कितनी उपयोगी है हमारी शिक्षा-पद्धति पर निबन्ध | Essay on Our Educational System in Hindi!

मानव-जीवन एक दुर्लभ संयोग है । इसका विकास मात्र उत्तम शिक्षा से ही संभव हो सकता है । मानव-जीवन के पूर्ण विकास के लिए उसे जीवनोपयोगी, स्वविवेक, बौद्धिक जागृति, रचनात्मक-वैचारिक स्पष्टता की शिक्षा देना अति आवश्यक, है ।

भारत जैसे अर्द्ध-विकसित देश में शिक्षा-क्षेत्र की समस्याएँ पश्चिम से भिन्न है । यहाँ की समस्याएँ जीवन की यथार्थताएँ हैं । हमारे अधिकांश विद्यार्थी विश्व में चारों ओर हो रहे घटनाक्रम, यहाँ तक कि देश की सीमाओं के पार की घटनाओं के प्रति सर्वथा उदासीन हैं ।

उनके लिए जीवन अस्तित्व का सतत संघर्ष महत्त्व रखता है, क्योंकि वे अपने चारों ओर के सहानुभूतिहीन समाज में व्याप्त बेरोजगारी और भुखमरी की विभीषिकाओं से त्रस्त हैं । नक्सलवादी समस्या मूलत: युवक-युवतियों की निराशा और क्षोभ की अभिव्यक्ति है ।

देश के एक शिक्षाशास्त्री ने नक्सलवादी समस्या के प्रश्न पर अपना मत प्रकट किया था कि इस समस्या का सर्वाधिक भयावह पहलू यह है कि अशांति, अव्यवस्था और भ्रांतिमय दशा देश के निराश-हताश युवक-युवतियों को एक निश्चित लक्ष्य हेतु लड़ने के लिए प्रेरित करती है ।

इंजीनियरिंग कॉलेजों, पालिटेल्मीक और प्रतिनिधिक संस्थाओं में भी प्राय: हड़तालें तथा अन्य हिंसक घटनाएँ क्यों होती हैं ? इस समस्या का मूल तत्त्व इसी सीधे-सादे प्रश्न में निहित है । हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग स्नातक बेरोजगार या अर्द्ध बेकार क्यों हैं ? लाखों डिप्लोमाधारी और प्रशिक्षित तकनीकी विशेषज्ञ बेरोजगारी की विभिषिका झेलने को मजबूर हैं ।

जब तक हम अपने मेडिकल स्नातकों को गांवों में जाने के लिए प्रेरित या बाध्य नहीं करेंगे, बेरोजगार इंजीनियरों की भाति बेरोजगार मेडिकल स्नातकों का कल्पित दृश्य भी उपस्थित रहेगा । यह स्थिति विदेशियों को बड़ी विचित्र प्रतीत होती है । हम अपने समाज की अवनति के निकृष्टतम रूप में भी निश्चिंत और सुखपूर्वक रहने के अध्यस्थ हो गए हैं और यह निश्चिंतता प्राच्च चरित्र का ‘एक विशेष अंग’ प्रतीत होती है ।

केरल में बेरोजगारों में कला और विज्ञान के प्रथम श्रेणी के स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त युवक हैं, जिनमें कुछ मेधावी, अनुसंधान उपाधि प्राप्त युवाजन भी शामिल हैं । बेरोजगारी की समस्या की विकरालता का अनुमान तो इस एक तथ्य से ही हो जाता है कि अकेले पश्चिम बंगाल में १५ लाख बेरोजगारों में से ५ लाख शिक्षित बेरोजगार हैं ।

अन्य राज्यों में भी कमोबेश यही स्थिति है । पश्चिमी देशों में भी बेरोजगारी है, परंतु वहाँ लोग भुखमरी से नहीं मरते और न ही वे कुपोषण से पीड़ित हैं- जैसा कि इस देश में होता है । भारत में तो बेरोजगारी की समस्या इतनी प्रचंड है कि यह अन्य हर समस्या को पृष्ठभूमि में डाल देती है ।

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यहाँ तक कि इसके आशिक निराकरण मात्र से ही विश्वविद्यालयों के प्रांगण में पर्याप्त शांति स्थापित हो सकती है । निराशा और अनिश्चितता की यह भावना ही इस देश में छात्र-असंतोष का मूल कारण है, क्योंकि उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिखाई देता ।

इसीलिए वे छात्र-नेताओं तथा राजनीतिज्ञों के प्रचार और प्रपंचों का शिकार बन जाते हैं, जो कि अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए उनका उपयोग करते हैं । कक्षाओं में भारी भीड़ रहती है । सन् १९५० के पूर्व प्रत्येक वर्ग में जहाँ ४०-५० विद्यार्थी हुआ करते थे, वहाँ अब यह संख्या ३ से ४ गुणा तक बढ़ गई है । अत्यधिक भीड़ उत्तेजना उत्पन्न करती है ।

कोलकाता के अधिकांश कॉलेजों में गुरु-शिष्य अनुपात कम-से-कम १:७ या ८ है, जबकि यह आर्ट्स (समाज विज्ञान सहित), कॉमर्स और लॉ में १:१२ या अधिक-से-अधिक १६ होना चाहिए । विज्ञान में यह अनुपात और भी कम होना चाहिए । यह कोई आदर्श व्यवस्था नहीं है, परंतु यदि उच्चतर शिक्षा को मूल्यवान् और अर्थवान् बनाना है तो यह न्यूनतम सुविधा उपलब्ध करानी ही होगी, ताकि शिक्षा उपयोगी हो सके ।

कोलकाता के कुछ कॉलेज आमतौर पर निम्न मध्यम आय-वर्ग के लोगों से चलते हैं, जो भीड़-भाड़ के मामले में सन् १९४७ से भी पहले की परंपरा को रेखांकित करते हैं । इनमें प्रवेश-संख्या ७ से १० हजार तक पहुँच गई है और ये कॉलेज प्रातःकाल से सायंकाल तक कई पालियों में चलते हैं ।

मान लीजिए चयन प्रक्रिया से प्रवेश लागू करते हैं तो हम उनका क्या करेंगे, जो प्रवेश से वंचित कर दिए जाएंगे ? जनसंख्या-वृद्धि के दबाव के कारण कृषि-क्षेत्र में बेरोजगारी अथवा अर्द्ध-बेरोजगारी की स्थिति है और औद्योगिक क्षेत्र में मंद प्रगति के कारण हमारे उद्योग उन लोगों को खपाने में भी असमर्थ हैं, जो कि प्रौद्योगिकी दृष्टि से योग्य हैं ।

ऐसी दशा में, वर्तमान प्रणाली को जारी रखना, एक भयावह अपराध है यद्यपि इससे देश में उच्चतर शिक्षा की जड़ों पर आघात हो सकता है । छात्रसंघ विलासिता का एक माध्यम बन गया है । छात्रनेता इनमें प्राय: केवल धन के लोभ से प्रेरित होकर आते हैं । इनकी न शिक्षा में कोई रुचि होती है और न छात्रों के हित से कोई प्रेम ।

वे इन संघों के द्वारा छात्र-असंतोष को जीवित रखने के लिए प्रदर्शनों और प्रपंचों का आयोजन करते रहते हैं । कुछ तथाकथित प्रगतिशील राजनीतिक छात्रसंघों के गुणों पर बड़ा प्रभावशाली व्याख्यान देते हैं । वे इस प्रकार लोकप्रियता अर्जित करने का प्रयत्न करते हैं और उनका उद्‌देश्य विश्वविद्यालयों में छात्र-नेताओं के माध्यम से अपना प्रभुत्व स्थापित करना होता है, जो कि आमतौर पर उनके एजेंट ही होते हैं ।

छात्र संघों के नेताओं में से अधिकांश को राजनीतिक दलों या असामाजिक तत्त्वों से धन प्राप्त होता है, जो कि इसे पूँजी लगाने का एक लाभकारी स्थान समझते हैं । छात्रसंघ की बजाय अच्छा यह होगा कि प्रत्येक संकाय में सर्वोत्तम छात्रों की छात्र परिषद् हो और यह परिषद् अनुभवी और सहानुभूतिपूर्ण शिक्षकों के निर्देशन में संचालित हो ।

यह छात्रों की रचनात्मक गतिविधियाँ तेज करने और उनकी शिकायतों की ओर विश्वविद्यालय-अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने के मंच के रूप में कार्य करें तथा विश्वविद्यालय-प्रशासन उन शिकायतों पर तत्काल सहानुभूतिपूर्वक विचार करे ।

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सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें कोई विलंब न हो । छात्र-छात्राओं को निश्चित रूप से यह अनुभव कराया जाना चाहिए कि विश्वविद्यालयों का अस्तित्व ‘उन्हीं’ के लिए है और वे एक संयुक्त प्रयास के सक्रिय भागीदार हैं । उनकी मनोरंजन-गतिविधियों में सत्ता का पूर्ण विकेंद्रीकरण किया जाए और यह आवश्यक है कि छात्रसंघ ही वह माध्यम बने ।

अब हमारे समक्ष यह यक्ष प्रश्न है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली छात्र-छात्राओं को विश्वविद्यालय छोड़ने पर जीवन के कटु सत्यों का सामना करने के लिए तैयार करने में कहाँ तक समर्थ है और हमारे पादयक्रम का स्तर विकसित देशों की तुलना में कहाँ तक पहुँचा है ?

भारतीय विश्वविद्यालय पुराने पादयक्रमों और अप्रचलित विचारों के आधार पर चल रहे हैं तथा ये ऐसे शैक्षणिक संरचना पर आधारित हैं, जिनमें नवीन विचारों का प्रवेश नहीं हो पाता और निर्भय मत-अभिव्यक्ति को पसंद नहीं किया जाता ।

हम अर्द्ध-शिक्षित स्नातक और स्नातकोत्तर युवक-युवतियाँ पैदा कर रहे हैं, कुछ उच्च वर्ग के तथा आमतौर पर नवधनिक वर्ग के बच्चे जो पश्चिमी संस्कृति के निकृष्टतम रूप का अन्धानुकरण करके एक प्रकार की ‘दोगली’ संस्कृति ग्रहण कर रहे हैं ।

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गंभीर छात्र-छात्राएँ प्राय: निराशा से ग्रस्त रहती हैं । कुछ विद्यार्थी वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की अपर्याप्तता के बारे में कभी-कभी अपनी शिकायतें व्यक्त करते हैं, पर उनका स्वर विश्वविद्यालय प्रशासन के शोरगुल में गुम हो जाता है ।

हमारे पादयक्रम छात्र-छात्राओं के समक्ष चुनौतियाँ प्रस्तुत नहीं करते । एक औसत से भी कम बुद्धिवाला छात्र शिक्षकों द्वारा लिखे गए ‘बाजारू नोट्‌स’ का एक महीने तक गम्भीर अध्ययन करके कला या सामाजिक विज्ञान, वाणिज्य या कानून की कोई भी परीक्षा उत्तीर्ण कर सकता है ।

इस प्रकार इन विद्यार्थियों को वर्ष- भर समस्त प्रकार की गतिविधियों में संलग्न होने के लिए अवकाश के क्षण मिल जाते हैं, किंतु उनकी हरकतों से यह उक्ति रेखांकित हो उठती है, ‘खाली दिमाग शैतान का घर ।’ अधिकांश विद्यार्थी ग्राम्यांचलों से आने लगे हैं । वे नीरस, उदासीनतापूर्ण विश्वविद्यालय-जीवन में पूर्णतया खो जाते हैं । उनका कोई मार्ग-दर्शन नहीं करता और न ही कोई सहानुभूति के दो शब्दों से उनकी आहत भावनाओं को प्रभावित करता है ।

कुलीन परिवारों के बच्चे तो अत्यल्प काल में ही आधुनिक जीवन की समस्त बुराइयों को आत्ससात् कर लेते हैं । हम यह गलत समझ लेते हैं कि विद्यार्थी ने तो विश्वविद्यालय में प्रवेश ले ही लिया है, वह अपनी जरूरतें स्वत: पूरी कर लेगा तथा विश्वविद्यालय का उत्तरदायित्व तो मात्र प्राध्यापकों द्वारा दिए जानेवाले व्याख्यानों के साथ समाप्त हो जाता है, परंतु अनुभव ने यह गलत साबित कर दिया है ।

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वांछित परिणाम की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि छात्र-छात्राओं के एक वर्ग को, जिनकी संख्या २०-२५ से अधिक न हो, अनुभवी और सहानुभूतिपूर्ण शिक्षकों की देख-रेख में सौंप दिया जाए जो उनके निजी कल्याण और शैक्षणिक हितों पर ध्यान दे तथा उनके संरक्षकों की भाति काम करे । इस प्रकार का व्यक्तिगत संपर्क बड़ा प्रभावशाली होता है ।

इस समस्या का महत्त्वपूर्ण पक्ष ‘शिक्षक’ है । इसकी भूमिका निराशाजनक रही है । हाल में, एक राज्य में एक परियोजना के अंतर्गत संपन्न सर्वेक्षण से यह प्रमाणित हो गया कि उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में घटनेवाली अनुशासनहीनता की कुल घटनाओं में से २४ प्रतिशत के लिए शिक्षक ही उत्तरदायी थे ।

विश्वविद्यालयों में यह प्रतिशत और भी अधिक हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । समस्त खतरनाक अपराधियों में शिक्षक- राजनीतिज्ञ सबसे बुरा है, क्योंकि उसमें शरारत की अपरिमित संभवना हैं । ऐसे शिक्षक-राजनीतिज्ञ अधिकांश विश्वविद्यालयों और शिक्षण-संस्थाओं में मौजूद हैं । वे खतरनाक इसलिए हैं, क्योंकि वे सब अपने निहित स्वार्थ के लिए छात्र-छात्राओं को ‘कठपुतली’ की तरह नचाते हैं और उस प्रक्रिया में वे निर्दोष छात्र-छात्राओं का जीवन निर्ममता से बरबाद कर डालते हैं ।

कोई भी विश्वविद्यालय इस बुराई से अछूता नहीं है । उधर, शिक्षकों की भी अपनी समस्याएँ हैं । उन्हें न सामाजिक स्तर प्राप्त है और न वे अब आदर के पात्र रहे । उनमें से अधिकांश का जीवन गरीबी के विरुद्ध सतत संघर्ष के सिवाय कुछ नहीं रह गया है, यद्यपि ऊपर से वे शालीन जीवन बिताने का आडंबर रचते हैं ।

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जब उनका अधिकांश समय विद्यालयों की प्रबंध-समितियों के प्रशिक्षित सदस्यों की कृपा प्राप्त करने और उनकी खुशामद करने में ही बीत जाता है तो वे धनी लोगों के बच्चों में अनुशासन की भावना कैसे उत्पन्न कर पाएँगे ?

जब वे प्राइवेट ट्‌यूशन करेंगे, केवल ऐसे पाठों की तैयारी कराएँगे, जिसमें से परीक्षा के प्रश्न बता देंगे, तो वे स्वस्थ आदर्श कैसे स्थापित कर सकेंगे ? शिक्षकों का स्तर और प्रतिष्ठा का अवमूल्यन ही छात्रों के अशिष्ट होने के प्रधान कारण है ।

यहाँ समाजवाद को हमने एक आस्था के रूप में स्वीकार कर लिया है, जिसमें कि अन्य बातों के अतिरिक्त, सामाजिक विषमताएँ घटाना, आय की असमानता दूर करना और समस्त नागरिकों को जीवन की उन्नति के लिए अवसर सुलभ कराना भी शामिल है, परंतु जिस ढंग का समाजवाद हमने अपनाया है, उससे अमीर और अमीर बन रहे हैं तथा आय की विषमता भी बढ़ रही है ।

तस्कर, चोरबाजारी करनेवाले तथा साहूकार हमारी नैतिक चेतना के संरक्षक बन बैठे हैं और उनके बच्चे, संबंधी तथा नाते-रिश्तेदारों ने अपने लिए जीवन के सर्वोत्तम साधन जुटा लिये हैं । यहाँ तक कि उन्होंने ऐसे पद भी हस्तगत कर लिये हैं, जिसमें बुद्धिमत्ता, ईमानदारी और आदर्शवादिता की आवश्यकता होती है । वे इन गुणों से रहित होने के बावजूद भी इन अधिकार, को हथिया लेते हैं और इस प्रकार सुयोग्य गुरुजनों को उनके उचित अधिकार से वंचित कर देते हैं ।

इससे देश का विकास अवरुद्ध हुआ है और प्रतिभाशाली युवक-युवतियों में निराशा बड़ी है, जिनमें से विश्व-योग्यतावाले युवक-युवतियाँ संपन्न पश्चिम में पूर्व के लिए अवसर खोजने को प्रेरित हुए हैं । अन्याय, सामाजिक विषमता और चारों ओर व्याप्त अमानवीयता ने नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ा दिया है ।

ईमानदार किंतु निराश और क्षुब्ध युवा-पीढ़ी नक्सलवादी बन रही है या फिर सस्ते, बाजारू, कामुक साहित्य और फिल्म के शिकंजे में फँसती जा रही है । इस समस्या के निराकरण की आशा करना एक प्रकार से आसमान के तारे तोड़ना है । जिस प्रकार बेरोजगारी और अत्यधिक भीड़ की समस्याएँ असाध्य हैं उसी प्रकार वैचारिक तनाव भी ।

कुछ समय पूर्व तो भारत-सरकार द्वारा घोषित शाब्दिक ‘राष्ट्रीय शिक्षा-नीति’ का प्रारूप व्यावहारिकता के अर्थ में संदिग्ध प्रतीत हो रहा था, यहाँ तक कि असंतुलित भी, किंतु जब राष्ट्रीय चिंतकों ने उक्त नीति पर गंभीरता के साथ बार-बार विचार-मंथन किया तब ‘नवनीत’ के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा-नीति के आधारभूत तत्त्व इस रूप में प्राप्त हुए:

i. शिक्षा का लोकतंत्रीय स्वरूप,

ii. समाज में परिव्याप्त शैक्षणिक विषमता का उमूलन करने की दृष्टि,

iii. शिक्षा से मिलनेवाले लाभों पर वर्तमान पारस्परिक एकाधिकार को समाप्त करने की दृष्टि,

iv. देश के प्रत्येक नागरिक के लिए शिक्षा का समान अवसर प्रदान करने की दृष्टि,

v. परंपरागत भारतीय संस्कृति के उन मूल तत्त्वों को शिक्षा में नैसर्गिक रूप से समावेश करना, जिनसे उसकी जातीय सांस्कृतिक पहचान को आघात न पहुँचे,

vi. विज्ञान और तकनीकी का शैक्षिक आवश्यकताओं के अर्थ में व्यापक उपयोग,

vii. शिक्षा की औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों पद्धतियों का उपयोग ।

उपर्युक्त आधारभूत तत्त्वों को विस्तार देने के लिए ‘राष्ट्रीय शिक्षा-नीति’ की प्रमुख उपयोगी उपनीतियों पर गौर करना भी श्रेयस्कर होगा:

I. परीक्षा की नवीन पद्धति,

II. राष्ट्रीय स्तर पर प्रति पाँचवें वर्ष संपूर्ण शिक्षा-नीति का मूल्यांकन,

III. अखिल भारतीय शिक्षा-सेवा की योजना,

IV. रोजगारपरक शिक्षा-नीति,

V. नवोदय विद्यालयों को विस्तार देना,

VI. रेडियो, टी.वी. तथा अन्यान्य संचार उपकरणों का शिक्षा में प्राथमिकता के साथ समावेश,

VII. केंद्रीय और राज्य-स्तरीय शिक्षा-सलाहकार परिषदों की स्थापना ।

उपर्युक्त सभी परोपकारी बातें फिलहाल कागजों तक ही सीमित हैं । इनका व्यावहारिक स्वरूप कब सामने आता है, इसकी प्रतीक्षा है । लेकिन इतना अवश्य है कि किसी भी व्यक्ति या देश का विकास वहाँ के शिक्षा-स्तर पर ही निर्भर करता है ।

दृष्टांतस्वरूप, आज के विकसित देशों जापान, रूस अमेरिका को ले सकते हैं । ये देश अन्य देशों की अपेक्षा अत्यधिक विकसित हैं । इसका मुख्य कारण है, वहाँ की अत्युत्तम शिक्षा-पद्धति । भारतवर्ष के प्राचीन शैक्षिक व्यवस्था और मूल्यों पर दृष्टि डाली जाए तो पता चलेगा कि पहले की शिक्षा-पद्धति आदर्श थी ।

उस काल में मानव-जीवन को उच्च और उदार बनाने के लिए वास्तविक शिक्षा दी जाती थी । इसकी उत्तमता से अभिप्रेरित और आकर्षित होकर विदेशों से असंख्य विद्यार्थी भारत में विद्याध्ययन करने आते थे । उस समय शिक्षा के क्षेत्र में भारत का आकर्षण था । उसे ‘जगद्‌गुरु’ का श्लाघनीय सम्मान प्राप्त था ।

यहाँ तक्षशिला, नालंदा जैसे अप्रतिम विश्वविद्यालय थे, जिनमें सहस्रों की संख्या में विद्यार्थी अध्ययन करते थे । इन विश्वविद्यालयों में ज्ञान का अपरिमित कोष विद्यमान था । शिक्षा-केंद्र विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा के अक्षय कोष से संपूरित कर देते थे । छात्र-छात्राएँ आध्यात्मिक शिक्षा के साथ-साथ अपने आप में जीविकोपार्जन की क्षमता भी रखते थे ।

इस कर्तव्यपरायणता के फलस्वरूप भारत ज्ञान का वितरण करता था । भारत ‘ज्ञान-सूर्य’ बन चुका था । काल-चक्र के प्रत्यावर्तन से कालांतर में, भारत अनेक उथल-पुथल और राजनीतिक संघर्षो का केंद्र बना और शनै:-शनै: उसकी प्राचीन आदर्श पद्धति का हास होते-होते लोप हो गया ।

अतीतकालीन भारतीय शैक्षणिक पद्धति की उत्कृष्टता इससे स्पष्ट हो जाती है कि उस काल में जिन्होंने भी उच्च स्तर तक की शिक्षा प्राप्त की थी, वे आज ‘इतिहास पुरुष’ की संज्ञा और अलंकरण प्राप्त कर चुके हैं । कालखंड अतीत में समाते चले गए और एक समय अंग्रेजी सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ ।

अंग्रेजी शासन में शिक्षा का आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया । लॉर्ड मैकाले ने भारत को शिक्षा-प्रारूप प्रस्तुत करते हुए अपनी सत्ता के समक्ष कहा था- ‘भारत की संतानों को ऐसी शिक्षा दी जाए जिससे कि वे वर्ण से भारतीय हो किंतु मस्तिष्क से ब्रिटिश ।’

इसके परिणामस्वरूप छात्र-छात्राएँ शिक्षा ग्रहण कर ‘खोखले ज्ञान की प्रतिमा’ बनने लगे । जो लोग कुछ पढ़-लिख लेते थे, वे ब्रिटिश अधिकारियों के दासत्व में ही अपने जीवन को समाप्त कर देना अपना कर्तव्य समझते थे ।

ब्रिटिश राज द्वारा प्रदत्त शिक्षा-पद्धति ने विद्यार्थियों में अकर्मण्यता और विवेकहीनता को जन्म देकर आध्यात्मिक पक्ष का समूल विनाश कर दिया । इस प्रकार, ब्रिटिश-साम्राज्य शैक्षिक जगत् में रोग फैलाने में सफल हो गया ।

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उसने भारतीयों के मस्तिष्क को इतना संकुचित कर दिया कि वे शिक्षा का उद्‌देश्य मात्र नौकरी समझने लगे तथा शिक्षा परीक्षा उत्तीर्ण करने का पर्यायवाची हो गई । जीवन की समस्याओं का निराकरण करने और जीवन सफल बनाने की शक्ति उस शिक्षा में नहीं रही ।

सदियों की पराधीनता के बाद भारत ने स्वाधीनता के वातावरण में श्वास लिया । १५ अगस्त, १९४७ को देश स्वतंत्र हुआ और २६ जनवरी, १९५० को संवैधानिक सार्वभौमिकता का गौरव प्राप्त किया था, किंतु आज भी लगभग ६० वर्षों की स्वतंत्रता के उपरांत भारतीय शिक्षा का आधार ब्रिटिश कालीन शिक्षा बनी हुई है ।

सांप्रतिक शिक्षा-नीति के अंतर्गत कतिपय गुणों के साथ अधिक अवगुण हैं । पहला दोष यह है कि यह निष्क्रिय और अकर्मण्य है । इस शैक्षिक पद्धति में विद्यार्थी निष्क्रिय रहते हुए शिक्षा के दायित्वों के प्रति जागरूकता का प्रदर्शन नहीं हो पाता । उसमें चेतना, कागृति और स्कूर्ति के अवयवों का समावेश इस प्रकार की शिक्षा नहीं करती और निरंतर कार्य-क्षमता और दक्षता के स्थान पर आलस्य और श्रम से बचने की भावना को स्थापित करती जाती है ।

शिक्षा भारत के विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान के बोझ से लादे जा रही है, जिनको विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा, उपाधि, सम्मान इत्यादि के रूप में लाद-लादकर इधर-उधर भटकते, आवारा फिरते हुए बेकारी की समस्या को बढ़ाने में सहयोग करते रहे हैं ।

शिक्षा का जो वास्तविक उद्‌देश्य है, सांप्रतिक शिक्षा से उसकी पूर्ति नहीं होती । विद्यार्थी की आत्मिक तथा शारीरिक शक्ति का समग्र विकास नहीं हो पाता । मात्र कुछ पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त उसे देश-काल, राजनीति तथा मानवीय गुणों का विशेष ज्ञान नहीं होता ।

विद्यार्थियों का दृष्टिकोण विकसित नहीं होता तथा वे क्षुद्र भावनाओं से ऊपर नहीं उठ पाते । यही कारण है कि छात्र-छात्राओं में सर्वत्र अनुशासनहीनता के प्रकरण रू-बरू होते रहते हैं । अभी तक जीवंत नैतिक शिक्षा की गंध नहीं मिल पा रही है, क्योंकि समाज में सुचारु रूप से जीवन-यापन के लिए मानव में मानवीय गुणों का होना नितांत आवश्यक है ।

आज जिस तरह की और जिस तरह से शिक्षा भारत के छात्र-छात्राओं को दी जा रही है, उससे देश-प्रेम और राष्ट्रीयता का संस्कार नहीं पनप सकता । भारत की जो वास्तविक सभ्यता और संस्कृति है, उसका आज की शिक्षा से कोई सरोकार नहीं ।

यही कारण है कि आज शिक्षित मनुष्य में अपने देश के गौरव तथा मर्यादा के प्रति किंचित् मात्र भी अभिमान नहीं होता । उसमें तो बस परदेशी बाबुओं की तरह जीवन-यापन करने, चकाचौंध भरी दुनिया में रहने तथा भौतिक सुखों के पीछे भागने की चाह बनी रहती है ।

इस दिशा में सैद्धांतिक व्यावहारिकता की दृष्टि से उनका जीवन ‘शून्य’ बना रहता है । शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार छात्र-छात्राएँ देश-विदेश के इतिहासों को कंठस्थ तो कर लेते हैं, लेकिन वे अपने जीवन के इतिहास को पढ़ने से वंचित रह जाते हैं ।

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वनस्पति-विज्ञान या भूगोल से वे प्रकृति की सूक्ष्मताओं का अध्ययन तो कर लेते हैं परंतु मानवीय प्रवृत्ति को समझना उनके लिए एक समस्या ही बनी रहती है । इसी कारण वे मित्रों के चरित्र, जीवन-मूल्यों से अपरिचित रह जाते हैं और इधर-उधर भटकते रहते हैं ।

तात्पर्य यह है कि थोपी गई शिक्षा-पद्धति छात्र-छात्राओं को विषयगत दक्षता तो प्रदान कर सकती है, परंतु उनको एक जागरूक नागरिक बनाने का दावा नहीं कर सकती । वास्तव में, आज शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रह गया है, यही कारण है कि उसके विशिष्ट पक्ष की मूलभूत सारी रीतियाँ नीतियाँ तथा मान्यताएँ चरमराकर रह गई हैं ।

छात्र-छात्राओं पर कृत्रिम संस्कार का एक लबादा डाल दिया जाता है और वे शिक्षा मंदिर में ठीक उसी तरह से आवारा फिरने लगते हैं, जिस तरह से एक धोबी गधे पर बोझ डाल देता है और बोझ का महत्त्व समझे बिना गधा महाराज चल पड़ते हैं, घाट की ओर ।

ज्ञान का सार्थक पहलू तो तब उजागर होता है जब विद्यार्थी को सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण की ओर अभिप्रेरित किया जाता है । आज, शिक्षा देनेवालों की स्थिति और उनकी मानसिकता ‘एकोहम् द्वितीयोनास्ति’, दूसरे शब्दों में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ वाली हो चुकी है ।

वर्तमान शिक्षा पद्धति धन पोषित हो गई है । विश्वविद्यालयीय स्तर तक के शिक्षा भार को वहन करना सामान्य परिवार के लिए एक चुनौती भरा कार्य है । इसके साथ-साथ शिक्षा और मूल्यांकन-पद्धति, गोपनीयता की गुफा में घुसकर उल्टी-सीधी कलाबाजियों का प्रदर्शन करती रहती है ।

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