलों में कितने ही लोग छोटे-छोटे कबीलों में जीवन व्यतीत करते हैं इन्हें आदिवासी कहते हैं । अशिक्षित और लोक-व्यवहार से सर्वथा अपरिचित इन लोगों का जीवन मासाहार आदि पर निर्भर होता है ।

इन्हीं जंगलों में सांग्रीला नाम का एक कबीला था जिसमें भील जाति के शिकारी लोग रहते थे । इस कबीले का सरदार नाग नाम का भील था जो अपने नाम के अनुसार सूखार और शक्तिशाली था । धनुर्विद्या में प्रवीण नाग अपने बाणों पर विष लगाकर रखता था ।

अपने शत्रु की हत्या करने में उसे देर नहीं लगती थी । नाग की पत्नी का नाम तत्ता था । तत्ता भी एक विशालकाय डरावनी औरत थी जिसके गले में सिंह के दांतों की माला पड़ी रहती थी । दोनों पति-पत्नी आस-पास के जंगलों कबीलों में खतरनाक माने जाते थे ।

बहुत दिनों की प्रतीक्षा के बाद तत्ता ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम तिष्ण रखा गया । नवजात शिशु जन्म के समय आठ किलो वजन का था । इसलिए उसका यही नाम उचित था । तिष्ण को वहा की भाषा में कहा जाता है भारी ।

तिष्ण का पालन-पोषण होता रहा और वह सोलह वर्ष की आयु तक तो पर्वताकाय शरीर का स्वामी हो गया । अस्त्र-शस्त्र चलाने में वह पिता से भी कई कदम आगे था । कई बार तिष्ण ने निहत्थे ही जंगली सूअर का शिकार किया । उसकी शारीरिक शक्ति असीम थी ।

नाग अपने पुत्र को मदमस्त गज की भांति झूमता देखता तो गर्व से उसका सीना चौड़ा हो जाता । नाग वृद्ध हो चला था । उसने तिष्ण को ही कबीले का सरदार बना दिया । नियमानुसार तिष्ण सरदार बनने के पहले दिन आखेट को निकला । तिष्ण जिधर से भी गुजरता जंगली पशुओं की लाशें गिराता जाता ।

उसके दो नौकर नाड़ और काड़ उन्हें उठाकर एक स्थान पर एकत्र करते रहे । तिष्ण ने बहुत सारा मास एकत्र कर दिया तो उसे भूख लगी । भूख मिटाने को मांस तो बहुत था परंतु पानी नहीं था । तभी उसके दोनों अनुचर वहां आ गए ।

”अब भूख लग रही है । दिशा भ्रम भी हो गया लगता है । क्या कहीं पानी मिल सकता है ? चलकर भूख शांत की जाए ।” तिखा ने कहा । ”हां वह विशाल शाल का पेड़ देख रहे हो उसके बाद की पहाड़ी के पीछे सुवर्णा नदी बहती है । उसका पानी बहुत शीतल भी है ।” नाड़ ने बताया ।

”वह पहाड़ी भी बहुत रमणीक है । उस पर एक मंदिर है जिसमें भगवान जटाजूटधारी की मूर्ति है । आप उनकी पूजा कर सकते हैं ।” काड़ भी बोला । ”यह भगवान क्या होता है?” तिष्ण ने पूछा । काड वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर था । सुदूर जंगलों में आखेट के लिए भ्रमण कर चुका था और कई साधु संन्यासियों की सगत में रह चुका था । उसे थोड़ा-बहुत ज्ञान था ।

”यह पेड़-पौधे जीव-जन्तु चर-अचर जिसने बनाए हैं वह भगवान है ।” काड़ ने अपनी ज्ञान-सामर्थ्य के अनुसार बताया: ”यह हवा कहां से आती है? जल कहां से आता है ? सब भगवान की कृपा है ।” तिखा का किशोर मन उस नई जानकारी पर उत्सुक हो उठा । उसने काड़ से भगवान के बारे में और भी पूछा ।

”यह भगवान कहा रहता है? मैं ऐसे व्यक्ति से मिलना चाहूंगा ।” ”वह तो कण-कण में व्याप्त है । इन फूल-पत्तियों में भी है परंतु उससे मिलने के लिए उसकी भक्ति करनी पड़ती है । पूजा करनी पड़ती है ।” ”मैं करूंगा ।” तिष्ण दृढ़ स्वर में बोला: ”मैं ऐसे व्यक्ति से मिलने के लिए कुछ भी कर सकता हूं जो बिना कुछ लिए इतना सब कुछ देता है ।”

”तब तुम मंदिर में चलकर पूजा करो ।” तिष्ण के मन में प्रभु मिलन का बीज अंकुरित हो गया । उसके हृदय में भगवान की कृतज्ञता के लिए स्वाभाविक प्रेम उमड़ आया था । तीनों पहाड़ी पर चढ़ने लगे । ज्यों-ज्यों तिखा पहाड़ी पर चढ़ रहा था उसकी भूख-प्यास लुप्त हो रही थी ।

अंतर्मन में एक अवर्णनीय उत्सुकता आनद भर रही थी । वे पहाड़ी के शिखर पर पहुंचकर मंदिर के सामने पहुंचे । महादेव की मूर्ति देखते ही तिष्ण अपनी सुध-बुध भूल गया और भाव-विह्वल होकर मूर्ति को अपने आलिंगन में बांधकर रोने लगा ।

”हे संसार को जल वायु और प्राण देने वाले!” वह भावविभोर होकर बोला: ”तुम इतने महान होकर भी इस जंगल में अकेले रहते हो!” मूर्ति के सिर पर कुछ पुष्प रखे थे । तिखा ने उन्हें उठाकर फेंक दिया । ”यह किसकी दुष्टता है । मेरे स्वामी के सिर पर यह फूल किसने रखे ?”

”मैं अक्सर एक व्यक्ति को देखता हूं । ”नाड़ बोला” वह प्रात काल आता है और इनके सिर पर शीतल जल डालकर फूल-पत्तियां रखकर लम्बा लेट जाता है । साथ ही कुछ बड़बड़ाता रहता है ।” ”जरूर वह कोई अघोरी है जो मेरे स्वामी को निमित्त बनाकर किसी स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है ।” तिष्ण बोला: ”इन्हें भोजन भी नहीं कराता होगा । मैं प्रतिदिन इन्हें ताजा मांस का भोजन कराऊगा ।”

वह भोजन लेने चल पड़ा परतु मंदिर से जाने को उसका मन नहीं करता था । वह बार-बार लौटता और मूर्ति से लिपट जाता । ”भगवान! मन तो जाने का नहीं करता परंतु तुम्हें भूख लग रही है इसलिए जाता  हूं ।”  तिखा वहां से निकलकर पहाड़ी से नीचे उतर गया ।

नाड़ तो हतबुद्धि रह गया जबकि काड् तिष्ण की अवस्था समझ रहा था । ”हमारा सर्वनाश हो गया ।” नाड़ बोला: ”स्वामी पागल हो गए । सब तुम्हारे कारण हुआ है । अब बड़े स्वामी तुझे भूनकर खा जाएंगे ।” काड़ ने कुछ न कहा । वह उस निर्बुद्धि को क्या समझाता ।

तिष्ण वापस लौटा तो उसके दोनों हाथों में मास था । उसने आते ही मांस भूना और उसे कई पत्तों पर रखा फिर प्रत्येक पत्ते का मास चखा कि कहीं कच्चा तो नहीं रह गया । तत्पश्चात संतुष्ट होकर भगवान को समर्पित किया ।

”यह तो बिल्कुल ही पगला गया है । इतना सुगंधित मांस पत्थर को भेंट कर रहा है । हमारी भूख का इसे खयाल ही नहीं ।” नाड़ अप्रसन्न होकर बोला । तिष्ण मूर्ति के सामने बैठा भोजन करने का आग्रह कर रहा था । ”स्वामी! शाम होने को आई । अब घर चलो । प्रतीक्षा हो रही होगी ।” नाड़ बोला ।

”मैं नहीं जा सकता । रात्रि का समय जगंली जीवों के घूमने का है । मैं भगवान को अकेला नहीं छोड़ सकता । तुम जाओ ।” ”काड़ अब अपनी मृत्यु निश्चित जान ।” नाड़ क्रोध से बोला: ”तेरे कारण स्वामी ऐसी बातें करने लगे । मैं बड़े स्वामी से कहकर तुझे दंड दिलवाऊंगा । अभी जाता हूं । तू यहीं रुक इस पागल के पास ।”

नाड़ पहाड़ी से उतर गया । काड़ भी विचार करने लगा कि निर्बुद्धि नाड़ जब नाग को बताएगा तो वह महाशठ तनिक भी विचार किए बिना उसे मृत्युदंड दे देगा ।  अत: उसका वहा से भागना ही श्रेयस्कर था । तिष्ण अकेला ही मंदिर में रह गया । रात्रि होने पर वह मंदिर के द्वार पर धनुष-बाण लेकर भगवान की रक्षा में जुट गया ।

सारी रात जागते हुए उसने पहरा दिया । उसका प्रेम अनतता की ओर जा रहा था । प्रात: काल होने पर तिष्ण अपने भगवान के लिए ताजा मास लेने पहाड़ी से उतर  गया । उसके जाने के कुछ क्षण बाद ही वह पुजारी आ गया जो रोज मंदिर में

पूजा-अर्चना करता था । मंदिर में मास देखकर वह हतप्रभ रह गया । ”हे भगवान! यह भ्रष्टता किसने की । किसी जंगली शिकारी ने मंदिर अपवित्र कर  दिया ।” उस शिकारी को कोसते पुजारी ने जैसे-तैसे मंदिर साफ किया और स्वयं नदी में स्नान करके आया ।

तत्पश्चात अपने महामंत्रों से स्तुति की और वापस अपने घर लौट गया ।  तिष्ण वापस लौटा । उसने कई जानवरों का मास इकट्‌ठा करके भूना था और उसमें शहद निचोड़कर लाया था । मंदिर में फिर वही फूल-पत्ते देखकर वह क्रोधित हो गया ।

भगवान के आचमन के लिए वह मुह में पानी भरकर लाया था । इस कारण बोल नहीं सकता था । उसने अपने पैरों से फूल-पत्ते हटाए फिर मुह का पानी मूर्ति पर उड़ेल दिया । ”भगवान! मेरी अनुपस्थिति में वह दुष्ट अघोरी आया था । किसी दिन मुझे मिला तो दंडित करूंगा उसे ।

लीजिए आप भोजन कीजिए । आज मैं ताजा मास में शहद भी निचोड़कर लाया हूं ।” तिष्ण बोला । इस तरह पांच दिन तक तिष्ण अपने भगवान के भोजन में दिन और रक्षक बनकर रात गुजारता रहा । उसे स्वयं तो खाने-पीने की सुध नहीं थी ।

तिष्ण के माता-पिता उसे अन्यत्र छूने निकल गए क्योंकि जब वह वहा मंदिर पर आए तो वहां कोई न मिला । तब नाडू ने कहा कि अवश्य वह काड् उसे बहकाकर कहीं ले गया होगा । उधर पुजारी महोदय रोज मंदिर में ऐसा हाल देखते तो उस भ्रष्टता पर विलाप करते । मंदिर साफ करते पूजा करते और लौट जाते ।

यह भगवान की ही लीला थी कि कभी पुजारी और तिष्ण का सामना नहीं हुआ था । सभवत: तिष्ण की उग्र प्रवृत्ति से पुजारी का कोई अहित हो जाता । जब पुजारी उस भ्रष्टाचार पर तिष्ण को गालियां देने लगा तो एक रात स्वप्न में उसे देवाधिदेव महादेव ने दर्शन दिए ।

”हे मेरे भक्त! तुम जिसे अपशब्द कह रहे हो उसे नहीं जानते । वह मेरा परम भक्त है । अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करता है । उसके प्रेम में कहीं भी कोई इच्छा नहीं है ।  मुझे वह बहुत प्रिय है । उसकी वंदन-विधि तुम्हें अवश्य बुरी लगती है परंतु मुझे  नहीं ।

मांस उसका भोजन है जो उसने अपना सर्वस्व जानकर मुझे समर्पित कर दिया । जब वह मुझे अपनी भाषा में भोजन का आग्रह करता है तो मुझे उसका आग्रह तुम्हारे जाप और वेदमंत्रों से भी श्रेष्ठ लगता है । यदि तुम उसकी भक्ति देखना चाहते हो तो कल कहीं छुपकर देखना ।”

पुजारी जी हड़बड़ाकर जागे । कहीं कुछ नहीं था परतु स्वयं प्रभु का आदेश हुआ तो वह प्रात -काल ही मंदिर के समीप छुपकर तिष्ण के कृत्य को देखने लगे । तिष्ण उस समय भगवान के लिए भोजन लेने गया था । वह वापस लौट रहा था तो रास्ते में उसे ठोकर लगी और मास पृथ्वी पर सिर गया ।

”यह अपशकुन है । कहीं मेरे भगवान को तो कुछ नहीं हुआ?” तिष्ण ने सोचा और दौड़ता हुआ पहाड़ी चढ़ने लगा । पुजारी उस विशालकाय आकृति को देखकर सहम गए । तिष्ण मंदिर में पहुचा तो उसने मूर्ति की बाईं आख से रक्त टपकता देखा । भोजन उसके हाथ से छूट गया ।

”हाय, मेरे भगवान को क्या हुआ ? किस पापी ने मेरे स्वामी को घायल किया है ?”  तिष्ण बैठकर रोने लगा: ”यदि वह दुष्ट मुझे मिला तो मैं उसका वध कर दूगा । ” तिखा ने भगवान की आख से रक्त पाछा परतु रक्तधारा निरंतर बहती रही ।

”हाय मैं क्या करूं ? क्या उपचार करूं ”वह जोर-जोर से रोने लगा : ”तुम्हें तो बहुत कष्ट हो रहा होगा भगवान । पहले मैं उस दुष्ट को दृढ़ता हूं जिसने यह दुष्ट कार्य किया है ।” तिष्ण मंदिर से बाहर निकल आया । पुजारी जी के पर काप उठे । कहीं उसे दिखाई पड गए तो जीवित न छोड़ेगा ।

”हे भोलेनाथ! रक्षा करो ।” परंतु सर्वेश्वर क्या तिष्ण के स्वभाव से अनभिज्ञ थे ? उन्हीं की लीला थी कि साफ दिखाई पड़ रहा पुजारी तिखा को दिखाई न दे रहा था । जब उसे कोई न दिखाई दिया तो वापस मूर्ति के समीप जाकर बैठ गया ।

”भगवान! मैं बड़ी-बूटियां लेकर आता हूं । मैं यह तो नहीं जानता कि किस जड़ी से आपको लाभ होगा परंतु जाता हूं । अभी लौटता हूं ।” तिखा पहाड़ी से नीचे उतर गया और जब लौटा तो सिर पर जगंली जड़ी-बूटियों का बड़ा-सा गट्‌ठर था । मंदिर आकर उसने एक-एक जड़ भगवान की आख में निचोड़ी परंतु रक्तस्राव बंद न हुआ ।

”अब क्या उपाय करूं?” तिखा विचलित हो गया । तब उसे स्मरण आया कि शिकारी लोग घाव पर मनुष्य का मांस लगाते थे और घाव अच्छा हो जाता था । ”यह भी करके देखता हूं । भगवान की बाईं औख नष्ट हुई है अत: मैं अपनी बाईं आख निकालकर ही घाव पर रखता हूं संभव है लाभ हो जाए ।”

एक नुकीले तीर से उस भक्त ने अपनी बाईं आख निकाली । स्वयं की खि से रक्तधारा फूट पड़ी परंतु चिंता नहीं । आख हथेली पर रखकर भगवान की आख पर रखी और दबाई । तत्काल भगवान की आख से खून बहना बंद हो गया ।

तिष्ण प्रसन्नता से किलकारी मार उठा । नाचने लगा । ”मेरे भगवान अच्छे हो गए ।” परंतु यह क्या ? अब भगवान की दाहिनी अखि से रक्तस्राव होने लगा । तिखा स्तब्ध रह गया । ”चिंता मत करो प्रभु! उपचार तो मुझे मिल गया है । अभी उपचार करता हूं ।”

तिष्ण ने फिर तीर उठाया और दाहिनी आख निकालने को उत्सुक हुआ तभी मूर्ति से साक्षात श्री देवाधिदेव प्रकट हुए और तिष्ण का हाथ पकड़ लिया । देवलोक में भी तिखा की ऐसी भक्ति पर उसका यशोगान होने लगा था  ”ठहरो वत्स! तेरा प्रेम और त्याग तो बड़े-बड़े तपस्वियों की साधना से भी उच्च कोटि का है ।

निस्वार्थ प्रेमवश मुझे अपना दास बना लिया है । तेरी कोई इच्छा तेरे हृदय में भी नहीं ।  अत : मैं तुझे समस्त दिव्य ज्ञानों का वरदान देता हूं । तेरे हृदय में मेरे प्रति जितने भी प्रश्न हैं सबका उत्तर तुझे स्वयं मिल जाएगा ।” कैलाशपति ने भाव-विह्वल होकर कहा ।

तिष्ण को उसी क्षण आत्मज्ञान हो गया । उसके दिव्य ज्ञानचक्षु वास्तविकता को चलचित्र की तरह देख रहे थे । वह भाव में डूब गया और अपने आराध्य के चरणों में नतमस्तक हो गया । दूर छुपा पुजारी उस अविश्वसनीय दृश्य का साक्षी बना और उसने ऐसे भक्तवत्सल भगवान और महान भक्त का एक साथ साक्षात्कार करके अपने जीवन को कृतार्थ किया ।


Hindu Devote 5. भक्त नरसी मेहता |

भारत भूमि अनेक संतों-महात्माओं की जननी रही है । भारत के हर प्रांतों में अनेकानेक संतों ने जन्म लिया है । ऐसे संतों में एक सत नरसी मेहता का जन्म गुजरात प्रांत में के पास जूनागढ़ नामक नगर में बड़ नगरा जाति के नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ ।

उनके पिता का नाम कृष्णदास और माता का नाम दया कुंवर था। पत्नी माणेक बाई थीं । बचपन में ही नरसी के अपने मा-बाप स्वर्गवासी हो गए थे । वह अपने भाई-भावज के आश्रय में रहते थे । वह भाभी के प्रतिकूल स्वभाव के कारण अनमने रहते थे ।

एक दिन उद्विग्न मन वाले नरसी भाभी के घर का त्याग करके की ओर वन में चले गए । रास्ते में एक अपूज शिवालय के पास पहुंच गए । पूजा-ध्यान में कई रात और दिन बीतते चले गए । सात दिन के उपवास के बाद शंकर भगवान ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए ।

भगवान शकर ने उनको कुछ वरदान मांगने को कहा । नरसी ने सुख-सम्पत्ति न मार्गकर भगवान विष्णु के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की । यह सुनकर शंकर अधिकाधिक प्रसन्न हुए । स्वयं महादेवजी हाथ पकड़कर उनको बैकुंठ में ले गए ।

वहां कृष्ण की रासलीला देखकर उनका दिल परिपूर्ण हो गया । शंकरजी ने लोकाचार छोड्‌कर उनको भगवद्‌भक्ति में लीन होने की प्रेरणा दी क्योंकि भक्ति से भवसागर पार करना सरल है । पलभर में स्वप्नवत यह सारा देवदृश्य अदृश्य हो गया । शकर भगवान भी अंतर्धान हो गए ।

नरसी के रोम-रोम में भक्ति का रोमांच फैल गया । मुख से भक्तिपद झरने लगे । अब नरसी कृष्णोपासक बन गए । घर लौटकर भाभी के चरणों में गिरकर उन्होंने भाभी का उपकार माना कि उन्हीं के कारण उनको भगवान का साक्षात्कार हुआ ।

इस तरह जो इधर-उधर बे-रोजगार नरसी थोड़े दिन पहले भटकते थे वो रातोंरात भक्ति के रंग में रग चुके थे । उनकी वाणी में सरस्वती का पावन प्रवाह बहने लगा । अब भक्ति ही उनका कार्य बन गया । घर में पत्नी बड़ी साध्वी थी । इससे नरसी का भक्तिछंद बिना रोक-टोक समृद्ध बनता गया ।

अपने आगन में तुलसी के पौधों को पालने लगे साधु-वैरागी की जमात इकट्‌ठा करते रहे । करताल मृदग और शख जैसे भक्ति के साज लिए हुए रात-दिन अपने आगन में भजन-कीर्तन की धुन बजाते रहे । आजीविका का कोई व्यवसाय न होने पर भी ईश्वर भरोसे जीवन नैया भवसागर में आगे बढ़ाते रहे ।

ईश्वर में अटट श्रद्धा ही उनकी भक्ति का मूल मंत्र है । वह दो संतानों के पिता बने । पुत्र सामलादास और पुत्री कुंवर बाई । बच्चों का विवाह अच्छे घराने में किया । किंतु कर्मवशात् थोड़े ही दिनों में पुत्र अउाऐर पत्नीस्वर्गवासी हो गए ।

गृह-संसार लुट गया फिर भी नरसी उसको भक्ति के लिए उपयुक्त समझकर थोड़े ही दिनों में शोक रहित बन गए । उन्होंने यही मान लिया अच्छा हुआ यह संसार टूट गया जिससे सुख से श्री गोपाल की भक्ति हो सकेगी । नरसी के जीवन में अनेक चमत्कारयुक्त बातें जुड़ी हैं ।

एक बार नागरिकों ने नरसी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थयात्रियों को नरसी के घर भेजा और द्वारिका के किसी सेठ के ऊपर हुंडी (चैक) लिखने के लिए कहा । नरसी ने वहां कोई पहचान वाला न होने पर भी शामलशा सेठ के नाम पर चिट्‌ठी लिखी ।

स्वय भगवान ने शामलशा के रूप में आकर हुंडी को स्वीकार किया और नरसी की बात रखी । पुत्री कुंवर बाई के यहां एक मांगलिक प्रसग था । नरसी के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी । लेकिन भगवान पर भरोसा रखकर साधु-संतों के साथ मृदग शख और करताल लिए खाली हाथ वह पुत्री के ससुराल में जा पहुंचे ।

नरसी को ऐसे वेश में देखकर कुवर बाई के ससुराल वाले उन पर हंसने लगे । उन्होंने नरसी की भक्ति का मजाक करते हुए नहाने के लिए गरम पानी दिया और कहा कि अगर तुम्हारी भक्ति सच्ची होती तो आसमान से पानी बरसता ।

नरसी ने हाथ में करताल लेकर मल्लार राग छेड़ दिया । पल भर में आकाश में काले बादल उमड़ने लगे और मूसलाधार वर्षा हुई । यह देखकर सब दंग रह गए । संत परम्परानुसार नरसी भगत को एक यज्ञ में भोज देना (भात देना) था ।

उनके पास तो कुछ था नहीं । उन्होंने जगत पालक भगवान श्रीविष्णु का आवाहन किया । थोड़ी देर में भगवान श्रीकृष्ण और महालक्ष्मी स्वयं प्रकट हुए और फिर वह भोज हुआ कि लोग देखते रह गए ।


Hindu Devote 6. भक्त किरात और नंदी वैश्य |

प्राचीन समय में काशी के समीप एक नगरी थी जो जंगलों से घिरी हुई थी । इसी नगरी में नंदी नाम के एक धनिक वैश्य रहते थे । वे धर्म-कर्म में विश्वास करते थे और श्रद्धा भक्ति भाव से भगवान का चिंतन करते थे ।

उनका नियम था कि वे जगल के मंदिर में प्रतिदिन पूजा करने जाते थे । दान करते गरीबों की सहायता करते । एक दिन की बात है । एक शिकारी उस मंदिर के समीप से गुजर रहा था । दोपहर की धूप तन जला रही थी । मंदिर के प्रागण में छायादार वृक्ष और स्वच्छ सरोवर देखकर वह वहीं ठहर गया तभी उसकी दृष्टि भगवान की मूर्ति पर पड़ी तो एकटक वह उस दिव्य स्वरूप में खो गया ।

जाने कहां से उसके अंतर्मन में प्रेरणा हुई कि वह भगवान की पूजा करे । वह उठा और वहीं एक बिल्वपत्र पड़ा था उठा लिया और अदर पहुचा । बिल्वपत्र को वहीं रखकर वह सरोवर में से अंजली भर पानी लाया । पानी से स्नान कराकर उसने बिल्वपत्र चढ़ा दिया फिर अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी हथेली दांतों से काटकर रक्त चढ़ा दिया ।

पूजा से निवृत्त होकर वह पेड़ के नीचे लेटा तो उसे भूख-प्यास नहीं लग रही थी जबकि वह सुबह का भूखा था । इसे भगवान का ही चमत्कार समझकर उसने रोज वहां आकर पूजा करने का निश्चय किया । दूसरे दिन प्रात: काल नंदी वैश्य पूजा करने आए ।

मंदिर में सड़ा हुआ बिल्वपत्र और खून के छींटे देखकर वह अवाक रह गए । ”यह अमंगलकारी कार्य किसने किया । ऐसा भ्रष्ट विप्न पहले तो कभी नहीं हुआ । अवश्य मेरी पूजा में कोई त्रुटि रह गई है ।” ऐसा सोचकर उन्होंने मंदिर को धो-पोंछकर स्वच्छ किया और अपनी पूजा की ।

तत्पश्चात घर लौटकर अपने पुरोहित को यह सब बताया । ”अवश्य कोई दुष्ट जगंली होगा । कल मैं स्वय चलूगा और उसे डाटूगा कि ऐसा अनर्थ करने से महादेव रुष्ट हो जाएंगे ।” पुरोहित ने कहा । अगले दिन दोनों पूजा सामग्री लेकर मंदिर पहुंचे ।

वहां कल जैसी ही स्थिति आज भी थी । नन्दी वैश्य और पुरोहित ने मंदिर को फिर साफ किया और शिव के महामंत्र का जाप किया । वेदमंत्रों की धुन से आस-पास का वातावरण गूज उठा परतु दोनों की दृष्टि मंदिर आने वाले मार्ग पर लगी थी ।

और शिकारी दोपहर के समय आ गया । शिकारी की भयंकर आकृति देखकर दोनों भयभीत हो गए । ऐसे खूँखार मानव से जो राक्षस सदृश्य लग रहा था डर जाना स्वाभाविक था । दोनों ही भगवान रुद्र की विशाल मूर्ति के पीछे जा छिपे ।

और उनकी आखों के समक्ष ही उस जगंली ने उनकी पूजा नष्ट-भ्रष्ट कर दी । अपनी पूजा शुरू की । जल से स्नान कराया और बिल्वपत्र चढ़ाकर अपनी घायल हथेली में पुन: चाकू मारा तो रक्त के साथ मास भी निकल पड़ा ।

दोनों चीजें पूर्ण भाव से प्रभु को अर्पित कर दीं फिर साष्टांग दंडवत करके चला गया । ”महाराज! यह तो कोई राक्षस है ।” नंदी वैश्य बोले : ”इसे तो किसी ज्ञान प्रलोभन या भय से नहीं रोका जा सकता । ऐसी चेष्टा भी करते हैं तो यह निर्दयी जीवित न छोड़ेगा ।”

”सत्य कह रहे हैं आप! यह मूर्ख है ।” ”तो क्या करें ? भगवान को यूं ही अपवित्र होने के लिए छोड़ दें ?” ”नहीं । इस समस्या का एक ही उपचार है । मूर्ति को यहा से ले चलो और अपने घर में स्थापित करो ।” दोनों ने यही निर्णय किया और घर लौट आए । नंदी वैश्य ने आधा दर्जन मजदूर लिए और बैलगाड़ी में बैठकर मंदिर जा पहुंचा ।

”एक दुष्ट जगंली मंदिर को अपवित्र करता है । समझाने पर भी नहीं मानता इसलिए मूर्ति को घर ले चलो ।” नंदी ने अपने मजदूरों से कहा । तत्काल मूर्ति को उखाड़ लिया गया और बैलगाड़ी में लादकर नगर में लाया गया । नंदी वैश्य ने पूर्ण विधि-विधान से मूर्ति को वेद मंत्रोच्चार के साथ अपने घर में स्थापित किया । रात-भर मूर्ति के समक्ष भजन-कीर्तन होता रहा ।

दूसरे दिन शिकारी (किरात) अपने निर्धारित समय पर पूजा करने पहुंचा तो मूर्ति को वहा न देखकर सन्त रह गया । ”ऐं! भगवान कहाँ गए ? लगता है कि कहीं छुप गए ।” शिकारी ने मंदिर का कोना-कोना छान मारा । भगवान वहां कहीं भी न थे ।

वह वहीं बैठकर जोर-जोर से रोने लगा । ”हे शम्भो!” वह भाव-विह्वल होकर रोने लगा: ”मुझे क्यों त्याग दिया भगवन ! मुझसे क्या भूल हो गई जो आप इस तरह मुझे छोड़कर चले गए ? मैंने तो कोई अपराध नहीं किया । यदि भूलवश कोई अपराध हो भी गया है तो मुझे क्षमा कर दो प्रभु! मैं आपकी रजा के लिए व्याकुल हूँ ।”

भगवान वहां होते तब तो उत्तर देते ? शिकारी ने उस मूर्तिस्थल को ही भगवान की सज्ञा दी और अपनी पूजा प्रारम्भ कर दी । ”हे जगन्नाथ! बिना आराध्य के कैसी पूजा ? परंतु मैं विवश हूं । मेरा आवेग नहीं रुकता । मेरी यह स्वीकार करो और तत्पश्चात मैं अपने प्राण त्याग दूगा क्योंकि बिना स्वामी क दास कैसे जीवित रह सकता है?”

उसने बिल्वपत्र और जल चढ़ाकर अपने हाथ से मांस काटकर रक्त सहित उसी स्थान पर समर्पित कर दिया जहा पहले मूर्ति थी । फिर सरोवर में स्नान करके अखंड ध्यान में बैठ गया । उसके हृदय में कोई कामना नहीं रही थी । दिन-प्रतिदिन उसका ध्यान सघन हो रहा था । उसके हृदय में ‘ॐ-ॐ’ की धुन प्रतिध्वनित हो रही थी ।

किरात की कठिन साधना स्वास से विरत होकर प्राण में पहुंच गई थी । कैलाशवासी महादेव अपनी समाधि में लीन थे । जब भक्त की प्राणयुक्त पुकार उनके मर्म से टकराई तो भगवान भोलेनाथ ने समाधि शा की और दिव्य दृष्टि से चंहु ओर देखा ।

किरात को निष्काम भक्ति करते देखा तो दौड़े उसके समक्ष पहुंचे । ”वत्स! आखें खोलो । मैं तुम्हारे समक्ष हूं । तुम्हारे कठिन तप और भक्ति भाव से मैं अति प्रसन्न हूं । तुम अपनी अभिलाषा व्यक्त करो ।” भगवान रुद्र ने प्रेमपूर्वक कहा ।

किरात ने आखें खोलीं तो समक्ष अपने आराध्य की देखा । ”भगवान!” वह विह्वल होकर उनके चरणो से लिपट गया: ”आपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया । मैं सिर्फ इतनी अभिलाषा रखता हू कि मैं सदैव आपके ध्यान-भक्ति और सेवा में निरत रहूं ।” ”तथास्तु! आज से तुम मेरे पार्षद हुए । मैं तुम्हें अपनी सेवा में लेता हूं ।”

किरात प्रसन्नता से नाच उठा । उसकी यह दशा देखकर भोले भंडारी भी डमरू बजाने लगे और सुंदर नृत्य कर उठे । उनका डमरू वजा तो देवी-देवताओं ने भी अन्य वाद्ययंत्रों से उस आनन्दपूर्ण स्थिति का आनद बढ़ा दिया । तीनों लोकों में ‘ओम-ओम’ की प्रतिध्वनि हो रही थी ।

शख मृदग ढोलक इत्यादि की सुरीली लय से सर्वत्र आनद उमड़ उठा । शिव भक्तों में तो जैसे आनद की बाढ़ आ गई । चंहु ओर ‘बम भोले’ गुंजायमान हो रहा था । नंदी वैश्य भी अपने घर में बैठे थे । रजब उन्होंने सुना कि जगल वाले मंदिर पर स्वयं देवाधिदेव डमरू बजाकर नृत्य कर रहे हैं तो वह नंगे पांवों ही दौड़ते चले गए ।

मंदिर पर अपार भीड़ एकत्र थी । कितना विहंगम दृश्य था ! नंदी वैश्य ने किरात को भगवान शंकर के साथ नृत्य करते देखा तो उन्हें आश्चर्य के साथ किरात के प्रति अपने पूर्व विचारों पर क्षोभ हुआ । ”मैं कितना अधम हूं, जो भगवान के प्यारे भक्त को अपशब्द कहता था । मैंने ही उसे उसके आराध्य की पूजा न करने देने का निष्फल प्रयास किया ।”

नंदी वैश्य दौड़कर किरात के चरणों से लिपट गए । ”हे महातप! मेरा अपराध क्षमा करो । मैंने ही भगवान की मूर्ति ले जाने का अपराध किया । मैं अधम हूं । मुझे क्षमा करो ।” ”उठो मेरे प्रेरक!” किरात ने नंदी को उठाया: ”तुम्हारी ही कृपा से तो मुझ जैसे अबुद्धि को भगवान के साक्षात दर्शन हुए । मैं तुम्हारा ऋणी हूं ।”

”तुम महान हो भक्त! तुम्हारी भक्ति श्रेष्ठ है । अब तुम ही मेरा उद्धार कर सकते हो । मैं तुम्हारी शरण में हूं ।” किरात ने उन्हें भोलेनाथ के समक्ष प्रस्तुत किया । ”हे महाकाल !” भोलेनाथ ने कहा : ”यह कौन है ! मैं इसे नहीं पहचानता ।” ”नाथ! यह आपके परमभक्त हैं । प्रतिदिन आपकी पूजा करते हैं ।”

”मुझे स्मरण नहीं । मुझे तो केवल तुम ही याद ही । तुम ही मेरे प्रेमी हो । मैं तो उनका मित्र हूं जो निष्काम हृदय से मेरा सुमिरन करते है ।” ”हे जगतपिता! मैं आपका भक्त हूं और आप मर गुरु हैं मित्र हैं । आपने मुझे स्वीकार किया । इन्हें भी स्वीकार कीजिए ।”

भक्त की इच्छा भगवान पूर्ण न करें ? भक्त किरात ने नदी को स्वीकार किया तो भगवान जगन्नाथ कैसे अस्वीकार करते ? ”तथास्तु!” महादेव ने कहा । नंदी वैश्य प्रसन्नता से प्रभु के चरणों में गिर गए । यही किरात और नंदी वैश्य भगवान के गण नंदी और महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हुए ।


Hindu Devote 7. भक्त धनुर्दास |

भक्ति मार्ग की तीन सबसे बड़ी बाधाए-कचन कामिनी और कीर्ति हैं । कंचन अर्थात धन में आसक्ति कामिनी अर्थात स्त्री में आसक्ति और कीर्ति अर्थात प्रसिद्धि की लालसा ।

जो इन तीनों से बचकर रहा वही परमपद का अधिकारी बना और जो इन तीनों में से किसी एक के भी चक्कर में पड़ता है वही लाख-चौरासी के जन्म-मरण चक्र में फंसकर नाना प्रकार के कष्ट भोगता है । अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व मद्रास में त्रिचनापल्ली के समीप वैष्णव तीर्थ उरूयर में धनुर्दास नाम का एक व्यक्ति रहता था ।

वह मल्लयुद्ध का शौकीन था । बलिष्ठ देह का स्वामी धनुर्दास अपने बल पर अहंकार भी रखता था । कई कुश्तियां जीत चुका धनुदीस अपने प्रतिद्वंद्वी को तब तक पछाड़ता और पटकता था जब तक वह प्राणों की भीख ही न मांगने लगता ।

इसके अलावा धनुर्दास में एक और अद्‌भुत बात थी । वह हेमाम्बा नाम की एक अतिसुंदर गणिका पर मोहित था । उसने उसे प्रेयसी बनाकर अपने घर में रखा हुआ था । धनुर्दास के बल के समक्ष बड़े-बड़े मल्ल सिर झुकाते थे और स्वयं धनुर्दास अपनी प्रेयसी के समक्ष सिर झुकाए रहता था ।

वह उस पर इतना मोहित था कि उसे हर क्षण अपने साथ रखता था । मार्ग में हेमाम्बा चलती तो धनुर्दास उसके आगे उसकी तरफ मुंह किए उल्टा चलता । कहीं भी बैठता उसे अपने सामने बिठा लेता । निर्लज्जता की सीमा तक उसका यह व्यवहार शहर-भर में चर्चा का विषय था ।

परंतु उसे न लज्जा का भान था न लोकनिंदा का । एक बार श्रीरंगम मठ में वार्षिक त्योहार रंगक्षेत्र का आयोजन था । इस महोत्सव में दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु आते थे । चैत्र माह में यह महोत्सव हो रहा था । “प्रिये, मैंने सुना है कि श्रीरंगम मठ में महोत्सव हो रहा है ।” हेमाम्बा ने धनुर्दास से पुछा ।

“हां प्रिये, वहा तो वर्ष में कई बार महोत्सव होता है ।” धनुदसि ने अनुराग से उसे टखकर कहा । मैरा मन भी महोत्सव देखने को हो रहा है ।” ”अवश्य प्रिये चलो ।” धनुर्दास ने कई सेवक साथ लिए और हेमाम्बा के साथ अपनी विचित्र चाल से चलता हुआ महोत्सव स्थल की तरफ चल पड़ा ।

उसके एक हाथ में छाता था जिसकी छाया में उसकी प्रेयसी चल रही थी और वह स्वय उसकी तरफ मुंह किए धूप में चल रहा था । चिलचिलाती धूप में पसीने से लथपथ धनुदीस को अपनी सुध तक नहीं थी । आते-जाते यात्री उसे देखकर हस रहे थे ।

परतु उसे तनिक भी संकोच या लज्जा नहीं थी । वह इसी प्रकार चलता हुआ श्रीरंगम मठ के समीप आ पहुचा । मठ के पीठाधीश श्री रामानुजजी ने जव उसका वह विचित्र आचरण देखा तो उन्हें आश्चर्य के साथ क्रोध भी आया । ”यह निर्लज्ज व्यक्ति कौन है जो इस प्रकार स्त्री के साथ आ रहा है?” श्री रामानुजजी ने अपने एक शिष्य से पूछा ।

”इसका नाम धनुर्दास है । पहलवानी करता है ।” शिष्य ने बताया: ”यह स्त्री जो इसके विचित्र व्यवहार का कारण है एक गणिका है ।”  “इस पहलवान से जाकर कहो कि तीसरे प्रहर वह हमसे आकर मिले ।” शिष्य ने धनुर्दास को स्वामीजी का आदेश ग्ऊर सुनाया ।

”मुझे…मुझे स्वामीजी ने बुलाया है?” धनुदास भयभीत हो उठा: “क्यों? मुझ जैसे साधारण आदमी से उन्हें क्या काम है ?” ”मुझे क्या पता । वैसे तुम साधारण आदमी कहा हो तुम्हारा कृत्य तो समस्त मद्रास में चर्चा का विषय है ।” शिष्य ने कहा: “तीसरे पहर स्वामीजी के दर्शन कर लेना मैं चला ।”

शिष्य चला गया । धनुर्दास मन में विचार करने लगा कि : “अवश्य आचार्यजी ने मेरे निर्लज्ज व्यवहार को देख लिया है । उन्हे मठक्षत्र स एर्प्स निर्लज्जता करने वाले पर क्रोध ही आएगा ।  यह धार्मिक स्थान है और मैं यहा ऐसी निर्लज्जता कर रहा था । अब उनके सामने जाता हूं तो जाने क्या दड मिले ।

न जाऊ तो यह उनकी अवज्ञा होगी जिसका फल दुखदायी हो सकता है ।” और अंतत : उसने मठ पर जाना स्वीकार कर लिया । भोजन के पश्चात वह मठ पर पहुचा । स्वामीजी ने उसके आने की सूचना पाकर उसे अपने पास बुला लिया । धनुर्दास ने डरते-डरते गुरु महाराज को प्रणाम किया ।

”आओ धनुर्दास हम तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।” स्वामीजी ने कहा । ”स्वामी जी मुझ अधम को…।” ”हम तुम्हारे उस व्यवहार का कारण जानना चाहते हैं जो हर ओर तुम्हारी प्रसिद्धि और निंदा का कारण बन रहा है ।” स्वामीजी ने पूछा ।

”स्वामीजी मैं उस स्त्री के रूप-सौंदर्य का दास बन गया हूँ । उसे देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता । उसके मुख में कुछ ऐसा आकर्षण है जो मुझे हर समय उसके दर्शन की इच्छा रहती है । आप मुझे कोई भी आज्ञा करें परतु उसका साथ न छुड़ाए ।”

”अर्थात तुम्हें उससे भी मनोहारी छवि दिखाई दे तो तुम उसके प्रति भी आसक्त हो जाओगे । सौंदर्य के उपासक जो ठहरे ।” ”संभवत: ऐसा हो ।” धनुर्दास ने स्वीकार किया । ”यदि हम तुम्हें उस स्त्री से भी अधिक सुदर मनोहारी सूरत दिखा दें तो क्या करोगे ?” ”फिर तो मैं उस स्त्री का परित्याग कर सकता हूं ।”

”परित्याग उचित नहीं । वह कभी गणिका अवश्य होगी परंतु अब वह तुम्हारी पत्नी की तरह है । तुमने उसका परित्याग किया तो वह पुन: अपने पापकर्म करने लगेगी । उसे तुम पत्नीवत् रखो । बस उसके रूप पर इतने मोहित न हो जाओ । यदि ऐसा कर सको तो संध्या को आरती के समय आ जाना ।”

”जो आज्ञा स्वामीजी!” धनुर्दास ने कहा और जाने की आज्ञा ली । उसे स्वामीजी का स्नेहवत व्यवहार बड़ा आत्मीय लगा । घर आकर उसने हेमाम्बा से सब बातें कहीं । ”स्वामीजी सच ही कहते हैं । ऐसी आसक्ति लोकनिंदा का कारण बनती है ।” हेमाम्बा ने कहा ।

”पहले कभी तो तुमने ऐसा नहीं कहा । ” ”मुझे तो भय लगता था कि कहीं मेरे ऐसा कहने पर तुम मेरा त्याग न कर दो । जाने किस जन्म के पुण्य के बदले तो मैं अपने पापी जीवन से छूटकर तुम्हारी शरण में आई हूं ।” ”तो मुझे स्वामीजी के पास जाना चाहिए ।”

”अवश्य! क्या पता उद्धार का समय आ गया हो ।” धनुर्दास संध्या के समय मठ पहुंचा । स्वामीजी आरती करने को तैयार थे । उन्होंने धनुर्दास को अपने समीप खड़ा कर लिया । ”अपने चित्त को शुद्ध करके भगवान को स्मरण करो ।” स्वामी ने कहा ।

रात ने ऐसा ही किया । ”हे दयामय सर्वेश्वर घट-घट के वासी ।” स्वामीजी ने अपनी प्रार्थना में कहा: ”इस इन्मुख प्राणी को अपने सौंदर्य का दर्शन देकर अपने चरणों में इसकी वृत्ति को  लगाओ ।” उसी क्षण, क्षण-भर के लिए धनुर्दास को मूर्ति में सजीवता का आभास हुआ और उसने सौंदर्य की ऐसी मनोहारी झांकी देखी कि उसे उस स्वरूप में समस्त सृष्टि का सौंदर्य दिखाई दे गया ।

अगले ही क्षण वह बांकी झांकी लुप्त हो गई । धनुर्दास तो जैसे पागल हो गया । वह स्वामीजी के चरणों से लिपटकर रो पड़ा । ”स्वामीजी! मुझे पुन: वह झांकी दिखाइए । आप जो कहेंगे मैं वही करूंगा । यदि आप कहें तो मैं अपना सर्वस्व त्याग दूंगा परतु वह मनमोहिनी सूरत मुझे एक बार और दिखला दें ।” वह रोते हुए बोला ।

हृदय से सभी आसक्ति नष्ट हो चुकी थी । सात्विकता ने अपना प्रभाव दिखाया । हेमाम्बा की स्मृति तक मिट गई । विचारों ने कहा कि उसने अभी तक अपने जीवन का यातनापूर्ण नर्क ही भोगा है । ”धनुर्दास अपनी भक्ति को शिखर मडल पर ले जाने का अभ्यास करो ।

जो झांकी मेरे तप के प्रभाव से देखी उसे अपनी भक्ति कै प्रभाव से देखो । अब घर जाओ ।”  धनुर्दास की समझ में आ गया कि स्वामीजी ने क्या कहा है । वह घर आया । अब हेमाम्बा उसे आकर्षित नहीं कर रही थी । उसने उसे सव वृत्तात बताया ।

कुछ दिनों बाद वे दोनों ही रामानुजजी के शिष्य बन गए । दोनों का आचरण आदर्श हो गया । धीरे-धीरे धनुर्दास ने स्वयं को इतना पवित्र कर लिया कि वह स्वामीजी के विश्वस्त सेवकों में गिना जाने लगा ।  स्वामीजी वृद्धावस्था में धनुर्दास के कधो का सहारा लेकर चलते तो मठ के अन्य शिष्य धनुर्दास से जलने लगे ।

परंतु जिसे स्वामी रामानुजजी जैसे महान सत और महागुरु का सान्निध्य प्राप्त हो और जिस पर भगवान की करुण दृष्टि पड़ चुकी हो उसे किसी का क्या भय ! किसमें इतना साहस कि प्रभुत्व के परमभक्त के परमशिष्य का कोई अहित कर सके । हेमाम्बा भी ऐसे भगवद्‌भक्त का साथ पाकर इस ससार सागर से पार उतर । आज भी भक्त धनुर्दास का नाम वेष्णवों में बड़े आदर से लिया जाता है ।


Hindu Devote 8. कृष्ण और सुदामा |

वासुदेव श्रीकृष्ण जब माता यशोदा की गोद से उतरकर शिक्षा-योग्य हुए तो उन्हें नंदराय ने शिक्षा के लिए सादीपन गुरु के आश्रम भेज दिया। जगत के पालक, सर्वदृष्टा, सर्वज्ञाता की यह लीला नहीं तो क्या था कि जो वेद, पुराण उनकी स्तुति गाते थे, वह उन्हीं का अध्ययन करने पहुंचे ।

सब जानते थे, गुरु भी जानते थे कि वह महाज्ञान को शिक्षा देंगे । उन्हीं के आश्रम में एक विप्र सुदामा भी अध्ययनरत थे, जो जन्म से दरिद्र अवश्य थे परंतु प्रभु के भक्त थे । कैसा विहंगम संयोग था कि सुदामा को अपने आराध्य की मैत्री प्राप्त हुई ! आश्रम में विद्यार्जन के समय कृष्ण और सुदामा अनन्य मित्र बन गए। हर क्षण अपने आराध्य का सखावत स्नेह सुदामा को मिला ।

एक दिन की बात है। गुरुपत्नी ने सुदामा को जंगल से समिधा लाने का आदेश दिया तो लीलामय श्री कृष्ण भी मित्र के साथ चल पड़े गुरुमाता ने दोनों के लिए दो मुट्‌ठी चने दिए । जंगल में पहुंचकर दोनों सखा क्रीड़ा में मस्त हुए। समय का भान न रहा और जब हुआ तो मूसलाधार वर्षा होने लगी । दोनों ने अलग-अलग वृक्ष की शरण ली ।

रात्रि हो गई । भोजन का समय था । चने सुदामा के पास थे । भूख अत्यधिक थी । सुदामा कृष्ण को बताए बिना सारे चने खा गए । कृष्ण से क्या छिपा था ! मित्र की परीक्षा हेतु उनके पास आ गए । ”मित्र सुदामा! गुरुमाता ने चने दिए थे । भूख लग रही है । तनिक मेरा हिस्सा तो दो ।” कृष्ण ने कहा ।

”कहां मित्र! चने तो भीग गए थे । खाने योग्य नहीं रहे । अत: मैंने फेंक दिए ।” सुदामा ने उत्तर दिया । ”परंतु तुम तो अभी कुछ खा रहे थे । मुझे तुम्हारे दांतों की आवाज सुनाई दे रही थी । ”  ”वह तो बरसात में भीगने के कारण सर्दी से दाँत बज रहे थे ।”

“मित्र!” कृष्ण गम्भीर हो गए और सुदामा को उपदेश दिया: ”मित्रता में ऐसा व्यवहार लोकनिंदा का कारण बनता है । मुझे तनिक भी भूख नहीं है परतु मित्र से चोरी करना उचित नहीं है । तुम विप्र होकर भी मिथ्या बोल सकते हो मुझे दुख हुआ ।”

सुदामा कृष्ण से क्षमा मांगने लगे । भक्तवत्सल ने उन्हें क्षमा तो कर दिया परतु वह चने सुदामा पर ऋण बनकर रह गए । समय व्यतीत हो गया । शिक्षा भी समाप्त हो गई । भगवान श्री कृष्ण द्वारिकापुरी के अधिपति बन गए परंतु विप्र सुदामा की दरिद्रता कम नहीं हुई और भगवद्‌भजन बढ़ता गया ।

विप्रवर की पत्नी सुशीला यथा नाम तथा गुण वाली स्त्री थी । जब भी सुदामा पत्नी के पास होते अपने सखा जगतपालक की प्रशसा और महिमा के गुण गाते न अघाते । दरिद्रता जैसे उनके आगन में पालथी लगाकर बैठ गई थी । भिक्षा से जो मिलता उसी से निर्वाह हो रहा था । कभी संतुष्टि से दोनों समय न खाया ।

सुदामा तो इसे भगवान की मर्जी समझकर सतुष्ट थे परतु सुशीला उस स्थिति से उकता गई । ”स्वामी! आप प्रतिदिन अपने सखा दीनवंधु कृष्ण की प्रशसा करते नहीं अघाते । वह दयासागर क्या आपकी सहायता न करेंगे आप एक बार उनके पास जाकर उनकी कृपा की विनती कीजिए ।” सुशीला बोली ।

”प्रिये! वह मेरे सखा हैं । अवश्य मेरे निवेदन को नहीं ठुकराएंगे । जो दीनानाथ सारे जगत का पालन करते हैं वह मेरी विनती कैसे नहीं सुनेंगे परंतु यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है कि मैं उनसे जाकर कुछ मांगूं ।” ”स्वामी! आपकी बात सत्य हो सकती है परंतु जो दाता है उससे मांगने में क्या बुराई है ? आप एक बार जाकर तो देखिए ।”

सुशीला के बार-बार हठ करने पर सुदामा तैयार हो गए । ”ठीक है । तुम कहती हो तो मैं चला जाता हूं ।” सुदामा बोले: ”कुछ न भी मिले तो मित्र के दर्शन तो मिलेंगे परतु प्रिये वह राजा हैं । उनके यहा खाली हाथ कैसे जाया जा सकता है! क्या घर में ऐसा कुछ है जो मैं अपने मित्र को भेंट कर सकूं ?”

”घर में तो कुछ भी नहीं है परंतु आप तैयार तो हो जाइए । मैं कोई व्यवस्था करती हूं ।” सुशीला बोली । सुशीला चली गई । सुदामा जी ने वस्त्र पहने । फटी हुई धोती फटी हुई चप्पलें और अंगरखा भी फटा हुआ । वह सकुचा रहे थे परंतु कोई विकल्प भी तो नहीं था !

सुशीला वापस आ गई । वह पड़ोस से तीन मुट्‌ठी चावल ले आई थी । वही चावल सुदामा को दिए । सुदामा जी द्वारिकापुरी चल दिए द्वारिकाधीश से मिलने । रास्ता बहुत लम्बा था । पैदल चलते-चलते उनके पैरों में छाले पड़ गए थे । धूल से चेहरा अट गया । काया मलीन हो गई ।

अतत: प्रभु का स्मरण करते प्रभु के द्वार पहुच गए । महल की शोभा देखते ही सुदामा जी चकित रह गए । विश्वकर्मा की बनाई द्वारिका नगरी की शोभा अवर्णनीय थी । सुदामा जी विस्फारित नेत्रों से ऊंची अट्‌टालिकाओं को देख रहे थे ।

बड़े हिचकते हुए वह आगे बढे तो दर्पण की तरह दमकते फर्श पर कदम रखने में उन्हें भय लग रहा था कि कहीं कोई टोक न दे । सामने द्वारपाल खड़े थे । सुदामा जी झिझकते उनके पास पहुंचे । चावल की पोटली बगल में दबी थी ।

”कहिए विप्रदेव उनकी शिखा को देखकर द्वारपाल ने कहा । ”म…मेरा…मेरा नाम सुदामा है । मैं और कृष्ण बाल्यकाल में मित्र थे । एक ही विद्यालय में शिक्षा ली है । मित्र से मिलने आया हूं । कृपा करके कन्हैया को सूचना पहुचा दो कि उनका बालसखा द्वार पर खड़ा है ।” सुदामा दयनीय स्वर में बोले ।

द्वारपालों ने चकित दृष्टि से उन्हें देखा मानो उन्हें संशय हो कि वह ब्राह्मण झूठ बोल रहा था । सुदामा की दशा अत्यत दयनीय थी । लम्बे सफर के कारण उनका दुर्बल शरीर और भी दुर्बल लग रहा था । सर पर पगड़ी तक नहीं थी । और वदन मुर्झा कर सांवला पड गया था ।

द्वारपालों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ससार की सभी निधियों के स्वामी के मित्र की दशा इतनी दयनीय हो सकती है । संशयपूर्ण शब्दों में ही उन्होंने कहा । ”आप यहीं ठहरें विप्रदेव । हम सूचना देते हैं ।” द्वारपाल चला गया और सुदामा भय और कौतूहल से महल की शोभा निहार रहे थे ।

द्वारपाल जिस घड़ी द्वारिकाधीश के समक्ष पहुंचा वह रुक्मिणी जी से वार्तालाप कर रहे थे । ”भगवान! द्वार पर एक दीन-हीन ब्राह्मण खड़ा है । उसके वस्त्र फटे हुए हैं और धूल से अटा पड़ा है । पैरों में चप्पल भी न होने के बराबर हैं । अपना नाम सुदामा बताता है और आपको अपना बालसखा कहता है ।”

”सुदामा! ” भगवान ने चौंककर कहा: ”मेरे मित्र सुदामा! रुक्मिणी मेरे परमभक्त सखा सुदामा आए हैं ।” और दयासिंधु दीनानाथ व्याकुल अवस्था में नंगे पाव ही अपने मित्र की अगवानी को पहुच गए । द्वार पर भयभीत खड़े थे विप्र सुदामा । जाने वहा कैसा व्यवहार हो परतु नटवरनतर अपने मित्र से मिलने यूं दौड़े चले आ रहे हैं जैसे दूर बंधी गाय अपने नवजात बछडे की तरफ दौड़ती आती है ।

देवकीनंदन की विचित्र दशा थी । न सिर पर मुकुट था न पैरों में पादुका । दोनों बाहें फैलाए मित्र के समीप आए और मित्र को अपने अकपाश में समेट लिया । सुदामा और गिरधर दोनों ही रोने लगे । सभी नगरवासी और रुक्मिणी जी कौतूहल से उन्हें देख रहे थे ।

”हे मित्र सुदामा! यह कैसी दशा बना रखी है ।” श्री कृष्णचंद्र अश्रुपूरित नेत्रों से बोले : ”इतनी दरिद्रता और कष्ट भोगते रहे परतु मित्र का स्मरण नहीं किया ! हाय सखा ! तुमने कितने कष्ट पाए । कहा रहे तुम इतने दिन ?” दीनबंधु रोते जाते थे और सुदामा उनके अक में यू छुपे जाते थे जैसे बच्चा अपनी मां के आचल में छुपता है ।

फिर द्वारिकाधीश अपने दीन-हीन सखा को महल में लाए और अपने दिव्य सिंहासन पर बिठा दिया । सुदामा जी के धूल से सने पैरों को धोने के लिए दीनानाथ ने परात का पानी छुआ तक नहीं । अपने कमल नयनों से बहती अश्रुधारा से ही अपने परम सखा के पैर धोये ।

फिर धूप दीप पुष्प इत्यादि दिव्य गधयुक्त पूजा सामग्री से विप्रदेव की पूजा की । उन्हें नाना प्रकार के भोजन कराए । आचमन कराया । फिर दोनों मित्र आमने-सामने बैठ गए । रुक्मिणी जई सहित कई रानियां उन्हें पंखे झलने लगीं । तब श्रीकृष्ण ने उनकी कुशल क्षेम पूछी ।

”सखा सुदामा! भाभीश्री तो कुशल हैं ?” “हां । कुशल हैं । सानंद!” ”मित्र! छुपाने की वृत्ति अभी नहीं गई ।” कृष्ण न मुस्कराकर कहा : ”सत्य तो यह है कि तुम तो कभी हमारा स्मरण नहीं करते । वह ये भला हो भाभीश्री का ।”

हे नाथ !” सुदामा ने हाथ जोड़ दिए : ”आप न अनयामी हैं । यह आक्षेप क्यों लगाते हो मुझ गरीब पर कि मैंने अपने प्रभु का स्मरण नही किया अवसर मिलते ही लीला करने की वृत्ति आपकी भी नहीं गई ।” भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े ।

”अच्छा यह बताओ भाभीश्री ने हमारे लिए क्या भेट भेजी है ?” सुदामा जी परे देखने लगे । साहस भी कैसे करे उन अतुल ऐश्वर्यशाली श्रीभगवान को चावल देने का ! ”क…कुछ नहीं भेजा सखा ।” सुदामा जी ने अपनी दरिद्रता बगल में कसकर दबाई ।

”और यह जो बगल में दबा है, यह क्या है ? सखा ! बालपन की बात भूल गए ?” सुदामा जी ने और भी कसकर पोटली दबा ली परंतु श्रीकृष्ण पोटली पर झपट पड़े । कैसा अद्‌भुत दृश्य था ! दीनानाथ पोटली अपनी तरफ खींच रहे थे और सुदामा जी अपने आप में सिमटे जा रहे थे ।

अंतत : पोटली का एक सिरा प्रभु के हाथ लग गया । पुराना वस्त्र था चर्र से फट गया । चावल निकले तो श्याम सुंदर ने अपना पीताम्बर शीघ्रता से फैला दिया । चावल पीताम्बर में आ गए । जगत को नचाने वाले प्रसन्नता से नाच उठे और एक मुट्‌ठी चावल मुंह में भरकर चबाने लगे ।

”अहा ऐसा अलौकिक स्वाद तो स्वय रुक्मिणी जी के पाक व्यंजनों में भी नहीं होता ।” भाव विह्वल होकर भगवान बोले : ”सखा ! यही तो मुझे परमानंद प्रदान करने वाली भेंट है । मैं तृप्त हुआ । मेरे साथ सम्पूर्ण जगत तृप्त हुआ । सखा ! ऐसी परम स्वादिष्ट वस्तु मैंने आज तक नहीं खाई । न गोकुल में रहकर माखन-मिश्री में ऐसा स्वाद मिला न द्वारिका में ।

हां एक बार अवश्य काका विदुर के यहाँ जो भोजन किया उसमें ऐसा ही स्वाद था ।” ऐसे ही प्रशंसनीय शब्द कहते भगवान ने दूसरी मुट्‌ठी भरी कि रुक्मिणी जी ने हाथ पकड़ लिया । ”नाथ! बस !” रुक्मिणी जी बोलीं : ”अभी संसार का ऐसा कौन-सा सुख है जो एक मुट्‌ठी चावल के बदले विप्रदेव को नहीं मिला ? अब दया कीजिए ।”

लीलाधर ने चावल छोड़ दिए और मुस्कराने लगे । सुदामा जी मित्र के यहा कई दिन रहे । उन दिनों में ही सँसार के समस्त भोग पदार्थ चख लिए । जीर्ण-शीर्ण काया हृष्ट-पुष्ट हो गई । ”मित्र कृष्ण! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए । कई दिन हो गए । ब्राह्मणी चिंतित होती होगी ।” सुदामा ने हाथ जोड़कर कहा ।

”अवश्य मित्र !” फिर भगवान ने उन्हें विदा कर दिया । न उन्होंने कुछ दिया और न सुदामा को कुछ मांगने की कामना रही । बहुत दूर तक अपने रथ में बिठाकर श्रीकृष्ण ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें भावभीनी विदाई दी । सुदामा जी पैदल ही अपने घर की तरफ चले जाते थे ।

बार-बार कृष्ण का निश्छल और सखावत प्रेम उन्हें अंदर तक उन्मादित कर देता था । ‘वह मात्र जगतपालक ही नहीं मनुष्य रूप में सच्चा मित्र है जो इतना बड़ा राजा होकर भी एक गरीब ब्राह्मण के प्रति ऐसी निर्मल आस्था रखता है । ऐसा मित्र जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है । वह साक्षात विष्णु के अवतार हैं । सुदामा सोचते जाते थे ।

सुदामा चलते जाते थे और हृदय में भक्तवत्सल भगवान की छवि के साथ अपने बाल सखा के अभूतपूर्व आतिथ्य से आनंदित थे । उन्हें इस बात की सुधि ही नहीं थी कि वह क्या उद्‌देश्य लेकर अपने मित्र के पास गए थे । कुछ न मिलने की कोई ग्लानि न थी ।

अंतत : अपने नगर के मार्ग पर आ गए । ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते त्यों-त्यों लगता जैसे मार्ग भटक गए हैं । उस मार्ग में पहले तो कुछ भी नहीं था । कंटीली झाड़ियां थीं परंतु अब उसी मार्ग पर नाना प्रकार के छायादार फलदार खुशबूदार पेड़-पौधे लगे थे । पुष्पलताओं की लम्बी कतार थी ।

जगह-जगह धर्मशालाएं और शीतल जल की व्यवस्था थी । ‘अवश्य ही वे मार्ग भटककर किसी अन्य मार्ग पर आ गए हैं । अब आ गए हैं तो आगे चलकर देख भी लेते हैं कि ऐसे भव्य उद्यान जिस नगर के मार्ग में हैं वह नगर कितना भव्य है ।  कल से फिर भिक्षा मांगनी होगी तो इसी नगरी में मांगेंगे ।’

ऐसा विचार कर नगर के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो आश्चर्यचकित रह गए । वह तो द्वारिकापुरी का ही दूसरा रूप था ! द्वारपाल से अपनी शका का समाधान अवश्य करना चाहिए । ”भाई! यह कौन-सी नगरी है ?” उन्होंने पूछा । द्वारपाल ने उन्हें प्रणाम किया ।

”यह आप ही की नगरी सुदामापुरी है महाराज! आप इसके स्वामी हैं ।” क्या लीला थी ! सुदामा हतप्रभ रह गए । और उस क्षण तो उन्हें ब्रह्मांड ही घूमता लगा जब सामने से अपनी पत्नी सुशीला को रानियों जैसे परिधान में कई दासियों के साथ अपनी तरफ आते देखा ।

”नाथ!” सुशीला ने उनके चरण स्पर्श किए: ”आपके मित्र बड़े दयालु हैं । मैं न कहती थी कि वे अपने बाल सखा की दशा पर द्रवित हो जाएंगे?” अब समझ आया उस छलिया कन्हैया की दया का महत्त्व! बिना मांगे ही सर्वसुख प्रदान कर दिए । परंतु सुदामा जी को न महल में आसक्ति थी न सुख में वह तो भक्तिभाव से अपने सखा कान्हा कृष्ण मुरारी की भक्ति में रत रहे । अंतत : ब्रह्मभाव प्राप्त करके परमधाम पहुंचे ।


Hindu Devote 9. भक्त बालक मोहन |

छोटे-से गांव में एक दरिद्र विधवा ब्राह्मणी रहती थी । छह वर्षीय बालक के अतिरिक्त उसका और कोई नहीं था । वह दो-चार भले घरों से भिक्षा मांगकर अपना तथा बच्चे का पेट भर लेती और भगवान का भजन करती थी ।

भीख पूरी न मिलती तो बालक को खिलाकर स्वयं उपवास कर लेती । यह कम चलता रहा । ब्राह्मणी को लगा कि ब्राह्मण के बालक को दो अक्षर न आए यह ठीक नहीं है । गांव में पड़ाने की व्यवस्था नहीं थी । गाँव से दो कोस पर एक पाठशाला थी । ब्राह्मणी अपने बेटे को लेकर वहा गई ।

उसकी दरिद्रता तथा रोने पर दया करके वहा के अध्यापक ने बच्चे को पढ़ाना स्वीकार कर लिया । वहां पढने वाले छात्र गुरु के घर में रहते थे किंतु व्राह्मणी का पुत्र मोहन अभी बहुत छोटा था और ब्राह्मणी को भी अपने पुत्र को देखे विना चैन नहीं पड़ता था अत: मोहन नित्य पढ़ने जाता और सायंकाल घर लौट आता ।

उसको विद्या प्राप्ति के लिए प्रतिदिन चार कोस चलना पड़ता । मार्ग में कुछ दूर जंगल था । शाम को लौटने में अंधेरा होने लगता था । उस जगल में मोहन को डर लगता था । एक दिन गुरुजी के यहा कोई उत्सव था । मोहन को अधिक देर हो गई और जब वह घर लौटने लगा रात्रि हो गई थी ।

अंधेरी रात जंगली जानवरों की आवाजों से बालक मोहन भय से थर-थर कांपने लगा । ब्राह्मणी भी देर होने के कारण बच्चे को कूदने निकली थी । किसी प्रकार अपने पुत्र को वह घर ले आई । मोहन ने सरलता से कहा : ”मां ! दूसरे लड़की को साथ ले जाने तो उनके नौकर आते हैं ।

मुझे जंगल में आज बहुत डर लगा । तू मेरे लिए भी एक नौकर रख दे ।” बेचारी ब्राह्मणी रोने लगी । उसके पास इतना पैसा कहा कि नौकर रख सके । माता को रोते देख मोहन ने कहा : ”मां ! तू रो मत ! क्या हमारा और कोई नहीं है ?” अब ब्राह्मणी क्या उत्तर दे ? उसका हृदय व्यथा से भर गया ।

उसने कहा : ”बेटा ! गोपाल को छोड़कर और कोई हमारा नहीं है ।” बच्चे की समझ में इतनी ही बात आई कि कोई गोपाल उसका है । उसने पूछा :  ”गोपाल कौन ? वे क्या लगते हैं मेरे और कहा रहते हैं ?” ब्राह्मणी ने सरल भाव से कह दिया : ”वे तुम्हारे भाई लगते हैं ।

सभी जगह रहते हैं परंतु आसानी से नहीं दिखते । ससार में ऐसा कौन सा स्थान है जहां वे नहीं रहते । लेकिन उनको तो देखा था ध्रुव ने प्रहलाद ने गोकुल के गोपों ने ।” बालक को तो अपने गोपाल भाई को जानना था । वह पूछने लगा : ”गोपाल मुझसे छोटे हैं या बड़े अपने घर आते हैं या नहीं ?”

माता ने उसे बताया : ”तुमसे वे बड़े हैं और घर भी आते हैं पर हम लोग उन्हें देख नहीं सकते । जो उनको पाने के लिए व्याकुल होता है उसी के पुकारने पर वे उसके पास आते हैं ।” मोहन ने कहा : ”जंगल में आते समय मुझे बड़ा डर लगता है । मैं उस समय खूब व्याकुल हो जाता हूं । वहा पुकारू तो क्या गोपाल भाई आएंगे ?”

माता ने कहा : ”तू विश्वास के साथ पुकारेगा तो अवश्य वे आएंगे ।” मोहन की समझ में इतनी बात आई कि जगल में अब डरने की जरूरत नहीं है । डर लगने पर मैं व्याकुल होकर पुकारूंगा तो मेरा गोपाल भाई वहा आ जाएगा । दूसरे दिन पाठशाला से लौटते समय जब वह वन में पहुचा उसे डर लगा ।

उसने पुकारा : ”गोपाल भाई ! तुम कहां हो ? मुझे यहा डर लगता है । मैं व्याकुल हो रहा हूं । गोपाल भाई !” जो दीनबंधु हैं दीनों के पुकारने पर वह कैसे नहीं बोलेंगे । मोहन को बड़ा ही मधुर स्वर सुनाई पड़ा : ”भैया ! तू डर मत । मैं यह आया ।” यह स्वर सुनते ही मोहन का भय भाग गया ।

थोड़ी दूर चलते ही उसने देखा कि एक बहुत ही सुंदर ग्वालबाल उसके पास आ  गया । वह हाथ पकड़कर बातचीत करने लगा । साथ-साथ चलने लगा । उसके साथ खेलने लगा । वन की सीमा तक वह पहुंचाकर लौट गया । गोपाल भाई को पाकर मोहन का भय जाता रहा । घर आकर उसने जब माता को सब बातें बताईं तब वह ब्राह्मणी हाथ जोडकर गदगद हो अपने प्रभु को प्रणाम करने लगी ।

उसने समझ लिया जो दयामयी द्रोपदी और गजेंद्र की पुकार पर दौड़ पड़े थे मेरे भोले बालक की पुकार पर भी वही आए थे । एक दिन उसके गुरुजी के पिता का श्राद्ध होने लगा । सभी विद्यार्थी कुछ न कुछ भेंट देंगे । गुरुजी सबसे कुछ लाने को कह रहे थे । मोहन ने भी सरलता से पूछा : “गुरुजी ! मैं क्या ले आऊं ?”

गुरु को ब्राह्मणी की अवस्था का पता था । उन्होंने कहा : ‘बेटा ! तुमकी कुछ नहीं लाना होगा ।’ लेकिन मोहन को यह बात कैसे अच्छी लगती । सब लड़के लाएंगे तो मैं क्यों न लाऊं उसके हठ को देखकर गुरुजी ने कह दिया : ”अच्छा तुम एक लोटा दूध ले आना ।” घर जाकर मोहन ने माता से गुरुजी के पिता के श्राद्ध की बात कही और यह भी कहा” मुझे एक लोटा दूध ले जाने की आज्ञा मिली है ।”

ब्राह्मणी के घर में था क्या जो वह दूध ला देती । मांगने पर भी उसे दूध कौन देता लेकिन मोहन ठहरा बालक । वह रोने लगा । अत में माता ने उसे समझाया : ”तू गोपाल भाई से दूध मांग लेना । वे अवश्य प्रबध कर देंगे ।” दूसरे दिन मोहन ने जंगल में गोपाल भाई को जाते ही पुकारा और मिलने पर कहा : ”आज मेरे गुरुजी के पिता का श्राद्ध है ।

मुझे एक लोटा दूध ले जाना है ।  मां ने कहा है कि गोपाल भाई से माग लेना । सौ मुझे तुम एक लोटा दूध लाकर दो ।” गोपाल ने कहा : ”मैं तो पहले से यह लौटा भर दूध लाया हूं । तुम इसे ले  जाओ ।” मोहन बड़ा प्रसन्न हुआ । पाठशाला में गुरुजी दूसरे लड़कों के उपहार देखने और रखवाने में लगे थे ।

मोहन हंसता हुआ पहुंचा । कुछ देर तो वह प्रतीक्षा करता रहा कि उसके दूध को भी गुरुजी देखेंगे । पर जब किसी का ध्यान उसकी ओर न गया तब वह बोला : ‘गुरुजी ! मैं दूध लाया हूं ।’ गुरुजी ढेरों चीजें सम्हालने में व्यस्त थे । मोहन ने जब उन्हें स्मरण दिलाया तब झुंझलाकर बोले : ”जरा-सा दूध लाकर यह लड़का कान खाए जाता है जैसे इसने हमें निहाल कर दिया ।

इसका दूध किसी बर्तन से डालकर हटाओ इसे यहां से ।” मोहन अपने इस अपमान से खिन्न हो गया । उसका उत्साह चला गया । उसके नेत्रों से आंसू गिरने लगे । नौकर ने लोटा लेकर दूध कटोरे मे डाला तो कटोरा भर गया फिर गिलास में डाला तो वह भी भर गया ।

बाल्टी में टालने लगा तो वह भी भर गई । भगवान के हाथ से दिया वह लोटा भर दूध तो अक्षय था । नौकर घवराकर गुरुजी के पास गया । उसकी बात सुनकर गुरुजी तथा और सब लोग वहां आए अपने सामने एक बड़े पात्र में दूध डालने को उन्होंने कहा ।

पात्र भर गया पर लाटा तनिक भी खाली नहीं हुआ । इस प्रकार बड़े-बड़े बर्तन दूध से भर गए । अब गुरुजी ने पूछा : ”बेटा ! तू दूध कहा से लाया हें ?” सरलता से बालक ने कहा : ”मेरे गोपाल भाड़ ने दिया ।” गुरुजी और चकित हुए । उन्होंने पूछा : ”गोपाल भाई कौन ? तुम्हारे तो कोई भाई नहीं ।”

मोहन ने दृढ़ता से कहा : ”है क्यों नहीं । गौपाल भाई मेरा बड़ा भाई है । वह मुझे रोज वन में मिल जाता है । मां कहती हैं कि वह सव जगह रहता है पर दिखता नहीं कोई उसे खूब व्याकुल होकर पुकारे तभी वह आ जाता है । उससे जो कुछ मागा जाए वह तुरत दे देता है ।”

अब गुरुजी को कुछ समझना नहीं था । मोहन को उन्होंने हृदय से लगा लिया । श्राद्ध में उस दूध से खीर बनी और ब्राह्मण उसके स्वाद का वर्णन करते हुए तृप्त नहीं होते थे । गोपाल भाई के दूध का स्वाद स्वर्ग के अमृत में भी नहीं तब संसार के किसी पदार्थ में कहां से होगा ।

उस दूध का बना श्राद्धान्त पाकर गुरुजी के पितर तृप्त ही नहीं हुए, माया से मुक्त भी हो गए । श्राद्ध समाप्त हुआ । सध्या को सब लोग चले गए । मोहन को गुरुजी ने रोक लिया था । अब उन्होंने कहा : ”बेटा ! मैं तेरे साथ चलता हूं । तू मुझे अपने गोपाल भाई के दर्शन करा देगा न ?”

मोहन ने कहा : ”चलिए मेरा गोपाल भाई तो पुकारते ही आ जाता है ।” वन में पहुंचकर उसने पुकारा । उत्तर में उसे सुनाई पड़ा : ”आज तुम अकेले तो हो नहीं तुम्हें डर तो लगता नहीं, फिर मुझे क्यों बुलाते हो ?” मोहन ने कहा : ”मेरे गुरुजी तुम्हें देखना चाहते हैं तुम जल्दी आओ !”

जब मोहन ने गुरुजी से कहा : ”आपने देखा मेरा गोपाल भाई कितना सुदर है ?”  गुरुजी कहने लगे : “मुझे तो दिखता ही नहीं । मैं तो यह प्रकाशमात्र देख रहा हूं ।”  अब मोहन ने कहा : “गोपाल भाई ! तुम मेरे गुरुजी को दिखाई क्यों नहीं पड़ते ?” उत्तर मिला : ”तुम्हारी बात दूसरी है । तुम्हारा अत: करण शुद्ध है तुममें सरल विश्वास है, अत: मैं तुम्हारे पास आता हूं ।

तुम्हारे गुरुदेव को जो प्रकाश दिख गया उनके लिए वही बहुत है । उनका इतने से ही कल्याण हो जाएगा ।” उस अमृत भरे स्वर को सुनकर गुरुदेव का हृदय गदगद हो गया । उनको अपने हृदय में भगवान के दर्शन हुए । भगवान की उन्होंने स्तुति की ।

कुछ देर में जब भगवान अंतर्धान हो गए, तब मोहन को साथ लेकर वे उसके घर आए और वहां पहुंचकर उनके नेत्र भी धन्य हो गए ।  गोपाल भाई उस ब्राह्मणी की गोद में बैठे थे और माता के नेत्रों की अश्रुधार उनकी काली धराली अलकों को भिगो रही थी । माता को शरीर की सुध-बुध ही नहीं थी ।


Hindu Devote 10. भक्त रघु केवट |

जब भगवान की कृपा होती है तो पत्थर क के आत्मज्ञान हो जाता है । उसकी कृपा के बिना कोई वेद, कोई शास्त्र, कोई तप जन्मज्ञान प्रदान नहीं कर सकता भले ही वो किसी ज्ञानी का प्रयास हो । और भगवान कृपा तव होती है जब अज्ञानी के हृदय में भी भक्ति प्रगट हो जाती है ।”

महातीर्थ श्री जगन्नाथपुरी के समीप एक ग्राम पिपलीचटी था । इसी ग्राम में रघु केवट नाम का मख्वुारा रहता नर वृद्धा माता थीं । परिवार छोटा अवश्य था परंतु गरीबी से परिपूर्ण था दारिद्र जीवन-यापन हो रहा था । रघु केवट पूर्वजन्म के संस्कारों से सहृदय था वह जीवन यापन के लिए मछली पकड़कर बेचने का जातीय कार्य करता परंतु मछलियों को तड़पते देखकर वह बहुत दुखी होता था ।

वह प्रत्येक मछ्ली को जल से निकालने के बाद व्यथित होकर उससे क्षमा याचना करता था कि जीवन निर्वाह का अन्य साधन न होने के कारण उसे वह अपराध निरंतर करना पड़ता था । एक दिन उसे नदी के रास्ते में एक तेजस्वी साधु भी उसकी भक्ति में रुचि देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे गुरु दीक्षा दी ।

उसे एक तुलसी कि माला दी और भगवान के भजन में रत रहने का आदेश दिया । अब रघु केवट प्रात: स्नान करके दोपहर तक भजन में लिन रहता । अब उसने मछ्ली पकड़ने का कार्य जैसे-तैसे चलाया, फिर उपवास कि स्थिति आ गई, तब पत्नी ने उससे कहा ।

”यदि तुलसी माला गले में डालकर भजन ही करना है तो अपनी माता और मुझे नदी  को समर्पित कर दो ।” पत्नी तिरस्कृत स्वर में बोली : “गृहस्थी का आर्थिक बोझ पुरुष के ऊपर होता है और तुम स्त्रियों से भी नीचे बनते जा रहे हो ।”

”परंतु…?” उसने कुछ कहना चाहा । ”कोई भी भजन, कोई भी भगवान यह नहीं कहता कि अपने आश्रितों को भाड़  में झोंककर मेरी स्तुति करो ।” “अच्छा मेरा जाल मुझे दो । मैं जाता हूं ।”  अंतत : रघु को पुन : अपना जाल पकड़ना पड़ा ।

वह जाल लेकर नदी पर पहुचा और भगवान से अपने इस अपराध की क्षमा याचना के साथ जाल नदी में फेंक दिया । कई बार उसके हृदय में यह बात आई कि जाल वापस खींच ले परतु पत्नी का तिरस्कार स्मरण होते ही सहम जाता । उसके चित्त में भगवान बस गए ।

कुछ देर बाद उसने जाल खींचा तो उसमें ढेरों मछलियां थीं परतु एक बड़ी लाल मछली को देखकर उसे आश्चर्य हुआ । वैसी मछली उसने आज तक नहीं देखी थी । उसने सबसे पहले उसे ही जाल से निकाला । ”हे अद्‌भुत मछली! अवश्य ही तुम मछलियों की रानी हो । तुम्हारा विचित्र रूप मुझे आनंदित कर रहा है ।

मेरा हृदय तुम्हें बेचने को नहीं कर रहा क्योंकि प्रत्येक जीव में ब्रह्म का वास होता है परतु मैं विवश हूं । मेरे पास जीविका का अन्य कोई साधन नहीं है ।” वह दुखी स्वर में बोला । उसने मछली के गलफड़ों में उंगली डाली । ”हे नारायण! मेरी रक्षा करो ।” सहसा मछली की करुण पुकार-पूंजी ।

रघु केवट चकित रह गया । उसे जाने क्या हुआ वह मछली को लेकर उस पहाड़ी झरने की तरफ दौड़ा जहा एक शीतल जलकुड था । उसने मछली को उस जलकुड में छोड़ दिया । अब वह अपनी पत्नी और माता को भी भूल गया । उसके हृदय में तो एक प्रकाश पुंज भर गया था ।

”हे प्रभो! आपने मुझे मछली के भीतर से ‘नारायण’ की ध्वनि सुनाई है । अब मैं आपके दर्शन पाए बिना यहां से न हिलूंगा ।” वह वहीं बैठ गया । हाथ में तुलसी की माला लेकर उसने ‘नारायण नारायण’ की रट लगा दी । न उसे भूख थी न प्यास । तीन दिन तक वह बिना अन्न-जल ग्रहण किए वहीं बैठा रहा ।

कब तक भगवान अपने भक्त का कष्ट देख सकते हैं ? उन्हें आना पड़ा । ब्राह्मण वेश में आकर वह रघु केवट के पास खड़े हो गए । ”अरे तपस्वी! तू इस घोर अंधेरी रात्रि में क्या कर रहा है ?” ब्राह्मण वेशधारी भगवान ने पूछा । रघु केवट ने ब्राह्मण जानकर प्रणाम किया ।

”महात्मन! मैं भगवान का नाम ले रहा हूं । अब कृपा करके आप मेरे भजन में बाधा न डालें । मेरी निरंतरता भग होती है ।” ”मैं तो जा रहा हूं, परंतु तू यह सोच कि मछ्ली भी कभी मनुष्य की आवाज में बोल सकती है?” ब्राह्मण हसकर बोले ।

रघु केवट के ज्ञानचक्षु खुल गए । वह समझ गया की उसके सामने कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, बल्कि स्वयं भगवान नारायण हैं । उसने उनके चरण कसकर पकड़ लिए । ”हे नाथ! मुझ शठ की ऐसी परीक्षा क्यों ले रहे हैं आप ? मैं कोई बड़ा विद्वान नहीं हूं ।

साधारण व्यक्ति हूं । क्या जीव-हत्या का मेरा अपराध इतना जघन्य है कि मुझे अपने दिव्यस्वरूप के दर्शन नहीं दे रहे ?” कहते-कहते रघु केवट की आवाज घास भक्त की प्रार्थना और ऐसी दीन अवस्था भक्तवत्सल कहता ?

भगवान ने अपने चतुर्भुज रूप में उसे दर्शन दिए । “भक्त ! मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूं । तू अपनी इच्छा प्रकट कर ।” ”भगवन! आपके साक्षात दर्शन हो ज्ञ मुझे कोई इच्छा नहीं है परंतु आपकी आज्ञा भी मैं नहीं टाल सकता । प्रभु ! मैं जाती का मछेरा हूं । मेरे जीवन निर्वाह का यह साधन मुझे नहीं सुहाता ।

आप यह कृपा करिए कि मैं इस स्वभाव से मुक्ति पा जऊं और कभी अनजाने में भी यह अपराध मुझसे न हो । मेरी जिह्वा सदैव आपका ही नाम लेकर इस देह से छूटे ।” ”तथास्तु!” प्रभु ने उसे स्पर्श करके कहा उस स्नेहिल और विद्युतीय स्पर्श ने रद कचट भीतर किसी शक्ति का संचार प्रतीत हुआ ।

रघु ‘नारायण-नारायण’ भजता घर लौटा तो सबने उसे बुरा-भला कहा, परंतु उसने किसी की बात का बुरा नहीं माना, बस प्रभु का नाम लेता रहा । आब यही उसकी दिनचर्या हो गई । वह दिन-भर गांव में हरि-कीर्तन करता-फिरता । बहुत दिन व्यतीत हुए ।

गांव में वर्षा न होने से भीषण गर्मी पद रही थी । “ओ कामचोर भजनियां!” किसी ने कहा: “यह बारिश कब होगी ?” “अभी होगी । इसी क्षण होगी ।” वह बोला । न कहीं बादल थे न कोई आसार, परंतु मेघ बरस उठे । तब से रघु केवट गांव-भर में सिद्ध पुरुष माना जाने लगा । वह जो भी कहता, वही सत्य हो जाता । लोग उसे आदर देने लगे ।

अब लोग मनोकामना लेकर उसके पास आते । भीड़ होने लगी तो भजन में विघ्न होने लगा । उसने घर छोड़ दिया और वन में एक कुटिया बनाकर एकांत में भजन में रत हो गया । एक दिन भोजन करने बैठा तो प्रतीत हुआ कि उसके नारायण उससे भोजन मांग रहे हैं । उसने भोजन भगवान को समर्पित कर दिया और भगवान को भाव से बुलाने लगा ।

भगवान तो भाव के भूखे हैं । भावना तो उनके लिए पाश है । भक्तवत्सल श्रीनारायण नीलांचल छोड्‌कर अपने भक्त की कुटिया में आ गए और भोजन करने लगे । उधर उसी समय नीलांचल में श्री जगन्नाथ जी के भोग के लिए पुजारी ने अनेक सुगंधित भोग सजा लिए । श्री जगन्नाथ मंदिर में भगवान के भोग की अति उत्तम व्यवस्था है ।

वहां भोग मंडप मंदिर से अलग स्थित है । वहा एक दर्पण इस तरह लगाया गया है कि मंदिर में विराजे श्री जगन्नाथ जी का प्रतिविम्ब भोग मडप में दिखता है । उसी प्रतिबिम्ब को भोग लगाया जाता है । पुजारी जी भोग सामग्री लेकर दर्पण के समक्ष पहुचे तो सकते में आ गए । दर्पण में जगन्नाथ जी का प्रतिबिम्ब नहीं था । पुजारी जो क तो हाथ-पैर फूल गए ।

वह मंदिर में पहुंचे तो मूर्ति यथास्थान थी । वह पुन: भौगमंडप से आए तो प्रतिबिम्ब नहीं था । ”सर्वनाश! अवश्य ही भोग में कोई दोष है, जो श्री जगन्नाथ जी ने भोग को अस्वीकार किया । महाराज को सूचना देता हूं ।” पुजारी जी दौड़े-दौड़े महाराज के स्थ्य पहुंचे ।

”महाराज! अनर्थ हो गया । श्री जगन्नाथ क्य हममे रुष्ट हो गए ।” पुजारी ने आर्तनाद करते हुए कहा । ”क्या कह रहे हो पुजारी जी?” राजा आश्चर्य से बोला । पुजारी ने वृत्तांत कहा तो राजा नंगे पैरों मदिर का तरफ दौड़ और पुजारी के कथन की सत्यता की जाँच की । उसे यह देखकर वडा दुख हुआ कि श्री जगन्नाथ जी ने उसका भोग अस्वीकार कर दिया था । वह विनय करन लगा

”हे नाथ! क्या अपराध हो गया हे भवतारणहार यदि अनजाने में मुझसे कोई अपराध हुआ तो मैं दड के लिए उपस्थित हूं ।” इस प्रकार व्यथित हृदय से राजा वहीं मूर्ति के चरणों में लेट गया और निश्चय कर लिया कि जब तक भगवान उसका अपराध नहीं बताते वह वहा से नहीं हटेगा और न अन्न-जल ग्रहण करेगा ।

इसी भाव से राजा वहीं सौ गया और उसे नींद आ गई । रात्रि में उसने स्वप्न देखा । स्वप्न में स्वय नीलांचल नाथ उससे कह रहे थे । ”हे राजन्! तुम्हारा कोई अपराध नहीं है । तुम्हें दुखी होने की आवश्यकता नहीं है । मेरा प्रतिबिम्ब इसलिए यहां नहीं था क्योंकि मैं स्वय यही नहीं था ।

मैं तो इस समय पीपलीचटी ग्राम में अपने भक्त रघु केवट की कुटिया में उसके हाथ से भोजन कर रहा हूं । उसका भाव मुझे छोडता ही नहीं । यदि तुम मुझे यहा लाना चाहते हो तो स्वयँ आकर इसकी प्रार्थना करो । संभव हैं यह मान जाए । मैं तो इसके प्रेम के वश में हूँ ।

तुम इसे इसके परिवार सहित नीलांचल ले आओ अन्यथा मेरा लौटना संभव नहीं ।” राजा की नींद टूटी तो वह हड़बड़ाकर उठा और उसी क्षण रघु केवट के यहाँ पीपलीचटी जाने की तैयारी कर ली । ग्राम पहुंचकर रघु केवट का पता पूछा तो लोगों ने जगंल में स्थित उसकी झोपड़ी का पता बताया । राजा वहां पहुंचा ।

कुटिया का द्वार खुला हुआ था । अन्दर रघु अन्न का ग्रास किसी के मुंह में रखता तो दिखाई देता था परंतु खाने वाला नजर न आता था । रघु तो भावविभोर होकर प्रभु को भोजन करा रहा था । सहसा प्रभु अंतर्धान हो गए । रघु जल बिन मछली की तरह तड़पने लगा ।

राजा ने उसे भावविभोर होकर गोद में उठा लिया । रघु की चेतना लौटी तो उसने स्वय को राजा की गोद में देखा तो जल्दी से उठकर राजा के चरण स्पर्श किए । राजा स्वयं उस भक्त के चरणों में नतमस्तक हो गया । ”हे भक्तश्रेष्ठ! इस दास की विनती स्वीकार करें ।

प्रभु ने स्वप्न में मुझे आदेश दिया है कि आप परिवार सहित मेरा आतिथ्य स्वीकार करें ।” पुरी नरेश ने हाथ जोड़कर विनती की । ”महाराज! प्रभु की आज्ञा मैं कैसे टाल सकता हूं ?” तत्पश्चात राजा उसे परिवार सहित नीलांचल ले आया तब भोग मंडप के दर्पण में श्री जगन्नाथ जी का प्रतिबिम्ब नजर आया ।

राजा ने श्री जगन्नाथ जी के मंदिर के समीप दक्षिण में उसके रहने की व्यवस्था कर दी । रघु केवट अपनी माता और स्त्री के साथ भगवान का जाप करते हुए अंत समय परमधाम के भागी बनें ।


Hindu Devote 11. भक्त कवि सूरदास |

सूरदास का जन्म विक्रम सवत् 1535 (सन् 1478) की वैशाख शुक्ला पंचमी को वल्लभगढ़ के निकट सीही ग्राम में हुआ । सूरदास जन्मांध थे । गोस्वामी विट्‌टलनाथजी के पुत्र यदुनाथ ने ‘वल्लभ दिग्विजय’ में इन्हें सारस्वत ब्राह्मण बताया है ।

वल्लभाचार्य से इनकी भेंट विक्रम संवत् 1560 (सन् 1503) में गऊ घाट पर हुई थी । जब सूर ने आचार्यजी को ‘हौं हरि सब पतितन को नाम’ पद सुनाया तो आचार्यजी ने कहा : ‘सूर है के काहे घिघियात हो कछू हरि लीला गा ।’  आचार्य जी ने श्रीमद्‌भागवत के दशम स्कंध की अनुक्रमणिका सुनाई जिससे लीला-रस का इन्हें मानसिक साक्षात्कार हो गया ।

तानसेन द्वारा अकबर ने सूररचित पद सुनकर अजमेर शरीफ जाते हुए विक्रम सवत् 1623 (सन् 1566) में मथुरा में इनके दर्शन किए । सूर के पद गान से प्रसन्न हो सम्राट ने अपनी प्रशस्ति गाने को कहा । सूर ने इस प्रकार से गाया : ”नाहिं न रहयो…” अब मन में कोई जगह ही शेष नहीं है ।

नंद नंदन का असीम सौंदर्य जिस हृदय में बस गया है वहा कोई और कैसे आ सकता है । जिनका शरीर मेघों के समान सांवला है जिनके मुख कमल के समान सुदर है जिनकी मृदुल हंसी अतीव मनभावानी है । सूरदास कहते हैं : ऐसे ही मुरली मनोहर के स्वरूप का दर्शन करने के लिए ये आखें निरंतर प्यासी मरा करती हैं ।

गोस्वामी विट्‌ठलनाथ ने उन्हें पुष्टिमार्ग का जहाज बताया था । सूर को ग्रंथों में सूरसागर साहित्यलहरी और सूरसारावली प्रामाणिक मानी गई हैं । सूरसागर में उद्‌भावना और कल्पनाशक्ति के आधार पर हरिलीला का गान किया है ।

सूर काव्य के श्रोता और कथा सब श्रीहरि ही हैं । हरि को हरिलीला सुनाना ही उनका प्रयोजन है । रासकाव्य उन्होंने काम विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को ध्यान में रखकर लिखा तथा तुलसी के तटस्थ कवि की अपेक्षा वात्सल्य सरस माधुर्य शांत सभी लीलाओं में उन्होंने सक्रिय साझेदारी व्यक्त की ।

सहचर भाव के आधार पर ही वह कृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर किशोर लीलाओं और फिर माधुर्य लीलाओं तक के राज्य में स्वच्छद क्रीड़ा करते रहे । सूर का स्थायी निवास गोवर्धन के निकट परासोकली ग्राम में था । वहा चंद्रसरोवर के पास वे कुटी बनाकर रहते थे तथा नित्य श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन सेवा करते थे ।

महाकवि सूरदास उच्च कोटि के भक्त साधक थे । जन्माध होते हुए भी सरस्वती से उन्हें जन्मजात काव्य प्रतिभा का वरदान मिला हुआ था । इसी प्रतिभा के बल पर उन्होंने मानवीय संवेदनाओं का जो मनोहारी चित्रण किया है वह आज तक आश्चर्य का विषय बना हुआ है ।

महाकवि सूरदास ने अपने पदों में भगवान के अनुग्रह महिमा अनन्य प्रेम के साथ ही भगवान की विभिन्न लीलाओं का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है । भगवान के अनुग्रह के पद गाते हुए वे भाव विभोर हो जाते हैं और चरन-कमल बंदौ हरिराई‘, ‘कृपा अब कीजिए बलि जाऊं’ तथा ‘जा पर दीनानाथ ढरै’ गा उठते हैं ।

अपने अनन्य प्रेम को वे ‘मेरी मन अनंत कहां सुख पावै’ और ‘सोई रसना जो हरि-गुन गावै’ गाकर प्रकट करते हैं । सूरदास ने कृष्ण की बाल लीला रास लीला मुरली लीला पनघट लीला और वसंत लीला को अपनी अमर रचना ‘सूर सागर’ में वर्णन किया है । ऐसा वर्णन अन्यत्र किसी भी रचना में दृष्टिगोचर नहीं होता ।

उनका देहावसान परासौली में विक्रम संवत् 1640 ( सन् 1483) के आस-पास निम्न पद गुनगुनाते हुए हुआ था:  खंजन नैन रूप रस माते । अति सै चारू चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते । चलि चलि जात निकट सुवननि कै उलट पलटि ताटंक फंदाते । सूरदास अंजन गुन अटके नतरू अबहिं उड़ी जाते ।

अर्थात-ये खंजन पक्षी रूपी (एक प्रकार की प्रसिद्ध सफेद और काली पेट वाली चिड़िया जो जाड़े के शुरुआती दिनों में उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में दिखाई पड़ती है) नयन अपने प्रभु श्रीकृष्ण के रूप रस का पान कर मदहोश हैं ।

यह इस अत्यत सुदर चंचल तथा विलक्षण पलों में अब और पिंजरे में नहीं रहना चाहते । ये बार-बार उड़कर किनारे पर चले जाते हैं और बाद (देह रूपी सीमा) को फांद लेना चाहते हैं । सूरदास जी कहते हैं यह अभी तक अपने स्वभाव के कारण अटके हैं नहीं तो अब तक उड़कर अपने प्रियतम राधा वल्लभ श्रीकृष्ण के पास पहुँच जाते ।


Hindu Devote 12. भक्त हरिदास यवन |

यशोहर जिले में एक छोटा-सा गांव बूड़न था । इसी गाव में एक गरीब मुस्लिम परिवार रहता था । इसी परिवार में हरिदास खा का जन्म हुआ था । पूर्वजन्म के संस्कार ही थे कि बाल्यकाल से ही हरिदास की श्रद्धा हरि नाम जपन में थी । किशोर होते ही उन्होंने वैराग्य ले लिया ।

गृहत्याग कर दिया और वनग्राम के समीप जगल में कुटी बनाकर रहने लगे । वह बड़े ही शांतिप्रिय व धैर्यवान साधु थे । क्षमा उनका गुण था तो निर्भयता उनका आभूषण थी । उनकी आवाज में बड़ा ही माधुर्य था । वो प्रतिदिन तीन लाख हरि नाम का जाप करते थे । जाप भी उच्च आवाज में करते थे ।

किसी ने जोर-जोर से जाप करने का कारण पूछा । ”महाराज! क्या भगवान को कम सुनाई देता है जा आप इतने उच्च स्वर में जाप करते हैं या अन्य कोई कारण है ?” ”भक्त! यह हरिनाम बड़ा ही अलौकिक है । इसका श्रवण मात्र भी प्राणी को इस नरक से मुक्त कर देता है ।

मैं इसी कारण इसका जाप उच्च स्वर में करता हूं कि इस निर्जन वन में जितने भी जीव-जन्तु हैं वातावरण में कितने ही प्रकार के अदृश्य कीट-पतंगे हैं सब इसका श्रवण करें और भव से पार हो जाए ।” हरिदास जी बोले । उनकी बात से वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया ।

उनकी ख्याति बढ़ती जा रही थी । कितने ही लोग उन्हें अपना आदर्श मानकर भगवद्‌भक्त हो गए । उनकी ख्याति से कुछ लोग चिढ़ते भी थे जिनमें रामचद्र खा नाम का एक जमींदार था । उसने उनकी साधना और कीर्ति को नष्ट करने का षड़यंत्र रचा और एक वेश्या को धन का लालच दिया ।

वेश्या तो धन दीवानी थी ही । उसने तत्काल सहमति दे दी । रूप और सौंदर्य की साक्षात मूर्ति उस वेश्या ने मृगार किया और रात्रि के समय हरिदास जी की कुटिया में पहुंच गई । वह तो भगवान की आराधना में लीन थे । उनका मनोहर रूप देखकर वेश्या उन पर आसक्त हो गई ।

एक तो उसका उद्‌देश्य भी ऐसा ही था दूसरे हरिदास जी की तेजस्वी मुखमुद्रा से उसके मन में ‘काम’ का विकार आ गया । वह निर्लज्ज होकर निर्वस्त्र हो गई और रात-भर उनके साथ कुचेष्टाएं करने का प्रयास करती रही । रात्रि-भर वह वेश्या हरिदास जी की समाधि भंग करने का प्रयास करती रही परंतु सफल न हो सकी ।

प्रात: काल होने पर उसने अपने वस्त्र पहने और चलने को तैयार हुई । ”देवी! क्षमा चाहता हूं । समाधिस्थ होने के कारण मैं आपसे बातें न कर सका । आप किस प्रयोजन से आई थीं ?” वह मुस्कराकर चली गई । तीन रात लगातार वह अपने प्रयास में विफल रही ।

वह साधु किंचित मात्र भी अपने तप से नहीं डिगा था जबकि उस वेश्या के कानों में निरंतर हरिनाम की आवाज गूंजने से उसका अतकरण शुद्ध हो गया था । वह चौथी रात्रि भी आई । हरिदास जी उस वक्त भी पूर्णभाव से भगवद्‌भजन में लीन थे ।

इतने लीन थे कि उनकी आखों से अश्रुधारा बह रही थी । वेश्या को आत्मग्लानि हो उठी । ‘यह साधारण साधु नहीं हैं ।’ वह सोचने लगी: ‘जो मुझ जैसी परम सुंदरी की उपस्थिति का आभास तक नहीं करता और अपनी ही धुन में लीन रहता है तो निश्चय ही इसे किसी अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो रही है ।

अवश्य ही इसे कोई अन्य ऐसा आनंद प्राप्त है जिसके समक्ष संसार के सब रूप इसे फीके लगते हैं ।’ वेश्या उसे पथभ्रष्ट करने आई थी और स्वयं ही सदमा ? पर चल पड़ी । वह उनके चरणों पर गिर पड़ी और अपना अपराध क्षमा करने के लिए अश्रुशुइरत स्वर में याचना करने लगी ।

”हे पुण्यात्मा! हे महात्मन् !! मुझ पापिन का उद्धार करो । मेरा अपराध क्षमा करो । मुझे अपनी शरण में ले लो ।” उसके प्रायश्चित-भरे शब्दों से हरिदास जी ने समाधि तोड़ी । ”देवी! मानव जीवन मुक्ति मार्ग का एक मात्र रास्ता है । कोई इसे भोग मानकर जीता है तो कोई योग मानकर ।

उठो और अपने हृदय में हरिनाम धारण करो । तुम्हारा उद्धार हो जाएगा ।” वेश्या ने तत्काल सच्चे मन से प्रभु का स्मरण किया । उसे हरिदास जी ने दीक्षित करके तपस्विनी बना दिया । उन्होंने उस स्थान को उसे ही सौंपा और स्वर्य हरिनाम प्रचार करने चल पड़े ।

वेश्या उसी कुटिया में हरिनाम गाने लगी । यह साधु सग और हरिनाम श्रवण का प्रताप था कि वही वेश्या आगे चलकर भगवान की परम भक्त बनी । हरिदास जी वहां से चलकर शांतिपुर पहुंचे । शांतिपुर में मुस्लिम शासक था । उस धर्मांध शासक के फतवे से हिंदुओं को अपना धर्माचरण करना कठिन हो रहा था ।

ऐसे में हरिदास जी मुस्लिम होकर भी हिंदू आचरण करते हरिनाम लेते थे । कुछ मुस्लिम अधिकारियों को यह बात बुरी लगी । उन्होंने बादशाह को यह बात बढ़ा-चढ़ाकर बताई । ”बादशाह सलामत! जबकि नगर में आपके हुक्मनामे से इस्लाम को सर्वव्यापी करने का मुहिम चलाया जा रहा है ऐसे में हमारा ही एक मुस्लिम फकीर हिन्दू धर्म के गीत गाता फिर रहा है ।

इससे हमारे मुहिम पर बुरा असर पड़ता है । उस फकीर को सजा न दी गई तो हिंदू ताकतवर हो जाएंगे । बगावत हो जाएगी ।” बादशाह ने तत्काल हरिदास जी की गिरफ्तारी का हुक्म दिया । उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया गया । यह खबर आग की तरह हरिदास जी के भक्तों में फैली ।

सब बड़े दुखी हुए और ऐसे अन्यायी बादशाह की सर्वत्र भर्त्सना होने लगी । इधर हरिदास जी जेल में भी हरिनाम का जाप करते रहे । जेल के अन्य बंदी भी उनके भक्त हो गए । स्थिति काबू से बाहर होती देखकर अधिकारियों ने मुकदमा चलाया ।  उन्हें अदालत में काजी के सामने लाया गया ।

”हरिदास! तुम बड़े भाग्यों से तो मुसलमान के घर में जन्मे फिर भी काफिरों के देवता का नाम लेते हो । उन्हीं जैसा आचरण करते हो । हम तो हिंदू के घर पानी भी नहीं पीते ।  यह महापाप तुम न करो । इसके लिए तुम्हें जहनुम की आग में झुलसना होगा । अब तुम कलमा पड़ लो तो तुम पाक हो जाओगे ।”

”हे काजी साहब! इस संसार का मालिक एक है । उसकी दृष्टि में मानव की  अलग-अलग कौम नहीं है । हमने ही उसे बांट रखा है । उसी हरि ने प्रत्येक मानव को यह अधिकार दिया है कि वह चाहे जिस नाम से उसकी आराधना कर सकता है । जब उस अल्लाह भगवान की दृष्टि में मैं अपराधी नहीं हू तो आपके अनुसार मैं कैसे अपराधी हुआ ?”

”यह अपराध है । इसकी तुम्हें सख्त सजा मिलेगी । या तो तुम कलमा पड़ी या सजा के लिए तैयार रहो ।” काजी गुस्से से बोला । ”कोई किसी मानव को धर्म बदलने के लिए बाध्य नहीं करता । यह तो मानव की अपनी दृष्टि होती है कि वह किस दृष्टि से प्रभु के पास जाता है ।

जो भी सजा दें मुझे मंजूर है परंतु देह के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी हरिनाम छोड़ना स्वीकार नहीं ।” ”यह काफिर है । इसे इसके गुनाह के लिए बाइस बाजारों में घुमाया जाए और इसे इतने बेंत लगाए जाएं कि इसकी सांसें इसका साथ छोड़ दें ।” क्रोध में उन्हें सजा सुना दी गई ।

हुक्म की तामील हुई । हरिदास जी को घुमाते हुए बाजारों में बेंत लगाए जाने लगे । हरिनाम में लीन उन्होंने अपने प्राण को केंद्र में स्थिर कर लिया । बेंतों की मार से उनके मुख से ‘उफ’ तक न निकली । मारने वाले थक गए परंतु पिटने वाला अडिग रहा ।

चूंकि उन्होंने अपने प्राण केंद्र में स्थिर किए थे इसलिए सिपाहियों ने उन्हें मरा जानकर गंगा में फेंक दिया । परंतु जिसके जीवन की डोरी स्वय जगन्नाथ ने पकड़ी है उसे कौन मार सकता है ? वे भी चेतन होकर जीवित गंगा से निकल आए ।

अधिकारियों ने जब यह सुना तो भयभीत होकर हरिदास जी के चरण पकड़ लिए और क्षमा याचना करने लगे । साधु तो क्षमाशील होते हैं । इसी समय कृष्ण रूप स्वामी चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में हरिनाम की पावन सुधा बरसा रहे थे । हरिदास जी भी वहीं पहुच गए और महाप्रभु के सारिश्व में हरिनाम लेते रहे ।

फिर महाप्रभु की आज्ञा से वे एक अन्य संन्यासी नित्यानंद जी के साथ नगर-भर में हरिकीर्तन करते घूमने लगे । फिर वे पुरी में आ गए और वहीं कुटिया बनाकर जीवन पर्यंत रहे । संत हरिदास यवन ने हरिनाम के भक्तों की सख्या असंख्य कर दी थी । कितने ही उनके शिष्य थे । वह उन भगवद्‌भक्तों में से थे जो अपने साथ-साथ समस्त मानव जाति के उद्धार में प्रयासरत रहे और अपन शत्रुओं को भी हरिनाम की दीक्षा दी ।


Hindu Devote 13. भक्त धन्ना जाट |

धन्ना जी के पिता एक साधुसेवी सरल हृदय साधारण किसान थे । उनके यहां प्राय : विचरते हुए साधु-संत आकर एक-दो दिन टिक जाते थे । धन्ना जी की उस समय पाँच वर्ष की अवस्था थी ।

उनके घर एक ब्राह्मण पधारे । उन्होंने अपने हाथों कुएं से जल निकालकर स्नान किया और तब झोली में से शालिग्राम जी को निकालकर उनकी तुलसी चदन धूप दीप आदि से पूजा की । बालक धन्ना बड़े ध्यान से पूजा देख रहे थे । उन्होंने ब्राह्मण से कहा : ”पंडितजी ! मुझे भी एक मूर्ति दो ।

मैं भी पूजा करूंगा ।” भला जाट के लड़के को शालिग्राम कौन देता । बालक हठ करके रो रहा था । ब्राह्मण ने एक काला पत्थर पास से उठाकर देते हुए कहा : ”बेटा ! यही तुम्हारे भगवान हैं । तुम इनकी पूजा करो ।” बालक धन्ना को बड़ी प्रसन्नता हुई ।

अब वे अपने भगवान को कभी सिर पर रखते और कभी हृदय से लगाए घूमते । वे खेल-कूद भूलकर भगवान की पूजा में लग गए । ब्राह्मण को जैसे पूजा करते उन्होंने देखा था अपनी समझ से वैसी ही पूजा करने क्क आयोजन वे करने लगे ।

प्रात: स्नान करके अपने भगवान को उन्होंने नहलाया । चंदन न होने पर मिट्‌टी का तिलक कर दिया । तुलसीदल के बदले में पत्ते चढ़ाए । फूल चढ़ाए कुछ तिनके जलाकर धूप कर दी और दीपक दिखा दिया । हाथ जोड़कर प्रेम से प्रणाम किया ।

दोपहर में माता ने बाजरे की रोटियां खाने को दीं । धन्ना ने वे रोटियां भगवान के आगे रखकर आखें बद कर लीं । बीच-बीच में आखें थोड़ी खोलकर देखते भी जाते थे कि भगवान खाते हैं या नहीं । जब भगवान ने रोटी नहीं खाई तब इन्होंने हाथ जोड़कर बहुत प्रार्थना की ।

इस पर भी भगवान को भोग लगाते न देख इन्हें बड़ा दुख हुआ । शायद भगवान नाराज हैं इसी से मेरी दी हुई रोटी नहीं खाते । भगवान भूखे रहें और स्वयं खा लें यह उनकी समझ में नहीं आया । रोटी उठाकर वे जंगल में फेंक आए ।

ठाकुरजी खाते नहीं और धन्ना उपवास करते हैं। शरीर दुबला होता जा रहा है । माता-पिता को कुछ पता नहीं कि उनके लड़के को क्या हुआ है ? धन्ना को एक ही दुख है : ”ठाकुर जी उनसे नाराज हैं उनकी रोटी नहीं खाते ।” अपनी भूख-प्यास का उन्हें पता ही नहीं ।

कब तक ऐसे सरल बालक से ठाकुर जी नाराज रहते । बाजरे की इतनी मीठी प्रेमभरी रोटियों को खाने का मन उनका कहां तक न होता । एक दिन जब धन्ना ने रोटियां रखीं वे प्रकट हो गए और लगे भोग लगाने ।

जब आधी रोटी खा चुके तब हाथ पकड लिया बालक धन्ना ने : ”ठाकुर जी ! इतने दिनों तो तुम आए नहीं मुझे भूखों मारा और आज आए तो सब रोटी अकेले ही खा जाना चाहते हो ! मैं आज भी भूखों मरूं क्या ? मुझे क्या थोड़ी रोटी भी न दोगे ?”

प्रेम के भूखे ब्रजकुमार को धन्ना की रोटियों का स्वाद लग गया । अब नियमित रूप से धन्ना की रोटियों का नित्य भोग लगाने लगे । बाल्यकाल समाप्त होने पर धन्ना जी में गम्भीरता आई । भगवान ने भी इनके साथ अब बालक्रीड़ा करना बंद कर दिया । परम्परा की रक्षा के लिए प्रभु ने इन्हें दीक्षा लेने का आदेश दिया ।

धन्ना जी वहाँ से काशी गए और वहा पर श्री रामानंद जी से मंत्र ग्रहण किया । गुरुदेव की आज्ञा लेकर ये घर लौट आए । अब धन्नाजी को सबमें भगवान के दर्शन होने लगे । एक दिन पिता ने उन्हें खेत में गेहूं बोने भेजा । मार्ग में कुछ संत मिल गए । संतों ने भिक्षा मांगी ।

धन्ना तो सर्वत्र अपने भगवान को ही देखते थे । भूखे संत मांग रहे थे । धन्ना ने गेहूं संतों को दे दिया । यह जानकर कि माता-पिता असतुष्ट होंगे उन्हें दुख होगा ! इस भय से धन्ना जी ने खेत में हल घुमाया और इस प्रकार खेत जोत दिया जैसे गेहूं बो दिया हो ।

घर आकर उन्होंने कुछ कहा नहीं । धन्ना ने खेत में गेहूं बोया हो या न बोया हो उस खेत में तो बो ही दिया था जहा बोए बीज का भडार कभी घटता नहीं । भक्त की प्रतिष्ठा रखने और उसका महत्त्व बढ़ाने के लिए भगवान ने लीला  दिखाई । पृथ्वी देवी ने धन्ना के खेत को गेहूं के पौधों से भर दिया ।

चारों ओर लोग प्रशसा करने लगे कि इस वर्ष धन्ना का खेत ऐसा उठा है जैसा कभी कहीं सुना नहीं गया । पहले तो धन्नाजी को लगा कि लोग उनके सूखे खेत के कारण व्यग्य करते हैं पर अनेक लोगों से एक ही बात सुनकर वे स्वयं खेत देखने गए ।

जाकर जब हरा भरा लहलहाता खेत उन्होंने देखा तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । अपने प्रभु की अपार कृपा समझकर वे आनंदनिमग्न होकर भगवान का नाम लेकर गाते हुए नृत्य करने लगे ।


Hindu Devote 14. भक्त सेन नाई |

”जब भक्त लीन होकर भगवान के चरणों में समर्पित हो जाता है तो भगवान भी भाव-विह्वल होकर अपने भक्त की किसी भी सेवा के लिए तत्पर रहते हैं । भगवान अपने भक्त की आन बान शान की रक्षा के लिए ऐसी लीला रचते हैं कि भक्त सदैव प्रसन्नचित्त रहता है ।”

बुंदेलखंड राज्य में बाधवगढ़ नाम की एक नगरी थी । प्राकृतिक रूप से यह नगर अत्यंत समृद्ध था ही नगर के निवासी भी सभ्य सज्जन और सुसंस्कृत थे । इसी कारण बांधवगढ नगरी राज्य में प्रसिद्ध थी । राजा वीरसिंह भी बाधवगढ़ की संस्कृति से प्रसन्न रहते थे और उन्होंने बांधवगढ़ को ही अपनी राजधानी बनाया ।

नगर में सेन नाम का एक व्यक्ति था जो जाति से नाई था । वह कहने को तो राजसी नाई था परतु वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए कार्य करता था । भगवद्‌भक्त सेन नाई परम संतोषी उदार और विनयशील था । वह परिश्रम और उससे प्राप्त पारिश्रमिक से ही सतुष्ट रहता था ।

किसी से अनावश्यक मांग उसने की नहीं थी और न कभी उसे आवश्यकता पड़ी । राज्य व नगर निवासी उसके उदार स्वभाव की प्रशंसा करते न थकते थे । सेन नाई की दिनचर्या नियमित थी । वह प्रात काल स्नान ध्यान और प्रभु स्मरण करने के पश्चात नगर में जिस व्यक्ति के बाल बनाने होते बनाता और तब राजभवन जाता ।

वहां राजा को स्नान कराता तेल मालिश करने के बाद घर आकर भगवान के भजन में लीन हो जाता । एक दिन प्रात काल स्नान ध्यान व सुमिरन से निवृत्त होकर वह नगर में भ्रमण कर रहा था । किसी की दाढ़ी मूंछें व्यवस्थित होनी हों इसी उद्‌देश्य से अपने आगमन का संकेत भजन उच्च स्वर में गा रहा था ।

उसी नगर में एक साधु मंडली आई हुई थी । सेन नाई की भेंट एक जगह साधु मंडली से हो गई । संत-समागम का सुअवसर मिलने पर सेन नाई प्रसन्नचित हो उठा । उसने साधु मंडली की चरण धूल ली । ”महाराज ! कृपा करके गरीब की कुटिया पवित्र करें और मेरे घर जो भी रूखा-सूखा मिले ग्रहण करके मेरा उद्धार करें ।”

साधु तो भाव के भूखे होते हैं । चल पड़े । सेन नाई बड़े मनोयोग और भक्तिभाव से उनकी सेवा में जुट गए । साधुओं के आतिथ्य में इतने लीन हुए कि समय का ध्यान ही न रहा फिर सत्संग चला । सेन नाई तो बाहय संसार भूल गए कि उन्हें क्या करना है । दोपहर होने को आई ।

उधर राजा वीर सिंह को प्रतीक्षा करते-करते इतना समय हो गया तो उन्होंने एक दास को सेन नाई को बुलाने भेजा । दास राजमहल से निकला ही था कि सेन मिल गए । ”आज तुमने देर कर दी । महाराज तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।” सिपाही बोला ।

”भैया! आज ऐसा ही आवश्यक कार्य पड़ गया अन्यथा पहले कभी विलम्ब हुआ है ? महाराज क्रोधित होंगे । चलता हूं ।” सेन बोले । अपने कंधे पर उस्तरा, कैंची, दर्पण इत्यादि की पेटी लटकाए सेन लम्बे डगों से राजमहल में प्रविष्ट हो गए । आज उनके चेहरे पर अजीब-सी आभा थी ।

एक दिव्य तेज परिलक्षित हो रहा था । चाल में एक अनोखी नवीनता थी । वे राजा के सामने पहुंचे और प्रणाम किया । ”आज बड़े विलम्ब से पहुंचे सेन! हमें दरबार जाने को देर हो रही थी परंतु जब तक तुम्हारे हाथ से स्नान नहीं करते अच्छा नहीं लगता ।” राजा बोले ।

”महाराज की महानता का मैं क्या बखान करूं । आज मैं आपको स्नान की ऐसी क्रिया से परिचित कराऊंगा कि आप प्रसन्न हो उठेंगे ।” राजा हंस पड़े । तत्पश्चात सेन नाई ने उन्हें स्नान कराया शरीर पर सुगंधित तेल से मालिश की । राजा वीरसिंह को एक अलौकिक स्पर्श की अनुभूति हो रही थी ।

आज के स्नान और मालिश में जैसा आनंद मिला था वैसा आनन्द तो कभी नहीं मिला था । ”सेन! आज तो तुमने स्वर्गिक आनन्द दे दिया । हम इस आनन्द से बहुत प्रसन्न हैं । तुम्हारे हाथों का यह स्पर्श अनोखा है । हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे आज हम सेन के हाथों नहीं किसी दिव्य देव के हाथों नहाए हैं ।”

”यह तो आपकी कृपा है महाराज! जो इस तुच्छ को इस तरह सम्मान देते हैं ।” राजा उनकी प्रशंसा में जाने क्या कहे जा रहे थे । अन्तत: अपना काम समाप्त करके सेन वहां से लौट पड़े । इधर जब साधु संगत को भोजन कराकर सत्सगै सुनकर सेन ने उनकी विदाई की तब स्मरण आया कि राजा प्रतीक्षा करता होगा ।

समय देखा तो होश उड़ गए । दोपहर हो चुकी थी । राजा बहुत क्रोध में होंगे । यह सोचकर अपनी पेटी उठाई और दौड़ चले राजभवन की तरफ । चेहरे पर भय और चाल में तेजी थी । जाने आज महाराज क्या दंड देंगे । कहीं सेवा से ही निलम्बित न कर दें । राजमहल आ गया ।

राजद्वार पर पहुंचे तो द्वारपाल ने आश्चर्य और प्रशंसा से देखा । ”क्या बात है सेन! कुछ भूल गए क्या ?” द्वारपाल ने पूछा । ”नहीं तो! महाराज तो बहुत क्रोध में होंगे ?” ”क्रोध में क्यों ? अरे ! आज तो तुम्हारी सारे महल में प्रशंसा हो रही है । महाराज स्वयं तुम्हारी प्रशसा के गीत गाते फिर रहे हैं ।”

‘आज खैर नहीं ।’ सेन नाई ने सोचा । ”आज आपने महाराज पर क्या जादू कर दिया है जो आपके आज के कार्य से वह इतने प्रसन्न हैं ? कह रहे थे कि आज तो सेन के हाथों में कोई-दिव्य स्पर्श था !” सेन की समझ में कुछ नहीं आ सका । वे अंदर पहुंचे और राजदरबार मे घुसे ।

सामने दरबार लगा था । राजा सिंहासन पर विराजमान थे और उन्हीं का नाम लेकर कोई चर्चा हो रही थी । ”सेन के हाथों में जादुई स्पर्श था । आज उसने आते ही कहा था कि महाराज मैं एक नए अलौकिक स्नान की विद्या सीखकर आया हूं । और ऐसा ही हुआ । कितना कोमल स्पर्श था! जैसे रूई के फाहों से धीरे-धीरे शरीर पोंछता हो ।”

तभी सेन पर राजा की दृष्टि पड़ी । राजा सिंहासन छोड़कर दौड़कर सेन के पास आए । ”अरे सेन ! अभी तो तुम गए थे । क्या कोई आवश्यक कार्य पड़ गया ?” ”महाराज! आज विलम्ब हो गया ।” सेन ने हाथ जोड़े : ”कुछ साधु मिल गए । उनके सत्संग-सत्कार में भूल गया । क्षमा चाहता हूं ।”

”सेन! तुम क्या कह रहे हो । अभी तो तुम स्नान मालिश इत्यादि करके गए हो । सेन के अंतर्कपाट खुल गए । उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि भक्त की आन के लिए स्वय नाई का रूप धारण करने वाले मेरे प्रभु ही थे । अपने प्रति प्रभु का ऐसा प्रेम जानकर सेन की आखें बरस पड़ी ।

”महाराज! मैं तो अभी सीधा घर से आया हूँ । आप बड़े पुण्यात्मा हैं जो स्वयं श्रीभगवान के कर कमलों से स्नान किया उनके दिव्य दर्शन किए । मुझ अधम की आन के लिए उन ब्रजकिशोर ने लीला रची और नाई का रूप धारण किया ।” सेन रो पड़े ।

सारा राजदरबार व राजा इस सत्य को जानकर आनंदित हो उठे । राजा ने सेन के चरण ही पकडू लिए । ”महाभक्त सेन! राजपरिवार सदैव के लिए आपका ऋणी हो गया । आपकी ही भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीनारायण ने हमें दर्शन दिए और समस्त पापों का नाश किया ।”

सेन प्रेम विह्वल थे । भक्त ही भगवान स्वरूप हो गए थे । सब सेन की जय-जयकार करने लगे । भगवद्‌कृपा का यह अनोखा उदाहरण था ।


Hindu Devote 15. महाकवि भक्त जयदेव |

जिस कुल या वंश में कोई भगवद्‌भक्त जन्म लेता है तो उस कुल के समस्त पूर्वजों और वंशजों का उद्धार हो जाता है । वीरभूमि से दस कोस दूर केदुली गाव में भोजदेव और रामादेवी नाम के एक दम्पती रहते थे जो कृष्णमार्ग के अनुयायी थे ।

कृष्ण में अपार स्नेह श्रद्धा रखने के कारण इनकी अभिलाषा थी कि इनके घर में पुत्र पैदा हो जो कि कृष्ण जैसा हो । भगवान कब भक्त की इच्छा की अवहेलना करते हैं । सम्बत् 1107 में इनके घर पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम जयदेव रखा गया ।

माता-पिता के संस्कार और भगवान कृष्ण के प्रति आस्था को रक्त में लेकर जन्मे जयदेव भी श्रीकृष्ण के उपासक थे । दैवयोग से बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । जयदेव यद्यपि अल्प आयु के बालक थे ।

अन्य लोगों ने माता-पिता के स्वर्गवास को इनके जीवन पर आघात बताया परंतु जयदेव ने इस आघात को भगवद्‌भक्ति का निष्कंटक मार्ग समझकर वैराग्य से प्रीति लगाई और अपने जीवन को वह दिशा दे दी जिसके लिए बड़े-बड़े ज्ञानी तरसते हैं ।

वैरागी होकर इनके होंठों पर कृष्ण का ही नाम रहता था । यह जगन्नाथजी से प्रीति लगाकर पुरुषोत्तम क्षेत्र पहुंच गए जहां जगन्नाथजी की महिमा सर्वत्र फैली हुई थी । जब जगन्नाथजी की यात्रा प्रारम्भ होती थी तो दूर-दूर से भक्त और कृष्ण भक्त आते थे ।

जयदेव ने पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही एक विद्वान ब्राह्मण से कुछ समय विद्याध्ययन किया था और अब वह क्षेत्र ही इनकी भक्ति का केंद्र बन गया था । वैरागी तो थे ही । एक कमंडल और गुदड़ी के अतिरिक्त कृष्णधारा की सुरीली तान ही इनका खजाना थी ।

एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने सखा भगवान को सुमिरते रहते थे । जगन्नाथजी अपने इस भक्त के सुमिरन से अत्यंत खुश थे । उन्होंने स्वप्न में एक ब्राह्मण को जयदेव के लिए एक संदेश दिया । “हे ब्राह्मण, मेरे मंदिर के समीप एक वृक्ष के तले मेरा परमभक्त जयदेव मेरे ध्यान में लीन है ।

वह एक उच्च गुणों वाला श्रेष्ठ भक्त है । तुम उसे अपनी कन्या दे दो और एक ऐसे यश के भागी बनो जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं ।”  जगन्नाथजी की आज्ञा से ब्राह्मण प्रात काल होते ही अपनी कन्या पद्‌मावती को लेकर जयदेव के पास पहुंचे और प्रभु की आज्ञा कह सुनाई ।

”ब्राह्मणदेव मैं तो वैरागी हूं । मेरी साधना में विवाह का स्थान कहा है । उचित होगा कि आप इस रूपवती के लिए कोई सुयोग्य वर की खोज करें ताकि यह आनंदमय जीवन व्यतीत कर सके ।” जयदेव ने सरल उत्तर दिया । ”जयदेवजी आपसे सुयोग्य वर मुझे कहा मिलेगा जिसके लिए स्वय प्रभु जगन्नाथजी ने मुझे आदेश दिया है ।”

”संभवत: आप सत्य कहते हो परंतु वही जगन्नाथजी ऐसे तो नहीं हैं जो मेरे हृदय से अपरिचित हों । क्या वह नहीं जानते कि मेरे हृदय में उनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं रह सकता ।” ”यह सब मैं नहीं जानता भक्त श्रेष्ठ!” ब्राह्मण ने कहा: ”मैं तो उनकी आज्ञा से यहा आया हूँ और मेरी पुत्री आपकी शरण में है ।

अब आप इसे रखें या न रखें यह आप पर निर्भर है । मैं तो अपने ऋण से उऋण हो गया ।” इतना कहकर ब्राह्मण पद्‌मावती को वहीं छोड्‌कर चले गए । ”हे सुंदरी आपके पिताश्री की बाध्यता तो आस्था है परंतु आप तो शिक्षित हैं । अत: आप मेरी विवशता समझें और…।”

”स्वामी मेरे पिता ने मुझे आपकी शरण में दिया है । अब मेरा भी यही कर्त्तव्य है कि एक हिन्दू पुत्री का कर्त्तव्य निभाऊं । मेरा लौटना मेरे कुल के लिए उचित नहीं और न ही स्त्री के लिए ।” जयदेव दुविधा में पड़ गए । पद्‌मावती मन से उन्हें अपना पति वरण कर चुकी थी ।

अंतत: एक रात जगन्नाथजी ने जयदेव को भी स्वप्न में दर्शन दिए और उन्हें विवाह की आज्ञा दी । अब जयदेव कैसे पद्‌मावती का तिरस्कार करते ?  फलत: उन्होंने पद्‌मावती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया । पद्‌मावती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वहीं एक कुटिया बनाकर वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे ।

जगन्नाथजी का स्मरण और नाम ही उन दोनों का प्रतिक्षण कार्य था । पद्‌मावती भी चिंतनशील युवती थी । शीघ्र ही वह जयदेव के हृदय में प्रेरणा बनकर अंकित हो गई और तब ‘गीत गोविंद’ का जन्म हुआ । ‘गीत गोविंद’ एक ऐसा कालजयी काव्य है, जिसमें समस्त रस एक साथ इस तरह मिश्रित किए गए जिन्हें भुला देना सरल नहीं है ।

जयदेव के कवि हृदय में नवीन विचार भी आते रहते थे जिन पर वे पूर्ण चिंतन करते थे । जब उन्होंने ‘गीत गोविंद’ के नौ सर्ग लिख लिए और दसवां सर्ग लिख रहे थे तो उनके हृदय में राधा-कृष्ण से सम्बंधित एक नवीन विचार आया ।

जब रासबिहारी भगवान कृष्ण अपना कोई अपराध क्षमा कराने के लिए राधिकाजी से विनती करते हैं तो जयदेव ने उस विनय को एक अनोखे अदाज में विचार लिया ।  ‘देवपद पल्लव मुरारम’ अर्थात-हे राधे, तुम मेरा अपराध क्षमा करो और अपने चरण-कमलों को मेरे सिर पर रखो ।

जयदेव के इस पद में राधा के प्रति कृष्ण की प्रेमोपासना छुपी थी परतु फिर जयदेव ने ही इस विचार को स्थगित किया । उन्होंने सोचा कि जो कृष्ण जगत के पालक और परमगुरु हैं वह अपनी प्रेयसी के चरणों में गिरें यह उचित न होगा । अत: उन्होंने उस पद को वहीं छोड़ा और स्नान करने चल पड़े ।

उनकी पत्नी पदमावती कुटिया में ही थीं । कुछ ही देर पश्चात जयदेव पुन: लौटे और अपनी लेखनी उठाई उस छद को उसी प्रकार पूर्ण करके जैसा उन्होंने सोचा था फिर स्नान को लौट पड़े । ”आर्यपुत्र लगता है आपका वह छद पूर्ण हो गया ।” पद्‌मावती ने कहा: ”तभी आप स्नान मार्ग से ही लौट आए ।”

जयदेव तीनों लोकों को मुग्ध कर देने वाली मुस्कराहट बिखेरकर वहा से चल दिए । पद्‌मावती उन्हें जाते हुए देखती रही और फिर अपने कार्य में जुटी ही थीं कि जयदेव स्नान करके लौटते दिखाई दिए । ”हे स्वामी यह क्या आश्चर्य है ।” पद्‌मावती ने कहा: ”अभी कुछ क्षणों पूर्व ही तो आप छंद पूर्ति करके गए हैं । इतनी शीघ्र स्नान करके भी लौट आए?”

“क्या कह रही हो प्रिये!” जयदेव भी आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने अपनी लेखन पुस्तिका खोलकर देखी तो उनके विचार को एक सुंदर हस्तलेख में लिखा गया था । वह रासबिहारी का रास समझ गए । ”हे देवी!” वह पद्‌मावती से भाव विह्वल होकर बोले: ”मैं आज धन्य हो गया कि तुम जैसी महाभाग और कृष्ण की उपासिका मुझे पत्नी रूप में मिली ।

तुम साक्षात भगवान कृष्ण का दर्शन कर चुकीं जो स्वयं मुझ अभागे की दुविधा दूर करने आए थे ।” पद्‌मावती आश्चर्यचकित भी थी और अति प्रसन्न भी । अब उन्हें उस त्रिलोक को मुग्ध करने वाली मुस्कान का रहस्य समझ आ गया था । वह स्वयं को धन्य समझने लगीं ।

और इस तरह जयदेव का गीत गोविंद बारह सर्गों में पूर्ण हुआ । कुछ ही समय में गीतगोविंद अत्यंत लोकप्रिय और चर्चित हो गया । प्रत्येक भक्त के मुख से गीतगोविंद के छद निकल रहे थे । एक दिन पुरी का राजा सात्विक राम जब सायंकाल भगवान जगन्नाथ के दर्शनों को पहुंचा तो यह देखकर उसके क्रोध का पारावार न रहा कि भगवान का महीन जामा फटा हुआ है उसमें कांटे लगे हैं और भगवान के श्रीमुख पर धूल जमी हुई है ।

उसने इसे मंदिर के पुजारी का अपराध समझकर पुजारी को बुलाया । ”पुजारीजी आप यहां पूजा करते हैं या पाखंड ? भगवान जगन्नाथ की तरफ देखिए । इनका जामा फटा है कांटे लगे हैं धूल जमी है ।”  सात्विक राम ने क्रोध से गरजकर कहा : ”आप यहां किसलिए हैं ?”

”महाराज अभी कुछ समय पूर्व तो सब कुशल था ।” ”आप झूठ भी बोल रहे हैं । कुछ ही समय में यह दशा । आपने तो अक्षम्य अपराध किया है जिसका दंड आपको अवश्य ही मिलना चाहिए ।” पुजारीजी निर्दोष होने के कारण दुखी होने लगे ।

”ठहरो राजन्!” तभी भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के होंठों से स्वर निकला: “इसमें इनका कोई दोष नहीं है । मेरी यह दशा तो स्वय मेरे कारण हुई है । कुछ समय पूर्व ही तो पुजारीजी ने मुझे वस्त्र पहनाए और स्नान भी कराया था परतु तभी मुझे एक सुंदर मधुर स्वर सुनाई पड़ा तो मैं अपने-आपको न रोक सका ।

मैं स्वर के समीप पहुंचा तो एक बगीचे में एक बालिका एक छद गा रही थी । मैं उसी के पीछे-पीछे चलकर छद सुनता रहा तो अवश्य ही कहीं झाडू में मेरे कपड़े उलझ गए होंगे । मुझे वह छद अति मधुर लगे थे राजन् ।”

”हे प्रभो, हे जगत के स्वामी, वह कौन से छद हैं जो आपको इतने प्रिय हैं कि आप मंदिर छोड्‌कर झाड़ियों-बगीचों में पहुंच गए?” राजा ने विनय की : ”नाथ हमें भी बताइए ।” ‘धीर समीरे यमुना तीरे, वसति वने वनवारी ।’ ”यह तो जयदेवजी के गीतगोविंद की अष्टपदी है ।” राजा को पुजारी जी ने बताया ।

”पुजारी जी, अब मंदिर में नित्य गीतगोविंद का पाठ हुआ करेगा ।” राजा ने आदेश दिया और उस दिन से नित्य मंदिर में गीतगोविंद का पाठ होता है । जयदेव पर जगन्नाथजी का वात्सल्य ही अधिक था । एक बार शरद ऋतु में जयदेवजी अपनी कुटिया के छप्पर को बना रहे थे ।

पद्‌मावती नीचे खड़ी उन्हें फूस पकड़ा रही थीं । काफी समय व्यतीत हो गया तो पद्‌मावती को भोजन बनाने की सुधि आई । पद्‌मावती रसोई में चली गईं । जयदेव अकेले कार्य करने लगे । परंतु वह ध्यानमग्न थे और कार्य में तल्लीन थे ।

उनके परिश्रम पर राधामाधव भी पसीज गए और स्वय वहां आकर उन्हें फूस पकड़ने लगे । जयदेव तो अपने इष्ट के ध्यान में इतने मग्न थे कि उन्हें आभास तक न हो सका कि अब पद्‌मावती के स्थान पर स्वयं जगत बिहारी उन्हें फूंस पकड़ा रहे हैं । अंतत: काम समाप्त हुआ और वे नीचे उतरे ।

तब उन्होंने देखा कि वहां पद्‌मावती नहीं थीं । वहां तो कोई भी नहीं था । वह आश्चर्य में पड़े अंदर पहुंचे तो वहां पद्‌मावती को रसोई में भोजन तैयार करते देखा । उनके हृदय में एक उत्कंठा जाग्रत हुई और वे राधामाधव की मूर्ति के समक्ष पहुंचे तो देखा कि रासबिहारी के हाथों में कालिख लगी थी । निश्चय हो गया कि उन्हें फूंस पकड़ाने वाले स्वयं राधामाधव थे ।

यह प्रेम और आस्था का अनूठा उदाहरण था । जयदेव जी की कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी थी । लोग उन्हें सच्चा प्रभु-पात्र कहने लगे थे । जयदेव जी के हृदय के रोम-रोम में कृष्ण बस गए थे और अपनी इसी आस्था के बल पर उन्होंने अपनी कुटिया में राधामाधव का उत्सव करने का सकल्प किया और द्रव्य सग्रह करने के लिए पदयात्रा शुरू की ।

वे जहां भी जाते लोगों की भीड़ लग जाती और सब अपनी श्रद्धानुसार उन्हें धन देते । एक दिन जगंल में कुछ डाकुओं ने उन्हें घेर लिया और उनसे सारा धन छीनकर उन्हें कुएं में डाल दिया । दुष्ट डाकुओं ने उनके हाथ-पैर भी काट डाले थे ।

जयदेव अंगविहीन होकर कुएं में पड़े ‘कृष्ण-कृष्ण’ का जाप कर रहे थे । न उन्हें पीड़ा का आभास था न मृत्यु का भय । बांके बिहारी अपने भक्त से कैसे विमुख हो सकते थे ? जब भक्त कष्ट में होता है तो भगवान भी व्याकुल हो जाते हैं ! उसी समय वहां से राजा की सवारी गुजरी जो उस वन में आखेट के लिए आया हुआ था ।

राजा के किसी अनुचर ने कुए से आती कृष्ण-कृष्ण की ध्वनि सुनी और राजा को बताया । तत्काल राजा की आज्ञा से जयदेव को बाहर निकाला गया । जंयदेव पीड़ा की अधिकता से मूर्च्छित हो चुके थे । एक अनुचर ने उन्हें पहचान लिया और राजा को बताया कि वे भक्त शिरोमणि जयदेव हैं ।

राजा उन्हें महल में लाया और उपचार कराया । जयदेव जी स्वस्थ हो गए और राजा से जाने की आज्ञा मांगी । परंतु राजा ने अनुनय-विनय करके उन्हें वहीं रहने को मना लिया और उनकी पत्नी पद्‌मावती को भी वहीं बुला लिया । स्वयं रानी पद्‌मावती की सेवा में तत्पर हो गई । एक दिन रानी और पद्‌मावती में वार्तालाप हो रहा था ।

”मेरे भाई की मृत्यु के पश्चात मेरी भारज भी उन्हीं के साथ सती हुई थी ।” रानी ने कहा । ”प्रीति की यही रीति होती है ।” पद्‌मावती सहज भाव से बोली: ”यही एक सुहागन का व्रत होता है और यही उसका मोक्ष ।” रानी ने पद्‌मावती की परीक्षा लेने का मन बनायौ और एक दिन जयदेव को राजा के साथ बगीचे में भेज दिया और योजनानुसार एक दासी ने महल में आकर खबर दी ।

”महारानी जी महात्मा जयदेव का स्वर्गवास हो गया ।” दासी ने कहा । रानी रोने लगी । पद्‌मावती भी वहीं थीं । वह सब समझ रही थीं परतु परीक्षा देना भी भक्त का कार्य है । अत: उन्होंने उसी क्षण अपने प्राण त्याग दिए । रानी हतप्रभ रह गई और उसने राजा को सब वृत्तांत कहा ।

अपनी रानी के इस कृत्य से राजा को दुख ही नहीं हुआ बल्कि स्वयं को दोषी मानकर अपने जीवन का अंत करने लगा । जयदेव जी ने यह समाचार सुना तो उन्होंने राजा को समझाया और अतत: गीतगोविंद की अष्टपदी का गान किया तो पद्‌मावती जीवित हो उठीं ।

राजा सहित समस्त नर-नारी उस चमत्कार पर नतमस्तक हो गए । राजा के प्राणों की रक्षा हो चुकी थी अत: पद्‌मावती ने अपने पति की आज्ञा लेकर उसी क्षण पुन: स्वांस छोड़ दिया । कुछ समय पश्चात जयदेव अपने गांव केंदुली आ गए । वृद्धावस्था और अंगविहीन होने पर भी वह प्रतिदिन 5 मील दूर गंगा स्नान करने जाते थे ।

भगवान ने अपने भक्त पर असीम अनुकम्पा की और गगा मैया की पावन धारा जयदेव जी की कुटिया के समीप बहने लगी । यह धारा जयदेवी गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । जयदेव ने जीवन-मरण का नियम मानते हुए केंदुली में ही शरीर त्यागा और गोलोक को गए ।

आज भी माघ की मकर संक्रांति को वहां विशाल मेला लगता है और हजारों वैष्णव श्रद्धालु जयदेवी गंगा में स्नान करते हुए गीतगोविंद का गान करते हैं । भक्त शिरोमणि कृष्णप्रेमी जयदेव मृत्योपरांत भी जनमानस की स्मृति में जीवित हैं ।


Hindu Devote 16. कृष्णभक्त नंददास |

विक्रम संवत् 1570 में सूकर क्षेत्र में श्री नददास का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम जीवाराम था । कहा जाता है कि श्री नंददास ‘रामचरितमानस’ के प्रणेता और भगवान श्रीराम के परमभक्त तुलसीदासजी के चचेरे भाई थे ।

तुलसीदासजी इन्हें बहुत स्नेह करते थे । तुलसीदास के भक्तिमय जीवन का इन पर भी गहरा प्रभाव था । इसी कारण श्री नंददासजी भक्ति रस के पूर्ण मर्मज्ञ और ज्ञानी थे । एक बार काशी में वैष्णवों का एक दल भगवान कृष्य के दर्शन हेतु द्वारिका जा रहा था ।

नन्ददास भी अपने राम के कृष्णरूप के दर्शन को उद्वेलित हो उठे । उन्होंने तुलसीदासजी से आज्ञा मांगी । ”मैं भगवान राम के कृष्णरूप के दर्शन हेतु द्वारिका जाने की आज्ञा चाहता हूं । मर्यादा पुरुषोत्तम का प्रेमरूप कितना मनमोहक होगा ?”

”अवश्य जाओ भाई!” तुलसीदासजी ने आज्ञा दे दी । और नंददास उस वैष्णव दल के साथ द्वारिका की तरफ चल पडे । मार्ग में यह दल कितने ही संतों भक्तों के दर्शन कर रहा था । हर स्थान पर कृष्ण महिमा का गुणगान होता ।

कृष्ण के मनोहर रूप की झांकी का वर्णन सत इस प्रकार करते कि नंददास को प्रतीत होता कि श्यामल सूरत मयूर पंखधारी भगवान श्रीकृष्ण उनके समक्ष खड़े हैं । उन्हें भगवान कृष्ण में प्रीति लग गई और हर क्षण उनका हृदय व्याकुल हो उठा ।

उनका हृदय चाहता कि उन्हें पंख लग जाए और वह क्षण-भर में द्वारिका पहुंच जाएं । प्रीति एक जलतरंग वायुतरग की तरह होती है । जिससे प्रीति हो जाए उसके हृदय से वह तरंगित होकर टकराती है । नंददास की व्याकुलता चरम पर थी ।

वैष्णव दल ने उनकी यह स्थिति देखी तो उन्हें चलने में असमर्थ मानकर मथुरा में ही छोड्‌कर द्वारिका की तरफ बढ़ गया । नंददास अकेले रह गए । आगे बड़े तो महावन में मार्ग भटक गए । कालिन्दी के तट पर पहुच गए । वहां श्री यमुनाजी के पावन दर्शन पाकर हृदय प्रफुल्लित हो उठा ।

मोह-माया ये अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और नंददासजी को प्रणाम कर भाग ली । लौकिक माया गे बधन हटे तो अलौकिक माया का ज्ञान हो गया । द्वारिका में ही क्या ! कृष्ण तो ब्रज के कण-कण में निहित हैं जिसे चाह होती है उसे भगवान वहीं दर्शन दे देते हैं ।

उधर वैष्णव समाज द्वारिका पहुचा तो गोसाईं विट्‌ठलनाथजी के प्रथम दर्शन हुए । सर्वज्ञ और परमभक्त श्री स्वामी विट्‌ठलनाथ ने सबको देखा । “ब्राह्मण देवता को कहां छोड़ दिया भक्तगणो ?” गोसाईं ने पूछा । ”क…कौन” सभी आश्चर्य से बोले ।

”नंददासजी ? आपके साथ ही तो थे ? दिखाई तो नहीं दे रहे ?” ”वे तो चलने में असमर्थ थे । थकान के कारण जाने क्या-क्या बातें करने लगे ।”  ”भक्तो, जिसे स्वय ब्रजराय ने बुलाया हो उसे थकान कैसे सता सकती है ? नंददासजी तो ठाकुरजी के परमप्रिय हैं । आप लोग निश्चिंत रहें । हम अभी उन्हें सादर बुलाते हैं ।”

विट्‌ठलनाथजी ने अपना एक शिष्य नंददासजी को सविनय बुला लाने भेज दिया । शिष्य ने नंददासजी को खोज लिया और गोसाईजी की प्रार्थना कह डाली । नंददास तत्काल चल पड़े और गोसाईजी के दर्शन पाकर धन्य हो गए ।

गोसाईं ने स्नेह से उन्हें हृदय से लगाया और उन्हें दीक्षा देकर माखन चोर का दर्शन कराया । तत्पश्चात नददास ने बडे ही भाव और प्रेम से भगवान कृष्ण की लीला का काव्य वाणी में सरस गान किया । उनके हृदय में भगवतेम की सरिता बहने लगी ।

गोसाईजी भी भक्ति की उस सरिता के साक्षी थे । गुरु स्तुति का गान भी नददास ने वडे ही मधुर स्वर में किया । नंददास केवल भक्त ही नहीं थे बल्कि उच्चकोटि के कवि भी धे । उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को भाष्य रूप दे दिया । यह एक अनूठी उपलब्धि थी ।

भागवत का यह रूप बड़ा ही सरल और सुबोध था । विट्‌ठलनाथ जी बड़े हर्षित हुए । ”नंददास तुम्हारा यह अनुवाद अति उत्तम है परंतु इससे अन्य क्‌त लोगों की जीविका चली जाएगी ।” गोसाईजी ने कहा । और नंददास ने अपूर्व त्याग और निस्पृहता दिखाते हुए अपनी लिखित टीका यमुना की पवित्र धारा में अर्पण कर दी ।

ऐसे गुरुभक्त और सत शिरोमणि वक पाकर विट्‌ठलनाथजी भी आह्वादित हो उठे । महाकवि नंददास सत समाज में श्रद्धैय हा गए । परम कृष्णभक्त सूरदासजी नंददास के घनिष्ठ मित्रों में थे । कवि से कवि की मित्रता साहित्य का सोपान है ।

महाकवि सूर ने नंददास को बोध कराने के लिए ‘साहित्य लहरी’ की रचना कर दी । फिर एक दिन उन्होंने नंददास से कह दिया । ”मित्र, एक सच्चे सत की तरह तुममें वैराग्य का अभाव है । वैराग्य की भावना कुछ पाकर उसे छोड़ देने से प्रबल होती है । अत: तुम्हें घर जाकर वैराग्य का ज्ञान लेना चाहिए ।”

मित्र की राय अमूल्य होती है । नंददास घर लौट आए और अपना विवाह कर लिया । गृहस्थाश्रम में रहकर वैराग्य की उत्पत्ति कर लेना ही भक्ति है । उन्होंने अपने गांव रामपुर का नाम श्यामपुर रख दिया । गृहस्थ में रहकर भी कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं को माध्यम मानकर काव्य लिखते रहे ।

परंतु कृष्ण का आकर्षण किसे चैन से रहने देता है ? एक दिन सब कुछ त्यागकर गोवर्धन चले आए । मानसी गंगा पर निवास किया । आजीवन वहीं उन्होंने कृष्णनाम जपा । एक बार अकबर बादशाह की सभा में गायनगुरु तानसेन ने नंददास जी के एक पद को प्रेमपूर्वक गाया ।

उनके गायन में तो विशेषता थी ही परतु उस पद ने भी सारे दरबार को प्रेमोन्मत्त कर दिया । बादशाह अकबर तो जैसे झूम ही उठे । ”तानसेन इस सुंदर पद के रचयिता कौन हैं?” सम्राट ने पूछा । ”महाकवि नंददास ।” तानसेन ने बताया । तत्काल बादशाह ने तानसेन के साथ जाकर नंददास के दर्शन किए और उनसे सत्सर्ग का लाभ लिया ।

कृष्णनाम को काव्य के रूप में आयाम देने वाले और अपनी भक्ति से सबको कृष्णमय कर देने वाले महाकवि नंददासजी ने संवत् 1640 (सन् 1583) में कृष्णलोक में वास कर परमधाम प्राप्त किया ।  संत और भक्तों की ऐसी प्रेम और भक्तिभरी शृंखला में पुष्पमाला में गुंथे पुष्पों की भांति संतों को हमारा शत्-शत् नमन स्वीकार हो ।


Hindu Devote 17. भक्त नामदेव |

संवत् 1824 में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा रविवार को भगवद्‌भक्त दाया सेठ और गोणाई देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ । इस बालक का नाम नामदेव रखा गया । दाया सेठ जाति से दर्जी थे और हर समय भगवान के भजन में अपना समय व्यतीत करते थे ।

प्रात: काल ही भगवान विट्‌ठल को भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करते थे । माता-पिता से दिन-रात भगवन्नाम सुनते-सुनते नामदेव की भी ली भगवान से लग गई । यह भी माता-पिता के साथ भगवान का भजन और आरती करते ।

एक दिन प्रात: काल इनके पिता को किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ गया । जाने से पूर्व वे नामदेव को ही विट्‌ठलजी की पूजा-अर्चना का कार्य सौंप गए । बालक नामदेव ये स्नान किया और विट्‌ठलजी को भी स्नान कराकर चंदन पुष्पादि चढ़ाए और दूध का पात्र विट्‌ठलजी के सामने रखकर उनसे दूध पीने का आग्रह करने लगे ।

आखें बद किए विट्‌ठलजी के समक्ष नामदेव का वह बाल आग्रह कितना निश्छल था ! कुछ समय वाद उन्हाने नेत्र खोले तो दूध ज्यों-का-त्यों पाया । ”भगवन्, मुझसे क्या अपराध हो गया है ? क्या बालक जानकर आप मुझे बहका रहे हैं ? कृपा करके दूध पी लीजिए ।”

ऐसा कहकर उन्होंने पुन: नेत्र बंद कर लिए, परंतु फिर भी दूध ज्यों-का-त्यों रखा हुआ था । नामदेव को बड़ा दुख हुआ । “भगवन्, यदि आप दूध नहीं पीते तो मैं भी कभी दूध नहीं पिऊंगा ।” इस बालहठ और करुण पुकार ने भगवान को भी पिघला दिया ।

उनकी आस्था देखकर भगवान ने प्रकट होकर दूध पी लिया । अब तो बालक नामदेव को रास्ता मिल गया था । वह जो भी पदार्थ भोग लगाते उसे पहले भगवान को खान वर बाध्य कर देते । इस प्रकार भगवान के उस बालभक्त की भक्ति पराकाष्ठा पर पहुच गइ उन्हे भगवद्‌भजन के सिवाय कुछ और नहीं सूझता था ।

युवावस्था आने पर उनका विवाह सठ सदावतें की कन्या रजाई के साथ हुआ । रजाई सुशील और सदाचारी कन्या तो था ही धमपरायण पत्नी भी थी । कुछ समय पश्चात दाया सेठ का निधन हो गया और गृहस्थी का भार नामदेव के कंधों पर आ पड़ा ।

उनकी माता तथा पत्नी ने उन्हें व्यापार संभालने को कहा परतु गृहस्थी और व्यापार में उनका मन ही नहीं लगता था । वे तो भगवद्‌भजन के अलावा कुछ करना ही नहीं चाहते थे और वहां से आकर वे पण्डरपुर में रहने लगे ।

यहां प्रात: काल चद्रभागा में स्थान करते और भगवान का भजन और कीर्तन करते रहते । भक्त पुण्डलीक पण्डरपुर में ख्याति प्राप्त थे । नामदेव उनके दर्शन करते । संत ज्ञानेश्वर से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी । नामदेवजी के जीवन में अनेक चमत्कार हुए जो उनकी भक्ति की प्रबलता के संकेत रहे ।

एक बार पण्डरपुर में रहते हुए इनकी कुटिया में आग लग गई । आग एक तरफ ही लगी थी । नामदेवजी दूसरी तरफ की चीजों को भी उठा-उठाकर आग में फेंकने लगे । लोग आश्चर्यचकित थे परतु नामद्‌व तो प्रसन्नता से नाच रहे थे ।

”प्रभु आप एक तरफ से ही क्यों प्रज्वलित हुए?” नामदेव कह न रहे थे । कुछ ही देर में आग स्वत: ही बुझ गई और जाने कहां से एक अपरिचित मजदूर ने आकर कुटिया की मरम्मत कर दी और बिना कुछ लिए ही सिर्फ मुस्कराकर वहां से चल पड़ा ।

कुछ दूर तक जाता तो उसे सबने देखा फिर यू लोप हो गया जैसे हवा में विलीन हो गया हो । एक बार नामदेव भ्रमण करते हुए एक गांव में पहुंचे । उस गांव में एक निर्धन खंडहर  मकान था जिसमें नामदेव ठहरे । उस मकान में रात्रि को ही वडो डगवनी आवाजें आईं और एक भयंकर आकृति हुंकारती-सी इनके समक्ष आ गई ।

नामदव ने देखा कि वह कोई ब्रह्मराक्षस जैसी आकृति थी । उन्होंने उसे प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक कहा : ”प्रभु आप भी कितने अद्‌भुत रूप धारण कर लेते हो ।” बिना भयभीत हुए हो प्रभु कि कीर्तन करने लगे । क्षण-भर में ही दृश्य बदला और ब्रह्मराक्षस के स्थान दर अउ चक्र गदा और पद्‌मधारी भगवान विष्णु खड़े थे ! नामदेव भाव-विह्वेल होकर उनके चरणों में गिर पड़े ।

नामदेव को महाराष्ट्र में चलने वाले ‘बारकरी’ पंथ का सस्थाण्क कहा जाता है जिसमें भगवान की भक्ति की गई है । उन्होंने मवाड़ी छंदों में ईश्वर का न किया है । ये छद महाराष्ट्र में अभंग कहे जाते हैं । नामदेव ने इन अभंग छंदों में भक्तों को निंदा पाखंड और अहंकार से बचे रहने का मूलमंत्र दिया है ।

इस प्रकार भगवद्‌भक्त नामदेव संवत् 1407 में इस नश्वरता के बंधन तोड़कर परमात्मा से जा मिले । 80 वर्ष तक जनमानस को भक्ति की महत्ता समझाकर यह महान आत्मा अपने अंतिम सफर पर चली गई ।


Hindu Devote 18. भक्त नरहरिदेवजी |

बुंदेलखंड में गूड़ों नाम का एक ग्राम था । इसी गांव’ में विष्णुदास और उत्तमा देवी नाम के दम्पती रहते थे । साधारण जीवन जीते हुए दम्पती भगवान का भजन भी करते और साधुसेवा भी करते ।

विक्रम सवत् 1640 (सन् 1583) में उत्तमा देवी के गर्भ से एक दिव्य बालक ने जन्म लिया । बालक का रूप-स्वरूप अत्यत आकर्षक और मनमोहक था । जैसे-जैसे यह बालक बड़ा होता गया इसका व्यक्तित्व आकर्षक होता गया । माता-पिता ने बालक का नाम नरहरि रखा ।

बाल्यावस्था से भक्ति और धर्म के प्रति नरहरि के हृदय में आस्था थी । अपने हमउम्र बालकों में नरहरि सबसे विलक्षण था । उसकी बौद्धिक क्षमता और विश्लेषण क्रिया के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान भी आश्चर्यचकित हो उठते । जिस प्रकार सुगंध दूर-दूर जाकर भ्रमर को पुष्प का पता बताती है उसी प्रकार सत्पुरुष की ख्याति दूर तक जाती है ।

नरहरि के भक्तिभाव और ज्ञान से सब उसका सम्मान करते थे । उसी समय पास के किसी गाव में एक धनधान्य से समृद्ध वैश्य कुष्ठ रोग से पीड़ित था । उसके पास सबकुछ होते हुए भी लोग उसके पास बैठने से कतराते थे ।

उसका रोग लोगों में उसके प्रति घृणा का कारण बन गया था । जब किसी भी उपचार से उसे कोई लाभ न हुआ तो उसने ईश्वर का साथ पकड़ा । ”हे कृपानिधान मैंने किस जन्म में कौन अपराध किया है जिसका मुझे यह दंड मिला है ।” उसने रोज प्रभु से विनती की: “मेरे पास सबकुछ है पर निरोगी काया न होने से मैं उपेक्षा का पात्र हूं ।

यदि मैंने कोई पूर्वजन्म में अपराध किया है तो मुझे क्षमा करें करुणासागर ।” उसी रात उसकी सच्चे मन की प्रार्थना स्वीकार हो गई । ”तेरी सच्ची पुकार मैंने सुन ली है ।” भगवान ने स्वप्न में कहा: ”पूर्वजन्म में किए पापकर्मों से तुझे यह दंड मिला था ।

यदि तू अब भी धर्मपथ पर चलने का वादा करे तो मैं तुझे इस रोग से मुक्ति पाने का मार्ग बता सकता हूं ।” ”भगवन्, मैं संकल्प करता हूं कि स्वयं को आपको समर्पित कर दूंगा ।” ”तो ठीक है । यहां से कुछ दूरी पर ग्‌हेंनाम में मेरा परमभक्त नरहरि रहता है ।

उसके पास जा उसके चरणामृत पीने से तेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे ।” वैश्य ने उसी क्षण सकल्प किया कि वह अपना शेष जीवन प्रभु की भक्ति में  बिताएगा । भोर होते ही वह ग्छो गांव की ओर चल दिया । लोग उसे देखकर मृणा से मुंह फेर लेते थे और मार्ग छोड़कर एक तरफ हट जाते थे ।

”भाई मुझे सिद्धपुरुष नरहरि के दर्शन करने हैं ।” वैश्य ने एक व्यक्ति से याचनापूर्ण स्वर में पूछा: ”कृपा करके मुझे उनका निवास बताओ ।” ”सिद्धपुरुष..! और नरहरि ! हमारे गांव में तो एक भक्त नरहरि है ।” व्यक्ति ने कहा ।  ”मुझे उन्हीं के पास जाना है ।

मुझे भगवान ने स्वप्न में बताया है कि मेरा यह कुष्ठ रोग उन्हीं सिद्धपुरुष के चरणामृत-पान करने से ठीक होगा ।” वह व्यक्ति हंस पड़ा और अन्य लोगों को भी यह बात बताई । सभी वैश्य को मूर्ख कहकर हंसी का पात्र बनाने लगे ।

”चल भाई कोढ़ी! हम भी देखें कि नरहरि कब से सिद्ध पुरुष हो गया ।” वैश्य को नरहरि के पास लाया गया । नरहरि ने भी उसकी बात सुनी और उसकी आखों में सत्य का आभास किया । वैश्य ने बड़ी श्रद्धा सै नरहरि के चरण धोए और चरणामृत पिया ।

यह आस्था थी या कि चमत्कार! उसी क्षण वह निरोगी हो गया । कुष्ठ मिट गया । वहां उपस्थित सभी ग्रामवासियों ने ‘नरहरिदैव की जय’ का घोष किया । उसी दिन से नरहरि में लोगों की श्रद्धा और आस्था वढ़ गइ धीरे-धीरे नरहरि की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी ।

नरहरिदेव ने नित्य नियम बना लिया कि वह भगवान की लीलाओं पर पद रचते और भावविभोर होकर गाते । भक्ति और भजन ही उनकी दिनचर्या वन गए थे । वृंदावन की मनमोहिनी महिमा ने उन्हें मोह लिया था । वह ब्रज चल दिए ।

जब यमुना के किनारे पहुंचे तो श्याम जल की लहराती जलराशि देखकर आनंदित हो उठे पापहारिणी यमुना के तट की माटी मस्तक पर धारण की । कैसी लुभावनी छटा थी वृदावन की !  दूर-दूर तक कृष्ण-कन्हैया की यशपताकाओं की शृंखला थी । मंदिरों पर लहराती पताकाएं कृष्णभक्ति में डूबी नाच रही लगती थीं ।

अब तो नरहरि के हृदय में भगवान के दर्शनों की इच्छा और व्याकुलता थी । वृंदावन की पवित्र भूमि का रज-रज कण-कण भगवान कृष्ण की भक्ति के गीत गा रहा था । नरहरि का मन भी प्रेम से भर उठा । वह भी गाने लगे । वे तन की सुधि-बुधि भूल गए ।

कृष्ण के नाम में तो ऐसा ही रस और भाव है । जिसके हृदय में कृष्ण की नामधुन ने स्थान कर लिया वह लोकलाज बिसराकर उन्मुक्त हो जाता है । यही तो प्रेम दीवानी मीरा के साथ हुआ । युद्धों की भूमि पर जन्मी मीराबाई ने कृष्ण-प्रेम का ऐसा अनूठा उदाहरण दिया कि मीरा का नाम युगों-युगों तक चिरस्मरणीय बना रहेगा ।

नरहरि को भी जब वृंदावन की माटी से कृष्ण नाम की धुन सुनाई पड़ी तो वह भी दीवाने हो गए और अपना हृदय उस पवित्र भूमि और कृष्ण नाम को समर्पित कर दिया । ऐसी ली लगी कि हर श्वास में कृष्ण ने वास कर लिया और जब कोई भक्त भगवान में लीन हो जाता तो भगवान भी अपने भक्त के दर्शन के लिए आतुर हो उठते हैं ।

नरहरिदेव सबकुछ भूलकर पद गा रहे थे । कृष्ण की प्रीति ने कंठ अवरुद्ध कर दिया और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़े । तत्काल एक वृद्धा ने आकर उनका हाथ पकडू लिया । कुछ समय बाद उन्हें चेत हुआ । वृद्धा के अधरों पर निश्छल मुस्कान थी ।

”भक्त तुम्हारी कृष्ण प्रीति सच्ची है । प्रीति को ज्ञान से सींचो और कृष्णमय हो जाओ । जाओ वृंदावन में परमविद्वान महात्मा सरसदेवजी तुम्हें तुम्हारे इष्ट से मिला देंगे ।” वृद्धा ने कहा । नरहरि को लगा जैसे कोई बलात उन्हें ले जा रहा था ।

वह क्षण-भर में महात्मा सरसदेव के समक्ष थे । नरहरिदेव को देखकर महात्माजी मुस्कराए । ”आ गए नरहरिदेव! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था ।” सरसदेवजी ने कहा : ”आओ तुम्हारी प्रीति को ज्ञान के जल से सींच दूं ।” नरहरि गुरु के चरणों में गिर पड़े ।

तब गुरुदेव ने उन्हें राधा-कृष्ण की रास-माधुरी का ज्ञान देना आरम्भ किया । गुरु की वाणी में ज्ञान का तो शिष्य के श्रवण में प्रीति थी और पैंतीस वर्ष की आयु में ही नरहरिदेव गुरुकृपा और कृष्ण की दया से उच्चकोटि के रसोपासक संतों में गिने जाने लगे ।

उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति और गुरुभक्ति ने महात्मा सरसदेव को भी आनंदित कर दिया था । अपना सम्पूर्ण जीवन प्रेम के पर्याय ब्रज के ठाकुर रासबिहारी श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित करके श्री नरहरिदेवजी ने विक्रम संवत् 1741 (सन् 1684) में निकुंज लीला में वास किया ।


Hindu Devote 19. श्री चैतन्य महाप्रभु |

‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ का संदेश भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में अर्जुन को दिया था । इसका तात्पर्य यह था कि जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब मैं जन्म लेता हूं ।

और भगवान ने गीता में दिया यह वचन निभाया भी है । जब-जब धर्म की अवनति होती है तब-तब ईश्वर किसी योगी महात्मा के रूप में अवतार लेते हैं और संदेश प्रचार आदि से धर्म की रक्षा करते हैं । चौदहवीं विक्रमी संवत् के समय पश्चिम बगाल में अंधविश्वासों और रुढ़िवादियों का बोलबाला था ।

नवद्वीप नाम के ग्राम में धारणा थी कि जब कोई नवजात शिशु जन्म लेता है तो शाकिनी डाकिनी नाम की चुड़ैल उस बालक का अनिष्ट करती हैं परंतु यदि बालक का नाम निमाई रख दिया जाए तो उसका कोई अनिष्ट नहीं होता ।

संवत् 1407 में फास्तुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को एक ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ । पंडित जगन्नाथ मिश्र की पत्नी शुचि देवी ने इस बालक को जन्म दिया जिसका नाम लोकधारणा के अनुसार निमाई रखा गया ।

बाल्यकाल में निमाई बड़े नटखट और क्रोधी थे । मनचाहा न होने पर ये रो-रोकर घर सिर पर उठा लेते थे । यद्यपि भगवद्‌भक्ति के संस्कार भी इनके अंदर थे । इनका रोना सुनकर इनकी माताश्री मधुर स्वर में हरिगान गातीं और यह रोना छोड़कर बड़े ध्यान से उसे सुनते ।

एक दिन एक अतिथि जगन्नाथ मिश्र के घर आए जो गोपाल मत्र से दीक्षित थे । जब उन्हें भोजन परोसा गया तो उन्होंने अपने इष्ट के सुमिरन में नेत्र बंद कर लिए । तभी बालक निमाई ने उनके भोजन में से एक कौर खा लिया ।

निमाई के माता-पिता ने निमाई को धमकाया और दोबारा भोजन परोसा परंतु निमाई ने फिर भोजन जूठा कर दिया । अतिथि भी बालक की धृष्टता पर रुष्ट हो उठे । निमाई ने तीसरी बार भी यही क्रिया दोहराई और जब पिता इन्हें मारने के लिए दौड़े तो निमाई ने मुरलीमनोहर का सुंदर स्वरूप दिखाकर उन्हें दर्शन दिए ।

विद्यार्थी काल में निमाई ने असाध्य परिश्रम से शिक्षा प्राप्त की । निमाई के बड़े भाई विश्वरूप उच्च शिक्षा प्राप्त कर संन्यासी हो गए थे । इसी भय से जगन्नाथ मिश्र ने निमाई की शिक्षा रोक दी । निमाई ने विरोध किया तो विवश पिता ने इन्हें पढ़ने की आज्ञा दे दी ।

कुछ समय बाद जगन्नाथ मिश्र का निधन हो गया । शुचि देवी को गहरा आघात तो लगा ही वे आर्थिक संकट में आ गईं । निमाई को इन बातों से क्या लेना था । ये उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने ध्येय मार्ग पर बढ़ते जा रहे थे । न्यायशास्त्र इनका प्रिय विषय था ।

इसी विषय को पढ़ने हेतु यह वासुदेव सार्वभौम की चतुष्पाठी में पहुंचे । वहीं उन दिनों प्रसिद्ध न्यायवेत्ता रघुनाथ शिरोमणि भी शिक्षा ले रहे थे । उस समय रघुनाथजी, अपना शोधपत्र ‘दीधिति ‘ लिख रहे थे । चैतन्य जो निमाई का ही नाम था भी न्यायिक विषय पर कोई ग्रंथ लिख रहे थे ।

एक दिन दोनों विद्वान नदी में सैर कर रहे थे । चैतन्य ने अपने ग्रथ के बारे में बताना शुरू किया । रघुनाथजी सुनते-सुनते चिंतातुर हो उठे । ”क्या हुआ मित्र?” चैतन्य ने पूछा । ”मित्र, नि:संदेह तुम्हारा लेखन मेरे लेखन से अधिक श्रेष्ठ है । जो तुम्हारा लिखा ग्रंथ पढ़ लेगा, वह मेरा ग्रंथ क्योंकर पढ़ेगा ।” रघुनाथ बोले ।

”यदि ऐसी बात है तो आज मैं संकल्प करता हूं कि सिर्फ तुम्हारा ग्रथ ही लोग पड़ेंगे । मैं अपना ग्रंथ नहीं लिखूंगा ।” और चैतन्य ने अपना लिखा ग्रंथ नदी में प्रवाहित कर दिया और तभी से उनका न्यायशास्त्र पढ़ना भी बद हो गया ।

फिर इन्होंने चंडीमंडप में स्वयॅ की चतुष्पाठी खोली । 16 वर्ष की अवस्था में ही इनका शास्त्र ज्ञान अपार था । अत: इनकी चतुष्पाठी में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सैकड़ों छात्र आने लगे । फिर पितृपक्ष में श्राद्ध हेतु चैतन्य पवित्र तीर्थ गया गए ।

इनके साथ इनके कुछ शिष्य भी थे और ईश्वरपुरी नाम के ब्राह्मण भी थे । गया में चैतन्य विष्णु पदचिन्हों के दर्शन हेतु पहुंचे । जब वहां के पुजारी ने पदचिन्हों का आवरण हटाकर विष्णु की महिमा का गान किया तो चैतन्य अपनी सुध-बुध खो बैठे ।

इनके शरीर से स्वेद बह उठा । इनके इस भाव को देखकर अन्य लोग अचम्भित रह गए । ईश्वरपुरी ने इन्हें संभाला और जब इन्हें बास्प ज्ञान हुआ तो इन्होंने ईश्वरपुरी से ही दीक्षा मंत्र लिया और स्वयं को उनके प्रति ही समर्पित कर दिया । वे कृष्ण के प्रेम में डूब गए । कुछ समय पश्चात ईश्वरपुरी अदृश्य हो गए ।

गुरु वियोग ने चैतन्य के हृदय को अधीर कर दिया । इनकी चंचलता कहीं विलीन हो गई और ये धीर-गम्भीर बन गए । कुछ दिन बाद तो ये मौन ही हो गए । बहुत आवश्यक होने पर ही ये कुछ कहते-सुनते थे । जब भी बोलते अपने नटवरनागर का ही वर्णन करते ।

कीर्तन करते । भजन गाते । कृष्ण प्रेम में मस्त हो जाते । चैतन्य ने अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और कृष्ण नाम की महिमा गाने लगे । इनकी माता चिंतित थीं । एक पुत्र पूर्व में योगी हो गया था और दूसरा भी उसी मार्ग पर चल पड़ा था ।

माता ने पुत्र से बात की तो पुत्र ने भक्ति का ऐसा व्याख्यान दिया कि माता अपने पुत्र पर गर्व कर उठीं । चैतन्य के एक निकट आत्मीय श्रीवास चैतन्य की आध्यात्मिक शक्तियों का तब आभास कर चुके थे जब चैतन्य ने एक आम की गुठली बोई जो देखते-ही-देखते वृक्ष बन गई और उस पर फल लगकर पकने लगे थे ।

श्रीवास भी विद्वान थे । वह चैतन्य को कृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनाते । चैतन्य ने एक दिन कृष्ण लीला करने का विचार किया । वैष्णव मंडली के सहयोग से कृष्प लीला का मचन हुआ जिसमें चैतन्य ने राधारानी की ऐसी सजीव जीवंत भूमिका, निभाई कि सब भावविभोर हो गए ।

फिर एक दिन चैतन्य ने स्वप्न में एक दिव्य मूर्ति देखी । ”तुम ईश्वर के जिस कार्य से आए हो, उसे स्मरण करो और शीघ्र ही सन्यास की दीक्षा लेकर जनकल्याण करो ।” दिव्यमूर्ति ने कहा । चैतन्य अपनी पत्नी और माता के कारण सन्यास नहीं चाहते थे परतु एक दिन इन्हें साक्षात उस महानमूर्ति के दर्शन हुए जिसने स्वप्न में इन्हें सन्यास लेने की राय दी थी ।

यह महापुरुष कश्मीरी दिग्विजयी विद्वान केशव भारती थे । अत में उत्तरायण संक्रांति के दिन चैतन्य को केशव भारती ने दीक्षा देकर इनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य रखा । दीक्षा के पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य अपने गुरु के दंड कमंडल लेकर अपने प्राणप्यारे मदनमोहन के धाम वृदावन चल पडे ।

जाने से पूर्व इन्होंने अपने परिवारजन और शिष्यों को समझाया । ”मैं अपने प्राणवल्लभ के धाम जा रहा हूं । मेरी माता को धैर्य बधाना और कहना कि निमाई संभवत: उन्हें कष्ट देने के लिए ही जन्मा था ।” लोगों ने इन्हें रोकने का प्रयास किया । बलपूर्वक इन्हें रोका गया तो ये बंधन छुड़ाकर ‘हाय कृष्ण-हाय कृष्ण’ कहते दौड़ पड़े ।

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लोग इनके पीछे दौड़े तो ये घने वन में प्रवेश कर गए । चैतन्य की स्मृति तो कृष्ण में समा गई थी । किसी भी बाल्प बात का इन्हें भान न रहा । रात्रि हो गई तो ये अश्वत्थ के वृक्ष के नीचे बैठकर कृष्प नाम जपने लगे । आखों से प्रेमाश्रु गिर रहे थे ।

भक्तगण इन्हें खोजते वहा आ गए तो चैतन्य वहां से भी दौड़ पड़े । वहां से चैतन्य शांतिपुर पहुंचे और कुछ दिन आचार्य अद्वैताचार्य के सान्निध्य में रहे । माता सहित इनके भक्तगण इन्हें लेने आए । ”मैं अब सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल श्रीकृष्ण का होकर रह गया हूं ।

आप सब मेरे मार्ग को कठिनतम न करें ।” चैतन्य ने कहा । अंतत: माता ने प्रारब्ध मानकर निमाई को नीलांचल में रहने की अनुमति दे दी । चैतन्य ने माता को धन्यवाद किया और कमलपुर में कपोतेश्वर के दर्शनों के पश्चात जगन्नाथ धाम चल दिए ।

धाम की छटा और जगन्नाथजी का मंदिर देखकर ये विभोर हो गए और नृत्य करने लगे । प्रात: होने पर इन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन किए और प्रसाद लेकर वेदांताचार्य पंडित सार्वभौम भट्‌टाचार्य के घर आए जो चिर भक्ति के विरोधी थे परंतु चैतन्य की भक्ति और प्रेम के समक्ष सार्वभौम भी उन्हीं के रंग में रंग गए ।

सार्वभौमजी ने ताड़पत्र पर चैतन्य की प्रशसा में दो श्लोक लिखे तो चैतन्य ने उसे अस्वीकार कर दिया । चैतन्य के शिष्यों ने उन दोनों श्लोकों को कंठस्थ कर लिया और यही श्लोक वैष्णवों में ‘भक्तकंठ मणिहार’ कहे जाने लगे ।

फिर चैतन्य दक्षिण यात्रा को चल पड़े । ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ का महामंत्र जपते हुए चैतन्य और इनके परमशिष्य कृष्णदास ने गौतमी गंगा में स्नान करके मल्लिकार्जुन देव के दर्शन किए । चैतन्य की ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही थी ।

तत्कालीन भक्त समाज इनके दर्शनों को आकुल रहता था और स्वयं चैतन्य अपने गिरधर गोपाल के लिए आकुल रहते ।  जिस प्रकार गोपियां अपने वृजलाल के दर्शनों को व्याकुल होती थीं और विरह गीत गाया करती थीं उसी प्रकार चैतन्य की दशा थी । ये ‘कृष्प कृष्ण’ करते गाते-नाचते और रोने लगते ।

यह प्रेम की वेदना थी जो ये रात्रि में भी अपने कन्हैया को पुकारते रहते । इनका कृष्ण प्रेम अंतिम सोपान पर आ गया था तभी तो इनके नेत्रों से हर समय प्रेममयी अश्रु बरसते थे । इनके शिष्यगण इनकी सेवा करते और हर क्षण इनके पास ही रहते । क्या पता प्रेम में चैतन्य के पग किधर चल पड़े ।

अचानक एक दिन चैतन्य अर्धरात्रि को पागलों की तरह रोने लगे । भक्तगण घबरा गए । भक्तगणों ने कारण जानना चाहा । ”मेरे कृष्ण मुझे दर्शन देकर लुप्त हो गए हैं ।” भक्त इन्हें बलपूर्वक ले जाने लगे । ”मुझे जाने दो । मुझे मत रोको । कन्हैया गोवर्धन पर्वत पर बांसुरी बजा रहे हैं ।”

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एक दिन शारदीय रात्रि में अपने भक्तगणों को लेकर चैतन्य भ्रमण करते हुए आईटोटा पहुंच गए । वहां समुद्र की अनत जलराशि देखकर इन्हें यमुना का भास हुआ और ये उसमें कूद पड़े । जब भक्तों ने इन्हें अपने बीच से गायब पाया तो विचलित होकर खोजने लगे । जाते-जाते इन्हें समुद्र के किनारे मछेरा जाति का व्यक्ति नाचते-गाते हुए मिला ।

”भाई, प्रसन्नता का क्या कारण है?” भक्तों ने पूछा । ”आज मैंने मछली पकड़ने के लिए समुद्र में जाल लगाया । जब मैंने जाल खींचा तो उसमें मछली के स्थान पर एक शव को फंसे पाया । मैं आश्चर्यचकित था । मैंने उस शव को जाल से बाहर निकाला । जैसे ही मैंने शव को स्पर्श किया मेरी यह दशा हो गई ।”

लोकमत है कि चैतन्य ही समुद्र में कूदकर कृष्ण के प्रेम में प्राण दे बैठे । जबकि कुछ धारणाएं ऐसी भी हैं कि धीवर के जाल में यह अचेत थे । इसके पश्चात भी यह कई मास जीवित रहे ।  तत्पश्चात कुछ दिन बाद फिर इन्हें समुद्र की जलराशि में यमुना का भास हुआ ।

यह उसमें कूद गए और कभी न लौटे । श्रीकृष्ण चैतन्य ने ‘चैतन्य सम्प्रदाय’ का प्रवर्तन किया । इन्होंने नित्यानंद और अद्वैताचार्य को अपना प्रमुख शिष्य बनाया जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए भ्रमण किया ।  नाम संकीर्तन ही इस सम्प्रदाय का प्रधान साध्य साधन है ।

यद्यपि यह लोक नश्वर है और आत्माए इस लोक में कुछ समय के लिए ही आती हैं परंतु कुछ महान आत्माएं अपने कार्यों से सदैव और सनातन काल तक लोगों की स्मृति में जीवित रहती हैं । इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु भी अपनी प्रबल भक्ति भावना और अद्वितीय कृष्ण प्रेम के कारण युगों-युगों तक जनमानस की स्मृतियों में जीवित रहेंगे ।


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