दहेज प्रथा: सामाजिक कलंक पर निबन्ध | Essay on Dowry System : A Social Stigma in Hindi!

प्रस्तावना:

आज भारतीय समाज र्मे सबसे बड़ा सामाजिक कलंक है- दहेज प्रथा । दहेज जैसी कुप्रथा न केवल समाज बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के विकास के मार्ग में अइवरोधक है । समाज इस कुप्रथा के कारण जर्जर होता जा रहा है ।

यद्यपि प्राचीन समय से ही पिता द्वारा अपनी कन्या को उपहार, इत्यादि देने का प्रचलन था तथापि इसने कुरूपता धारण नहीं की थी, किन्तु शनै-शनै: यह विकृत स्वरूप धारण करती गई और दहेज-प्रथा जैसे कलंकित नाम से ‘अलंकृत’ हो गई ।

चिन्तनात्मक विकास:

विज्ञान ने समस्त विश्व को सीमित कर दिया है । इतनी विशाल दुनिया सिमट कर रह गई है । हम इसके सहारे न जाने कहाँ-कहाँ तक पहुँच गए हैं और दूसरी ओर हम घिसी-पिटी परम्परा पर ही जमकर बैठ गए हैं । कहाँ तक इसमें औचित्य है ।

यह एक प्रकार से चिन्तनीय विषय है । इस प्रथा का अभाव गाँवों में ही नहीं अपितु नगरों र्मे भी है । सुसंस्कृत एयै सुशिक्षित नगरवासियों में भी दहेज रूप में धन-लोलुपता बढ़ती चली जा रही है । लड़के की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के आधार पर यह दहेज लड़की वालों से माँगा जाता है । यदि लड़का कहै। अच्छे क्या ऊँचे पद पर है तो दहेज की मात्रा की माँग और अधिक बढ़ जाती है ।

लड़की वाले की स्थिति के बिषय र्मे ये कभी विचार ही नहीं करते । परिणामस्वरूप लड़की के माता-पिता दहेज जुटाने में कर्जदार भई। हो जाते हैं । लड़कियों द्वारा विवाह से पूर्व ही दहेज न देने के कारण आत्मक्ष्मायें कर जी जाती हैं । अथवा नवविवाहिता द्वारा कम दहेज देने या दहेज न देने के कारण आत्महत्यार्ये कर ली जाती हैं । आज प्रतिदिन ऐसी घटनाऐं देखने एवं सुनने र्मे आती हैं ।

दहेज की माँग से तो ऐसा मालूम होता है कि यह विवाह न होकर लड़के का सौदा हो रहा है । हमारे देश मे हर जगह हर वर्ग र्मे दहेज प्रथा का विकृत स्वरूप व्याप्त है । यद्यपि देश में समाजसुधारको एब धर्मतत्ववेत्ताओं की कमी नहीं रही है तथापि यह ‘कुप्रथा’ दिन पर दिन विकट रूप धारण करती जा रही हैं-यह बडे खेद का विषय है ।

उपसंहार:

दहेज प्रथा जैसे सामाजिक कलंक को दूर करने के लिए अनेक संगठन कार्यरत हैं । अनेक अधिनियम बनाये गए हैं किन्तु कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि स्पयं हमारे देश के नवयुवक जागृत न हो और लोगों की खोखली मानसिकता परिवर्तित, परिमार्जित एवं परिवर्धित न हो ।

”अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, चल में है दूध और अस्त्रों में पानी ।” हमारा भारत देश हमेशा से ही ऋषियों-मुनियों एवं योगियों की जन्मभूमि रहा है । धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह देश एक ओर सुसम्पन्न है तो दूसरी ओर हमारे भारतीय समाज में स्वतन्त्रता से पूर्व एवं पश्चात् भी अनेक रूढियाँ, कुप्रथाएं, अंधविश्वास, एवं कुरीतियाँ इत्यादि विद्यमान हैं ।

ये सभी कुप्रथाएं राष्ट्र एवं समाज की उन्नति में घातक सिद्ध हुई हैं । इनसे विकास में एक प्रकार का अवरोध उपस्थित हो जाता है । दहेज की कुप्रथा समाज तथा संस्कृति का एक कलंक हैं-लछन है । इस प्रकार के लंछिन को हम ‘कोड’ नाम से अभिहित करें तो अतिशयोक्ति न होगी । समुन्नत एवं सुसम्पन्न देश में ऐसी कुप्रथा लज्जाजनक एवं घृणास्पद है । प्रत्येक देश एवं समाज में विवाह के अवसर पर वर-वधू को कुछ उपहार-स्वरूप देने की प्रथा विद्यमान है ।

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भारत में यह प्रथा आज से ही नहीं अपितु बहुत पहले समय से ही चली आ रही है, किन्तु तत्कालीन स्वरूप में और अद्यतन स्वरूप में आकाश-पाताल का अन्तर दृष्टिगत होता है । भारतीय शास्त्रों में कन्योदान’ का महत्व विशेषरूपेण वर्णित किया गया है, उस समय ‘दहेज’ का एक स्वस्थ रूप था ।

मनुस्मृति जैसे हमारे पौराणिक गन्ध में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन किया गया है । जिसके अन्तर्गत ब्रह्म विवाह को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । वास्तव में ब्रह्म विवाह में यइा के माध्यम से कटक के समक्ष वर एवं कन्या को आशीर्वाद देकर पवित्र रिश्ते में बांध दिया जाता था ।

कन्या के पिता द्वारा इस शुभ अवसर पर कुछ आभूषण दक्षिणा स्वरूप वर को दिये जाते थे । इस विवाह में कन्या का पिता विद्वान, शील, सम्पन्न और कुलीन वर को स्वयं बुलाता था और उसका विधिवत सत्कार करके उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कन्या दक्षिणा सहित प्रदान करता था ।

स्मृतियों में इस विवाह सम्बंध को सर्वोत्तम माना गया है । ग्वैदिक काल में दहेज का वर्णन कहीं नहीं मिलता है । इस काल में दामाद द्वारा श्वसुर को द्रव्य देने का उल्लेख है । मनुस्मृति में इस विवाह के सम्बंध में कहा गया हे कि इस विवाह में कन्या के माता-पिता, पवित्र धर्म के लक्ष्य से ऋषि से एक गाय तथा बैल अथवा दो जोडे प्राप्त कर अपनी कन्या ऋषि को, पत्नी के रूप में सौंप देते थे ।

कतिपय लोग इस विवाह को क्रय-विक्रय विवाह कहते थे । वास्तव में यह विवाह इस बात की ओर संकेत करता था कि ऋषि गृहस्थ जीवन बिताने के योग्य है । दहेज प्रथा का प्रारम्भ उत्तरवैदिक काल से माना जाता है । यह बात अलग है कि उसका स्वरूप वर्तमान से भिन्न था । भारत में वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों में विवाहोत्सव के उपलक्ष्य मे सामर्थ्यानुसार धन एव अन्य उपयोगी वस्तुओं को प्रदान करने का वर्णन मिलता है ।

बाद में सस्कृत साहित्य में भी पुत्री को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर विद्रा करने के अनेक प्रसग मिलते है । शकुन्तला को पतिगृह गमन के अवसर पर ‘कण्व’ जैसे महान ऋषि ने भी परम्परा एव सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ उपहार अवश्य दिये थे ।

भगवतशरण उपाध्याय ने कालिदास का भारत: नामक पुस्तक में लिखा है कि प्राचीन काल में दहेज की प्रथा थी आजकल के समान विवाह से पूर्व यद्यपि कोई शर्त नहीं होती थी विवाह संस्कार की समाप्ति पर वर को कन्या के अभिभावक अपनी सामर्थ्य और उत्साह के अनुसार दहेज देते थे, कन्या को आभूषणो से अलंकृत कर दिया जाता था और ये आभूषण विवाह के अवसर पर बधु-बाधवी से मिली भेट उसका स्त्री धन होता था ।

वस्तुत: प्राचीन समय में विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री को सौख्ययुक्त जीवन यापन करने के लिए धनधान्य एवं अलंकारों से युक्त करना एक सहज प्रक्रिया रही है । इन दिए जाने वाले उपहारों का एकमात्र उद्देश्य यही होता था कि उससे दम्पत्ति को कुछ सुविधा मिल सके और वह अपनी गृहस्थी का भार वहन करने में अपने को सर्वथा असमर्थ न अनुभव करें ।

हिन्दी साहित्य में भी दहेज के सामान्य रूप के सबध मे चित्रण है और उसके अभिशाप को भी सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया गया है । महाकवि निराला तथा उपन्यासकार प्रेमचंद ने भी इस प्रथा के संबंध में अपना आक्रोश व्यक्त किया है । दहेज प्रथा प्राचीन काल में होने के बावजूद भी उसमे कोई अमानवीय तत्व नहीं था, पिता की विवशता नहीं थी ।

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वह अपनी इच्छानुसार, अपनी सम्पत्ति का एक अंश अपनी पुत्री को देना वांछनीय समझता था । वर्तमान भारतीय समाज में यह विकृत रूप धारण कर चुका है क्योंकि धीरे-धीरे इसका घिनौना रूप समाज के सम्मुख आ गया है । प्राचीन समय में अपनी पुत्री के पाणिग्रहण के अवसर पर भेंटस्वरूप वस्त्र, अलंकार, धन तथा अन्य जीवनोपयोगी दी जाने वाली वस्तुओं ने स्वयं को आधुनिक समाज में ‘दहेज प्रथा’ जैसे कलंकित नाम से सुशोभित कर लिया है ।

अब ये भेंट सौदेबाजी का रूप ले चुकी है । इस प्रकार के विकृत स्वरूप को बनाने में समाज के ठेकेदारों तथा पाखण्डियों का हाथ विशेष रूप से है । आजकल मँहगाई का जमाना है । अपनी सामर्थ्य से अधिक भार लादना कहाँ तक मानवोचित है- यह एक चिन्तनीय विषय है ।

गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी से त्रस्त जनता भला कहीं तक इस भार को दो सकती है ? अतएव इसके विकृत रूप में सुधार करना हमारे लिए पूर्णत: अभीष्ट है, लकीर के फकीर न रहकर अपनी बुद्धि से काम लेना अत्यधिक आवश्यक दहेज आज स्वैच्छिक भेंट न होकर वर पक्ष की ओर से सप्रयास लिया जाने लगा है और यह भेंट दान नहीं वरन् पिता के लिए दानवरूपी अर्थ दण्ड बन गया है ।

वर पक्ष इसे साधिकार कन्या पक्ष से वसूलता है क्योंकि वर पक्ष का यह मानना होता है कि उनके पुत्र की शिक्षा पर जितना धन व्यय हुआ है उसे कन्या पक्ष से ब्याज सहित वसूल लिया जाये । अत: वह अच्छे दहेज की मांग करता है तथा अपेक्षित परिणाम न मिलने पर वधू को सब प्रकार से प्रताड़ित एवं पीड़ित किया जाता है, कष्ट दिए जाते हैं, मानसिक तथा शारीरिक दृष्टि से उसका शोषण किया जाता है ।

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उसे घुट-घुट कर जीने के लिए विवश किया जाता है, मारा-पीटा जाता है, जला दिया जाता है, आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है । मध्यम श्रेणी के लोग दहेज स्वरूप लाखों रूपये कहाँ से जुटायें ? ईमानदारी तथा प्रामाणिकता का जीवन जीने वाले लोग दहेज कैसे लायें ?

मानवीय आदर्शो एवं मूल्यों की इस संदर्भ में कोई महत्ता नहीं रह गई है । कन्या का पिता होना कितना कष्टप्रद है, यह हम कालिदास कृत ”अभिज्ञान शकुंतलम’ से जान सकते हैं:

“पुत्रीति जाता महतीह चिन्ता, कस्मै प्रदेयेति महान् वितर्क: । दत्त्वा सुखं प्राप्स्याति या नयेत्ति, कन्या पितृत्वं खलु नाम कष्टम ।।”

अर्थात दहेज को मैं भिक्षा का परिकृत रूप मानता हूं-अपढ़ एक सामाजिक कीढू है जो अनेक भारतीय ललनाओं को अकाल काल का ग्रास बना देता है । नारकीय जीवन जीने के लिए विवश कर देता है । कन्या को जन्म देने वाले पिता की नींद को चुरा लेता है ।

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दहेज हमारे समाज का वह कलंक है, जिसका परिमार्जन अपेक्षित है । महात्मा गांधी का विचार था ”हमें नीचे गिराने वाले दहेज प्रथा की निन्दा करके सबल लोकमत जागृत करना चाहिए और जो युवक इस प्रकार के पाप के धन से अपने हाथ गन्दे करें, उन्हें समाज से बाहर निकाल देना चाहिए ।”

दहेज के कारण आए दिन सैकड़ों नव-वधुओं की योजनापूर्वक हत्यायें हो रही हैं । अनेक घटनाओं को तो दबा ही दिया जाता है और उनकी रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की जाती । आज न केवल इस समस्या का व्याप्य बढ़ता जा रहा है, बल्कि विभीषिका भी ।

देश का कोई भी राज्य या शहर दहेज की लानत और उससे जुड़ी यातना-प्रताड़ना से बरी है । विभिन्न कन्याओं द्वारा अपने मां-बाप की गरीबी से तंग आकर विवाह की वेदी पर बैठने पहले ही मौत की वेदी पर जा चढ़ने के मामले में कानपुर शहर अधिक कुख्यात हो गया इससे पूर्व 1980 में इसी शहरी के फजलगंज इलाके के एक परिवार की चार लड़कियों ने ब्याह को लेकर आ रही आर्थिक दिक्कतों से मां-बाप को छुटकारा दिलाने के मकसद से मूहिक आत्महत्या की कोशिश की थी ।

इसी तरह की एक अन्य घटना में 1986 में शहर के एक परिवार की तीन सगी बहनों ने अपने गरीब मां-बाप को बेटियों की शादी व दहेज की चिंता मुक्त करने के लिए खुद को फांसी के फंदे पर लटका लिया और अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली ।

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ब्याह से पूर्व ही कोई लड़की दहेज की सूली चढ गई तो कई अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं, तो कोई लड़की होना जैसे मानसिक तनाव एवं अपराध बोध गुजर रही हैं, कोई जहर खा लेती हैं अथवा जलकर अपनी बेटी होने की विसंगति को समाप्त कर लेती हैं । आत्महत्या की आम खबरों के मानिंद ही आई गई हो जाती हैं इन मासूम लड़कियों ? मौत की खबर ।

दहेज नामक कलंक से जुडी होने के बावजूद इन दर्दनाक मौतों पर मानवाधिकार वादियों महिला संगठनों की अंतरात्मा, खामोश रहती है, कहीं कोई प्रतिक्रियात्मक स्पन्दन तक नहीं ता । शायद इसलिए कि दहेज का मामला होते हुए भी उनके लिए यह दहेज का वैसा मामेला ही है जिसमें वे पति और उसके रिश्तेदारों को कठघरे में खड़ा कर सकें और छाती पीट-पीट दहेज-लालचियों के खिलाफ स्यापा कर सकें । शायद इन अनब्याही लड़कियों की मौत की सुध लेना उनके एजेंडा में नहीं है ।

विवाह दो परिवारो के मिलन का पवित्र अवसर और माध्यम होता यह बात अब कोरी और निपट किताबी हो गई है । घोर व्यावसायिकता और विदूप प्रदर्शनवाद के इस युग विवाह जैसी पवित्र सस्था का भी व्यवसायीकरण हो गया है जिसमें सम्बद्ध पक्षों की सैज्जनता सच्चरित्रता नहीं स्पेडिंग एंड पेइंग केदेसिटि यानि शादी में वे कितना दे और खर्च कर पकते है देखी जाती है ।

अब शादियां परिवारों का नहीं व्यापारियों और उद्योगपतियों का संगम प्ररवाती हैं और बदकिस्मती से देश की अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ विवाह-शादियों के यवसायीकरण की विष बेल भी बढती-फैलती जा रही है । लेकिन हेरत होती है यह देखकर कि होटे-छोटे तुच्छ मुद्‌दो पर हो-हल्ला मचाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग तक में इस विशाल सामाजिक ददे पर कहीं कोई हलचल नहीं होती, कोई पत्ता तक नहीं हिलता ।

ब्याह-शादी किसी भी व्यक्ति या परिवार का नितांत निजी मामला होता है । अत: उस पर ईाका-टिप्पणी करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है । लेकिन वही ब्याह-शादी जब सामाजिक रान-मर्यादाओं की सारी सीमाओ को बड़ी बेशर्मी से पार कर जाए और जायज-नाजायज दौलत रूए भौंडे प्रदर्शन का माध्यम मात्र बन कर रह जाए एवं कुंआरी बेटियों के गरीब, फटेहाल मां-बाप को सरेआम चिढाते हुए उन्हें अंदर तक अपनी किस्मत और गरीबी को रह-रह कर कोसने की हद तक साल जाए, उनमें आत्मघाती कुंठा और खिन्नता पैदा कर जाए तो क्या तब भी आप उसे सामाजिक अपराध कहने से परहेज करेंगे ?

ब्याह-शादियों में इस तरह दिखावे, आडम्बर और सातवें आसमान को छूते (अप) व्यय के लिए सिर्फ करोड़-अरबपतियों को ही दोषी ठहराना इस सामाजिक विकृति को एकाकी रूप से देखने का प्रयास होगा । हकीकत यह है कि आज आठ-दस लाख की खर्च की हैसियत रखने वाला नव-धनाढ्‌य वर्ग भी इस पवित्र रस्म को विदूपता की हद तक ले जाने का बराबर का दोषी कहां गई वह वैवाहिक सादगी जिसके नगाडे हम आए दिन पीटते रहते हैं ? क्या आपको नहीं लगता कि वैवाहिक सादगी के समस्त उपदेश सिर्फ उस गरीब और साधनहीन के लिए ही हैं जिसके पास खर्च करने को वैसे भी कुछ ज्यादा नहीं है ।

अत: उसके यहां शादियां तो खुद-ब-खुद ही सादी हो जाती हैं जबकि दूसरी ओर पैसे वालों की वैभवशाली शादियां एक साथ लाखों गरीब कुमारियो और उनके मां-बाप के दिलो-दिमाग में एक स्थायी कुंठा पैदा कर जाती हैं । इनमें से कई बदनसीब तो अपने मां-बाप की गरीबी को कोसती हुई जिंदगी भर कुंआरी रह जाती हैं और अपनी किस्मत पर टसुए बहाती रहती हैं, कई बेमेल बूढ़े और बदसूरत के पल्ले बांध दी जाती हैं और कुछ मौत के साथ रिश्ता जोड लेती हैं ।

क्या अब भी आपको नहीं लगता कि डोला उठने वाले घर से अब्याहता लड़कियों की अर्थी उठने के पीछे कहीं न कहीं अमीरों का वैवाहिक प्रदर्शनवाद ही जिम्मेदार है ? हालांकि 75 हजार या एक लाख मे बेटी के हाथ पीले कर देना अब कल्पना की बात हो गई है लेकिन अभी भी एक निम्न मध्यम वर्गीय बाप के लिए यह एक बड़ी रकम हे-बेटी को ब्याहने के लिए ।

दूसरी ओर नवधनाढ्‌यों की एक शादी में लाख-डेढ़ लाख तो सिर्फ पंडाल, रोशनी और डेकोरेशन पर ही फूंक दिए जाते हैं । ऐसी शादी में कुल खर्च कितना होता होगा, अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं । दौलतमंदो की अमीरी की नुमाइश दो चीजों पर ज्यादा होती है-मकान और बेटे-बेटियो की शादी । उनके पास तो दौलत है, सो वे खर्च कर लेते हैं ।

लेकिन देखादेखी प्रदर्शनवाद का यह छूत जब साधनहीन तक जा पहुंचता है तो उसे वह कहीं का नहीं छोड़ता । वह झूठी शान के लिए और कुछ लोक लाज के लिए या तो वह कर्ज का सहारा लेता है या बेटी को किसी कुपात्र के गले मढ्र देता है । ऐसे मे उसका और बेटी का जो हश्र होता है, उससे हम सभी वाकिफ हैं ।

आखिर कब तक दौलतमंदों को अपनी बेतहाशा दौलत के बलबूते पर गरीब बाप और उसकी कुंआरी बेटियों की दयनीय हालत का उपहास उडाने की इजाजत दी जाती रहेगी-आत्महत्या से उपजा यह सवाल समाज के हर जिम्मेदार वर्ग से जवाब चाहता है ।

आधुनिक जीवन भौतिकतावाद की ओर तीव्रता से उम्मुख होता जा रहा है । सभी चाहने लगे हैं कि बिना परिश्रम के ही भौतिक सुखों के सभी उपकरणों को सहज रूप से प्राप्त कर लिया जाए । यही भौतिकतावाद की अतृप्त चाह आज दहेज के रूप में प्रतिफलित हो रही है । हमारी लोभी मनोवृत्ति हमें सर्वनाश की ओर ले जा रही है ।

कुछ लोगों ने काला धन बहुत बडी मात्रा में जमा कर लिया है और वे अपनी पुत्रियों के विवाह के अवसर पर इस काले धन को खुले हाथों खर्च करते हैं और पैसे की यह तड़क-भड़क दूसरों के अंतःकरणों में भी धनौकांक्षा को जन्म देती है और वह दहेज की मांग के रूप में प्रकट होती है ।

दहेज प्रथा के विकास में नारी की भी भूमिका बडी महत्वपूर्ण है । प्राय: नारी ही नारी के उत्पीड़न का कारण बनती है । उस समय वह भूल जाती है कि वह भी कभी बहू थी और वह मूलत: नारी है । दहेज प्रथा के उन्तुलन हेतु समयानुसार केन्द्रीय, प्रान्तीय सरकारें तथा समाज के कुछ दायित्वपूर्ण महानुमाव इस दिशा में प्रयत्नशील रहे हैं ।

राष्ट्रीय महिला आयोग की प्रथम वार्षिक रिपोर्ट में शादी पर मिलने वाले दहेज के बारे में यह प्रश्न उठाया गया था कि उस पर कानूनी हक किसका हो । सुझाव दिया गया था कि उपहारों की सूची बनायी जाए और उसे पंजीकृत कराया जाए । ऐसा इसलिए जरूरी है कि दहेज कानून में इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है ।

दुल्हन को जो उपहार मिलते हैं, उन्हें दूल्हे के मां-बाप हडप लेते हैं । जो नकदी टीका वगैरह के नाम पर मिलता है, वह भी शादी के खर्च की भरपाई करने के बहाने ले लिया जाता है । इसलिए जब विच्छेद या तलाक होता है तो साबित करना मुश्किल हो जाता है कि विवाह के समय दहेज में क्या-क्या चीजे मिली थी । इसका खामियाजा औरत को ही भुगतना पड़ता है ।

जाहिर है कि यह एक सुझाव मात्र है । इसे कानून का रूप लेने में बरसों लग सकते हैं । कानून बन जाए तो भी लोगों से उसका पालन कराना एक कठिन काम होगा । इस डर से कि वे कहीं दहेज के आरोप में गिरफ्तार न कर लिए जाएं, वे सूची को पंजीकृत कराने से कतराएंगे । फिर जब राष्ट्रीय महिला आयोग दहेज लेने और देने को अपराध समझता है तो विवाह पर मिली हुई चीजों की सूची बनाने को क्यों कहता है । ये बातें परस्पर विरोधी हैं और तर्क की कसोटी पर खरी नहीं उतरती ।

लड़के वालों के घर अच्छा दहेज नहीं आता तो मोहल्ले में उनकी नाक कटती है । लोगों को कुछ दिखाने को भी चाहिए, ताकि प्रतिष्ठा में बढोतरी हो, लड़के और उसके मां-बाप को ‘ऊंचे लोग’ माना जाए । दहेज विरोधी कानून 1961 में बना था, जिसे संविधान में डाउरी प्रीहिबिशन एक्ट 1961 कहा गया है ।

इस कानून की एक न्यूनता यह रही है कि इसमें दहेज लेने वाले को सरकारी अपराधी नहीं माना गया है । चोर, डाकू और हत्यारे सरकारी अपराधी है, दहेज लेने वाला नहीं । इसलिए दहेजखोरों के खिलाफ पुलिस कोई सीधी कार्यवाई नही कर सकती । दहेज से पीड़ितों को पुलिस और न्यायालय की शरण में स्वयं जाना पड़ेगा ।

इसलिए दहेज के लाखों मामले दबकर रह जाते हैं । 1961 के बाद दहेज की गंदी प्रथा में बढ़ोतरी ही हुई है । कानून से कुछ डर तो पैदा हुआ है, पर’ लड़की वालों को इससे कोई खास फायदा नहीं हुआ है । सच तो यह है कि यह लड़की और लड़के वालों का व्यक्तिगत मामला बनकर रह गया है ।

हजारों लोग तो मेज के नीचे से नकदी ले लेते हैं और नजदीकी रिश्तेदारों को भी इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता है । पता चलने पर जो स्वयंसेवी संस्थाएं सामने आती हैं, वे भी लडकी वालों की पीडा बढ़ाकर ही वापस जाती हैं । वे पुलिस, कानून और कचहरी की सलाह देती र्हे । इससे मामला उलझ जाता है ।

ऐसी संस्थाओं कइाई चाहिए कि वे प्रेम से समझाने-बुझाने का रास्ता चुनें । इधर देखा जा रहा है कि इन संस्थाओं की वहज से ही तलाक के मामले भी बढ रहे हैं । परिवार में दरारें पड़ रही हैं । प्रादेशिक सरकारों के पास ऐसी कोई एजेंसी नहीं है जो दहेज एक्ट 1961 के अंतर्गत मामलों को पकड़ सके और छानबीन करके अपराधी को सजा दिला सके ।

दरअसल यह पूरा का पूरा एक्ट ही ‘अकादमिक’ होकर रह गया है । वैसे भी उसमे इतनी सीमाएं हैं कि अपराध को सिद्ध करना कोई खिलवाड़ नहीं है । इधर महिलाओं की समस्याओं को लेकर बहुत से कानून बने हैं, उन्हें अधिक से अधिक आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा दिलाने के सतत प्रयास हुए हैं ।

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इसका कुछ उल्टा असर भी हुआ हे । मसलन बहुत से लोग अपनी बेटियों को स्वेच्छा से तो बहुत कुछ देते हैं, तथा देना चाहते हैं, पर कानून की धमकी वे बर्दाश्त नहीं कर पाते । उनकी एक मानसिकता यह भी है कि बेटी ससुराल जाती है तो ससुराल का सब कुछ उसी का तो हो जाता है ।

हम अपने घर में बहू लाते हैं तो घर की कुंजी वही संभालती है । एक तरह से वह घर की मालकिन हो जाती है । तो यह कैसे हो सकता है कि वह पिता की सम्पत्ति भी ले और पति और पति के पिता की भी । महिला आयोग की प्रथम वार्षिक रपट में एक स्थान पर यह सवाल भी उठाया गया है पर उसकी संस्तुति मे पूरी स्पष्टता नहीं है ।

कुछ ऐसी परिपाटी अपने समाज में चल निकली है कि किसी का विवाह होता है तो उपहारों की झडी लग जाती है । मित्र और रिश्तेदार इसमें खुलकर खेलते हैं । अपने-अपने बजट के अनुसार लोग सोना-चांदी और फ्रिज, टीवी तक देते हैं । नकदी के लिफाफे भी आते हैं । क्या इन पर रोक लगाना संभव है ? क्या इन पर रोक लगाना उचित है ? रोक लगा देने से क्या लड़की का नुकसान नहीं हो जाएगा ?

वह ससुराल खाली हाथ जाएगी तो इससे जो भावनात्मक पीडा उसे होगी, क्या उसका अंदाजा लगाया जा सकता है ? दहेज का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर इस मानवीय पहलू को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि हर उपहार का मतलब उपहार देने वाले का स्नेह-सम्बन्ध भी होता है ।

उनकी फेहरिस्त बनाने और उसे पंजीकृत कराने से स्नेह के उस नाते को चोट लगे बिना नहीं रह सकती । डाउरी प्राहिबिशन एक्ट, के संशोधित संस्करण में सूची बनाने और उसे रजिस्टर कराने की अनिवार्यता की बात तो उल्लिखित है, पर उपहारों के मानवीय पहलू पर चुप्पी है ।

बहरहाल चूंकि राष्ट्रीय महिला आयोग को सिविल कोर्ट के कुछ अधिकार भी दिये गये है, इसलिए उसकी पहली वार्षिक रपट में उठाये गये मुद्दों को झुठलाया नहीं जा सकता । आयोग शिकायत मिलने पर जिसको चाहे ‘समन’ भेजकर बुलवा सकता है, हलफनामा मांग सकता है, मुकदमा चला सकता है ।

प्रकाशित समाचारों के आधार पर भी वह औरप को उत्पीड़ित करने वालों को पुलिस कें सामने पेश होने को मजबूर कर सकता है । उक्त वार्षिक रपट के निर्माताओं में कुछ नामी न्यायाधीश और समाज सेविकाएं हैं । इसलिए वैसे भी आयोग की बात लोगों को सुननी ही होगी, उसे लोकसभा में विचार के लिए रखना ही होगा ।

ध्यान देने की बात यह है कि उत्साह में हम कुछ ऐसा न कर जाएं कि पासा पलट जाए । पारिवारिक संवेदनशीलता का यह कठिन सवाल है, और इसे कानून के डंडे से हल नहीं किया जा सकता । उपहारों की सूची बनाना तो वैसे भी एक अपमानजनक प्रकिया ही है ।

राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना 31 जनवरी, 1992 में हुई थी । इन चार वर्षों में उसने महिलाओं में आत्मविश्वास जगाया है । नव विवाहितों को जलाने-मारने के मामले भी हाथ में लिए है, अपराधियों को दंडित कराया है । जहां कुछ मामलों में उसे पुलिस का सहयोग नहीं मिला है, पुलिस पर दबाव डालने का काम भी बड़ी सफलता से किया है । उसके सामने फिर भी एक आर्थिक सुविधा नहीं दिला पाया है ।

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इसके लिए केन्द्र सरकार को ही कुछ करना, होगा । अन्यथा राष्ट्रीय महिला आयोग उपहारों की सूची आदि बनवाने के मामूली कामों में ही उलझकर रह जाएगा । युवा वर्ग को स्वयं भी इस सामाजिक कुप्रथा के प्रति सतर्क होना पड़ेगा और इसके दुष्परिणामों से परिचत होना पड़ेगा तभी दहेज प्रथा उन्तुलन जैसे विभिन्न प्रयास सफल होंगे । युवा वर्ग में दहेज विरोधी मानसिकता निर्माण करने हेतु शिक्षा एवं सामाजिक परिवेश में परिवर्तन लाना होगा ।

जब तक नारी को निकृष्ट तथा पुरुष को सर्वश्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट माना जाता रहेगा तब तक यह अभिशाप विद्यमान रहेगा । अत: नारी के प्रति सभी को समानता एवं स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण अपनाना होगा और नारी को आर्थिक स्वतन्त्रता प्रदान करनी होगी । सीमित दायरों में विवाह संबंध करने से दहेज को बल मिलता है ।

वस्तुत: इन सभी उपायों के उत्साहवर्धक क्रियान्वयन से सुखद परिणाम निकल सकते हैं । इस कुप्रथा का मूलोच्छेद करने में हम सभी को दृढ संकल्प कर एक साथ जुट जाना चाहिए तथा इस दिशा में सक्रिय योगदान करना चाहिए ।

समाज एवं राष्ट्र की वास्तविक उन्नति तभी सम्मव होगी क्योंकि इस कुप्रथा का मूलोच्छेद किये बिना सामाजिक उद्धार केवल दिवास्वप्न ही कहा जाएगा । दहेज के दैत्य का वध करने हेतु युवा-शक्ति को जागृत करना होगा ।

युवा-शक्ति मिलकर इस कुप्रथा का विरोध करे । आज बड़ी समस्या नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों का विकास करने की है । जब तक इस बृहत् समस्या का अन्त नहीं होगा तब तक इस कुप्रथा का भी उन्तुलन सम्मव नहीं होगा ।