Examples of Ecosystem in Hindi. Read this article in Hindi to learn about the natural and man-made ecosystems which are the two main examples of ecosystem.

प्रकृति में विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक-तंत्र कार्यरत रहते हैं । ये तंत्र जलवायु, मृदा, वनस्पति, जल, स्थल के साथ-साथ भिन्नता रखते हैं, इसके अतिरिक्त मानव ने पर्यावरण का उपयोग कर नवीन पारिस्थितिक-तंत्रों का विकास किया है ।

इसी प्रकार पारिस्थितिक-तंत्र के फैलाव की कोई सीमा नहीं है । संपूर्ण पृथ्वी एक विशाल पारिस्थितिक-तंत्र है जिसे जीव मण्डल की संज्ञा दी जाती है, इसके अनेक वृहत खण्ड हैं जिन्हें जैव खण्ड कहा जाता है । प्रत्येक खण्ड के गौण एवं उपखण्ड हैं । तात्पर्य यह है कि पारिस्थितिक-तंत्र का विस्तार वृहत् प्रदेशों में भी हो सकता है और सूक्ष्म प्रदेशों में भी ।

पारिस्थितिक-तंत्रों के सामान्य प्रकार निम्नलिखित हैं:

1. प्राकृतिक पारिस्थितिक-तंत्र (Natural Ecosystem):

जो प्राकृतिक रूप में मानव के प्रभाव के बिना कार्यरत रहते हैं ।

i. सागरीय पारिस्थितिक-तंत्र:

पृथ्वी तल का लगभग 70 प्रतिशत भाग महासागरीय है तथा प्रत्येक महासागर का एक वृहत् पारिस्थितिक-तंत्र होता है । सागरीय जल का रासायनिक प्रक्रम भिन्न होता है अत: उसमें तापमान एवं ऑक्सीजन आदि की प्रक्रिया भी भिन्नता से चलती है ।

इसी सभी तथ्यों का अध्ययन समुद्र विज्ञान में किया जाता है, जबकि सागरीय या सामुद्रिक पारिस्थितिकी से तात्पर्य है (ओडम के शब्दों में) “Marine Ecology Emphasizes the Totality, or Pattern of Relationships between Organism and the Sea Environment.”

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इसमें गहरे सागर की पारिस्थितिकी, उथले सागर या तटीय क्षेत्र से भिन्न होती है । इसी का एक प्रमुख भाग ‘एस्चुरी पारिस्थितिकी’ होता है । सागरीय पारिस्थितिक-तंत्र जल की संरचना एवं उसमें रहने वाले जीव-जंतुओं, वनस्पति की पर्यावरण के समानुकूलन का तंत्र है । इसका अध्ययन समुद्र विज्ञान, जंतु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान के लिये अत्यधिक आवश्यक है ।

ii. घास के मैदानों में पारिस्थितिकी-तन्त्र:

यह स्थलीय पारिस्थितिकी-तंत्र है । पृथ्वी पर लगभग 19 प्रतिशत क्षेत्र पर घास के मैदान हैं । इनमें उष्ण कटिबन्धीय और शीतोष्ण कटिबन्धीय घास के मैदान सम्मिलित हैं । इसमें ‘सवाना’ घास पारिस्थितिकी-तंत्र महत्वपूर्ण है ।

इस तंत्र में वायु एवं मृदा में उपस्थित विभिन्न रासायनिक तत्वों के प्रभाव से विभिन्न प्रकार की घास, झाड़ियां और पौधों का विकास होता है । इनके प्राथमिक उपभोक्ताओं में घास खाने वाले जानवर तथा घास की पत्तियां खाने वाले अनेक प्रकार के कीट आते हैं ।

द्वितीय उपभोक्ताओं में मांसाहारी जीव-जन्तु आते हैं । मानव स्वयं भी पशुओं से प्राप्त पदार्थों का उपयोग करता है तथा शिकार भी करता है । अपघटक के रूप में मृत जीव-जन्तु, उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों से अनेक जीवाणुओं का जन्म होता है जो अन्त में मृदा में मिल जाते हैं । इन प्रदेशों में पशु-चारण स्वतन्त्र एवं व्यापारिक प्रमुखता से होता है, किन्तु जहाँ परिस्थितियाँ अनुकूल हैं वहां कृषि की जाने लगी है तथा मानव ने अन्य आर्थिक क्रियाओं का भी विकास किया है ।

iii. वनीय पारिस्थितिक-तंत्र:

पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्रों में वनों का विस्तार है । एक ओर सदाबहार उष्ण कटिबंधीय वन हैं तो दूसरी ओर शीतोष्ण के पतझड़ वाले तथा शीत-शीतोष्ण के सीमावर्ती प्रदेशों के कोणधारी वन हैं । वन या प्राकृतिक वनस्पति जहाँ एक ओर पर्यावरण/पारिस्थितिकी के विभिन्न तत्वों जैसे तापमान, वर्षा, आर्द्रता, मृदा आदि को नियंत्रित करते हैं वहीं उनका अपना पारिस्थितिक-तंत्र भी होता है ।

वनीय क्षेत्रों की मृदा में मिश्रित अनेक खनिज लवण एवं वायु मण्डल के तत्व इस प्रदेश के अजैविक तत्व होते हैं । दूसरी ओर जैविक तत्वों में उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक के रूप में विभिन्न पादप एवं जीव सम्मिलित होते हैं ।

उत्पादक के रूप में वनीय प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष होते हैं जो उष्ण, शीतोष्ण एवं शीत दशाओं के साथ-साथ परिवर्तित होते हैं । इन्हीं के साथ विषुवत् रेखीय प्रदेशों में झाड़ियों, लतायें आदि की प्रधानता होती है ।

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प्राथमिक उपभोक्ताओं में विभिन्न प्रकार के जानवर जो वनस्पति का भोजन करते हैं कीट, वृक्षों पर रहने वाले परिंदे, द्वितीय उपभोक्ता में मांसाहारी जीव-जंतु, पक्षी सम्मिलित हैं । मानव भी एक हद तक भक्षक का कार्य करता है ।

वनस्पति निरंतर गिर कर सड़ती रहती है तथा मृदा में समाहित हो जाती है, इसी प्रकार जीव-जंतु भी मृत्यु के पश्चात् जीवाणुओं द्वारा सड़ते हैं और अंत में मिट्टी में मिल जाते हैं । विश्व के उष्ण कटिबंधीय वनों की ओर वर्तमान में पर्याप्त ध्यान आकृष्ट है क्योंकि इनका तीव्रगति से हो रहा विनाश विश्व पारिस्थितिक-तंत्र के लिये खतरा है ।

iv. मरुस्थलीय पारिस्थितिक-तंत्र:

पृथ्वीतल के लगभग 17 प्रतिशत भाग पर उष्ण मरुस्थल हैं । यहाँ का पर्यावरण अल्प वर्षा और उच्च तापमान के कारण विशिष्ट होता है । जल की कमी के कारण यहाँ की वनस्पति भी विशिष्ट होती है और शुष्कता के कारण बालूका स्तूपों का सर्वत्र विस्तार होता है ।

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मरुस्थल क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति कंटीली झाड़ियाँ, छोटी घास एवं कुछ शुष्कता सहन करने वाले वृक्ष होते हैं । इन क्षेत्रों में रेंगने वाले एवं अन्य जीवों के साथ ऊँट, भेड़, बकरी की प्रधानता होती है जो कम वर्षा एवं अल्प भोजन पर जीवन व्यतीत करते हैं । इन क्षेत्रों में अपघटक क्रिया अपेक्षाकृत कम होती है ।

इन प्रदेशों में पशुपालन के साथ जहाँ जल उपलब्ध हो जाता है । यहाँ मोटे अनाज की खेती भी की जाती है । एक सामान्य तथ्य मरुस्थलों के संबंध में यह है कि यहाँ यदि जल उपलब्ध हो तो वे उत्तम कृषि क्षेत्र बन जाते हैं जैसा कि नील नदी की घाटी में, थार के इंदिरा गाँधी नहर क्षेत्र में आदि । इन प्रदेशों के पारिस्थितिकी तंत्र में फिर परिवर्तन आ जाता है ।

बायोम:

पारिस्थितिक-तंत्र के अध्ययन में बायोम का वर्णन आवश्यक है क्योंकि ये स्थलीय पारिस्थितिक-तंत्र के परिचायक हैं । ओडम के अनुसार- ”क्षेत्रीय जलवायु जब क्षेत्रीय जीवों (वनस्पति एवं जंतु) से अंतर प्रत्यक्ष करती है तो विशिष्ट समुदायों का उद्भव होता है जिन्हें सहजता से पहचाना जा सकता है, इन्हीं को बायोम के नाम से पुकारते हैं ।”

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बायोम वृहत् स्थलीय समुदाय इकाई है जिसे सरलता से पहचाना जा सकता है । एक बायोम में जलवायु की समानता के कारण वनस्पति, जीव-जंतु एवं उनका जीवन स्वरूप सामान्यतया समान होता है । बायोम मुख्यतया प्रमुख वनस्पति समुदायों से संबंधित होने के कारण ही इन्हें ‘बायोम’ नाम पादप पारिस्थितिकीविदों ने दिया है तथा ये प्रमुख ‘वनस्पति क्षेत्रों ‘ से संबंधित होते हैं । कुछ विद्वानों ने इन्हें ‘प्रमुख जीवन क्षेत्र’ भी कहा है ।

मूल रूप से विश्व के बायोम, जलवायु प्रदेशों या दूसरे शब्दों में भौगोलिक प्रदेशों से सामंजस्य रखते हैं । विश्व के बायोम पर्यावरण समुदायों अथवा पारिस्थितिक-क्षेत्रों से समता रखते हैं जिन्हें विद्वानों ने कतिपय अंतर के साथ व्यक्त किया है । अध्ययन की सुविधा हेतु विश्व बायोम को तीन बृहत् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है ।

ये हैं:

I. वनीय बायोम:

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(अ) विषुवत् रेखीय बायोम,

(ब) मध्य अक्षांशीय वनीय बायोम,

(स) शीतोष्ण कोणधारी बायोम ।

II. घास प्रदेशीय एवं भूमध्यसागरीय बायोम:

(अ) सवाना बायोम,

(ब) भूमध्यसागरीय बायोम,

(स) मध्य अक्षांशीय घास प्रदेश का बायोम ।

III. बंजर क्षेत्र बायोम:

(अ) शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क बायोम,

(ब) टुण्ड्रा बायोम,

(स) ध्रुवीय बायोम ।

उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विश्व के विविध क्षेत्रों का बायोम वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी-तंत्र का परिचायक है और यही बायोम वहाँ के आर्थिक विकास का आधार प्रस्तुत करता है, जो अन्तत: जनसंख्या विकास तथा विस्तार एवं जमाव को ही नहीं अपितु सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति को भी नियंत्रित करता है ।

वर्तमान विश्व में पारिस्थितिक-तंत्र के असंतुलन की सर्वत्र चर्चा है क्योंकि पर्यावरण अवकर्षण का इस पर सर्वाधिक प्रभाव है, अत: प्रस्तुत विवरण एक ओर विश्व पारिस्थितिक-तंत्र को समझने में सहायक होगा, दूसरी ओर क्षेत्रीय पर्यावरण की रक्षा-योजना भी इसके माध्यम से तैयार की जा सकेगी ।

2. अप्राकृतिक या मानवकृत पारिस्थितिक-तंत्र (Man-Made Ecosystem):

इसमें मानव अपने बौद्धिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक स्तर के अनुरूप पर्यावरण का उपयोग कर पारिस्थितिक-तंत्र विकसित करते हैं, जैसे- कृषि क्षेत्र या फसल पारिस्थितिक-तंत्र, चरागाह, नगरीय, यहाँ तक कि मानव आकाशीय पारिस्थितिक-तंत्र का विकास करता है । भौगोलिक दृष्टिकोण से पीटर हेगेट ने अपनी पुस्तक ‘Geography- A Modern Synthesis’ में नौ वृहत पारिस्थितिक एवं पर्यावरण प्रदेशों का वर्णन किया है ।

ये हैं:

I. विषुवत् रेखीय,

II. मध्य अक्षांशी सीमावर्ती,

III. बोरेल,

IV. सवाना,

V. भूमध्यसागरीय,

VI. मध्य अक्षांशीय चरागाह,

VII. शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क,

VIII. टुण्ड्रा,

IX. ध्रुवीय ।

उपर्युक्त प्रकारों के अतिरिक्त भी पारिस्थितिक-तंत्र के अनेक क्षेत्रीय एवं सूक्ष्म प्रकार संभव हैं । पारिस्थितिक-तंत्र के प्रकारों के अध्ययन का ‘आवासीय दृष्टिकोण’ उत्तम विधि है, यह भौगोलिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पर्यावरण का जीवों/मानव के साथ सामंजस्य स्थापित कर अध्ययन किया जाता है ।

जिस प्रकार का पर्यावरण होगा वैसी ही वनस्पति, जीव-जंतु मानव क्रियाएँ होंगी । भौगोलिक दृष्टिकोण से हेगेट द्वारा किया गया वर्गीकरण अधिक प्रासंगिक है । शुद्ध जल पारिस्थितिक-तंत्र में जल के सभी तथ्यों अर्थात् प्राकृतिक, रासायनिक, भूगर्भिक और जैविक का अध्ययन होता है ।

यह जल ठहरा या स्थिर एवं बहता हुआ हो सकता है । शुद्ध जल पारिस्थितिकी को परिभाषित करते हुए ओडम ने लिखा है- “Fresh Water Ecology Emphasizes the Organisms Environment Relationship in the Fresh Water Habitat in the Context of the Ecosystem Principle.”

तात्पर्य यह है कि जल में उसकी संरचना के अनुरूप विभिन्न प्रकार के उत्पादक अथवा जीवों का उद्भव होता है, वे उसी से या एक-दूसरे से भोजन प्राप्त कर अस्तित्व में आते हैं और अंत में अपघटित हो जाते हैं । इसको तालाब के पारिस्थितिक क्रम से समझा जा सकता है ।

कृषि क्षेत्र पारिस्थितिक:

उपर्युक्त वर्णित पारिस्थितिक-तंत्र जहाँ एक ओर पूर्णतया प्राकृतिक है वहीं मानव के तकनीकी एवं वैज्ञानिक ज्ञान के फलस्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर मानव कृत तंत्र का विकास होता है, इसी में एक प्रमुख है कृषि क्षेत्र का पारिस्थितिक-तंत्र ।

इसमें मानव अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक तत्वों में परिवर्तन करता है, मृदा में कृत्रिम उर्वरक देकर खनिज लवणों की पूर्ति करता है, विशिष्ट प्रकार के बीज, सिंचाई व्यवस्था एवं तकनीकी प्रयोग से न केवल कृषि क्षेत्र में विस्तार करता है अपितु उत्पादन में वृद्धि, उत्तमता में विकास, नवीन फसलों के उत्पादन द्वारा अधिकतम विकास करता है ।

कृषि क्षेत्र के पारिस्थितिक-तंत्र में मृदा एवं उसकी रासायनिक संरचना का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि उसी के अनुरूप कृषि उपजों का निर्धारण किया जाता है । इन फसलों के साथ अनेक प्रकार के पौधे स्वत: उगते रहते हैं ।

उपभोक्ता में विभिन्न कीट, जीव-जंतु, पक्षी, पालतू जानवर और स्वयं मानव होते हैं । कुछ पत्ते एवं फल खाते हैं तो अन्य अनाज का उपभोग करते हैं । फसलों के पक जाने के पश्चात् विभिन्न कार्बनिक पदार्थ मृदा में मिश्रित हो जाते हैं ।

उपयुक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन के साथ-साथ पारिस्थितिक-तंत्र में परिवर्तन आता है, मानवीय प्रयास उसमें और अधिक समानुकूलन उत्पन्न करते हैं और अनेक बार नवीन पारिस्थितिक-तंत्रों का विकास हो जाता है । विश्वव्यापी पारिस्थतिक-तंत्र के अतिरिक्त मध्यम श्रेणी के तत्वों का विकास एक देश या प्रदेश में हो जाता है ।

उदाहरणार्थ भारत में निम्नांकित पारिस्थितिक-प्रदेश स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं:

1. हिमालय पर्वतीय पारिस्थितिक-तंत्र,

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2. मैदानी पारिस्थितिकी,

3. मरुस्थली प्रदेश पारिस्थितिकी,

4. मध्य भारत पठार प्रदेश,

5. प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश,

6. तटवर्ती मैदानी पारिस्थितिकी एवं

7 समुद्र द्वीपीय पारिस्थितिकी ।

उपर्युक्त वर्गीकरण मूल रूप से धरातलीय दशाओं के आधार पर है, जिसके कारण जलवायु, वनस्पति, मृदा तथा मानवीय समानुकूलन में अंतर आ जाता है । प्रत्येक मध्यम श्रेणी के पारिस्थितिक-प्रदेश के अनेक उपविभाग एवं सूक्ष्म पारिस्थितिक क्षेत्र होते हैं, जिनका विकास पर्यावरणीय-मानव सामंजस्य का परिणाम होता है । जैसे- राजस्थान राज्य में चार प्रमुख पारिस्थितिक-तंत्रों का विकास हुआ है ।

ये हैं:

1. मरुस्थलीय पारिस्थितिक-तंत्र,

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2. अरावली पर्वतीय पारिस्थितिक-तंत्र,

3. पूर्वी-मैदान पारिस्थितिक-तंत्र,

4. हाड़ौती पारिस्थितिक-तंत्र ।

ये सभी प्रदेश प्राकृतिक दृष्टि से भिन्न हैं और इनका प्रभाव आर्थिक तंत्र पर स्पष्ट है । इन प्रदेशों के भी पुन: सूक्ष्म विभाग स्थानीय दशाओं के आधार पर संभव होते हैं, जैसे- मरुस्थली प्रदेश में शुष्क मरुस्थल, अर्द्ध शुष्क मरुस्थल, सिंचित मरुस्थल, आदि, हाड़ौती प्रदेश में चम्बल क्षेत्र, मुकन्दरा क्षेत्र, शाहबाद का वनीय क्षेत्र, बूँदी की पहाड़ियों, काली सिंध का मैदान, झालावाड़ का पठार आदि ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि पारिस्थितिक-तंत्र का विकास पर्यावरण एवं मानव के सामंजस्य एवं समानुकूलन का परिणाम है । ये प्रदेश विकास अथवा क्षेत्रीय विकास का आधार प्रस्तुत करते हैं । यदि विकास योजनाओं का प्रारूप पारिस्थितिक-तंत्र/प्रदेशों के आधार पर किया जाये तो वे विकास को नई दिशा प्रदान करेंगी और उससे क्षेत्रीय समस्याओं का निराकरण होगा तथा वास्तविक विकास संभव होगा ।

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