पारिस्थितिकी पर अनुच्छेद Paaristhitikee Par Anuchchhed | Paragraph on Ecology in Hindi!

मानव सभ्यता के विकास की कहानी वास्तव में उसके प्रकृति अथवा पर्यावरण उपयोग की क्योंकि है, क्योंकि आदमी अवस्था से आज तक हम पर्यावरण का उपयोग कर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं और भविष्य की प्रगति भी इसी पर निर्भर है ।

विकास के प्रारंभिक दौर में मानव का पर्यावरण से सामंजस्य था, अत: वह निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता रहा । यद्यपि इसके कारण सीमित जनसंख्या, सीमित आवश्यकताएँ एवं तकनीकी ज्ञान की कमी भी रहे हैं । किंतु जैसे-जैसे औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति अधिकाधिक होती गई, एक ओर प्रकृति के शोषण में वृद्धि होने लगी तो दूसरी ओर उसका कुप्रभाव अथवा प्रकोप भी प्रारंभ हो गया ।

इसका प्रारंभ यद्यपि औद्योगिक एवं परिवहन क्रांति से ही हो गया था, किंतु विकास की दौड़ के उस युग में यह सोचने का समय संभवत: मानव को नहीं था कि अनियमित एवं अनियंत्रित पर्यावरण शोषण विकास के स्थान पर कुछ ऐसी समस्याओं को भी जन्म देगा जो स्वयं उसके अस्तित्व के लिये संकट का कारण बन जायेंगी ।

पर्यावरण शोषण की एकतरफा धारणा शीघ्र ही निर्मूल सिद्ध हुई और विगत चार-पाँच दशकों से सम्पूर्ण विश्व में विकास एवं पारिस्थितिक-तन्त्र में समन्वय की आवश्यकता पर विचार चल रहा है, योजनायें बनाई जा रही है, क्योंकि यदि विकास से पारिस्थितिक-संकट उत्पन्न होता है तो वह विकास आत्मघाती हो सकता है ।

पारिस्थितिक-तन्त्र एक जटिल प्रक्रिया है जो पर्यावरण, मानव, तकनीकी एवं संगठन का परिणाम है तथा सन्तुलित विकास के साथ अनवरत चलती रहती है । इसका प्रमुख सिद्धांत-पर्यावरण की सकलता एवं एकता है जिसमें सभी जैविक और भौतिक घटक परस्पर अन्योन्याश्रित रहकर क्रियात्मक होते हैं ।

यदि इसके किसी एक घटक को बाधा पहुँचाई जाये अथवा नष्ट किया जाये तो संपूर्ण तंत्र उससे प्रभावित होता है । पृथ्वी के पर्यावरण की भौतिक, सांस्कृतिक एवं जैविकीय विशेषतायें एक दूसरे से अन्तर्क्रियात्मक संबंध से जुड़ी हुई है और यही मानव अस्तित्व एवं विकास का आधार है ।

इनमें असंतुलन पारिस्थितिक-संकट का कारण है । मानवीय अथवा किसी अन्य कारण से जब प्रकृति के किसी एक घटक को हानि पहुँचती है अथवा उसके अनुपात में कमी या वृद्धि हो जाती है तो अन्य घटकों पर उसका प्रभाव ही इस असंतुलन का कारण है । इसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिक-प्रक्रियाएँ विपरीत हो जाती हैं, जीवनदायिनी शक्तियों समाप्त होने लगती हैं और जैवकीय क्रियाओं में विकृति पैदा हो जाती है ।

पारिस्थितिकी-संकट के प्रति आज विश्व के सभी देश-विकसित एवं विकासशील सचेष्ट हैं और अनेक अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मैचों पर यह एक विचारणीय प्रश्न बन गया है कि क्या विकास रोक दिया जाये ? विकास एवं पर्यावरण संतुलन का क्या स्वरूप हो ? तथा इस दिशा में वर्तमान तथा भविष्य की क्या योजनायें हों ?

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ये प्रश्न आज सैद्धांतिक न होकर व्यावहारिक बन गये हैं क्योंकि तीव्र औद्योगिक विकास, तेजी से जनसंख्या वृद्धि एवं शहरीकरण, तकनीकीकरण, रसायनों के प्रयोग में निरंतर वृद्धि, अनियोजित विकास, अनियंत्रित खनन आदि के साथ अधिकतम उपयोग एवं उपभोग की प्रकृति के कारण इन प्रश्नों पर विचार करने में समय न गँवा कर आवश्यकता है इसको रोकने की अर्थात् विकास एवं पारिस्थितिकी-तंत्र में सामंजस्य तथा संतुलन स्थापित करने की ।

प्रकृति पर विजय के अहं में मानव उसके दूरगामी परिणामों पर से दृष्टि फेर लेता है, किंतु अंततोगत्वा उसके परिणाम भी उसी को भुगतने होते हैं । फ्रेडरिक एजेंल्स का यह कथन महत्ता रखता है कि- ”हमें प्रकृति पर मानवीय विजय के विषय में बहुत अधिक प्रशंसा नहीं करनी चाहिये क्योंकि प्रकृति प्रत्येक विजय का भारी बदला लेती है ।

प्रत्येक विजय, यह तो सही है कि पहली बार में तो उन्हीं परिणामों को पैदा करती है जिनकी हम आशा करते हैं, परंतु दूसरी और तीसरी बार में ऐसे भिन्न और अप्रत्याशित प्रभावों को पैदा करती है जो कि पहली बार के परिणामों को रद्द कर देते हैं ।” वस्तुत: विकास की दिशा सही होनी चाहिये और वह सही हो सकती है पारिस्थितिकी-तंत्र से समानुकूलन के माध्यम से ।

पारिस्थितिकी विकास का आधार:

मानव सभ्यता के विकास का इतिहास स्पष्ट करता है कि प्रगति का मूल पर्यावरण है और सदैव से मानव उसके उपयोग द्वारा उत्तरोत्तर विकास करता आ रहा है । यह दशा आखेट एवं घुमक्कड़ अवस्था में भी थी और पशु-पालन तथा कृषि विकास की अवस्थाओं में भी ।

कृषि, अधिवास एवं अन्य आर्थिक क्रियाओं हेतु वन काट कर मानव ने भूमि प्राप्त की तथा अनेक जैविक तथा अजैविक तत्वों के उपयोग द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण किया । उस अवस्था में मानवीय क्रिया-कलापों का प्रभाव सीमित था और प्रकृति स्व-संतुलन स्थापित कर लेती थी ।

जैसे-जैसे जनसंख्या वृद्धि हुई तकनीकी विकास हुआ, उद्योगों की सर्वत्र स्थापना होने लगी, वाहनों का द्रुतगति से विस्तार हुआ, रसायनों के प्रयोग में अधिकाधिक वृद्धि हुई, नगरों का फैलाव हुआ वैसे-वैसे यह प्रक्रिया तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है ।

फलस्वरूप वायु, जल, वन, मृदा और सभी जीव-जंतु इससे प्रभावित हो रहे हैं । वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास आज पारिस्थितिकी-तंत्र को निरंतर असंतुलित कर संकट का कारण बन रहा है । प्रश्न यह है कि क्या पारिस्थितिकी और विकास विरोधी हैं ?

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कदापि नहीं, अपितु एक दूसरे के पूरक हैं और विकास को सही दिशा दे सकते हैं । इनको विरोधी मानना भ्रामक है एवं उन देशों का प्रचार है जो विकासशील देशों की प्रगति को रोकना चाहते हैं । इस संदर्भ में विकास को भी नये सिरे से परिभाषित करना आवश्यक है ।

विकास का अर्थ मात्र प्राकृतिक संसाधनों का कतिपय समुदायों द्वारा शोषण या अधिकाधिक वाहनों का प्रयोग या शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण ही नहीं अपितु पारिस्थितिकी-तंत्र को संतुलित रख कर प्रगति करना है । यदि विकास का प्रतिकूल प्रभाव होता है तो उसका शीघ्र निराकरण होना चाहिये या विकास हेतु नवीन मार्ग निकालना चाहिये ।

पारिस्थितिकी-तंत्र एवं आर्थिक तथा सामाजिक-तंत्र में अंतर्निहित संबंधों को समझने से ही विकास का सही मार्ग प्रशस्त हो सकता है । आर्थिक-तंत्र, जो विकास का परिचायक है, का आधार पारिस्थितिक-तंत्र है जहाँ से वह कच्चा माल प्राप्त करता है तथा ऊर्जा के उपयोग द्वारा उसे विविध उपयोगी स्वरूप प्रदान करता है ।

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इस प्रक्रिया में उससे अनेक ठोस, द्रव एवं गैसीय अपशिष्टों का निष्कासन होता है, उसमें कुछ प्रकृति द्वारा शोधित कर दिये जाते हैं, शेष प्रदूषण का कारक बनते हैं और पारिस्थितिक-तंत्र को हानि पहुँचाते हैं । आर्थिक तंत्र के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक तंत्र के संबंधों को भी स्पष्ट किया गया है । सामाजिक व्यवस्था द्वारा जहाँ विकास की नवीन आकांक्षायें जन्म लेती हैं वहीं मूल्य तंत्र भी विकसित होता है ।

इसमें पर्यावरण की महती भूमिका होती है और तदनुसार आर्थिक तंत्र का विकास होता है जो पुन: पारिस्थितिकी को प्रभावित करता है, जिसे उचित प्रबंधन द्वारा परिचालित किया जा सकता है । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विकास का आधार पारिस्थितिकी है और जब विकास होगा तो उस पर विपरीत प्रभाव होगा, उस प्रभाव को कितना कम किया जाये या समाप्त किया जाये इसी में विकास की सफलता निहित है ।

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