गठबंधन की गंठी पर निबंध | Essay on Political Alliance in Hindi!

आज की सियासत की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि हम गठबंधन यानी अलायंस के जमाने में चल रहे हैं । कोई नहीं जानता कि यह दौर कब खत्म होगा । ऐसे समय में गठबंधन धर्म को सबसे बड़े मंत्र की तरह दोहराया जाता है ।

गठबंधन बनाने और चलाने के चैलेंज का अहसास सबको है, लेकिन क्या वजह है कि इसके बावजूद हमारे देश में पॉलिटिकल अलायंस का कल्चर उस तरह से मजबूत नहीं हो पा रहा जैसा यूरोप के कई देशों में है । हमारे यहां अलायंस हमेशा कमजोर रहते हैं । उनका वजूद अक्सर खतरे में पड़ता दिखता है, जैसा हाल में दिखा ।

साझेदारी को लेकर तनाव पैदा होते रहते हैं और समर्थन के नाम पर सियासी ब्लैकमेलिंग का बोलबाला है । हमारे अलायंस रजामंदी का खेल नहीं मजबूरी का सौदा लगते हैं । यहां भारत में गठबंधन की राजनीति की इन्हीं चुनौतियों, खामियों और हदों की पड़ताल की गयी है ।

हालिया राजनीतिक संकट केंद्र की गठबंधन सरकार के दो साझेदारों के बीच आए तनाव के कारण हुआ है । कांग्रेस और वाम दलों ने मिलकर एक और गठबंधन सरकार के असमय गिरने और मध्यावधि चुनाव की अटकलों को हवा दे दी । यदि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार अपनी असमय मृत्यु का गवाह बनती और मध्यावधि चुनाव होते तो क्या हमें मान लेना चाहिए कि गठबंधन सरकार चलाने के मामले में भारतीय राजनीति अभी भी अपरिपक्व है?

इस नतीजे पर आ जाना थोड़ी जल्दबाजी होगी । गठबंधन राजनीति का युग 1989 के लोकसभा चुनावों के साथ शुरू हुआ और 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद यह एक आभासी वास्तविकता बन चुका है । यह सच है कि गठबंधन सरकार में मुख्य दल को अपने सहयोगियों के दबाव में कई समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन ठीक इसी समय यह भी एक सच ही है कि पिछले कुछ सालों में गठबंधन राजनीति तंत्र एक नये धर्म की तरह विकसित हुआ है ।

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) द्वारा करवाए गए सर्वे से प्राप्त कड़े इस ओर इशारा करते हैं कि गठबंधन सरकार के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा है । 1998 में जहां केवल 17 प्रतिशत मतदाताओं ने गठबंधन सरकार की वास्तविकता के रूप में कल्पना की थी, वहीं 2004 में 31 प्रतिशत जनता भारतीय राजनीति के नये मंत्र गठबंधन को वास्तविकता मानने को तैयार थी ।

सर्वे से प्राप्त आकड़ों के अनुसार समाज के विभिन्न वर्गो और अलग-अलग राजनीतिक दलों से जुड़े मतदाताओं के बीच भी गठबधन सरकार के प्रति स्वीकार्यता बढ़ी है । एक राजनीतिक वास्तविकता के रूप में गठबंधन सरकार को मानने के मुद्दे पर पिछले एक दशक के मुकाबले अब कुछ ज्यादा ही राजनीतिक विभेद दिख रहा है ।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र में गठबंधन सरकारें कई कारकों का मिलाजुला नतीजा होती हैं । अगर कांग्रेस का कमजोर होना एक कारक है, तो बीजेपी को भी कुछ क्षेत्रों के अलावा पूरे देश में स्वीकार नहीं किया जाना गठबंधन सरकार को एक प्रभावी तंत्र के रूप में स्थापित करने वाला कारक है । इन दोनों विषयकों के अलावा अपने-अपने राज्यों में मजबूत जनाधार वाले क्षेत्रीय दलों का उभरना भी इन्हीं कारकों में शामिल है ।

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यूपी में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, बिहार में जनता दल (एकीकृत), उड़ीसा में बीजू जनता दल, पंजाब में अकाली दल, आध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी, तमिलनाडु में एआईएडीएमके और डीएमके कुछ ऐसे क्षेत्रीय दलों के उदाहरण हैं जो क्षेत्रीय के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

2009 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों का महत्व कुछ कम हुआ है और कांग्रेस पार्टी का विस्तार हुआ है । यह देश के लिए बहुत शुभ लक्षण है । 2004 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को 32.6 प्रतिशत वोट के साथ 131 सीटें प्राप्त हुईं थी । इस प्रकार क्षेत्रीय दलों ने न सिर्फ राज्य बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए एक लंबा रास्ता तय किया है ।

इन क्षेत्रीय दलों की सफलता का श्रेय निश्चित रूप से इनके विशाल सामाजिक समुदाय को जाता है, जो आभासी तौर पर इन दलों का वोट बैंक भी है । बीएसपी के लिए दलित, एसपी के लिए यादव आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं । केंद्र में जब कोई गठबंधन सरकार बनती है तो यह सिर्फ राजनीतिक दलों का गठबंधन भर नहीं होती बल्कि यह कई वर्गो व समुदाय के लोगों का भी सामाजिक गठबंधन होती है ।

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अब एक विशाल सामाजिक विविधता के साथ विभिन्न जातियों के लोगों, राजनीतिक दल के नेताओं और आपस में राजनीतिक दलों में भी एक बड़ा समायोजन हुआ है । यही समायोजन केंद्र में गठबंधन सरकार की बढ़ती मान्यता के रूप में हमें देखने को मिला है ।

वैसे गठबंधन के सामने सरकार के एक तंत्र के रूप में विकसित होने में कुछ और वक्त लग सकता है । लेकिन इस विशाल सामाजिक विविधता के प्रचलन की अनदेखी कर बच निकलने का हमारे पास कोई रास्ता नहीं । हालांकि, राजनीतिक दल के नेताओं ने इसे स्वीकार कर भी लिया है पर इस स्वीकार्यता की दर काफी धीमी है । आने वाले दिनों में हम लोग और भी रथायी, भरोसेमंद और सामान्य एवं प्रचलित सरकार के रूप में गठबंधन को देखेंगे ।

25 साल पहले कितने लोगों ने सोचा होगा कि गठबंधन सिर्फ सरकार का एक प्रचलित रूप बनेगा, बल्कि पश्चिम बंगाल और केरल में सरकार चलाने का एकमात्र रास्ता भी बनेगा । अभी कई और राज्य इस दिशा में आगे बढ़ेंगे और केंद्र सरकार भी इससे बची नहीं रह पायेगी ।

दूसरे मुल्कों में भी है यह संकट:

हम -यह नहीं कह सकते कि सिर्फ भारत में साझा सरकारों के कारण राजनीतिक अस्थिरता का संकट रहता है । गठबंधन सरकारें किसी भी देश में हों, समस्याओं से घिरी रहती हैं । जर्मनी में 1949 से अब तक 16 बार चुनाव हो चुके हैं और सरकारों का औसत काल 35 वर्ष रहा है ।

इटली में भी सरकारें लगातार बनती और टूटती रही हैं । ब्रिटेन में भी वर्ष 2010 में गठबंधन सरकार का गठन हुआ है । वैसे भी, साझा सरकारों की अपनी संस्कृति होती है और इस तरह की सरकारें बनने के पीछे कई सामाजिक कारण मौजूद होते हैं ।

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जैसे कि समाज में मौजूद कई तरह के विभाजनों, वर्ग और विचारधाराओं की टकराहट के बीच साझा सरकारों की स्थापना होती है । ऐसे में अगर राजनीतिक दलों के बीच विचारधारा के स्तर पर समानता हो तो साझा सरकार का प्रयोग सफल होता है । जैसे कि जर्मनी की मौजूदा सरकार से पहले वाली सरकार सोशलिस्ट और ग्रीन्स के बीच समझौते के आधार पर बनी थी । दोनों दलों का ज्यादातर मुद्दों पर नजरिया एक जैसा था, इसलिए वह सरकार पूरे वक्त टिकी रही ।

इस बार वहां सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और कंजर्वेटिव दल की मिलीजुली सरकार है, इसलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार कितने दिनों तक चलेगी । साझा सरकारों की अस्थिरता को लेकर अक्सर ही सवाल उठाए जाते हैं, पर हमें समझना होगा कि ऐसी सरकारी से भारत के लोकतंत्र को मजबूती भी मिली है । अस्थिरता रहती है तो भी देश की अर्थव्यवस्था पर उसका कोई असर नहीं दिखता ।

देश और दलों ने भीतर ही भीतर मान लिया है कि उन्हें साझा सरकारों की संस्कृति को अब स्वीकार करना पड़ेगा । इसलिए ऐसी सरकारों की कार्यप्रणाली और स्थिरता के मामले में पहले से काफी विकास भी हुआ है । पहले वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पूरे 5 साल रही और इसके बाद मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार 5 साल पूरे करके पुन: सत्ता में आ गई है ।

वैसे भी, अगर मुद्दों के आधार पर साझा सरकार न बने तो समस्याएं ज्यादा पैदा होती हैं, जैसा कि कर्नाटक में देखने को मिला जहां सिर्फ सत्ता के बंटवारे के लिए बीजेपी और जेडी (एस) ने हाथ मिलाया था । मुद्दों के आधार पर मतभेद होने से ऊपरी तौर पर भले देश में अस्थिरता दिखे लेकिन लोकतंत्र का विस्तार होता है । मगर विडंबना यह है कि दलों के बीच मतभेद मुद्दों से नहीं बल्कि संकीर्ण स्वार्थों या व्यक्तित्व के इर्दगिर्द ज्यादा पैदा होते हैं ।

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दुनिया के कई मुल्कों में राजनीतिक पार्टियों को बहुमत नहीं मिलता, इसलिए वहां प्रयोग जारी रहते हैं । जर्मनी में अस्थिरता को रोकने के लिए अविश्वास मत लाने से पहले किसी दूसरे चांसलर के नाम पर सहमति बनाना अनिवार्य होता है ।

नॉर्वे में भी चुनाव के बाद सरकार बनने में काफी वक्त लगता है, क्योंकि सभी दल पहले से तय करते हैं कि वे किस रूप में सरकार में शामिल होंगे । मसलन, कौन-सा विभाग किसके हाथ आएगा या दूसरी जिम्मेदारियों को कौन संभालेगा । भारत में भी लोग इस तरह का कोई कानूनी प्रावधान करने के पक्ष में हैं, जिससे साझा सरकारी पर मंडराने वाली अस्थिरता का संकट खत्म हो । 

खासतौर पर चुनाव के बाद विधायकों की खरीद- फरोख्त पर जिस तरह से कानूनी रोक लगा दी गयी है और उसका जो फायदा हुआ है, उसके मद्देनजर भी राजनीतिक अस्थिरता को कंट्रोल करने के लिए कानून का सहारा लेने की बात उठाई जा रही है । लेकिन अभी कानून बनाने की जरूरत नहीं है बल्कि विभिन्न दलों में ‘सेल्फ डिसप्लिन’ की जरूरत ज्यादा है । उन्हें समझना होगा कि बहुमत वाली सरकारें कम से कम केंद्र में निकट भविष्य में मुमकिन नहीं हैं ।

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अब कोई ऐसी लहर फिलहाल नहीं आएगी जो किसी पार्टी को उछालकर बहुमत के नजदीक पहुंचा दे । इसी तरह धर्म, राम सेतु या परमाणु मुद्दों में भी इतनी ताकत नहीं कि वे देखते-देखते किसी दल की किस्मत पलट दें इसलिए उन्हें दूसरे दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने और चलाने की जिम्मेदारी लेनी होगी । संतोष की बात यह है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय, दोनों दलों ने मान लिया है कि कोएलिशन को अपनाना होगा । उन्होंने मान लिया है कि वे भी साझा सरकार के गठन से फायदा उठा सकते हैं ।

यह भी सच है कि केंद्र में तो गठबंधन सरकारें चलाने के लिए ज्यादा सावधानी व तैयारी की जरूरत है लेकिन राज्यों में जब ऐसी सरकारें बनती हैं तो उसमें मुश्किलें ज्यादा पेश आती हैं । इसलिए राज्यों में भी केंद्र की तरह अब गठबंधन सरकार चलाने की समझदारी विकसित करने की ज्यादा जरूरत है ।

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