भारत के राजनैतिक दल | Essay on Political Parties in India in Hindi!

प्रजातंत्र से तात्पर्य जनता के लिए जनता द्वारा निर्मित जनता की सरकार है । अत: सैद्धान्तिक रूप से इस प्रकार की शासन प्रणाली जनता पर आधारित होती है ।

लेकिन प्रजातांत्रिक प्रणाली का उद्देश्य भी प्रशासन ही है । इसलिए इससे पहले लोगों को संगठन की आवश्यकता महसूस होती है । राजनैतिक दल संगठन की इस भूमिका को निभाते हैं । राजनैतिक दल प्रजातंत्र के मुख्य आधार हैं । ये दल जनमत का प्रतिपादन और प्रसार करते है ।

विभिन्न आवश्यक और अनावश्यक मामलों के संबंध में ये दल निर्णय लेते हैं, और आवश्यक मामलों में जनता और सरकार का ध्यान केन्द्रित करते है । इस प्रकार वे जनता में राजनैतिक जागरूकता उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान देते है । राष्ट्रीय हित के विषयों और उसकी समस्याओं को मिटाने का प्रयास करते हैं । चुनाव के दौरान विरोधी दल जनता के सम्मुख विकल्प को प्रस्तुत करते हैं ।

यदि सत्तारूढ़ सरकार जनता की आशा के अनुरूप कार्य न कर रही हो, तो अगले चुनाव में अन्य दलों को सरकार बनाने का मौका मिलता है । विरोधी दल सत्तारूढ़ दल के अनुचित कार्यो की आलोचना करते हैं । वे सदैव सत्तारूढ़ दल की त्रुटियों अथवा गलत कार्यो पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं ।

इससे जनहित को बढ़ावा भी मिलता है । सत्तारूढ़ सरकार जनकल्याण आदि कार्यो को ठीक ढंग से निभाती है, ताकि वह विरोधी दल की आलोचना का शिकार न बन सके । अत: आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अनेक दल विद्यमान होते हैं । भारत की दलीय व्यवस्था का उदभव उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षो में हुआ ।

उस समय तक भारत में अंग्रेजों का शासन सौ वर्षो से भी अधिक का हो गया था । यहाँ के शिक्षित लोगों ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पाश्चात्य सिद्धांतों, विचारो को ग्रहण किया और विदेशी शासन के हाथों भारतवासियों की पीड़ा को अनुभव किया । लेकिन यह जागरूकता केवल शिक्षित लोगों तक ही सीमित थी ।

परिणामत: राजनैतिक पुनर्निमाण की शुरूआत बहुत सीमित रूप में हुई । विभिन्न संगठनों की बैठकों में ब्रिटिश सरकार के विरोध तथा स्वतंत्रता की मांग संबंधी बहुत मंद स्वर सुनने को आते थे । राष्ट्रीय कांग्रेस जिसका उद्देश्य देश में स्वतंत्रता के आंदोलन को बढ़ाना था, की शुरूआत भी धीमे स्वरों से हुई । इसकी स्थापना एक ब्रिटिश सिविल अधिकारी ए. ओ. हयूम ने की थी, जिसका मुख्य कारण केवल सावधानीपूर्वक समाधानों तक पहुँचना था । इसके विचार चरम आधुनिकता से संपन्न थे ।

भारत के राजनैतिक क्षितिज में महात्मा गांधी के आगमन से भारतीय राजनीति में विलक्षण परिवर्तन हुए । दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने जन-संगठन को विकसित किया था । उसी के अनुरूप उन्होंने कांग्रेस को भी जनता से संबंधित बनाया । उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेकने में सफल हुई ।

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इसी के समान आधार वाले राजनैतिक दल मुस्लिम लीग ने जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय में प्रसिद्धि हासिल कर ली थी । इन दोनों दलों के पारस्परिक विरोध के कारण ही भारत को स्वतंत्रता के साथ-साथ बँटवारे का जहर भी पीना पड़ा ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के चार दशकों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरा । स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इसे जो प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी, उसी के कारण यह सत्ता में आया । आज जबकि भारत में प्रजातंत्र अपनी प्रारंभिक अवस्था में हैं, यह राजनैतिक दल देश के प्रशासन को सफलतापूर्वक चलाने का कर्तव्य निभा रहा है ।

देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष राजनीति, वयस्क मताधिकार अलग-अलग राज्यों को संगठित करना, निशस्त्रीकरण को बढ़ावा देकर अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में स्थान प्राप्ति आदि इस दल की मुख्य उपलब्धियां है । इसकी निर्विरोध सत्ता को परिवर्तनकारी प्रवृतियों ने चुनौती दी । जनहित के कार्यो को सफलतापूर्वक न चला पाने के विरोध में जनता ने 1961 के चौथे आम चुनावों में इस दल को अपना मत नहीं दिया । जिसके कारण इसे लगभग आधे राज्यों में पराजय का मुँह देखना पड़ा । और केन्द्र में बहुमत समाप्त हो गया ।

1977 के चुनाव में जनता पार्टी सत्ता में आई । लेकिन इसकी अवधि बहुत कम रही और 1980 में कांग्रेस का पुन: सत्ता में पदार्पण हुआ । किंतु 1991 से इसका जनाधार घटता गया तथा 1996 के बाद यह सत्ता से बाहर हो गई । छठे दशक के अंतिम वर्षो में देश में कई राजनैतिक दलों का आविर्भाव हुआ ।

चौथे आम चुनाव के साथ जो एक बुरी पवृत्ति का जन्म हुआ, वह थी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दल-बदल की नीति । कुछ नेता कुर्सी के लिए अपने विरोधियों के जूते चाटने को तैयार रहते हैं । इनके इस व्यवहार के कारण ही भारतीय राजनीति में यह दोष उत्पन्न हुआ है । आज भी यह राजनैतिक अनैतिकता विद्यमान है ।

इस अवगुण को राजनीति से दूर करने के कोई कारगर उपाय नहीं किए जा रहे हैं । जनवरी 1985 में जब कांग्रेस सरकार सत्ता में थी, तब श्री राजीव गांधी ने दल-बदल विरोधी कानून पास किया था । परिणामस्वरूप यह समस्या काफी हद तक सुलझ गई थी ।

चौथे आम चुनाव के बाद ही देश के अन्य छोटे-छोटे दलों में इस भावना का प्रसार हुआ कि यदि वे आपस में एकजुट हो जाए तो कांग्रेस की एकनिष्ठ सत्ता को चुनौती दे सकते है । 1968 और 1977 के दौरान नॉन-कम्युनिस्ट दलों द्वारा इस संबंध में कई असफल प्रयत्न किए गए ।

1969 में कांग्रेस दल आंतरिक विरोधों और विचारों की भिन्नता के कारण विभाजित हुआ । कई निष्ठावान समर्थक और पुराने कार्यकर्ता इससे निकल गए । श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में नई कांग्रेस का उदय हुआ । देश के आर्थिक असंतोष की बढ़ती समस्या को हल करके कांग्रेस (आई) दल ने जनता के हृदय में अपना स्थान बना लिया ।

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1971 के आम चुनावों में कांग्रेस (आई) को अतुलनीय सफलता प्राप्त हुई । कांग्रेस ने एक बार फिर पूर्ण दृढ़ता से केन्द्र में सत्ता को संभाला । इससे विरोधी दलों के शिविरों में नैराश्य का प्रसार हुआ । कांग्रेस का केन्द्र में पुन: आगमन उसके देश से गरीबी हटाने की घोषणा के कारण हुआ ।

लेकिन जबतक वह इस समस्या को सुलझाने के बारे में सोचती, तब तक देश प्राकृतिक आपदाओं, वियतनाम युद्ध के कारण अंतरराष्ट्रीय आर्थिक विघटन, विश्व ऊर्जा संकट, मूल्य वृद्धि का शिकार हो गया । अन्य राजनैतिक दलों ने कांग्रेस की अक्षमता से उत्पन्न मुद्रा स्फीति का फायदा उठाकर जनमत को तैयार करने का प्रयास किया । इलाहाबाद उच्च न्यायालय में श्रीमती गांधी के विरूद्ध निर्णय दिए जाने पर स्थिति ने और भी उग्र रूप धारण कर लिया था ।

उस समय सरकार ने राजनैतिक और आर्थिक असंतोष को कम करने के लिए आंतरिक आपातस्थिति को लागू किया । लेकिन इससे अत्याचारों का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी । इसके कारण कई विरोधी दल एकजुट हो गए । छठे लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद इन आंदोलनों ने ठोस रूप धारण किया और कांग्रेस के विरोधी दल जनता पार्टी जनसंघ, भारतीय लोकदल समाजवादी दल चुनाव में कांग्रेस के विकल्प के रूप में खड़े हुए ।

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उसके कुछ ही दिनों बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जगजीवनराम ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया । उनकी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की घोषणा कांग्रेस दल के लिए एक गहरा धक्का थी । मार्च 1977 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के केन्द्र में नवीन राजनैतिक सन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हुई । स्वतंत्रता के बाद पहली बार जनता पार्टी सत्ता में आई और कांग्रेस को विरोधी दल की पंक्ति में बैठना पड़ा । पाँच दलों ने अपने अस्तित्व को एक दल में विलीन करके एक नए दल-जनता पार्टी को गठित किया ।

जनवरी 1980 के आम चुनाव के परिणामस्वरूप कांग्रेस फिर सत्ता में आई और जनता पार्टी कई दलों में विभक्त हो गई । यही बात 1989 के आम चुनावों में भी दोहराई गई । किंतु भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन कांग्रेस के विकल्प के रूप में खड़े होने और केन्द्र में गठबंधन सरकार बनाने में सफल हुई है ।