भारत में एड्‌स की स्थिति पर निबन्ध | Essay on Situation of AIDS in India in Hindi!

भारतीय धार्मिक आख्यान साक्षी है कि ‘एड्‌स’ नामक रोग का उल्लेख प्रच्छन्न रूप से अनेक स्थलों पर आ चुका है । महाभारतकालीन एक साक्ष्य प्राप्त होता है, जिसके आधार पर कहा गया है कि भीष्म पितामह के सौतेले भ्राता विचित्रवीर्य की मृत्यु का कारण एड्‌स ही था ।

स्वभावत: विचित्रवीर्य उद्‌दाम काम-पिपासु थे । वे अहर्निश यौन-क्रियाओं में संलिप्त रहते थे । महाकवि कालिदास की कृति ‘रघुवंश’ में राजा अग्निवर्मा का जीवन-प्रसंग आता है । वे रघुवंश के अंतिम शासक थे । अग्निवर्मा यौनाकांक्षाओं के वाहक थे । अधिकांश समय काम-क्रीड़ा में रत रहने के कारण वे यौन रोग के शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे ।

भारत में निगरानीकेंद्र:

१. मद्रास मेडिकल कॉलेज, चेन्नई (तमिलनाडु),

२. पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्‌यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ (पंजाब)

३. शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्‌यूट ऑफ मेडिकल साइंस जम्यू-कश्मीर

४. राजेंद्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्‌यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, पटना (बिहार)

५. बंगलौर मेडिकल कॉलेज, बंगलौर (कर्नाटक)

६. सेठ जी.एस. मेडिकल कॉलेज, मुंबई (महाराष्ट्र)

ADVERTISEMENTS:

७. गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, नागपुर (महाराष्ट्र)

८. नेशनल इंस्टिट्‌यूट ऑफ कॉलरा एंड एंटरिक डिसिजेज, कोलकाता (पश्चिम बंगाल)

९. रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर, भुवनेश्वर उड़ीसा

१०. चिकित्सा विज्ञान कॉलेज, कटक उड़ीसा

११. चिकित्सा विज्ञान कॉलेज, बेलगाम (कर्नाटक)

१२. चिकित्सा विज्ञान कॉलेज, शिमला हिमाचल प्रदेश)

१४. उस्मानिया मोडेकल कलिज, हृदराबाद (आन्ध्र प्रदेश)

१५. आध मेडिकल कॉलेज, विशाखापत्तनम ( औध्र प्रदेश)

१६. रीजनल मेडिकल कॉलेज, इंफाल (मणिपुर)

ADVERTISEMENTS:

१७. जवाहरलाल इंस्टिट्‌यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, पांडिचेरी,

१८. मदुरै मेडिकल कॉलेज, मदुरै (तमिलनाडु)

१९. मेडिकल कॉलेज, त्रिवेंद्रम (केरल)

२०. बीजे. मेडिकल कॉलेज, अहमदाबाद (गुजरात)

ADVERTISEMENTS:

२१. एस.एम.एस. मेडिकल कॉलेज, जयपुर (राजस्थान)

२२. गांधी मेडिकल कॉलेज, भोपाल (मध्य प्रदेश)

२३. रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)

२४. के.जी. मेडिकल कॉलेज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

ADVERTISEMENTS:

भारतीय परंपरा के समानांतर ‘बाइबिल’ में भी कतिपय ऐसे दृष्टांत मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि एड्‌स का अस्तित्व प्रच्छन्न रूप से इस काल में भी था । ‘बाइबिल’ के ‘जेनेसिस’ में ‘सोडोम’ और ‘गोमोरोह’ के संबंध में यह वर्णित है कि कैसे वहाँ के निवासियों की अतिकामुक गतिविधियों से खिन्न और कुद्ध होकर परमेश्वर ने दोनों नगरों को नष्ट कर दिया था ।

ईसा से ३२०० वर्ष पूर्व के एक प्रलेख से प्राप्त कुछ उद्धरणों से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि कैसे विषम लैंगिक काम-संबंधों से भयानक यौन रोग फैला था और अब, जब सुदूर अतीत से परे होकर वस्तु-स्थिति को समंझने का प्रयास करें तो ज्ञात होता है कि ५ वर्षों में भारत विश्व का सबसे बड़ा एड्‌स ग्रस्त देश बन जाएगा ।

वर्तमान में विश्व में एड्‌स ग्रस्त व्यक्तियों की सर्वाधिक संख्या अफ्रीका में है । इस बात की भी संभावना है कि शेष विश्व की तुलना में भारत में एड्‌स के अधिक रोगी हों । इंजेफ्यान के रूप में लिये जानेवाले मादक द्रव्यों के बढ़ते इस्तेमाल को रोकने के लिए अगर तत्काल कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले वर्षों में भारत का हर दसवाँ व्यक्ति ‘एड्‌स’ की चपेट में आ जाएगा ।

इन इंजेआन के इस्तेमाल से ‘एड्‌स’ का खतरा बढ़ता है । मादक द्रव्यों के प्रयोग में लाई जानेवाली सुइयाँ ‘एड्‌स’ विषाणु एच.आइ.वी. को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । जब कोई नशेड़ी एड्‌स से संक्रमित नशेड़ी द्वारा प्रयोग में लाई गई सुई से मादक द्रव्य लेता है तब वह भी एड्‌स का शिकार बन जाता है । इंजेशन से मादक-द्रव्यों का प्रयोग करनेवाले नशेड़ियों में से ५० से ६० प्रतिशत एड्‌स से ग्रस्त हो चुके हैं ।

ADVERTISEMENTS:

एड्‌स को फैलने से रोकने के लिए ‘Injectable drurs’ के प्रयोग पर तत्काल रोक लगाना अत्यावश्यक द्येंरौ स्थानैं है । मादक द्रव्य लेने से शरीर वि रोग-प्रतिरक्षण क्षमता घट जाती है, जिससे व्यक्ति एड्‌स और तपेदिक जैसे रोगों से ग्रस्त हो जाता है; इंजेआन से लिये जाने वाले मादक द्रव्यों में ब्राउन शुगर, पोथाडिमिन; मार्फिन, फोर्टविन और फर्नागम आदि हैं ।

देश में इंजेफ्यान से लिये जानेवाले मादक द्रव्यों के अलावा एल्कोहल, अफीम, गाँजा, चरस, स्मैक, हेरोइन, एलएनडी, मेंड़ेक्स और कंपोज-जैसे मुँह से लिये जानेवाले पदार्थो का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होता है । इन द्रव्यों की अत्यधिक मात्रा घातक होती है और इसकी परिणति मृत्यु होती है ।

भारत में सन् १९८५ से १९९४ के मध्य एड्‌स-विषाणु के संक्रमण में निरंतर वृद्धि हुई है । वस्तुत: भारत में संक्रमण का सबसे बड़ा कारण एक से अधिक लोगों के साथ यौन-संबंध है; जबकि पूर्वोत्तर राज्यों में इसका मुख्य कारण मादक पदार्थों का इंजेक्यान लेना है ।

अब तक एच.आइ.वी. संक्रमण के सर्वाधिक प्रकरण महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मणिपुर से प्रकाश में आए हैं । इसका एक कारण कंडोम का प्रयोग करने से लोगों में हिचकिचाहट और संकोच भी है । ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्’ के मार्गदर्शन में सर १९८६ में मध्यकाल में भोपाल, इंदौर और जबलपुर में ‘एच.आइ.वी.’ सर्वे सेंटर की स्थापना की गई ।

एन.एसी.ओ. नई दिल्ली के दिशा-निर्देशों के अनुसार, विश्व बैंक से सहायता प्राप्त ‘राष्ट्रीय एड्‌स नियंत्रण कार्यक्रम’ योजना-वर्ष १९९२ की अंतिम त्रयमासिकी से जून १९९७ तक मध्य प्रदेश में लागू किया गया । इसके अंतर्गत ‘राज्य एड्‌स सेल’ बनाकर इस रोग की रोकथाम के लिए कार्यक्रम चलाए गए ।

भारत में संदर्भकेंद्र:

१. नेशनल इंस्टिट्‌यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे (महाराष्ट्र)

२. जे.जे. हास्पिटल, मुंबई (महाराष्ट्र)

३. सेंटर फॉर एडवांस्त रिसर्च ऑन वायरोलॉजी, बेल्लोर (तमिलनाडु)

४. क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, बेल्लोर (तमिलनाडु)

५. मद्रास मेडिकल कॉलेज, चेन्नई (तमिलनाडु)

६. कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, कोलकता १. बंगाल

७. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (नई दिल्ली)

८. राष्ट्रीय संचारी रोग-संस्थान (नई दिल्ली) ।

वैज्ञानिक दृष्टि से अट्‌ठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी का काल अतीव महत्त्वपूर्ण है । इसी काल में विश्व के विज्ञानियों ने ‘जीवाणु’ और ‘विषाणु’ की खोज की । इस दृष्टि से रूस के विज्ञानियों ने प्रतिमान-स्थापना की । रूस के वनस्पतिविद् इवानोवस्की ने सन् १८९२ में तंबाकू की पत्ती पर वैज्ञानिक क्रिया करते समय उस पर होनेवाले रोग की जानकारी प्राप्त की ।

रोग का नाम था-मोजैक । इवानोवस्की ने यह सिद्ध किया कि ‘मोजैक रोग’ एक प्रकार के सूक्ष्मजीवी द्वारा लगता है । सन् १८१८ में एम.डब्लू बेजेरिक ने. उस सूक्ष्मजीवी का नाम ‘विषाणु’ पा १५ दिया । इसके बाद तो विषाणु की खोज के लिए अनुसंधान और विकास-कार्यक्रम स्रग्रत की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा आरंभ हो गई ।

परिणामस्वरूप तरह-तरह के विषाणु अस्तित्व में आते गए । जैसे- ‘मोजैक विषाणु’ बैक्टिरियो फेज विषाणु ‘साइनोफेज विषाणु’ रेबीज विषाणु इत्यादि । इसी क्रम में दो प्रकार के ऐसे विषाणु प्रकाश में आए हैं, जो प्राणघातक हैं । वे हैं- एच.आइ.वी. और एच.आइ.वी. ये विषाणु संक्रमण क्रिया द्वारा ‘एड्‌स’ नामक घातक रोग को जन्म देते हैं ।

यौन-रोग, रति-रोग, सुजाक (गोनोरिया), आतशक (सिफलिस), रतिज व्रणाम (शेंकरायड) लिंफोग्रेनुलोमा विनीरियम इत्यादि नामों से तो यह रोग अभिहित था, किंतु ‘एड्‌स’ रोग के नाम से नहीं; यद्यपि उल्लिखित यौन-रोगियों में वही लक्षण पाए गए थे, जो एक एड्‌स-रोग की पहचान होती है ।

इतिहासविद् और विज्ञानी १९८२ के पूर्व तक उस ‘रहस्यमय रोग’ के नाम से किंचित परिचित नहीं थे; यद्यपि उसके कुप्रभाव से बहुत अधिक संख्या में लोग मरने लगे । इस रोग की भयावहता और नरसंहार की प्रवृत्ति को देखते-समझते हुए विश्व के वैज्ञानिक अपने अनुसंधान के प्रति पूर्णत: सतर्क हो गए ।

इसी प्रक्रिया के अंतर्गत सन् १९८१ में न्यूयॉर्क के चिकित्सक गाटलियाब और कैलिफोर्निया के मान कीन ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक ‘न्यूमोनिया’ की खोज की । वह न्यूमोनिया एक स्वस्थ, किंतु समलैंगिक प्रकृति के पुरुष में पाई गई थी ।

उसके बाद से एड्‌स-अनुसंधान के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय खोजें हुई । सन् १९८२ में अमेरिका के चिकित्सक डॉ. रॉबर्ट सी. गैलो ने एच.’टी’ एल.बी, -।,।। (Human ‘T’ Lymphocite Virus) की खोज की । उस अनुसंधान से इस तथ्य का उद्‌घाटन हुआ कि शरीर में एच.’टी’ एल.बी. – ।,।। के संक्रमित होने पर एड्‌स रोग होता है । दूसरी ओर, पेरिस के एक चिकित्सा-विज्ञानी प्रो. लूक मोंटाग्नियर, जो सन् १९४८ से स्वतंत्र रूप से उसी अनुसंधान- कार्यक्रम में सन्नद्ध थे, ने एक अन्य विषाणु की खोज की, जिसका नामकरण हुआ ‘एल.ए.वी’ (Lymphodenopashy Associated Virus) । प्रो. लूक ने इस विषाणु के

पीछे इस तर्क का प्रतिपादन किया कि इस रोग के शरीर में विभिन्न स्थानों पर निकली ‘लसिका शोथ’ गिल्टियाँ हां. ही १०८८५ सूज जाती हैं । उल्लिखित तथ्यों से यह सुस्पष्ट है कि दोनों चिकित्सा-विज्ञानी समानांतर रूप से एड्‌स के विषाणु से संबंधित अनुसंधानों में लगे हुए थे और दोनों ने सफलताएँ अर्जित कीं, किंतु प्रतिस्पर्द्धी मस्तिष्क की विडंबना थी कि प्रो. रॉबर्ट गैलो ने प्रो. लूक मोटाग्नियर द्वारा प्रतिपादित ‘एल.ए.वी.’ के सिद्धांत और नाम को नकारते हुए उसका नया नामकरण ‘एच.टी.एल.वी-‘ किया ।

ऐसे में, विरोध का उग्र होना स्वाभाविक था । यह प्रकरण न्यायालय तक पहुँचा । इसके पूर्व कि यह विवादास्पद विषय विश्वव्यापी होता, दोनों देशों के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड विल्सन रीगन और प्रधानमंत्री जैक्वेस शिक्षक की मध्यस्थता में इसका समाधान हो गया ।

इस प्रकार सन् १९८२ में एड्‌स विषाणु का नाम एच.आइ.वी. (Human Immunodeficiency Virus) गया । चिकित्सा-विज्ञानियों ने इसे यौन-रोग से संबद्ध २१वाँ विषाणु माना है । किसी व्यक्ति के शरीर में एड्‌स के विषाणु संक्रमित हैं, इसका परीक्षण करने के लिए दो प्रकार की परीक्षण विधियाँ विकसित की गई हैं, जो निम्नलिखित हैं-

ELISA Test: यह Enzyme Linked Immuno Soroven Test का संक्षेपण है । यह परीक्षण पद्धति एड्‌स-विषाणु के प्रारंभिक परीक्षण के लिए अपनाई जाती है । ‘एलिसा’ नामक उपकरण में एक प्लेट होती है । उस प्लेट में कई खाने बने होते हैं । उन खानों में पहले रासायनिक पदार्थ डाले जाते हैं तत्पश्चात् परीक्षण के लिए रक्त ।

इस वैज्ञानिक प्रक्रिया में यदि रक्त में एच. आइ.वी. पॉजीटिव है तो रक्त का रंग-परिवर्तन हो जाता है । Western Blot Test: एलिसा पद्धति से हुए परीक्षण का परिणाम शत-प्रतिशत विश्वसनीय है । इसका परीक्षण करने के लिए अंतिम रूप से ‘Western Blot Test’ पद्धति अपनाई जाती है ।

पुनसंक्रमण प्रतिरदनणस्पिध्यांत उगैर वैझानिक प्रयास:

आनुवंशिक इंजीनियरिंग और रोग-प्रतिरक्षण-विज्ञान के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों के कारण अब एड्‌स और रोगाणुओं से होनेवाले अन्य खतरनाक रोगों के टीकों के विकास की संभावनाएँ बढ़ गई हैं । विश्व में इस समय व्यापक पैमाने पर विभिन्न रोगों के टीकों का इस्तेमाल हो रहा है ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि संपूर्ण विश्व में करीब ८० प्रतिशत बच्चों को खसरा, पोलियो, तपेदिक, काली खाँसी और टिटनिस जैसे रोगों के टीके लगाकर प्रतिरक्षित किया गया है, लेकिन टीकों के व्यापक इस्तेमाल के बावजूद विज्ञानियों को किसी रोग अथवा संक्रमण के विरुद्ध शरीर की प्रतिरक्षण-प्रतिक्रिया के बारे में बहुत सीमित जानकारी है ।

अभी तक इतना भर मालूम हो पाया है कि जब किसी व्यक्ति पहली बार कोई संक्रमण अथवा रोग होता हैं ओर वह रोग ठीक हो जाता है तब व्यक्ति की प्रतिरक्षण-कोशिकाओं में उस रोग को जन्म देने वाले बाहरी जीवाणुओं अथवा विषाणुओं की ‘स्मृति’ जीवन भर बनी रह सकती है ।

इस ‘समृति’ के कारण भविष्य में शरीर पर जब पुन: पूर्व के जीवाणुओं का आक्रमण होता है, तब हमारी प्रतिरक्षण-प्रणाली उन्हें तुरंत पहचान लेती है और उन्हें तत्काल नष्ट कर देती है । ‘पुनर्संक्रमण-प्रतिरक्षण का सिद्धांत’ इसी प्रक्रिया पर आधारित है ।

यही कारण है कि जब बचपन में कोई संक्रमित हो जाता है, तब भविष्य में भी व्यक्ति उसी संक्रमण से प्रभावित नहीं रहता है । आण्विक जीव-विज्ञानी इसी समझ के आधार पर विभिन्न रोगों के टीके विकसित करते रहे हैं ।

इस सिद्धांत के आधार पर इस समय दो तरह के टीके बनाए जा रहे हैं । पहले प्रकार के टीकों में जीवित और दूसरे तरह के टीकों में मृत रोगाणु होते हैं । पहले तरह के टीकों में खसरा और पोलियो आदि के टीके तथा दूसरे तरह के टीकों में डिप्यीरिया और टिटनस आदि रोगों के टीके आते हैं ।

जब व्यक्ति को ये टीके लगाए जाते हैं तब बिना रोग के उसकी प्रतिरक्षण प्रणाली में रोग की ‘स्मृति’ दर्ज हो जाती है और भविष्य में जब उसी रोग के रोगाणुओं का हमला होता है तब प्रतिरक्षण-तंत्र उन्हें तुरंत पहचानकर नष्ट कर देता है, लेकिन अब विज्ञानियों का मानना है कि आनुवंशिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति के आधार पर अधिक कारगर और कम खर्चीले टीके बनाए जा सकते हैं ।

यद्यपि एड्‌स के टीके का विकास करने का विषय बहुत कठिन और अत्यंत जटिल साबित हो रहा है, तथापि आशा है कि अगले कुछ वर्षों में आनुवंशिक इंजीनियरिंग की नई प्रौद्योगिकी से एड्‌स के टीके का विकास हो जाएगा ।

एड्‌स जैसी उन बीमारियों के टीके ‘पुनर्संक्रमण प्रतिरक्षण सिद्धांत’ के आधार पर नहीं बनाए जा सकते, जिनसे व्यक्ति एक बार ग्रस्त होने पर उबर नहीं पाता । वैज्ञानिक इस बात को समझ नहीं पाए हैं कि आखिर प्रतिरक्षण-तंत्र शरीर को एच.आइ.वी. से छुटकारा क्यों नहीं दिला पाता ।

जब एक बार एच.आइ.वी. शरीर की कुछ कोशिकाओं को संक्रमित कर दे और हमारा रोग प्रतिरक्षण-तंत्र एच.आइ.वी. के सामने लाचार हो जाए तब विज्ञानी एड्‌स-टीके का विकास नहीं कर पाएँगे ।

एड्‌स-टीके के विकास के समक्ष सबसे बड़ी बाधा यह है कि एड्‌स विषाणु जई-लिंफोसाइटद्‌स नाम की कोशिकाओं को ही बेकार कर देता है । ये कोशिकाएँ प्रतिरक्षण-तंत्र कार्य-प्रणाली में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । यही नहीं, एच.आइ.वी. टी-लिफोसाइट्‌स को अपने आनुवंशिक प्रतिरूप में डाल देता है, जिससे कोशिकाएँ स्थायी तौर पर संक्रमित हो जाती हैं ।

इन समस्याओं के बावजूद विज्ञानियों को विश्वास है कि एड्‌स के टीके का विकास किया जा सकता है । वैज्ञानिकों के अनुसार, एड्‌स के टीके को कारगर बनाने का एक उपाय यह हो सकता है कि एड्‌स विषाणु-प्रतिरक्षण कोशिकाओं के एड्‌स विषाणुओं से संक्रमित होने से पहले ही ये टीके प्रतिरक्षण-तंत्र को उत्तेजित कर दें, ताकि एड्स-विषाणुओं को पहचानकर उन्हें समय से पहले ही नष्ट किया जा सके ।

अमेरिका की दो प्रयोगशालाओं में ऐसे टीके तैयार किए गए हैं, जो कुछ मामलों में एच.आइ.वी. के विरुद्ध प्रतिरोध-क्षमता विकसित करते हैं । इन टीकों का नर बंदसे पर प्रयोग किया गया । पहले ये टीके दिए गए और बाद में इन्हें एड्‌स-विषाणुओं के संपर्क में लाया गया ।

परीक्षण में पाया गया कि उनमें से आधे बंदर एड्‌स से संक्रमित नहीं हुए । अमेरिकी विज्ञानी अब इस बात का पता लगा रहे हैं कि कुछ जानवरों को ये टीके देने से एड्‌स के खिलाफ प्रतिरोध-क्षमता क्यों विकसित हो जाती है तथा कुछ में क्यों नहीं ? उल्लिखित प्रयोगशालाओं में बनाए गए अलग-अलग टीकों में मृत विषाणु और एड्‌जुवेंट सहौषध मौजूद हैं ।

एड्‌जुवेंट प्रतिरक्षण-तंत्र कौ उत्तेजित करता है । ये टीके दो परंपरागत उपायों के आधार पर बनाए गए हैं । ये वैज्ञानिक आनुवंशिक इंजीनियरिंग की मदद से इन टीकों में सुधार कर रहे हैं, ताकि ये कारगर और सुरक्षित बन सकें ।

इस बीच संयुक्त राज्य अमेरिकी विज्ञानियों ने नई प्रौद्योगिकी से यकृत शोथ (हेपेटाइटिस- बी) के वे नए टीकों का विकास किया है । ये टीके कुछ विकसित देशों में उपलब्ध हैं । नए तरीकों से बनाए गए ये टीके विकासशील देशों के लिए विशेष रूप से उपयोगी साबित होंगे ।

विकासशील देशों में, खासतौर पर ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में प्रशीतन की सुविधा के अभाव में परंपरागत तरीकों से बनाए गए टीके बेकार हो गए हैं, लेकिन नए तरीकों से बनाए गए टीकों को गरम वातावरण में भी रखा जा सकता है ।

इस तरह से ये पुराने टीकों से अधिक सुरक्षित भी हैं । आनुवंशिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुई प्रगति से आण्विक विज्ञानियों को यह उम्मीद बँधी है कि भविष्य में ऐसे सस्ते टीके विकसित किए जा सकेंगे, जिनकी एक खुराक से कई रोगों से जीवन भर के लिए बचाव हो सकेगा ।

हेपेटाइटिस ‘एफ’ विषाणु : भारतीय विझानियों की एक महत्त्वपूर्ण देन:

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यह विषाणु इंजेफ्यान से नहीं, बल्कि दूषित भोजन और जल से फैलता है । राष्ट्रीय संचारी रोग-संस्थान के अनुसंधानकर्ताओं ने इस विषाणु को मानव-मल के प्रतिदर्शों और इसका टीका दिए गए बंदरों के मल के प्रतिदर्शों से अलग किया है । राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान के अनुसंधानकर्ता-त्रय नीरेन देका, माधव शर्मा रखा है ।

उन्होंने इस खोज को घोषणा इंटरनेशनल जनरल ऑफ वायरोलॉजी ‘ में की है । इस खोज के साथ ही ‘हेपेटाइटिस’ के लिए जिम्मेदार विषाणु की कुल ज्ञात-संख्या छह हो गई है । इससे पिछला हेपेटाइटिस ‘ई’ वायरस (एच.ई.वी.) को सन् १९९० में खोजा गया था । इस खोज से राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता के अलावा पेटेंट के जरिए पर्याप्त आर्थिक लाभ भी मिलना आरंभ हो चुका है ।

संस्थान विषाणु खोजने के तरीके और इससे पीड़ित लोगों की जेनेटिक परीक्षण की प्रक्रिया को पेटेंट कराने के लिए आवश्यक प्रक्रिया में जुट गया । इस खोज में शामिल प्रमुख अनुसंधानकर्ता नरेन देका को अमेरिका और फ्रांस की कंपनियों ने अपने यहाँ काम करने का प्रलोभन भी दिया है ।

उन्हें इस खोज को प्रस्तुत करने के लिए अकबर १९९५ में पेरिस आने का आमंत्रण मिला । उल्लेखनीय है कि संस्थान के विज्ञानियों ने सबसे पहले पेरिस के ‘पाश्चर इंस्टिट्‌यूट’ द्वारा प्रेषित मल-प्रतिदर्शों में से इस विषाणु को अलग किया था; फिर पिछले कुछ महीनों में उन्होंने भारत में एकत्र दस मल- प्रतिदर्शो में से छह में विषाणु को पृथक् किया ।

असम, तमिलनाडु और केरल में, जहाँ ओत के जरिए फैलनेवाला ‘हेपेटाइटिस’ ज्यादा है, (एच.’एफ.’वी.) का प्रकोप हो सकता है । इन राज्यों से आए प्रतिदर्शों में इस विषाणु की खोज का कार्य उनकी प्रयोगशाला ने शुरू कर दिया है । एच.’ई.’वी. और एच.’एफ’वी. दोनों विषाणुओं का संचार आँत से होता है और दोनों का आकार भी लगभग एक-जैसा है, लेकिन जेनेटिक तौर पर दोनों विषाणुओं में बहुत अंतर है ।

हेपेटाइटिस के जिम्मेदार विषाणुओं के परिवार में यह पहला विषाणु खोजा गया है, जो डीएनए, निर्मित है तथा दूषित भोजन और जल के माध्यम से विस्तार पाता है । यद्यपि इस नए हेपेटाइटिस कारक की भूमिका का संदेह इंग्लैंड, इटली, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका में कुछ वर्षों पूर्व किया गया था तथापि इसकी वास्तविक पृथक् पहचान राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान ने की ।

उल्लिखित भारतीय विज्ञानियों की प्रयोगशाला एच.’एफ.’वी. पीड़ित की जाँच के लिए इस विषाणु के पूरे जेनेटिक क्रम तैयार करने का काम शुरू कर चुकी है । इस समय दूषित सुइयों से फैलनेवाले ‘हेपेटाइटिस-बी.’ का टीका मौजूद है, जो पश्चिमी देशों में सामान्य रोग है ।

ओराश्योर : रक्त दिए बिना एकर का परीक्षण संम्भव:

‘ओराश्योर’ नामक विधि के द्वारा अब बिना चिकित्सालय गए अथवा बिना रक्त दिए घर में ही एड्‌स का परीक्षण करना संभव हो सकेगा । एड्‌स के इस सुगम परीक्षण का और अल्पव्यय-साध्य विधि का विकास अमेरिका के एफ.सी.डी.सी.पी. (Federal Centres for Disease Control and Prevention) ने किया है ।

अमेरिका खाद्य और औषधि प्रशासन इस विधि की समीक्षा कर रहा है । अनुसंधानकर्ताओं का दावा है कि यह विंधि कम खर्चीली और आसान तो है ही, इससे एड्‌स का परीक्षण भी बहुत कम समय में किया जा सकता है । इस विधि के अंतर्गत एड्‌स के परीक्षण के लिए विशेष तौर पर बनाए गए एक पैड को मुँह में दो मिनट तक रखा जाता है ।

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यह पैड लार और थूक को सोख लेता है । इस पैड को एक विशेष पात्र में रखकर परीक्षण के लिए प्रयोगशाला भेज दिया जाता है, जहाँ इसका परीक्षण करके ज्ञात किया जाता है कि इसमें एच.आइ.वी. है अथर्वा नहीं । इस पैड के परीक्षण के लिए वही विधि अपनाई जाती है, जो रक्त के जरिए एड्‌स के परीक्षण में अपनाई जाती है । परीक्षणों से पता चला है कि यह विधि परंपरागत विधि की तरह ही कारगर है ।

एड्‌स-चिकित्सकों का कहना है कि नई विधि से कम सुमय में अधिक-से-अधिक लोगों का एड्‌स-परीक्षण संभव हो सकेगा । इस विधि सेएड्‌स के परीक्षण पर लगभग बीस डॉलर का खर्च आता है । परीक्षण की इस नई विधि से यह पता चल सकेगा कि किसी व्यक्ति के क्षर्तेर में एड्‌स के घातक एच.आइ.वी. हैं अथवा नहीं ।

इस समय एड्‌स की उसमें शरीर में एच.आइ.वी. का पता लगाने के लिए शरीर आवश्यकता होती है और विशेष रूप से प्रशिक्षित चिकित्सक ही शरीर से रक्त निकाल सकते हैं । अपारका के सरकारी चिकित्सालयों में एड्‌स-पूर्क्षिण करानेवालों की भारी यह नई विधि एड्‌स की जाँच को अत्यंत आसान बना देगी और घर में बैठे-बैठे एड्‌स की जाँच की जा सकेगी; लेकिन इसके साथ ही एक नई तरह की समस्या पैदा हो जाएगी ।

एफ.सी.डी.सीपी. के सहायक निदेशक वांडा जोनेस का कहना है कि हम सभी इस समस्या से पूर्णरूपेण परिचित हैं, परंतु मुझे विश्वास है कि अगरु इस विधि का समुचित ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो इससे भी लाभ होगा ।

निष्पत्ति रूप में यह सुस्पष्ट हो गया है कि एड्‌स की संक्रामकता को यदि गंभीरता से समझने का प्रयास नहीं किया गया तो एक दिन वह भी आएगा, जब समूची मानव जाति एड्‌स से अभिशप्त हो जाएगी और विश्व के चिकित्सक किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह जाएँगे ।

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