रैगिंग: शिक्षित समाज का कलंक पर निबंध | Essay on Ragging : Stigma of Educated Society in Hindi!
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रैगिंग का शब्दिक अर्थ होता है-डांटना या सताना, जिसे विश्वविद्यालयों के छात्रों ने नवागंतुक या कनिष्ठ छात्रों से आत्मीयता बढ़ाने के संदर्भ में शुरू किया था । किंतु विश्वविद्यालयों अथवा कॉलेजों में धीरे-धीरे रैगिंग का अर्थ बदलने लगा और आज इसने एक आतंक का रूप धारण कर लिया है ।
विद्यार्थी किसी संस्थान में प्रवेश पाने को लेकर इतने चिंतित नहीं होते, जितने कि प्रवेश मिलने पर रैगिंग का सामना करने को लेकर । यह ठीक है कि सभी संस्थानों में बहुत खराब रैगिंग नहीं होती । कभी-कभी ‘फ्रैशर्स’ को बहुत कम शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है, किंतु कभी-कभी तो उनके लिए यह इतनी भयानक घटना बन जाती है कि वे अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं । इसलिए, इसे एक गंभीर अपराध घोषित किया जाना आवश्यक था ।
ऐसा नहीं कि इसके विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाई गई । जब भी ऐसी घटनाएं प्रकाश में आईं, लोगों ने उसकी निंदा की । किंतु, रैगिंग का जितने बड़े स्तर पर आज विरोध हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ था । रैगिंग के सभी पूर्व मामलों को महत्वहीन अथवा गौण मामलों के रूप में लिया जाता रहा और पीड़ित के साथ सहानुभूति व्यक्त करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया गया । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी) भी विभिन्न संस्थानों में प्रचलित रैगिंग के चलन से अपरिचित नहीं है ।
यू.जी.सी. एक्ट 1956 में सभी संस्थानों में रैगिंग-विरोधी नीति अपनाना अनिवार्य बनाया गया । किंतु इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी यह एक्ट अभी तक अप्रभावी सिद्ध हुआ है और रैगिंग का चलन निरंतर जारी है । इसका अर्थ स्पष्ट है कि कुरीतियों को लेकर हम तब तक भावशून्य रहते हैं, जब तक कि हम स्वयं उसके शिकार नहीं हो जाते । जो लोग अपने सीनियर्स की रैगिंग का शिकार बने हैं, वे यह जानते हैं कि यह कितनी पीड़ादायक है । अनेक विद्यार्थियों को रैगिंग के कारण अपनी पड़ाई छोड़नी पड़ी और कुछ ने तो अपनी जान तक दे दी ।
शैक्षिक सत्र 2009-10 में रैगिंग से हुई सर्वाधिक मृत्यु दर्ज की गईं । इनमें महाराष्ट्र शीर्ष दो राज्यों में से एक था, जिनमें रैगिंग से सर्वाधिक मौतें हुईं । रैगिंग का प्रतिशत मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में सर्वाधिक बढ़ा है । गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज औरंगाबाद, महाराष्ट्र में वर्ष 2011 में एक रैगिंग मामले में फाइनल इयर के 13 छात्रों को 25 हजार रुपये प्रत्येक का जुर्माना लगाया गया । यह महाराष्ट्र में अपनी तरह का पहला मामला था ।
फरवरी 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2007 के अपने अंतरिम आदेश को पुनर्बहाल करते हुए इसे ‘मानवाधिकार हनन’ की संज्ञा दी थी । साथ ही, इसने सभी शैक्षिक संस्थाओं को यह निर्देश दिया था कि वे इससे सख्ती से निपटें ।
यदि सर्वोच्च न्यायालय ने 16 मई, 2007 के अंतरिम आदेश को पुनर्बहाल करते हुए रैगिंग का सख्ती से उन्मूलन करने के संकेत दिए, तो यू.जी.सी. ने भी इस पर सकारात्मक रवैया अपनाते हुए यू.जी.सी. एक्ट 1956 को प्रभावी बनाने का प्रयास किया तथा सभी विश्वविद्यालयों एव संस्थानों को कहा कि इस एक्ट की किसी भी प्रकार की अवहेलना होने की स्थिति में विश्वविद्यालय अथवा संस्थान के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी ।
आयोग ने ऐसे संस्थानों का अनुदान बंद करने तक का निर्णय लिया, जो रैगिंग रोकने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सुझावों का पालन नहीं करते । यदि किसी संस्थान में बार-बार रैगिंग के मामले प्रकाश में आते हैं, तो यू.जी.सी. एक्ट के अंतर्गत उसकी मान्यता रद्द की जा सकती है । ऐसा दिखता है कि सर्वोच्च न्यायालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग रैगिंग की इस बुराई को समाप्त करने को लेकर गंभीर हैं तथा इस अक्षम्य अपराध को जड़ से मिटाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं ।
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न्यायालय का यह रवैया मूल रूप से श्री आर.के. राघवन की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों पर आधारित था । इन सिफारिशों में रैगिंग रोकने का जिम्मा पूरी तरह से संस्थानों को सौंपा गया । वास्तव में, रैगिंग का ऐसा विकराल रूप लेने का मुख्य कारण काफी हद तक संस्थानों का उदासीन रवैया ही रहा है ।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत में रैगिंग शैक्षिक प्राधिकरण की नाक तले ही फली-फूली है । उन्होंने इसका कारण यह बताया कि अधिकांश मामलों में पीड़ित छात्र स्वयं पहल नहीं करते और दोषी छात्रों के विरुद्ध मामला दर्ज कराने का साहस नहीं जुटा पाते ।
जो छात्र पहले ही शर्मिंदगी की पीड़ा झेल चुके हैं, उनसे शिकायत दर्ज कराकर अपनी पीड़ा को और बढ़ाने की आशा क्यों की जाती है । आश्चर्य की बात है कि रैगिंग पर प्रतिबंध लगाने को लेकर एक निजी सदस्य का बिल 2005 से संसद में लंबित पड़ा है ।
रैगिंग को जड़ से तभी समाप्त किया जा सकता है, जब शैक्षिक संस्थान, सरकारी प्राधिकरण, मीडिया और सिविल सोसायटी मिलकर काम करें । जिला, राज्य और केंद्रीय स्तर पर ‘रैगिंग-विरोधी दस्तों’ और समितियों की स्थापना करते हुए इस बुराई पर निरंतर दृष्टि रखी जा सकती है । इस संबध में न्यायालय के दिशानिर्देश सराहनीय हैं । इसने दोषियों के लिए समुचित दंड के प्रावधान का सुझाव दिया है ।
इसके अनुसार, इस संबंध में बिना किसी विलंब के एफ.आई.आर. दर्ज करानी चाहिए । दोषी विद्यार्थियों को अपनी शिक्षा जारी रखने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए अर्थात उन्हें संस्थान से निकाल देना चाहिए और किसी भी अन्य संस्थान में दाखिला लेने के लिए अयोग्य घोषित कर देना चाहिए ।