श्रीराम दूत हनुमान का अयोध्या प्रवेश | Messenger Hanuman’s Entry to Ayodhya!

सभी कार्यों से निपटकर प्रभु श्रीराम ने हनुमान को अपने पास बुलाया और कहा, ”हे पवनपुत्र ! तुम शीघ्र ही अयोध्या जाओ और प्रिय भरत को हमारे वापस लौटकर आने का समाचार दो और दोनों ओर की कुशलता का आदान-प्रदान करो ।

साथ ही मार्ग में शृंगवेरपुर जाना । वहां मेरे मित्र निषादराज गुह रहते हैं । उन्हें भी मेरे आगमन का समाचार देना । वे मेरे परम हितैषी और मित्र हैं । तुम इस बात का ध्यान रखना कि मेरे इस समाचार से प्रिय भरत पर क्या प्रतिक्रिया होती है ।

यदि उसे जरा भी राज सुख की कामना होगी तो उसे मेरा वापस लौटना अच्छा नहीं लगेगा । यदि तुम्हें ऐसा लगे तो तत्काल वापस लौट आना । मुझे भरत का सुख पहले अभीष्ट है । तब मैं वापस वन में जाकर तापस जीवन व्यतीत करूंगा ।”

हनुमान जी ने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और ‘जय श्रीराम’ कहकर आकाश मार्ग से उड़ चले । हनुमान जी ब्राह्मण वेश में शृंगवेरपुर पहुंचे और निषादराज गुह को प्रभु श्रीराम के वापस आने का समाचार सुनाया, तो उन्हें अत्यधिक हर्ष हुआ । वे तत्काल उनसे भेंट करने के लिए चलने को तैयार हो गए ।

परंतु जब हनुमान जी ने कहा कि वे यहीं पर उनसे भेंट करने आएंगे तो वे उनके स्वागत की तैयारी में जुट गए । हनुमान जी का उन्होंने बड़ा आदर सत्कार किया । हनुमान जी उनके हर्ष को देखकर अभिभूत हो उठे । फिर वे वहाँ से अयोध्या के बाहर भरत जी के नंदीग्राम आश्रम पर पहुंचे ।

भरत जी अपने भाई श्रीराम की प्रतीक्षा में एक-एक पल बड़ी कठिनाई से काट रहे थे । वे नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर अत्यंत साधारण वेशभूषा में रहते थे और वहीं से अयोध्या का शासन चलाते थे । उनके सामने सदैव श्रीराम की चरण पादुकाएं रहती थीं । राज्य का प्रत्येक कार्य वे उन चरण पादुकाओं के नाम पर ही करते थे । उनके पास जो भी मंत्री, पुरोहित और राजकर्मचारी रहते थे, वे भी उन्हीं की भांति गेरुए वस्त्र धारण किए रहते थे ।

राजसुख को भरत ने पूरी तरह त्याग दिया था । उनकी दशा देखकर हनुमान जी को लगा कि ऐसा भातृ प्रेम संसार में मिलना दूभर है । उन्होंने भी श्रीराम की भांति चौदह वर्ष वनवासी रहकर ही व्यतीत किया है । चौदह वर्ष पूरे होने में एक दिन शेष रह गया था ।

वे अंत्यधिक अधीर थे कि भ्राताश्री के वापस लौटने का अभी तक कोई समाचार नहीं आया था । ज्यों-ज्यों समय व्यतीत हो रहा था, उनका धैर्य चुकता जा रहा था । मन ही मन वे अत्यधिक व्याकुल हो रहे थे । श्रीराम की पादुकाओं के सम्मुख बैठकर वे अत्यधिक विकल होकर प्रभु की स्मृति में औसू बहाते रहते थे । पर्णकुटी के बाहर से हनुमान जी उन्हें कुछ पल देखते रहे ।

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उसी समय भरत जी को पर्णकुटी के बाहर ‘जय श्रीराम’ की जय ध्वनि सुनाई दी तो वे तत्काल अपने आसन से उठकर बाहर आए । उनके सामने ब्राह्मण वेश में हनुमान जी खडे थे । हनुमान जी ने भरत जी की आखों में अश्रु देखे तो बोल पड़े, ”प्रभु ! आपकी आखों में औसू ?”

”तुम कौन हो विप्रवर?” भरत जी ने अपने अश्रुओं को पोंछे बिना ही पूछा,  ”अभी-अभी जय श्रीराम का जयघोष क्या आपने किया ? क्या भ्राताश्री वन से लौट आए हैं ? कहां हैं वे ? मुझे उनके पास ले चलें । मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकता । मेरा धैर्य छूटा जा रहा है ।”

हनुमान जि ने भरत जी की अधीरता देखि तो उनकी आंखों से भी बरबस अश्रु बहने लगे । वे भरत जी के निकट पहुंचकर बोले, “प्रभो ! आप जिन वनवासी श्रीराम की प्रतीक्षा कर रहे हैं और इतने अधीर हो रहे हैं, वे यथाशीघ्र सकुशल अयोध्या पहुंचने वाले हैं । कल पुष्य नक्षत्र में आप उनके दर्शन करेंगे ।”

प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के वापस आने का समाचार भरत जी को अमृतमय लगा । उन्होंने अत्यधिक आतुरता पूर्वक ब्राह्मण रूपधारी हनुमान जी को नमन किया और उनके चरण स्पर्श करने के लिए झुके । परंतु तभी हनुमान जी ने भरत जी को अपने हाथों पर रोक लिया और कहा, ”प्रभु ! मैं उन्हीं का संदेश लेकर आपके पास आया हूं ।”

भरत जी ने ब्राह्मण रूपधारी हनुमान जी को अपने आलिंगन में भींचते हुए विनयपूर्वक पूछा, ”हे विप्रवर ! यह अमृतमय संदेश देने वाले आप कौन हैं ? प्रभु श्रीराम से आपकी भेंट कहां हुई ?”  हनुमान जी ने कहा, ”प्रभो मैं भगवान श्रीराम का दास हनुमान हूं ।

प्रभु ने मुझे आपका कुशल समाचार जानने और अपना कुशल समाचार देने के लिए ही यहां भेजा है । आपने मुझे पहचाना नहीं । संजीवनी बूटी लाते समय मैं आपके दर्शन कर चुका हूं ।” एकाएक हनुमान जी अपने वास्तविक रूप में आ गए । तभी वहां एकत्र हुए आश्रमवासी उन्हें आश्चर्य से देखने लगे ।

परंतु भरत जी के हर्ष की तो कोई सीमा ही नहीं थी । उन्होंने एक बार फिर हनुमान जी को प्रेमपूर्वक अपने हृदय से लगा लिया और रुंधे गले से बोले, ”हे पवनपुत्र ! आपने यह संदेश देकर मेरे मृतप्राय: शरीर में फिर से प्राणों का संचार कर दिया है ।

आज मेरा सारा दुख और ताप नष्ट हो गया । भाई ! मैं तत्काल उनके दर्शन करना चाहता हूं । बताओ, वे कहां हैं मे क्या वे कभी अपने इस दास का स्मरण करते थे कहते-कहते भरत जी फिर से अश्रुपात करने लगे ।

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हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ”प्रभो मैं सत्य कहता हूं । वे आपको सदैव स्मरण करते रहते हैं । वे आपको अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करते हैं । आपका गुणगान करते हुए वे कभी थकते नहीं थे । अब आप मुझे यथाशीघ्र प्रभु के पास पहुंचने की आज्ञा दीजिए ।”

भरत जी बार-बार हनुमान जी को अपने गले लगाते जाते थे और आसू बहाते जाते थे । बड़ी कठिनाई से उन्होंने हनुमान जी को छोड़ा । हनुमान जी ने भरत जी के चरण स्पर्श किए और तीव्र गति से आकाश मार्ग से उड़ चले ।

अयोध्या में प्रभु श्रीराम के वापस आने के समाचार से भारी उत्साह छा गया । लोग दौड़-दौड़कर प्रभु के स्वागत की तैयारी में जुट गए । भरत जी का उत्साह देखते ही बनता था । वे पूरी अयोध्या को प्रभु श्रीराम के स्वागत के लिए दुल्हन की तरह सजा रहे थे और एक पल का भी विश्राम किए बिना लोगों को आदेश दिए जा रहे थे ।

दूसरी ओर हनुमान जी को अयोध्या भेजकर प्रभु श्रीराम मुनि भरद्वाज के आश्रम में पहुंचे और सीता तथा लक्ष्मण सहित सभी ने उनके चरण स्पर्श किए । सुग्रीव, अगद और विभीषण ने भी महामुनि के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया ।

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मुनि ने सभी को शुभाशीर्वाद देकर प्रेमपूर्वक आसन ग्रहण कराया और आतिथ्य-सत्कार कराया । प्रभु श्रीराम ने मुनिवर से पूछा, ”मुनिवर ! आपके आशीर्वाद से मैंने चौदह वर्ष का वनवास पूरा कर लिया है । आज आपके दर्शनों का सौभाग्य मुझे पुन: प्राप्त हुआ है । आपको यदि प्रिय भाई भरत के विषय में कुछ ज्ञात हो तो बताइए ?”

ऋषि भरद्वाज ने कहा, ”राम ! तुम मर्यादा, वचन और धर्म के अवतार हो । पृथ्वी पर चारों ओर फैले अनाचार और दुष्ट राक्षसों का विनाश करने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है । आज अपने शत्रु का मान-मर्दन करके अपने भाई और सीता के साथ तुम्हें सकुशल वापस आया देखकर मुझे बहुत हर्ष हो रहा है । तुम्हारी सूचनार्थ मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि अयोध्या में सब कुशल-मंगल है ।

आपके अनुज भरत ने आपकी चरण पादुकाओं को सामने रखकर ही आपके नाम पर अयोध्या राज्य का प्रशासन-तंत्र चलाया है । वे पल-पल आखों में अश्रु भरकर एक साधु की भांति आपको सदैव स्मरण करते रहे हैं । आपकी माताए और अयोध्यावासी अत्यधिक उत्कण्ठा से आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।”

भरत का समाचार पाकर प्रभु श्रीराम व्याकुल हो उठे । उसी समय नंदी ग्राम से लौटकर हनुमान जी ने भरत का समाचार प्रभु को दिया तो वे अत्यधिकव्याकुल होकर उठ खड़े हुए और भरत से मिलने की उत्कण्ठा में महामुनि के चरणों में प्रणाम करके विदा हुए और पुष्पक विमान में जा बैठे ।

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मार्ग में कुछ देर के लिए वे शृंगवेरपुर में निषादराज गुह के पास रुके और उसके आथित्य को स्वीकार कर उन्हें भी अपने साथ लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े । भोर की बेला में सूर्य की पहली किरण के साथ ही पुष्पक विमान जब अयोध्या के ऊपर पहुंचा तो भगवान श्रीराम और उनके साथ आए सभी ने देखा कि उनके स्वागत में पूरी अयोध्या नगरी नगर के बाहर आ जुटी है ।

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क्या वृद्ध, क्या युवा, क्या बालक, स्त्री-पुरुष सभी रंग-बिरंगे वस्त्रों में सजे-धजे उनके स्वागत में वहां खड़े थे । प्रभु के दर्शन के लिए पालकियों में माताएं, राजसदन की स्त्रियां, शत्रुप्न, भरत जी, महर्षि वसिष्ठ, सुमंत्र और अन्य सैकड़ों राजकर्मचारी रथों और हाथियों के साथ उनके स्वागतार्थ वहाँ उपस्थित थे । तभी सबकी दृष्टि सूर्य के समान तेजस्वी पुष्पक विमान पर पड़ी तो सारी अयोध्या एक साथ तुमुल जय घोष कर उठी, ”जय श्रीराम ! जय जगजननी सीता मइया !! जय लखन लाल !!!”

उस तुमुल जयघोष के मध्य ही विमान धरती पर उतरा और उसमें से सबसे पहले प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण तपस्वियों की वेशभूषा में उतरे । उन्होंने अपने सामने श्रेष्ठ मुनियों और माताओं को देखकर अपने धनुष-बाण धरती पर रख दिए और दौड़कर सभी के चरण-स्पर्श किए ।

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वसिष्ठ जी ने राम और लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया और उन्हें प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया । उसके बाद वे सभी भरत, शत्रुप्न, माताओं सहित समस्त अयोध्यावासियों से मिले । सभी उन्हें श्रद्धापूर्वक देख रहे थे और उनकी जय-जयकार कर रहे थे ।

भरतजी ने प्रभु की चरण पादुकाएं अत्यंत श्रद्धापूर्वक उन्हें पहनाई और उनके चरण स्पर्श किए । श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया । दोनों की आखें सजल हो उठीं । मुख से बोल नहीं फूटे । उसके बाद श्रीराम ने अपने साथ आए वानरराज सुग्रीव, लंकेश विभीषण, उनकी पत्नियां, हनुमान, अंगद, ऋक्षराज जाम्बवंत, नल, नील और निषादराज आदि का सभी से परिचय कराया और उनके सहृदय सहयोग की भूरि- भूरि प्रशंसा की ।

तदुपरांत अयोध्यावासियों ने सभी को एक अत्यधिक भव्य समारोह की तरह अयोध्या नगरी में प्रवेश कराया । अयोध्या की भव्यता और सौंदर्य देखकर सभी अभिभूत थे । चारों ओर से उन पर पुष्पवर्षा हो रही थी और रह-रहकर तुमुल जयघोष हो रहा था ।

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