भारत में संसदीय लोकतंत्र की सार्थकता पर निबन्ध | Essay on Relevance of Parliamentary Democracy in India in Hindi!

भारत ने जब ब्रिटिश सरकार से विरासत में मिली असंसदीय प्रणाली पर अपनी मुहर लगा दी थी, तब यह सोच लिया गया था कि भारत में संसद् दो दलीय व्यवस्था पर ही आधारित होगी ।

अभी कुछ वर्षो पूर्व तक यही विचार दृढ़ रहा कि यदि प्रमुख विरोधी दलों को मिलाकर एक सशक्त राजनीतिक दल का गठन कर लिया जाए तो संसदीय लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए अथवा आवश्यकता होने पर सरकार बदलने के लिए हमारे हाथों में कांग्रेस का विकल्प आ जाएगा ।

उस समय यह बात समझ में नहीं आ पाई थी कि हमारे देश में जिस प्रकार का बिखरा हुआ समाज है, उसमें वैसे संगठित और राष्ट्रीय चरित्रवाले राजनीतिक दल नहीं उभर सकते हैं, जैसे इंग्लैंड में पनपे हैं । कांग्रेस यदि एकमात्र संगठित और देशव्यापी राजनीतिक दल के रूप में खड़ी रह सकी है तो इसका कारण है कि उसके बुनियाद में राष्ट्रीय आदोलन का लंबा इतिहास है ।

यह कांग्रेस भी समाप्त हो चुकी है और सन् १९७८ में श्रीमती गांधी द्वारा गठित सरकार किसी राजनीतिक दल के ढाँचे से एकदम भिन्न थी । राजनीतिक दल वस्तुत: टूट चुके हैं । राजनीतिक दल संसदीय लोकतंत्र की धुरी होते हैं, यद्यपि हमारे संविधान में दलों का उल्लेख नहीं है ।

वास्तव में, हमने यह मानकर संविधान बनाया था कि इंग्लैंड की भांति भारत में भी दो प्रमुख राजनीतिक दल उभर जाएँगे । कांग्रेस उस समय मौजूद थी ही, दूसरे दल की प्रतीक्षा थी । राजनीतिक दल संविधान के भीतर से नहीं, बाहर से अर्थात् देश की राजनीतिक चेतना और मनीषा में से उत्पन्न होते हैं और विकास पाते हैं ।

राजनीतिक दलों का स्वरूप ही अंतत: सांविधानिक संस्थाओं और न्यायिक व्यवस्था के स्वरूप का निर्धारण और नियमन करता है । भारत में द्विदलीय व्यवस्था के बजाय बहुदलीय व्यवस्था का उदय हुआ । वास्तव में, यह हमारे समाज के चरित्र का प्रतिबिंब ही है । दलों के बाहर दल हैं ।

सन् १९७७ में जनता पार्टी बनी थी, लेकिन भारत के संदर्भ में यह एक असाधारण और अस्वाभाविक घटना थी । शीघ्र ही संकीर्ण धारणाओं और व्यक्तियों का संघर्ष शुरू हो गया और जनता पार्टी जिन दलों से बनी थी, उनमें विघटित हो गई, फलस्वरूप भारतीय राजनीति उसी मुकाम पर लौट आई जहाँ यह मार्च १९७७ में खड़ी थी ।

हमारे देश में लंबे समय तक राजनीतिक दल संकीर्ण आधारों और नेतृत्व पर ही बनते-बिगड़ते रहेंगे । ऐसा लगता है कि संसदीय लोकतंत्र की धुरी टूट चुकी है और उसे नए सिरे से खड़ा नहीं किया जा सकता । अब सवाल है, जनता इस राजनीतिक यथार्थ को पहचानती है या नहीं और यदि पहचानती है तो देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए शासन-व्यवस्था को नया रूप देने के लिए आगे आती है या नहीं ?

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लोकतंत्र को बचाना है तो अपनी व्यवस्था को इस तरीके से बदलना होगा कि नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें । उन्हें बचानेवाला उच्चतम न्यायालय सही-सलामत रहे, संसद् को कानून बनाने की पूरी स्वतंत्रता रहे और इसके साथ ही देश में स्थिर सरकारें बनें ।

हर दल का नेता अकसर यह घोषणा करता है कि उसका दल तेजी से कांग्रेस का विकल्प बनता जा रहा है और वह सत्ता का विकल्प बन रहा है, परंतु सच्चाई यह है कि विरोधी दलों की कोशिश देश को एक मजबूत राजनीतिक दल प्रदान करने की नहीं है ।

जुलाई १९७९ में चौधरी चरण सिंह जब जनता पार्टी की रस्सी तोड़कर भागे तब वे इंदिरा गांधी और कांग्रेस के साथ अपना सारा विरोध भूल गए थे, उन्हें इस बात से बड़ा संतोष मिला था कि वे दो कांग्रेस दलों के समर्थन या सहयोग से प्रधानमंत्री बन रहे हैं तथा इंदिरा गांधी उन्हें प्रधानमंत्री बना रही हैं ।

जहाँ तक संयुक्त सरकारों यानी बहुदलीय सरकारों का सवाल है, उस बारे में फ्रांस के अनुभवों के अलावा हमारे अपने अनुभव भी हैं । सन् १९६७ के चुनाव के बाद अनेक राज्यों में संविद सरकारें बनीं और एक-एक करके तेजी से टूटती चली गईं ।

केंद्र में सन् १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जो वस्तुत: बहुदलीय सरकार ही थी । वह भी तो ३ वर्ष से ज्यादा नहीं चल पाई थी । निष्कर्ष यह है कि बहुदलीय सरकार कभी देश को स्थिर सरकार नहीं दे सकती । ऐसी स्थिति में, यह मानकर चलना होगा कि भारत को लोकतंत्र और स्थिर सरकार, दोनों की महती आवश्यकता है ।

एक बात और, इस कटु सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि समूचे राष्ट्रीय आदोलन और आजादी के बाद ६० वर्षों की कोशिशों के बावजूद भारत में मजबूत राष्ट्रीयता का विकास नहीं हो पाया है । केंद्र में सत्ता के लिए संघर्ष उसी तरह होता रहे, जिस तरह सन् १९७९ के शुरू से अंत तक चला और राजनीतिक अस्थिरता का बोलबाला हो जाए तो देश की अखंडता खतरे में पड़ जाएगी ।

कर्मचारी-तंत्र भी मजबूत हो जाएगा । सेना का वर्चस्व भी बढ़ जाने की संभावना होगी, क्योंकि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षक तथा प्रतीक केवल वही रह जाएगी । जाहिर है कि किसी भी देश में कर्मचारी-तंत्र का मजबूत होना और सेना का दखल होना लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है । इसका एक उदाहरण हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है ।

अब हमें समय के संकेत को पहचानकर गंभीरतापूर्वक संसदीय लोकतंत्र को अंतिम प्रणाम कर लेना चाहिए तथा केंद्र में ही नहीं, राज्यों में भी राष्ट्रपतिमूलक अथवा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली लागू करनी चाहिए । इसके दो वांछनीय परिणाम होंगे ।

१. स्थिर सरकारें मिलेंगी

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२. अधिक लोकतांत्रिक भी ।

हमारी राजनीतिक चेतना अभी उतनी विकसित तो नहीं हुई है कि हम राज्यों को अधिक सत्ता सौंपने के लिए अमेरिका के संविधान के संघीय ढाँचे का अनुसरण करें, लेकिन जिस तरह हमने ब्रिटिश संविधान के संसदीय ढाँचे को स्वीकार किया था, उसी तरह अब अमेरिकी संविधान की अध्यक्षात्मक व्यवस्था की आत्मा और उसके ढाँचे को ईमानदारी के साथ अंगीकार कर लें-यह जरूरी हो गया है ।

आम मतदाता द्वारा निर्वाचित एक निर्वाचक मंडल और उस निर्वाचक मंडल द्वारा चुना गया राष्ट्रपति भारत के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है, क्योंकि उसे संसद् में बहुमत खोजने और प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होगी ।

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हालांकि यह भी सही है कि कानून बनाने, बजट पास करने और महत्त्वपूर्ण राजनीतिक नियुक्तियों आदि के मामले में उसे संसद् पर निर्भर रहना होगा तथा संसद् उसे महाभियोग द्वारा पदक्षत भी कर सकेगी । इसी प्रकार राज्यों में राज्यपालों का निर्वाचन निर्वाचक मंडल द्वारा हो तो उन्हें भी न तो विधानसभाओं में प्रत्येक गुट को खुश रखने के लिए लंबे-लंबे मंत्रिमंडल बनाने पड़ेंगे और न ही विधानसभाओं के बहुमत की दया पर जीना पड़ेगा ।

साथ ही बहुदलीय व्यवस्था के बावजूद राज्यों को स्थिर सरकारें भी मिल सकेंगी । इसका एक लाभ यह भी होगा कि जिस तरह राजनीतिक प्रयोजनों के लिए केंद्रीय सरकारें राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप करती हैं और उन्हें जब चाहे तब भंग कर डालती हैं, राज्यों की स्वायत्तता को एक वास्तविक स्वरूप और ठोस आयाम मिल जाएगा ।

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उसमें राष्ट्रपति, लोकतंत्र पर किसी भी स्थिति में आघात नहीं कर सकता । इसके अंतर्गत राज्य की प्रभुता अर्थात् सत्ता तीनों अंगों-राष्ट्रपति, न्यायालय और संसद्-के बीच बँटी रहती है तथा उनमें से प्रत्येक दूसरे की शक्ति पर रोक लगाता है और उसे संतुलित रखता है ।

संसदीय व्यवस्था में विपक्षी नेता यह आरोप लगा सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने संसद् (लोकसभा) को अपनी मुट्‌ठी में कैद कर रखा है, लेकिन अध्यक्षात्मक व्यवस्था में संसद् किसी भी स्थिति में राष्ट्रपति की रखैल नहीं बन सकती ।

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जिस समय राष्ट्रपति निक्सन वाटरगेट जासूसी के मामले में अपने ही बिछाए जाल में फँस गए थे, उस समय अमेरिकी संसद् में उनके दल यानी रिपब्लिकन पार्टी के नेता को उनका समर्थन करने के लिए विवश नहीं होना पड़ा था, क्योंकि राष्ट्रपति न तो अपने दल में किसी नेता को मंत्री बना सकता है और न ही मुख्यमंत्री ?

अध्यक्षात्मक व्यवस्था में मंत्री के लिए यह जरूरी होता है कि वह संसद् के किसी भी सदन का सदस्य न हो । राज्यों में मुख्यमंत्री की जगह जनता द्वारा निर्वाचित राज्यपाल होते हैं, जिन पर राष्ट्रपति का कोई वश नहीं चलता ।

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जहाँ तक न्यायालयों की स्वतंत्रता का प्रश्न है, अध्यक्षात्मक व्यवस्था में यह संभव भी नहीं होता कि राष्ट्रपति न्यायालयों को छू सके । हाँ न्यायालय न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार द्वारा राष्ट्रपति को उसकी सीमाओं में रखने का काम कर सकते हैं तथा संसद् के बनाए हुए कानूनों की समीक्षा कर सकते हैं ।

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अध्यक्षात्मक व्यवस्था का एक और लाभ यह भी है कि निर्वाचन आयोग को कोई राष्ट्रपति या उसका विधि मंत्री मुड़की नहीं दे सकता है । इससे निर्वाचन आयोग कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रह सकता है । ऐसे में, कुछ दलों के नेता अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली से कतरा रहे हैं । इसके लिए वे जो तर्क दे रहे हैं, नितांत निराधार हैं ।

अमेरिका का राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली नहीं है । भारत के प्रधानमंत्री के हाथ में राष्ट्रपति की शक्तियाँ तो हैं ही, इसके साथ-साथ संसद् पर भी प्रभुत्व है, जबकि राष्ट्रपति बनने के बाद केवल राष्ट्रपति की शक्तियों का ही इस्तेमाल किया जा सकेगा । संसद् पर प्रभावी होना संभव नहीं होगा । उससे मनमाने कानून या नीतियाँ बनाना भी संभव नहीं होगा ।

कुछ दल अध्यक्षात्मक व्यवस्था को क्यों पसंद नहीं करते ? इन दलों के नेता जानते हैं कि संसदीय व्यवस्था में बहुदलीय अराजकता के कारण उन्हें मंत्रिमंडलों में कुछ स्थान मिल जाते हैं और वे लूट में शामिल हो जाते हैं, लेकिन अध्यक्षात्मक व्यवस्था में मंत्रिमंडल राष्ट्रपति के अधिकार में होता है तथा राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए जिस व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है, वह आज उसमें से शायद किसी के पास नहीं है ।

राष्ट्रपतिमूलक व्यवस्था से डरने जैसी कोई बात नहीं है, शब्दों का हेर-फेर मात्र है । मंत्रिमंडलात्मक व्यवस्था में प्रधानमंत्री राष्ट्रपति की शक्तियों का इस्तेमाल उसके नाम से करता है । राष्ट्रपति महज हस्ताक्षर करनेवाला होता है और अध्यक्षात्मक व्यवस्था में राष्ट्रपति स्वयं अपना प्रधानमंत्री भी होता है ।

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