सार्थक पाठ्‌यक्रमों में प्रवेश की विसंगतियाँ पर निबन्ध | Essay on Anomalies in Entrance Examination in Hindi!

प्रस्तावना:

बच्चे के लिए कडे संघर्ष का समय वह होता है जब उसे सार्थक पाठ्‌यक्रम र्मे प्रवेश पाना होता है । विद्यालय में प्रवेश करते ही इस संघर्ष का शुभारम्भ हो जाता है । तत्पश्चात् प्रवेश हेतु जद्दोजहद का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो जाता है ।

मनचाहे विषय में प्रवेश पाना भाग्य, सामर्थ्य और साधनों के तालमेल का एक अजीबोगरीब खेल साबित होता है । प्रवेश की मुहिम को जीतने में ‘अर्थ’ की भूमिका प्रमुख होती जा रही है । कैपीटेशन, डोनेशन और डेवलपर्मेट शुल्क के नाम पर अधिकांश निजी शिक्षा संस्थान अभिभावकों से अच्छी-खासी धनराशि उगाह रहे हैं । इनमें से कुछ पर ‘फारेन’ का ठप्पा भी जुड़ा रहता है ।

चिन्तनात्मक विकास:

आज के आधुनिक और भौतिकवादी परिवेश ने जीवन के तमाम सरोकारों से जुड़े क्षेत्रों में अनेक जटिलताओं को जन्म दिया है, उच्च शिक्षा मँ दाखिले की समस्या उसी की उपज मात्र है । बढ़ती जनसंख्या, सीमित संसाधन और उच्च शिक्षा प्राप्त करके अच्छा जीवन जीने की ललक दाखिले की समस्या का एक पहलू है । इस समस्या का एक सामाजिक पहलू भी है ।

हाई क्कूल या इन्टर पास करके रोजगार की तलाश मे भटकने वाले युवक अन्तत: उच्च शिक्षा में दाखिला लेकर समय काटने की कोशिश करते हैं । युवकों की यह प्रवृत्ति उच्च शिक्षा के पाठ्‌यक्रमों मे अनावश्यक दबाव बढ़ाती है ।

प्रवेश की समस्या को भयावह बनाने र्मे सरकारूऔर शिक्षण संस्थाओं की प्रशासनिक विसंगतियों भी कम जिम्मेदार नहीं हैं । जिस अनुपात में छात्रों की संख्या बढ़ रही है उसकी तुलना मँ नये शिक्षण संस्थान नहीं खुल रहे हैं । अगर सरकार अभी से उच्च शिक्षा में प्रवेश की समस्या के निराकरण के प्रति जागरूक नहीं हुई तो आने वाले दिनों में स्थिति और बदतर होगी ।

उपसंहार:

देश के आर्थिक या औद्योगिक विकास की तुलना में कनान-लालन ख शिक्षण संस्थाओं का विकास न के बराबर हुआ है । लोगों की आय में काफी वृद्धि हुई है । आज सभी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते हैं । शिक्षा से किसी को भी वंचित करना कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना नहीं हो सकती ।

इसके लिये और विश्वविद्यालय एवं महाविद्याल खोले जाने चाहिए । इसके अतिरिक्त ऐसे तकनीकी सरकारी विद्यालय, महाविद्यालय खोले जायें जिनका सम्पध विश्वविद्यालय से न हो । भारत में शिक्षा के आयोजन की प्रक्रिया ने अत्यधिक उतार-चढाव देखे हैं ।

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आज नर्सरी से लेकर विश्वविद्यालय और व्यावसायिक पाठ्‌यक्रमों में कहीं भी प्रवेश पाना हर किसी के लिए एक कठिन चुनौती बन चुका है । भारत के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का मानना था कि ”शिक्षा जन्मसिद्ध अधिकार है और यह राज्य का दायित्व है कि वह सबके लिये शिक्षा की व्यवस्था करे ।

अब हमारे मानव संसाधन मंत्री शिक्षा के लिये निजी विश्वविद्यालय की स्थापना की सोच रहे हैं । चार-पांच दशकों के बीतते न बीतते भारतीय शिक्षा का परिदृश्य जनतांत्रिक, समाजवादी, समतावादी और अवसर की समानता के लक्ष्यों से दूर भटक गया है ।

शिक्षा के अवसर जरूर बढे हैं और शिक्षा के क्षेत्र तथा विशिष्टताओं का विस्तार भी हुआ है, परन्तु इनका लाभ थोड़े से लोगों को ही मिल सका है जो आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से समर्थ हैं । मध्य वर्ग और निम्न वर्ग की सीमाएं आड़े आती रहीं और सामाजिक गतिशीलता सीमित मात्रा में ही आ सकी ।

स्वतन्त्रता पश्चात् सबकी नजरें शिक्षा की ओर लगी रहीं कि शिक्षा पाकर बच्चे आगे बढेगे और परिवार की आशा-आकांक्षा को साकार करेंगे । शिक्षा को हर तरह की सफलता की कुंजी मान लिया गया । पर यह सब हो न सका । शोषणविहीन समाज बनाने और सामाजिक न्याय दिलाने के बदले शिक्षा ने प्राय: यथास्थितिवाद का पोषण किया और आर्थिक विषमता को भी बढ़ाया ।

परन्तु शिक्षा की इस विसंगति से बेखबर आम आदमी शिक्षा को लेकर अपने सपने संजोये रहा । महंगी होती शिक्षा की मार सहता और जिन्दगी की अन्य जरूरतों से समझौते करता वह इस विश्वास के साथ बच्चों की शिक्षा पर व्यय करता रहा कि एक दिन उसके सभी दुख दूर हो जाएंगे ।

पारिवारिक व्यवसाय की परम्परा के हास और कृषि के आधार के क्षीण होने के साथ सफेदपोश नौकरी-पेशा वालों की जमात में शामिल होना प्रतिष्ठा और सामर्थ्य का पैमाना माना जाने लगा और यह केवल शिक्षा के द्वारा ही संभव था ।

इस तरह शिक्षा का प्रयोजन शिक्षित होने से मिलने वाले ज्ञान तथा आन्तरिक सुख के बदले नौकरी और जीविकोपार्जन मात्र हो गया । साथ ही शिक्षा के ढांचे में बदलाव आया और शिक्षा का प्रकट व्यवसायीकरण और व्यावसायिक शिक्षा का विस्तार शुरू हुआ ।

शिक्षेतर आजीविका के अवसरों की कमी के कारण शिक्षण संस्थाओं पर शिक्षार्थियों का दबाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है और ज्यादातर संस्थाएं अपनी धारण क्षमता से बाहर जाकर काम कर रही हैं । प्रौढ़ शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ यह दबाव भविष्य में और भी बढ़ेगा ।

इस तरह के दबाव के अनेक अकादमिक, सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम अनुभव किये जा रहे हैं । शिक्षा की गुणवत्ता में हास, अनावश्यक प्रतिस्पर्धा और शिक्षा पाने की कीमत में बढ़ोतरी ऐसे व्यापक परिणाम हैं जिन्हें हर कोई महसूस कर रहा है ।

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पर इन सबसे घातक चुनौती शिक्षा की दुकानों की भरमार से पैदा हो रही है । आज हर स्तर की शिक्षा मुहैया कराने के लिए किस्म-किस्म के विद्यालय, शिक्षण संस्थान खड़े होते जा रहे हैं जो शिक्षा के सरकारी और औपचारिक तंत्र को झुठला रहे हैं ।

अनिश्चित भविष्य की चिन्ता से जड़ हुआ जाता छात्र और उसके माता-पिता अंधेरे में तीर चलाने को मजबूर हैं । अपने बच्चे का ‘कैरियर’ बनाने के लिये वे सब करने के लिये तैयार हैं । ऐसे में शिक्षा का अवसर उपलब्ध कराने या उसमें सहायता पहुंचाने का उपक्रम करने वाली संस्थाओं की कुकुरमुत्ते जैसी बाद आ गयी है ।

इनमें द्वितीय श्रेणी की स्थानापन्न व्यावसायिक शिक्षा-उपलब्ध कराने वाली संस्थाएं, परीक्षा की तैयारी कराने वाली ‘कोचिंग संस्थाएं’ इनसे जुडे प्रकाशन जो परीक्षोपयोगी सहायक सामग्री उपलब्ध कराते हैं और अन्य किस्म की सहायता पहुंचाने वाले प्रतिष्ठान शामिल हैं । शिक्षा का यह उद्योग तीव्र गति से फैल रहा है और इसके जाल मजबूत होते जा रहे हैं ।

शिक्षा की मुख्य धारा की गिरती साख और नोकरी या काम-काज की दृष्टि से ज्यादातर परिणामहीन होने के कारण ऐसी संस्थाओं का बाजार गर्म है । फिर भी औपचारिक शिक्षा व्यवसाय और कारोबार की दुनिया तक ले जाने वाली बैसाखी अवश्य है ।

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इसकी परीक्षाओं पर खुद इस व्यवस्था का ही एतबार कम है । बाहर की दुनिया में तो अधिकांश संस्थान अपनी स्वतंत्र परीक्षाएं लेते हैं । आज का छात्र परीक्षा के भंवरजाल में है । किसी भी डिग्री या पाठ्‌यक्रम में प्रवेश प्राय: परीक्षा पर निर्भर करता है ।

एक परीक्षा से दूसरी और दूसरी से तीसरी । यह क्रम चलता ही रहता इस तरह के माहौल में शिक्षा के किसी सार्थक पाठ्‌यक्रम में प्रवेश पाना जीवन संघर्ष के में पहली विजय दर्ज कराने से कम नहीं है । इसकी शुस्सात तभी हो जाती है जब बच्चे विद्यालय में पहली बार प्रवेश लेना होता है ।

बच्चे की प्रवेश परीक्षा होती है, हालांकि उसे ‘प्रवेश’ या ‘परीक्षा’ इनमें से किसी भी प्रत्यय का बोध नहीं होता । हां, उसके मम्मी-पापा सहमे-रकुचाये प्रवेश के लिए साक्षात्कार की कठिन परीक्षा से अवश्य भयभीत होर्ते हैं । ‘टेस्ट’ का यह पहला स्वाद खट्टा और मीठा दोनों हो सकता है । जैसा भी हो वह बच्चे के आत्मगौरव और आत्मबोध छा एक खास हिस्सा बन जाता है ।

इसके बाद प्रवेश हेतु जद्दोजहद का एक लम्बा सिलसिला शुरू होता है । शिक्षा के हर पड़ाव पर, जिन्हें एक बच्चे को अपनी आगे की जिन्दगी में पार करने होते हैं, युद्ध करना होता है । मनचाहे विषय में प्रवेश पाना भाग्य, सामर्थ्य और साधनों के तालमेल का एक अजीबोगरीब खेल साबित होता है ।

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शिक्षा-संस्थाएं विभिन्न पाठ्‌यक्रमों में योग्यताक्रम से छात्रों का चुनाव करती हैं । व्यवसायो के लिए प्रासंगिकता को आधार बना कर प्रवेश हेतु न्यूनतम प्राप्तांक तय होता है और प्रवेश चाहने वालों की भीड़ में अधिकांश को निराशा ही हाथ लगती है ।

मांग और पूर्ति का गणित ठीक नहीं बैठता । अक्सर छात्रों और अभिभावकों को समझौता करना पड़ता है । उन्हें मनचाहे विद्यालय और मनचाहे पाठ्‌यक्रम या विषय में दाखिला नहीं मिल पाता । इसमें दोनों तरह के विद्यार्थी होते हैं-वे जो आवश्यक योग्यता और विषय के लिए अपेक्षित तत्परता से युक्त होते है और वे भी, जो अपनी क्षमता को नजरअन्दाज करते हुए ख्याली पुलाव पकाते हैं ।

दोनों ही कुठा के शिकार होते हैं । शिक्षा की प्रक्रिया इतनी लम्बी हो गई है और उसमें विषय-परिवर्तन की दृष्टि से लचीलापन इतना कम है कि एक बार गलत विषय चुन लेने का खामियाजा सालों साल भुगतना पड़ता है और कभी-कभी तो जीवन की दिशा ही बदल जाती है ।

वस्तुत: विषयों या पाठ्‌यक्रमों के चमन के लिए आवश्यक परामर्श और वैज्ञानिक ढंग से व्यक्ति की क्षमताओं और निहित सम्भावनाओं के मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित प्रणाली हमने स्वीकार नहीं की है । प्रवेश एक दौड़ हो चली है जिसमें प्रवेशार्थी के दम खम की पड़ताल होती है । पर छात्र की योग्यता और रूचि ही इस दौड़ में कामयाबी के लिये काफी नहीं होते ।

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प्रवेश की तैयारी और योजना एक लम्बी प्रक्रिया हो गयी है जिसमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । शिक्षा में व्यतिक्रम, व्यवधान औइrर दिशा परिवर्तन आम बात हो चली है । विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले बहुत से छात्र बाद में मानविकी, साहित्य और समाज विज्ञानों की ओर मुड़ जाते हैं और उसमें से कुछ श्रेष्ठ उपलब्धि भी प्रदर्शित करते हैं ।

एक जमाना था जब शिक्षा एक बंधे बंधाये ढर्रे पर चलती थी । अध्ययन के विकल्प सीमित थे और नौकरियों में, खास तौर पर गैर अकादमिक क्षेत्र में, उतनी विविधता नहीं थी जितनी आज है । आज निजी क्षेत्र (प्राइवेट सेक्टर) में अनेकानेक नये व्यवसायों और धंधों के अवसर बड़े हैं जिनके लिए प्रबंधन, कम्प्यूटर, विज्ञापन, जन-सम्पर्क, मीडिया आदि के क्षेत्रो में विशिष्ट प्रशिक्षण आवश्यक है ।

आर्थिक उपलब्धि की दृष्टि से इन क्षेत्रों मे लगे लोग सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरी पेशे के लोगों की तुलना में बहुत आगे हैं । सुख-सुविधा के हर साधन इन्हें उपलब्ध हैं । इन दोनों क्षेत्रों के बीच की आर्थिक विषमता आखें चुंधियाने वाली हैं । आज निजी क्षेत्र में नौकरी द्वारा एक करोड तक की वार्षिक आय की सभावना है ।

इसी कारण प्रबंधन (मैनेजमेट) में प्रशिक्षण सबसे महंगा होता जा रहा है । इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा के प्रति भी उत्साह तो है पर उतना नहीं जितना रैनेजमेट के प्रति । इसके आगे भारतीय प्रशासनिक सेवा का आकर्षण भी मद्धिम सा पड़ने लगा है ।

उदारीकरण, निजीकरण और व्यापार के व्यापक व्रिस्तार के सरकारी प्रयासों के फलस्वरुप देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का आगमन व्यवसाय के और भी विशिष्ट अवसर उपलब्ध करा रहा है । सीमित साधनों और गरीब तथा मध्यम वर्ग की बहुलता वाले भारतीय समाज में ये अवसर कुछ दिनों पहले तक अकल्पनीय थे । इनकी उपस्थिति से समाज का कायापलट हो रहा है ।

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व्यावसायिक जीवन और अर्थोपार्जन के नये अवसर आज के युवक-युवतियों के मानसिक क्षितिज में नये आयाम जोड रहे हैं । कड़ी प्रतिस्पर्धा, लगन और सूझबूझ के बल पर आज का उत्साही युवा वर्ग नये अवसरों की तलाश में लगा हुआ है ।

शिक्षा और व्यवसाय के प्रति इस प्रयोगवादी दृष्टिकोण की हवा तेजी से चारों ओर फैल रही है । फिर भी यह बदलाव और संभावनाओं के नवोन्मेष का प्रसार सीमित है । अवसरों की समानता का लक्ष्य अभी भी बहुत दूर है । विद्यालयों में प्रवेश की मुहिम को जीतने में ‘अर्थ’ की भूमिका प्रमुख होती जा रही है ।

कैपीटेशन, डोनेशन और डेवलपमेंट शुल्क के नाम पर अधिकांश निजी शिक्षा संस्थान अभिभावकों से अच्छी खासी धनराशि उगाह रहे हैं । हालांकि इनमें से कुछ ही स्तरीय अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था कर पाते हैं । फिर भी स्वीकृत मान्यता का जुगाड़ करके ये शिक्षा संस्थान फल-फूल रहे हें ।

इनमें से कुछ के साथ फारेन का ठप्पा भी जुड़ा रहता है । प्रभावी और व्यापक विज्ञापन की मदद से इन संस्थानों की एक चित्ताकर्षक छवि बनायी जाती है, जिसके बलबूते इनकी दुकान नें ग्राहकों की कमी नहीं पड़ती । इस तरह प्रवेश का प्रश्न छात्र या अभिभावक की अपनी इच्छा और योग्यता का उतना नहीं ह गया है जितना प्रचलित व्यवस्था द्वारा स्वीकृति या अस्वीकृति का ।

व्यवस्था का जोर छंटाई ज्यादा होता है जिसकी सहायता से योग्यता (या अर्थ या दोनों) में विशिष्ट उपलथि प्रदर्शित हरने वाले ‘एक जैसे छात्रो’ का चयन किया जाता है । इस प्रक्रिया में अधिकाश को विफलता ही हाथ लगती है । बहुतो को यह विफलता नाजायज गैर क्रूर मजाक नजर आती है ।

आज पिचहत्तर या अस्सी प्रतिशत अक पाने वाले छात्रु के लिए से बी.ए, बी.एस.सी. के मनचाहे पाठ्‌यक्रम मे प्रवेश पाना मुश्किल हो रहा है । ये कुछ कम तिभाशाली नहीं हैं । इनके लिए शिक्षा के उचित अवसर की व्यवस्था न कर पाना पूरी व्यवस्था प्रश्न चिन्ह लगाता है । मुक्त विश्वविद्यालयो और पत्राचार पाठ्‌यक्रमों की शुक्लात से शिक्षा करने के अवसर कुछ अवश्य बढे हैं, पर वे न पर्याप्त हैं न विद्यालयीन शिक्षा का स्थान । ले सकते हैं ।

इस असतुलित स्थिति के शिकार युवा वर्ग को विफलता और कुठा का अनचाहा ट्राद चखना पड़ता है । इसे झेलना पीडादायी होता है और कोमल तरूण मन के लिए इसे सहना श्किल होता है । मानसिक और सामाजिक, दोनो स्तरों पर यह स्थिति खतरनाक बनती जा रही ।

आज जब भारतीय समाज में उदार पालन-पोषण, वैयक्तिक स्वायत्तता तथा अपनी अलग पहचान प्रापित करने जैसे मूल्य महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं, शिक्षा के अवसरों की ‘बेतरतीब राशनिग’ टपटी लगती है । पर बात दरअसल किसी एक को या कुछ को दाखिला मिलने या न मिलने की और उसके जी स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव की नहीं है ।

प्रश्न यह है कि व्यक्ति और समाज की तथा उन नो के बीच के रिश्ते की जो सकल्पना हमने की है क्या उसके लिए आवश्यक शेक्षिक व्यवस्था हो सकी है दुर्भाग्य यह है कि यह सवाल उठता तो रहा है परन्तु सरकार द्वारा बैठाये गये आयोगों और आयोगों की रिपोर्टो की तैयारी तथा उनके प्रकाशन की रस्म अदायगी से आगे हम नहीं जा सके ।

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राष्ट्रीय बजट में शिक्षा के लिए अब तक धनराशि का आवंटन सूक्ष्म ही होता रहा है । मानों और सब ठीक रहे तो काम चल जाएगा, शिक्षा का क्या, वह तो है ही, वह जैसी भी है रहे-लोग बाग उसमें बझे रहेंगे । शिक्षा देश की वरीयताओं में काफी नीचे है और इसमें निवेश करने पर पूंजी की प्रत्यक्ष वृद्धि नहीं होती ।

पर सच्चाई और ही है और हम उससे मुँह नहीं चुरा सकते । बढ़ती जनसंख्या, साक्षरता में वृद्धि और इक्कीसवीं सदी के प्रौद्योगिकी और सूचना प्रधान युग में प्रवेश की तैयारी के लिए यह जरूरी है कि शैक्षिक नियोजन का पुनरावलोकन किया जाए ।

शिक्षा को स्वयं में लक्ष्य मानें या मानव संसाधन की गुणवत्ता बढ़ाने का साधन, आज देश का शैक्षिक ढांचा देश की जरूरतों का साथ नहीं दे पा रहा है । आज के दबाव शिक्षा के अवसर, व्यवस्था और उसके नियोजन के लिए शीघ्र सार्थक हस्तक्षेप की जरूरत महसूस करा रहे हैं ।

इस चुनौती के रचनात्मक हल के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक आदोलन अपेक्षित हैं । निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि देश के आर्थिक अथवा औद्योगिक विकास की तुलना में विश्वविद्यालय या शिक्षण संस्थाओं का विकास न के बराबर ध्या है । लोगों की आय में काफी वृद्धि हुई है ।

देश में एक वर्ग ऐसा पैदा हो गया है जिसके पास आर्थिक संसाधनों की बहुतायत है और वे सभी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते हैं । उस हिसाब से विश्वविद्यालयों का विस्तार नहीं किया गया ।

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