भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों की भूमिका पर निबन्ध!

सार्वजनिक संस्थानों से तात्पर्य सरकार द्वारा स्थापित और संचालित उद्योग-धंधों से है । सार्वजनिक संस्थानों ने कम ही समय में भारत की अर्थव्यवस्था में गहरी जड़ें फैला ली है ।

आज वे भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । कार्य क्षेत्र में विस्तार और राष्ट्रीयकरण के कारण सार्वजनिक उद्योगों में सराहनीय वृद्धि हुई है । सार्वजनिक संस्थानों के माध्यम से संसदीय तरीकों से सरकारी नियंत्रण को कायम रखा जा सकता है, और फिर भी अधिकांश उद्योग सामाजिक कल्याण के कार्यो में संलग्न रह सकते हैं ।

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भारत जैसे प्रगतिशील देश में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को स्थापित करने की आवश्यकता के संबंध में कोई दो राय नहीं हो सकती है । निजी संस्थानों का मूल उद्देश्य तो लाभ होता है, वे उन्हीं उद्योगों को हाथ में लेते हैं, जहां लाभ अधिकतम और निश्चित हो । यह प्रवृत्ति विकासशील देशों को अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक होती है ।

पहली हानि तो यह है कि किसी एक उच्च लाभदायक व्यापार पर अधिक पैसा लगाया जाता है, जिससे प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होती है । प्रगतिशील देशों में विकास की प्रक्रिया सामान्यत: असन्तुलित होती है । परिणामत: वहां के लोगो को अपनी आवश्यकताओं के लिए विदेशी उद्योगों पर निर्भर रहना पड़ता है ।

भारत में योजना के आरंभ से पहले उद्योगपति पारम्परिक उद्योगों जैसे जूट या कपास और लोहे या इस्पात में ही पूँजी लगाते थे । विदेशों में जूट और कपास की अधिक मांग के कारण और लोहे या इस्पात के उद्योगों में प्रयोग के कारण इनमें पैसा लगाने को ही प्राथमिकता दी जाती थी ।

सरकार निम्न लाभ या न लाभ, न हानि के सिद्धांत पर किसी उद्योग को आरंभ कर सकती है । गैर सरकारी क्षेत्रों में इस प्रकार की संभावना नहीं होती है । इसलिए विकासशील देशों में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का विकास वांछनीय ही नहीं अनिवार्य भी है ।

दूसरे शब्दों में, प्रगतिशील देश की अर्थव्यवस्था पूर्णत: सन्तुलित होनी चाहिए । पूँजी का मुक्त प्रवाह होना चाहिए ताकि वह समस्त आवश्यकताओं को पूर्ण करने और जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में समर्थ हो । प्रगतिशील देश में मुक्त अर्थव्यवस्था कारगर सिद्ध नहीं हो सकती ।

तथापि, सार्वजनिक संस्थानों में भी कई प्रकार की कमियाँ होती है । क्योंकि सार्वजनिक संस्थाएं सरकारी विभागों से सेवानिवृत सरकारी अधिकारियों द्वारा चलाई जाती हैं, उनमें अक्षमता तथा तकनीकी ज्ञान और अनुभव की कमी के कारण ढीलापन और दायित्वहीनता आ जाती है । इससे अपव्यय तो होता ही है, सार्वजनिक संस्थान के प्रशासन में भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार भी घुस जाता है ।

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गैर सरकारी संस्थान प्रतिस्पर्धा की भावना और अधिक लाभ प्राप्ति की आशा और सद्‌भावना निर्माण के लिए कुशलता पूर्वक कार्य करता है । व्यापार में आलस्य का कोई काम नहीं होता है । यहाँ प्रत्येक कर्मचारी अपने कार्य के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होता है । सरकारी क्षेत्रों में ऐसा नहीं होता है । यहाँ कार्यो में गति की कमी होती है, सारे काम धीरे-धीरे निपटाए जाते हैं ।

इन कठिनाइयों के होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है । सार्वजनिक संस्थाओं के सहयोग के बिना आधारभूत उद्योगों का विकास संभव नहीं है । इन संस्थाओं को सरकार चलाती है, इसलिए उसे पूँजी को बढ़ाने का अधिकार होता है, लेकिन गैर सरकारी क्षेत्र का उद्योगपति पूँजी में वृद्धि नहीं कर सकता है ।

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विभिन्न आर्थिक कार्यवृत्तियों के मध्य संबंध स्थापित करने, नागरिकों में देशभक्ति और निष्ठा की भावना बढ़ाने, कर्मचारी और प्रबंध को एक नजर से देखने की भावना बढ़ाने आदि के लिए सार्वजनिक संस्थाओं का अस्तित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है । मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में बड़ी योजनाओं के अंग के रूप सार्वजनिक संस्थाओं की भूमिका आवश्यक है ।

सार्वजनिक संस्थाओं में कार्य कुशलता बढ़ाने के लिए सरकार का उनके प्रति सही दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है । इससे भी महत्वपूर्ण भूमिका सरकारी अधिकारियों की है । दुर्भाग्य से यहाँ पर सख्त नियम और प्रतिबंध है । अधिकांश सभी संस्थाओं को स्वतंत्र कहा जाता है, लेकिन इन्हें सरकार के अनुमोदन की आवश्यकता होती है ।

नियम और प्रतिबंधों का पालन प्रत्येक अधिकारी का कर्तव्य होता है । यदि वह ऐसा नहीं करता है तो लेखा परीक्षण विभाग को उसके विरुद्ध उचित कार्रवाई करने का अधिकार होता है । ये नियम और प्रतिबंध सभी आर्थिक संस्थाओं से जुड़े होते है ।

सार्वजनिक संस्थाओं के विकास के लिए अधिकारियों को निर्भीक होकर कदम उठाने का अधिकार होना चाहिए । इनके प्रति मंत्रियों की मनोवृत्ति और सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए । तभी सार्वजनिक संस्थाओं का विकास संभव है ।प्रबंधकों के व्यवहार परिवर्तन और कर्मचारियों की दूरदर्शिता के बल पर सार्वजनिक संस्थाओं की स्थिति न सिर्फ मजबूत बल्कि लाभप्रद भी हो सकती है ।

जो व्यक्ति संतुष्टि, प्रशंसा, परस्परता की भावना और गर्व की आकांक्षा रखते है, उनका भविष्य सार्वजनिक संस्थानों में भविष्य उज्जवल है । इसके लिए संबंधित व्यक्तियों की विचारधारा में परिवर्तन और उचित कार्य के लिए स्वस्थ वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है ।