धनकुबेरों की अर्थव्यवस्था पर निबंध | Essay on Economic System of Wealthy Countries in Hindi!

आज से कुछ वर्ष पूर्व सिटी ग्रुप के एक प्रमुख भूमंडलीय रणनीतिकार अजय कपूर और उनके दो सहयोगियों-नाँयल मैकिलाँयड और नरेंद्र सिंह ने एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया । उसका शीर्षक था-‘प्लूटोनॉमी : बाइंग लक्जरी, एक्सप्लेनिंग इंबैलेंसेज ।’ अगर इस शोध-पत्र में प्रस्तुत स्थापनाएं सही हैं, तो उनके दूरगामी प्रभाव होंगे और अर्थशास्त्रियों की अनेक धारणाएं धराशायी हो जायेंगी ।

विश्व दो भागों-प्लूटोनॉमी और शेष में बंटता जा रहा है । ‘प्लूटोनॉमी’ शब्द धन के यूनानी देवता ‘प्लुटस’ से निकला है । हमारे यहा धन के देवता कुबेर हैं, इसलिए अगर हम ‘प्लूटोनॉमी’ के लिए कुबेर अर्थव्यवस्था का प्रयोग करें तो गलत नहीं होगा । इस अर्थव्यवस्था का वर्चस्व अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में स्थापित हो गया है और वह दूसरे देशों में भी अपनी जड़ें कमोबेश जमा चुकी है ।

कुबेर अर्थव्यवस्था पर धनवानों का दबदबा होता है, वह उन्हीं के सहारे चलती है । वे ही उपभोग, व्यय, बचत, चालू खाते में घाटे आदि के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते है । इस प्रकार आर्थिक संवृद्धि उन्हीं पर निर्भर होती है । शेष जनता की अर्थव्यवस्था में सीमांत भूमिका होती है ।

शोध – पत्र के अनुसार कुबेर अर्थव्यवस्था कोई नयी परिघटना नहीं है । स्पेन में सोलहवीं सदी और हालैंड में सत्रहवीं सदी में वह पनपी थी । अमेरिका में उसके उत्कर्ष कई बार नजर आए हैं । कुबेर अर्थव्यवस्था को पनपाने वाले कारक रहे हैं; नयी प्रौद्योगिकी जिसने उत्पादकता को तेजी से बढ़ाया, सर्जनात्मक वित्तीय अभिनवीकरण, पूंजीवादीन्मुख सहयोगी सरकारें, अंतर्राष्ट्रीय आयाम वाले अप्रवासी, दूसरे देशों पर विजय, कानून का शासन और आविष्कारों का पेटेंट ।

इन कारकों से तत्कालीन धनवानों और शिक्षित लोगों ने फायदा उठाया । आर्थिक विषमता कुबेर अर्थव्यवस्था के साथ हमेशा जुड़ी रही है । वर्तमान दौर में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति, वित्तीयकरण, भूमंडलीकरण और मित्र सरकारों और उनकी नीतियों ने कुबेर अर्थव्यवस्था को जन्म दिया और बढ़ाया है ।

दिलचस्पी की बात है कि कुबेर अर्थव्यवस्था में उपभोक्ताओं की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती । भूमंडलीकरण ने सारे विश्व को एक सूत्रबद्ध बाजार बना दिया है । धनी उपभोक्ता हालांकि संख्या में काफी कम हैं, पर आय और उपभोग व्यय में उनका अनुपात विशाल है । गैर धनी उपभोक्ता विशाल संख्या में होने के बावजूद आय और व्यय की दृष्टि से कोई खास महत्त्व नहीं रखते ।

कुबेर अर्थव्यवस्था अस्थायी नहीं है, बल्कि आने वाले समय में निरंतर सुदृढ़ होती जायेगी । विकासशील देशों के भूमंडलीकृत इलाकों से निकल कर उनके अन्य भागों पर वह छा जायेगी । शेयरों, बांडों, डिबेंचरों आदि प्रतिभूतियों की प्रमुखता बढ़ती जायेगी । ‘धनवानों के इन खिलौनों’ की अहर्निश चर्चा होगी और उनका दबदबा अर्थव्यवस्था पर बढ़ता ही जायेगा ।

कहना न होगा कि राष्ट्रीय आय में धनवानों का हिस्सा बढ़ता ही जायेगा । अमेरिका के शीर्ष पर बैठे एक प्रतिशत परिवार (जिनकी संख्या करीब दस लाख है) वर्ष 2000 में राष्ट्रीय आय के करीब बीस प्रतिशत पर काबिज थे । यह नीचे के साठ प्रतिशत परिवारों को प्राप्त राष्ट्रीय आय के अनुपात से मामूली-सा ही कम था ।

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हम कह सकते हैं कि अमेरिकी समाज के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे एक प्रतिशत परिवारों और सबसे निचले पायदानों पर बैठे साठ प्रतिशत परिवारों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी बराबर थी । ऊपरी पायदान पर बैठे एक प्रतिशत परिवारों की संपूर्ण राष्ट्रीय वित्तीय परिसंपत्तियों में हिस्सेदारी चालीस प्रतिशत थी जो पंचानवें प्रतिशत निचले परिवारों की कुल वित्तीय परिसंपत्तियों से कहीं अधिक थी ।

अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में कुबेर-अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत होती जायेगी, क्योंकि उनके छह प्रमुख संचालक-कारक ताकतवर होते जायेंगे । ये हैं:

(1) प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति के बढते कदम;

(2) पूंजीवाद की ओर उन्मुख सरकारें और कर-प्रणाली;

(3) भूमंडलीकरण;

(4) अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय जटिलता और अभिनवीकरण;

(5) कानून का शासन;

(6)पेटेंट की सुरक्षा ।

किसी भी देश में कुबेर अर्थव्यवस्था के उदय का लक्षण है वहां शीर्ष पर बैठे मुट्‌ठी भर परिवारों की आय में तेज वृद्धि । ऐसा अक्सर तब दिखता है जब नव-प्रौद्योगिकी या वित्तीय अभिनवीकरण द्वारा प्रेरित संपदा की लहरें उठती हैं जिनके साथ परिसंपत्तियों और शेयरों की कीमतों में उछाल आता है । धनवान बनने की स्थिति में लोग अपनी आय के पहले से कम अनुपात में बचत करते हैं और उपभोग पर व्यय बढ़ा देते हैं ।

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अनेक अर्थव्यवस्थाओं में धनवान ही मांग को बढ़ाने में अधिकाधिक भूमिका अदा करते है । आय, संपदा और व्यय के क्षेत्र में उन्हीं का दबदबा हो जाता है । ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ के अनुसार अमेरिका में आय की असमानता लगातार बढ़ती जा रही है । धनवान अमेरिकियों को ही राष्ट्रीय आय का अधिकाधिक हिस्सा प्रांप्त होता है ।

वहां के सबसे धनी एक प्रतिशत का राष्ट्रीय आय में हिस्सा 2004 में 19 प्रतिशत था जो 2005 में बढ्‌कर 21.2 प्रतिशत हो गया । दूसरी ओर समाज के सबसे निचले पायदानों पर बैठे पचास प्रतिशत का राष्ट्रीय आय में हिस्सा 2004 में 13.4 प्रतिशत था जो 2005 में घटकर 12.8 प्रतिशत पर आ गया ।

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चूंकि धनवानों को राष्ट्रीय आय का अधिकांश हिस्सा प्राप्त होता है इसलिए बाजार में उनसे आने वाली मांग का दबदबा होता है और वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन का स्वरूप उनकी मांग के अनुरूप बनाया जाता है । अनुमान है कि आधी प्रतिशत सबसे धनवान जनसंख्या अमेरिका में छह खरब पचास अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करती है । कुबेर अर्थव्यवस्था में धनवानों का राष्ट्रीय संपदा, व्यय, अपेक्षाकृत काफी बड़ा हिस्सा होता है ।

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अमेरिका में सबसे अधिक आय वाले बीस-प्रतिशत का वहां के कुल उपभोग में सत्तर प्रतिशत हिस्सा है । धनवानों का व्यय ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को थामे हुए है । मध्यम और निम्न वर्ग तो अपने को किसी तरह जिंदा रखने के संघर्ष में लगे हुए हैं ।

कुबेर अर्थव्यवस्था में एक ओर ‘धनी उपभोक्ता’ होते है तो दूसरी ओर ‘अन्य सब ।’ डिपार्टमेंट स्टोर्स, गाड़ी निर्माता और भवन निर्माता से लेकर हर प्रकार के उद्योग- व्यापार में लगे लोग धनवानों की ओर देख रहे हैं । मध्यम और निम्न वर्गो की वे कोई परवाह नहीं करते ।

कुबेर अर्थव्यस्था में न ‘मूल्य वसूली का संकट’ होगा और न ही उससे उबरने के लिए राज्य की सक्रिय भूमिका और केस के ‘प्रभावी मांग’ को बढ़ाने के नुक्खे की जरूरत होगी । दूसरे शरुदों में, रूजवेल्ट का ‘न्यूडील’ और विलियम बेवरिज की ‘कल्याणकारी राज्य’ की अप्रासंगिकता उजागर हो जायेगी । महात्मा गांधी, नेहरू और ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देने वाली इंदिरा गांधी के साथ बेमानी हो जायेंगी । ‘काग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ और ‘सबको फायदा पहुंचाने वाली आर्थिक संवृद्धि’ के नारे खोखले हो जायेंगे ।

मार्क्स पहले चिंतक थे जिन्होंने रेखांकित किया कि पूंजीवाद के सम्मुख, देर-सबेर, ‘मूल्य वसूली का संकट’ अवश्य आएगा । दूसरे शब्दों में पूंजीपति अपने द्वारा उत्पन्न माल में निहित मूल्य की संपूर्ण मात्रा वसूल नहीं पायेगा । बाजार की मांग की कुल मात्रा आपूर्ति की कुल मात्रा से कम होने पर कुछ माल का विक्रय नहीं होगा या घाटा सह कर बेचना पड़ेगा ।

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यानी विक्रय से प्राप्त मूल्य माल में सन्निहित मूल्य से कम होगा । मार्क्स के अनुसार ऐसी स्थिति उत्पादन की अराजकता और उत्पादकता में मजदूरी की अपेक्षा अधिक वृद्धि के कारण होगी । उत्पादन की अराजकता से तात्पर्य है कि नियोजन के अभाव में हर उत्पादक मनोगत रूप से तय करता है कि उसे कितना उत्पादन करना चाहिए । हो सकता है कि बाजार में मांग की अपेक्षा अधिक माल रख दिया जाये ।

मार्क्स के विश्लेषण को प्रचलित रूढ़िवाद ने पूरी तरह खारिज कर दिया । वर्ष 1929 तक यही धारणा बनी रही कि ‘पूर्ति अपने अनुरूप माग का सृजन रचय कर लेती है ।’ यह धारणा फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां बैपतिस्त से (1767-1832) द्वारा 1803 में प्रतिपादित बाजार के नियम पर आधारित थी ।

इनका मानना था कि पूर्ति के बिना मांग का अस्तित्व नामुमकिन है । उत्पादन के क्रम में विभिन्न कारकों की मजदूरी, लगान, ब्याज और मुनाफे के रूप में क्रयशक्ति मिलती है जिसको लेकर वे बाजार में मालों की मांग करते हैं । उत्पादन बढ़ा कर ही मांग के परिमाण को बढ़ाया जा सकता हैं ।

अगर स्थितियां सामान्य हों और बाजार के कार्य में सरकार, श्रमिक संगठन और कोई अन्य दखलंदाजी न करें तो मूल्य वसूली का संकट कभी पैदा न होगा । दूसरे शब्दों में, अगर मजदूरी समेत सब कीमतें लोचशील हों तो अर्थव्यवस्था अपने को पूरी तरह नियमित और संचालित कर लेगी, पूर्ण रोजगार की स्थिति लायेगी और बाजार में अविक्रित माल की समस्या नहीं आएगी ।

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यह धारणा 1929 में धराशायी हो गयी और चार से अधिक वर्षो तक न सिर्फ अमेरिका, बल्कि सोवियत संघ को छोड़कर शेष विश्व को भयानक संकट से गुजरना पड़ा जिसे महामंदी कहा गया । यह पूंजीवाद के इतिहास में सबसे बड़ा संकट था ।

उस समय के सबसे बड़े अर्थशास्त्री केंस ने ‘से’ के नियम को गलत बताते हुए रेखांकित किया कि अनैच्छिक बेरोजगारी यानी लोगों पर जबरन लादी गयी बेरोजगारी मूल्य वसूली के संकट के कारण आई थी । इसी संकट ने कारखानों को उत्पादन घटाने या पूरी तरह बद कर मजदूरों की छंटनी के लिए बाध्य किया था । केंस का नुस्खा था कि राज्य प्रभावी मांग की मात्रा को बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करे ।

वह सार्वजनिक निर्माण के कार्यो को चला कर रोजगार का सृजन करे जिससे लोगों को आय मिले और वे बाजार में जाकर वस्तुएं और सेवाएं खरीदें । बाजार में जब बिक्री होने लगेगी तब अर्थव्यवस्था में नयी जान आएगी और कृषि, उद्योग और सेवाओं के क्षेत्र में उत्पादन फिर से शुरू होगा । निकाले गये मजदूर वापस आएंगे, उन्हें आय प्राप्त होगी जिससे माग बढ़ेगी । अतत: पूंजीवाद संकटमुक्त होगा । यहीं से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में राज्य की सक्रिय भूमिका वांछित है ।

केंस का चिंतन तब तक हावी रहा जब तक थैचर-रेगन की विचारधारा प्रबल नहीं हुई और सोवियत संघ धराशायी नहीं हुआ । फिर ‘वाशिंगटन आम राय’ पर आधारित भूमंडलीकरण का दबदबा बना । लगता है कि पूंजीवाद के आम संकट से पैदा होने वाले मूल्य वसूली की समस्या को लोग भूल गये हैं ।

उपभोक्तावाद के महिमामंडल के साथ ही यह नारा बुलंद किया गया है कि ‘तब तक खरीदारी करते रहो जब तक थक कर चूर न हो जाओ ।‘ यह मंत्र प्रभावी मांग की कमी को दूर रखने की कोशिश है । यह मंत्र विकासशील देशों में भी अपनाया जा रहा है जहां बहुसंख्यक जनता रोजगार और आयविहीन है । मगर याद रहे, उसके पास मताधिकार है और मीडिया की लाख कोशिशों के बाद उसे भ्रमित करना कठिन है ।

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