औद्योगिक प्रदूषण के बढ़ते खतरे पर निबन्ध | Essay on The Growing Threat of Industrial Pollution in Hindi!

३० दिसंबर, १९८६ की सुबह लखनऊ स्थित गोमती नदी में औद्योगिक कूड़ा-कचरा गिर जाने से कई टन मछलियों की मृत्यु हो गई, साथ ही नदी का जल पूरी तरह से जहरीला हो गया ।

इसके लिए ‘मोहन मीकिंस’ का शराबखाना तथा ‘अवध चीनी मिल’ संयुक्त रूप से दोषी हैं । इन दोनों औद्योगिक संस्थानों के कारखानों से निकले प्रदूषित जल से गोमती में ऑक्सीजन की कमी हो गई । फलत: मछलियाँ तड़प-तड़पकर मर गईं ।

ज्ञातव्य है कि उक्त दोनों कारखानों से ‘उत्तर प्रदेश जल-प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ मुकदमा लड़ रहा था । सर १९८१ में मोहन मीकिंस पर पहला मुकदमा किया गया था और जब सन् १९८६ में मछलियों के मरने की घटना प्रकाश में आई तब उस पर दूसरा मुकदमा दायर किया गया ।

अवध चीनी मिल पर सन् १९८४ में मुकदमा दायरकिया गया था । १२ जनवरी, १९८७ को उत्तर प्रदेश जल-प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पक्ष में निर्णय किया गया था । न्यायालय ने अपने निर्णय में मोहन मीकिंस तथा अवध चीनी मिल को तुरंत बंद करने का आदेश दिया था ।

यह तो एक दृष्टांत है । इससे पूर्व घटित लोमहर्षक औद्योगिक घटना भोपाल गैस कांड का दृश्य-परिदृश्य आज भी हमारी आँखों के सामने बिछ-बिछ जाता है । इन दुर्घटनाओं के बाद सरकार अब इस बात पर जोर दे रही है कि देश के सभी औद्योगिक प्रतिष्ठान सुरक्षा को प्राथमिकता दें, साथ ही औद्योगिक उच्छिष्टों का निपटान इस प्रकार किया जाए कि वातावरण तथा अड़ोस-पड़ोस को दूषित न करें ।

दुःख की बात यह है कि हम अधिकतर उच्छिष्टों के निपटान में बुद्धि से काम नहीं लेते और फिर हाय-हाय मचाते हैं कि उद्योगों का बढ़ाना क्या हुआ, बवाले जान हो गया । उद्योगों को वरदान समझा था, पर उनके उच्छिष्ट अभिशाप बन गए ।

यह सुविदित है कि कोई भी देश उद्योगों के बिना जी नहीं सकता । अपनी शक्ति भर उद्योगों का विस्तार करने में ही उसका जीवन है; उसकी सुख-समृद्धि है; पर बहुत से उदद्योगों ऐसे हैं, जो विषेल प्रदूषण और खतरनाक गैस-रामायन छोड़ते है ।

यहाँ तक कि सम्पन्न देश तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मेक्सिको में लगाया; तेलशोधक कारखाने छोटे-छोटे कैरेबियन टापुओं पर लगाए; ऑस्ट्रेलिया के ‘एस्बस्ट शोधक कारखाने’ इंडोनेशिया में हैं तथा अमेरिका के खतरनाक कीटनाशक कारखाने भोपाल में लगाए गए हैं ।

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संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य पर्यावरण अधिकारी मुस्तफा कमाल तोल्वा ने अपनी रिपोर्ट में कहा है- ”गरीब देश अंतरराष्ट्रीय कचरा-टोकरियाँ बन गए हैं ।” हमें देश में कारखाने और उद्योग तो बढ़ाने हैं, पर यह देखकर कि वे हमारे कितने हित में हैं । कहीं ऐसा तो नहीं है कि विदेशी लाभ के लिए हम उनके खतरे का शिकार बन रहे हैं ।

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जहाँ तक हमारे देश के लिए जरूरी उद्योगों के विस्तार की बात है, उनमें भी पूँजीपति केवल चलाने पर अधिक ध्यान देते हैं; उनसे सुरक्षा, उनसे हो रहे प्रदूषण तथा जनता को हो रही हानियों पर कम ही ध्यान देते हैं । यही कारण है कि साढ़े तीन लाख औद्योगिक दुर्घटनाएँ सरकारी स्तर पर ही दर्ज की गई हैं ।

हमारे यहाँ उद्योगों से जनता को होनेवाले हानिकर प्रदूषण और समय-समय पर खतरनाक नीतियों के अलावा भी उनमें काम करनेवालों को प्रत्यक्ष नुकसान होते हैं, यथा-करीब दो लाख सूती कपड़ा मिल मजदूर मिलों में उचित सुरक्षा-व्यवस्था न होने से ‘वाइसोनोसिस’ नामक रोग की चपेट में आते हैं, जो अंतिम चरण में उन्हें पूर्णत: अशक्त कर देती है ।

कोयले की खानों में काम करनेवाले दस प्रतिशत मजदूर ‘नुमोक्रोनिओसिस’ नामक फेफड़े की बीमारी की पकड़ में आ जाते हैं । मध्य प्रदेश में मंदसौर में स्लेट-पेंसिल के कारखानों में काम करनेवाले मजदूर, बच्चे और स्त्रियाँ-श्वास के साथ धूल के शरीर में प्रवेश करने के कारण ‘सिलिकोसिस’ बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं ।

गोधरा के क्वार्ट्ज मजदूर, झारखंड के अभ्रक मजदूर ११ एस्बेस्टश्स फैक्टरियों के ७ हजार मजदूर तथा खदानों में काम करनेवाले लाखों मजदूर मृत्यु की छाया में काम कर रहे हैं । ‘नेशनल इंस्टीट्‌यूट ऑफ ऑकुपेशनल हेल्थ’ अहमदाबाद द्वारा हाल में एक एस्बेस्ट्रस टेक्सटाइल्स कारखाने के अध्ययन से पता चला है कि कार्य के समय न्यूनतम सीमा से ज्यादा रंग और धूल के श्वास के साथ जाने से अनेक मजदूर श्वास संबंधी रोगों से ग्रस्त हैं ।

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि रंग-उद्योग में कार्यरत मजदूर कैंसर से पीड़ित हैं । प्रकट है कि इस औद्योगिक प्रदूषण को तत्काल रोकना उन उद्योगों के स्वयं के अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है । इन प्रतिष्ठानों में प्रदूषण से सुरक्षा व्यवस्था उनके अस्तित्व के लिए और उनमें काम करनेवालों के लिए भी जरूरी है तथा उनसे हो रहे प्रदूषणों से ग्रस्त हो रही जनता को बचाने के लिए भी जरूरी है ।

उद्योगों के अलावा भी आधुनिक सुविधाओं से तरह-तरह के प्रदूषण बढ़ रहे हैं । हमें सर्दी में गरमी (हीटर) चाहिए गरमी में सर्दी (कूलर) चाहिए तथा बारहों महीने एक ही तापमान (एअर कंडीशनर) का कमरा चाहिए इन सब विलासिताओं के लिए और  प्रत्येक उद्योग, कल-कारखाने के लिए चौबीसों घंटे बिजली चाहिए ।

इनके लिए बिजलीघर बनेंगे तो कोयला भी फेंकेगा, राख भी उड़ेगी; धुआँ भी फैलेगा । यों तो जल, थल और वायु के प्रदूषण का श्रीगणेश तो हमने हर कदम पर कर ही दिया है, परंतु उनके प्रतिकार पर कोई ध्यान नहीं दिया है । इसके लिए सर्वत्र वृक्षों की बहुतायत होनी चाहिए जो प्रदूषण को शुद्ध कर सकें पर अफसोस ! आज इस ओर ध्यान देने के बजाय उलटे पेड़ अंधाधुंध काटे जा रहे हैं ।

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अब रहे उद्योग-कारखाना हाथ का हो या रिफाइनरी का, लोहे की ढलाई का हो या चीनी उत्पादन का, कागज का मिल हो या कपड़े का, चमड़े का हो या प्लास्टिक या रबर का या मिट्‌टी का ही हो, जो भी होगा, हमारी उत्पादन संपत्ति को बढ़ाएगा ही; लाखों बेरोजगारों को रोजगार देकर बेकारी घटाएगा, मगर साथ ही अपने उच्छिष्टों से प्राणियों का जीना मुश्किल कर देगा ।

धुआँ हमारे वातावरण को दमघोंटू बना देगा, नदियों में बेहिसाब बहाए गए उच्छिष्ट हमारे पीने के पानी को विषाक्त बना देंगे । खेतों में बिखेरी गई खादें, कीटनाशी दवाएं तथा अन्य रसायन वर्षा के समय बह-बहकर नहरों, नदियों का धर्म भ्रष्ट कर देंगी, पानी को विषाक्त बना देंगी ।

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उद्योग न होंगे तो व्यापार न होंगे, खेती-बाड़ी न होगी तो बेकारी का तांडव होगा । बेकारी के कारण चोरियां डकैतियाँ हिंसाएँ होंगी तथा जन-जीवन तार-तार हो जाएगा, इसलिए उद्योग जितने जरूरी हैं, उच्छिष्टों का उचित निबटान भी उतना ही जरूरी है, आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ ? हमें रहना यहीं है ।

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हम प्रकृति की शरण लें, जीवन को संयमित, आवश्यकताओं को सीमित और आहार-विहार को संतुलित रखें । जंगलों के अंधाधुंध विनाश और उसके फलस्वरूप अपनी वन्य पशु-संपदा के भी विनाश को तुरंत रोक दें, बंजर जमीनों को, ऊबड़-खाबड़ टीलों और चंबल जैसे बीहड़ जंगलों को समतल करके आवास-योग्य तथा कृषि-योग्य बनाएँ । रेगिस्तानों को यथासंभव नई वन-संपदा में बदलने की आवश्यकता है ।

धुएँ और गैस-रूप के प्रत्येक उच्छिष्ट को फिल्टर करके काफी ऊँची चिमनी के द्वारा इतने ऊँचे और अहानिकर रूप में छोड़े, जहाँ से वायुमंडल प्रदूषित न होने पाए । जलीय तथा अन्य प्रकार के उच्छिष्टों को भली प्रकार गहराई में दबाने की व्यवस्था करें ताकि जीवनोपयोगी जल तथा थल दूषित न हों ।

इसके साथ ही खतरनाक उद्योगों को बंद कर देना चाहिए अथवा उनकी सुरक्षा की पक्की व्यवस्था हो जाए तभी चलाए जाने चाहिए । विषैले और खतरनाक उद्योग आबादी के निकटवर्ती भागों में कदापि न लगाए जाएँ । इधर घरेलू प्रदूषण को भी रोक ।

घर, गला-मुहल्ला, सड़कों, और बाजार-हाट का कूड़ा इधर-उधर और इस प्रकार खुला न फेंके । कुछ विकसित देशों की एक अच्छी बात यह भी सीखें कि वहाँ घर का कूड़ा पालिथीन के बंद शैलों में मुहल्ले में रखे ढक्कन बंद कूड़ादानों में डाला जाता है, जहाँ से कूड़े की बंद गाड़ियाँ सारा कूड़ा उठा ले जाती हैं ।

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