पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव | Paaristhitikee Tantr Par Praudyogikee Ka Prabhaav | Impact of Technology on Ecosystem in Hindi!

तकनीकी विकास के अंतर्गत उद्योग, परिवहन, कृषि, आनुवांशिकी तकनीक आदि विकास के समस्त पहलू सम्मिलित किये जाते हैं । वास्तविकता यह है कि वर्तमान युग ‘तकनीकी युग’ है और तकनीकी विकास किसी भी देश की प्रगति का परिचायक है, इसी कारण विश्व के राष्ट्रों में तकनीकी विकास की होड़ लगी हुई है ।

इसी के साथ एक अन्य प्रश्न जो आज विश्व में चर्चा का विषय है, वह है क्या तकनीकी विकास ही प्रगति है ? और इसका पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी-तंत्र के साथ किस प्रकार का सामंजस्य है ? विश्व के विचारकों का यह मानना है कि तकनीकी प्रगति पर्यावरण को दिन-प्रतिदिन प्रदूषित कर मानव जीवन के लिये घातक बनी हुई है । द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व प्रगति से लोगों को एक तरफ हर प्रकार की सुविधायें उपलब्ध हुई हैं ।

किंतु इस प्रगति का नतीजा केवल मानव ही नहीं अपितु पेड़-पौधे, हवा, पानी, जीव-जगत् सभी भुगत रहे हैं । पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं । वनों का तीव्र गति से विनाश हो रहा है । प्राण वायु ऑक्सीजन की कमी होती जा रही है तथा न शुद्ध हवा उपलब्ध है न जल ।

फलस्वरूप पर्यावरण अवकर्षण से प्राणलेवा बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं । तकनीकी विकास के प्रारंभिक दौर में निःसंदेह समस्यों नहीं थीं या सीमित थीं फिर भी सोलहवीं शताब्दी में एग्रीकोला ने यह चिंता व्यक्त की थी कि खानों की खुदाई से कृषि क्षेत्र एवं वन क्षेत्र नष्ट होंगे ।

प्रौद्योगिकी का सीमित विकास पर्यावरण के संकट का कारण नहीं था किंतु वर्तमान के असीमित तकनीकी विकास से पारिस्थितिकी-तंत्र असंतुलित हो रहा है । कुछ विद्वानों का मत है कि प्रौद्योगिकी से ही इसके कुप्रभावों को रोका जा सकेगा, किंतु रूडीजर बबनर के विचार से प्रौद्योगिकी द्वारा यह संभव नहीं है क्योंकि उसके परिणाम दूरगामी होते हैं ।

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हंसजार्ज गेरिस का मत है कि रसायनों के उपयोग में चाहे लाख जोखिम हों, इनके बिना उद्योगों की कल्पना नहीं की जा सकती । कोई भी उद्योग ऐसा नहीं है जो रासायनिक उत्पादों से जुड़ा नहीं हो और यह भी सच है कि ये पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं ।

यह एक विडम्बना है कि रसायनों के उत्तर प्रभावों को पहले से समझना कठिन है । तभी ये खतरे की घंटी बनते जा रहे हैं । गेरिस का मत है कि इसमें वैज्ञानिकों का दोष कम है । उन्हें नये-नये आविष्कारों की होड़ में यह ध्यान ही नहीं होता कि उनका हानिकारक प्रभाव भी होता है ।

इसके लिये पुन: अनुसंधान की आवश्यकता है । आनुवांशिक तकनीक के प्रारंभ में यह माना जा रहा था कि इससे उद्भूत सूक्ष्म जीवों से पर्यावरण को खतरा नहीं होगा किंतु यह धारणा निर्मूल रही । जैव हथियारों का प्रयोग कितना हानिकारक हो सकता है इसकी कल्पना ही भयानक है ।

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परमाणु तकनीकी की प्रगति का दूसरा पक्ष विनाश एवं रेडियोधर्मिता का विस्तार है । अत्यधिक सावधानी के उपरांत भी जब चेरेनोबिल दुर्घटना हो सकती है तो विकासशील देशों में इसका क्या भविष्य है, यह विचारणीय प्रश्न है ।

वास्तव में तकनीकी प्रगति के साथ-साथ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर ध्यान देना आवश्यक है । व्यापारीकरण एवं अत्यधिक लाभ की प्रवृत्ति को रोककर ”सर्व जन सुखाय सर्वजन हिताय” की अवधारणा को अपना कर ही तकनीकी प्रगति को नई दिशा दी जा सकती है और पारिस्थितिकी-संकट से बचा जा सकता है ।

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