कोउ नृप होउ हमहि का हानी पर निबन्ध | Essay on Parliamentary Democracy in Hindi!

वर्तमान युग लोकतंत्र का युग है । भारत में भी विगत साठ वर्षों से लोकतांत्रिक सरकार है । सर्वप्रथम प्राचीन यूनान में लोकतंत्र का उल्लेख मिलता है । परंतु आधुनिक लोकतंत्र का आरंभ सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में हुआ था ।

प्रथम महायुद्ध के बाद लोकतांत्रिक दोलन की गति तीव्र हो गई थी । आज लोकतंत्र ही सरकार का सर्वोत्कृष्ट रूप माना जाता है और शासन का यह रूप विश्वव्यापी बन गया है । लोकतंत्र से जनता के शासन का बोध होता है । इस शासन-पद्धति में जनता ही सरकार का निर्माण करती है, शासन का संचालन करती है तथा सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है ।

भारत में लोकतंत्र की स्थापना तो कर दी गई है, परंतु यह अनेक समस्याओं से घिरी है । हमें इन समस्याओं का निराकरण कर भारत को सफल लोकतंत्र के मार्ग पर आगे बढ़ाना है । ‘लोकतंत्र’ अंग्रेजी शब्द ‘डेमोक्रेसी’ का हिंदी रूपांतर है । ‘डेमोक्रेसी’ दो यूनानी शब्दों से मिलकर बना है । ‘डेमोस’ और ‘क्रेशिया’ जिसका अर्थ ‘जनता’ और ‘शासन’ है ।

इस प्रकार बुत्पति की दृष्टि सें लोकतंत्र का अर्थ ‘जनता का शासन’ हुआ । इसी आधार पर अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कहा था- ”लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है ।”

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से लोकतंत्र एक आदर्श व्यवस्था के रूप में लोकप्रिय हो गया है । युद्ध के समय स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गई थी, कि विश्व में लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह युद्ध लड़ा जा रहा है । सन् १९२० में लॉर्ड ब्राइस की एक पुस्तक ‘मॉडर्न डेमोक्रेसी’ प्रकाशित हुई थी, जिसमें बाइस ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा था-सत्तर वर्ष पूर्व लोकतंत्र शब्द नापसंद था और दहशत से भरा था ।

अब इस शब्द का गुणगान किया जा रहा है । धीरे-धीरे लोकतंत्र विकास के मार्ग पर आगे बढ़ा तथा यह समानता पर आधारित हो गया । राजनीतिक समानता की स्थापना हुई, परंतु यह यहीं नहीं रुका । समानता का प्रवेश सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी हुआ । सन् १९१७ की रूसी क्रांति ने आर्थिक लोकतंत्र की नींव को मजबूती प्रदान की ।

इस प्रकार लोकतंत्र का विकास कई चरणों में हुआ । प्रथम चरण में ‘उत्तरदायित्व का सिद्धांत’ पनपा, दूसरे चरण में ‘सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की परंपरा’ स्थापित हुई और तीसरे चरण में ‘राजनीतिक समानता के सिद्धांत’ का विस्तार आर्थिक समानता के रूप में दृष्टिगोचर हुआ था ।

संविधान की प्रस्तावना में भारत को लोकतांत्रिक राज्य घोषित किया गया । देश में जनता के द्वारा राजशक्ति का प्रयोग किया जाएगा । राजशक्ति पर किसी एक वर्ग-विशेस का एकाधिकार नहीं होगा और शासन का संचालन बहुमत के सिद्धांत के आधार पर होगा ।

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उन्हीं कानूनों को लागू किया जाएगा, जिन्हें जनता का समर्थन प्राप्त होगा । राज्य में कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं होगा और राज्य को सभी वर्गों में विश्वास करनेवाले समस्त स्त्री-पुरुषों को समानता प्राप्त होगी । भारत एक ऐसा लोकतंत्र होगा, जिसमें अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्राप्त होगी और समाज में आर्थिक शक्ति का समतायुक्त वितरण होगा, ताकि किसी भी वर्ग का शोषण न हो ।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त कतिपय शब्द जैसे- ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समता’, ‘व्यक्ति की गरिमा’, ‘राष्ट्र की एकता’ आदि महत्त्वपूर्ण हैं । लोकतंत्र में ‘व्यक्ति’ का बहुत अधिक महत्त्व है । लोकतंत्र में सबको समानता प्रदान की जाती है । भारतीय लोकतंत्र केवल शासन चलाने की एक पद्धति-मात्र नहीं है, वह एक विकासशील दर्शन है-साथ ही वह जीवनयापन की एक गतिशील पद्धति भी है ।

लोकतंत्र केवल अधिकारों पर जीवित नहीं रहता वरन् उसका मूल कर्तव्य पर आश्रित है । स्वतंत्रता, समानता और बंधुता लोकतंत्र के आदर्श हैं, किंतु स्वतंत्रता, समानता और बंधुता तब तक कायम नहीं हो सकते जब तक व्यक्ति अपना सर्वोत्तम समाज को देने का संकल्प नहीं करता ।

लोकतंत्र में कार्यक्षमता का महत्त्व अवश्य है, किंतु जनता की पसंद का ध्यान भी अवश्य रखा जाता है । लोकतंत्र में शासन की व्यवस्था मर्यादित और अनुशासित होती है । स्वतंत्रता मिलने से एक उद्‌देश्य तो १५ अगस्त, १९४७ को पूरा हो गया था, लेकिन दूसरा उद्‌देश्य भारत को लोकतंत्र बनाना बाकी था । संविधान बनाते समय इसे ध्यान में रखा गया था ।

अंतत: जब हमारे देश का संविधान बना तब देश की इच्छा को संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट कर इस बात का उल्लेख किया गया कि भारत एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य होगा । भारत सरकार का शासन मंत्रिपरिषद् के द्वारा संचालित होता है, परंतु मंत्रिपरिषद् अपने कार्यो के लिए सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है । मंत्रिपरिषद् को शक्तियाँ प्राप्त होती हैं ।

आशय यह है कि देश के शासन में लोकसभा को सर्वोच्च स्थान दिया गया, चूकि लोकसभा में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं; अत: यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि देश के शासन में जनता ही सर्वोपरि है । भारत के लोग संसदीय लोकतंत्र के विरोधी नहीं हैं । भारत में सभी समस्याओं का समाधान लोकतंत्र द्वारा ही हो सकता है । भारत में लोकतंत्र विफल भी नहीं हुआ है ।

यह तो एक संस्था है और ऐसी संस्था, जो सबसे कम खराब राजनीतिक व्यवस्था है । देश में संसदीय लोवक्तंत्र अपनी जड़ें जमा रहा है और छोटे-छोटे बवंडरों का सामना करने की क्षमता भी उसमें आ रही है । श्री मोरारजी देसाई ने लिखा था- ”आज इस देश के सभी क्षेत्रों में कुछ न कुछ खामियाँ दिख पड़ती हैं ।

पर सिर्फ इस कारण यह कहना ठीक नहीं कि संसदीय जीवन के सूत्र टूटने लगे हैं । संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी धारणाओं का बराबर पालन हुआ है । देश का नेतृत्व प्रधानमंत्री के हाथ में रहता है और मंत्रिमंडल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी रहा है । देश की जनता में जागरूकता बढ़ रही है और राष्ट्रहित की चेतना संसदीय लोकतंत्र के मंतव्य को उजागर कर देती है ।

भारतीय मतदाता किसी भी दल को सत्ता से वंचित रख सकता है और अपने देश को राजनीतिक संरचना तथा इतिहास के प्रवाह को बदल सकता है । यह तथ्य लोकतंत्र का भार और आधार है । लोकतंत्र मूलत: एक नैतिक व्यवस्था है ।

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निर्णय खुले तौर पर किए जाने चाहिए । जनता को शांतिपूर्ण तरीके से सरकार को बदलने और नई सरकार चुनने का अधिकार होना चाहिए । संसदीय लोकतंत्र में यदि विरोधी पक्ष बहुमत के शासन को नहीं मानता है तो संसदीय प्रणाली काम नहीं कर सकेगी ।

सरकार सहमति से चलती है और विरोधी पक्ष सहयोग करता है । भारत में सरकार और विरोधी पक्ष में सामंजस्यपूर्ण संबंधों के विकास पर ही लोकतंत्र का भविष्य निर्भर करता है । भारत में लोकतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है-

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१. देश की प्राथमिक आर्थिक समस्याओं का हम कितनी जल्दी निराकरण कर पाते हैं ।

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२. निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था के लिए प्रयुक्त काले धन की बुराई को हम कितनी जल्दी दूर कर पाते हैं ।

३. निरंकुश और सामंतवादी प्रवृत्तियों को कितनी जल्दी समाप्त करने में हम सफल हो पाते हैं ।

४. विपक्ष के विचारों का शासक दल किस सीमा तक आदर और सम्मान करता है ?

हमारा देश आज राजनीतिक और आर्थिक संकट के भँवर में फँसा हुआ है देशवासी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की हरकतों से ऊब गए हैं तथा लोकतंत्र में उनकी आस्था ही डगमगा रही है । वर्तमान राजनीतिक स्थिति का सबसे निकृष्ट पहलू यह है कि राजनीतिक प्रक्रिया में ठहराव आ गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोकतंत्र के चौराहे पर आ गए हैं ।

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यदि हम गौर करें तो देखेंगे कि हमारे देश के इर्द-गिर्द ५,००० किलोमीटर या अधिक के घेरे में अटलांटिक के किनारे मोरक्को से लेकर पूर्व में तीन सागर तक केवल भारत तथा श्रीलंका को छोड़कर सभी देश या तो प्रत्यक्ष तानाशाही के या किसी-न-किसी तरह के एकतंत्र शासन के अंतर्गत हैं ।

हमारे देश में लोकतंत्र जीवित है, यह गर्व की बात है, पर स्वतंत्रता को सदैव निश्चित नहीं मान लेना चाहिए । प्रो. लॉस्की के शब्दों में- ”सतत जागरूकता ही स्वतंत्रता की कीमत है ।”  जब तक भारत के लोग जागरूक रहेंगे तब तक लोकतंत्र का चिराग इस देश में जलता रहेगा । ‘आइडियोलॉजी ऑर्गेनाइजेशन एंड पालिटिक्स इन इंडिया’ में संसदीय व्यवस्था के औचित्य का प्रश्न व्यापकता के साथ उठाया गया है ।

वे वर्तमान राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक क्षेत्र में आए बिखराव का मूल कारण इस व्यवस्था में निहित विसंगतियों में देखते हैं । समाज और राजव्यवस्था में स्थिर दरार तथा विरोधाभास के इस लिजलिजे संसदीय ढाँचे को जिम्मेदार मानते हैं । हमारी जनतंत्रीय व्यवस्था का अंततोगत्वा क्या और कैसा हश्र हो रहा है ।

प्रसिद्ध संविधानशास्त्री नानी ए.पालकीवाला ने लिखा है कि ”शासन में आवश्यक स्थिरता और दृढ़ता लाने तथा दल-बदल जैसी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए भारत में अमेरिकी ढंग की राष्ट्रपति प्रणाली सबसे सार्थक सिद्ध हो सकती है ।”

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प्रसिद्ध उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा के अभिमत में देश की समस्याओं का स्वरूप मुख्यत: आर्थिक है तथा उनके निराकरण के लिए उच्च स्तर की प्रौद्योगिकी और प्रबंध कुशलता की आवश्यकता है । राष्ट्रपति शासन-प्रणाली में प्रत्यक्ष रूप में चुना गया राष्ट्राध्यक्ष गैर-राजनीतिक तथा प्रबंध-विशेषज्ञों को मंत्री-पद पर नियुक्त कर राष्ट्रीय समस्याओं का निराकरण सरलता से किया जा सकता है । चौचरण सिंह ने स्वयं कहा था कि ”ब्रिटिश ढाँचे का संसदीय लोकतंत्र भारतीय स्वभाव के प्रतिकूल है और इसे अध्यक्षीय लोकतंत्र में परिवर्तित कर देना चाहिए ।”

स्पष्ट है कि भारत सफल लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ा चुका है । आवश्यकता इस बात की है कि नागरिक, शासक, राजनीतिक दल, जनसंचार के साधन, अपने दायित्वों को समझें और ईमानदारीपूर्वक उनका निर्वाह करें । वर्तमान व्यवस्था को नष्ट करके नई व्यवस्था अपना लेने से ही हमारे देश की समस्याओं का निराकरण नहीं हो जाएगा ।

हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कई कमियों और कुछ संगठनात्मक विकृतियाँ हैं, किंतु एक व्यापक सर्वेक्षण की दृष्टि से देखें तो कमियाँ व्यवस्था में इतनी नहीं बल्कि उन लोगों में हैं जो इस व्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं । हमें इसमें सुधार लाना है ।

प्राय: जब हम संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को दोष देते हैं तब उस कहावत को चरितार्थ करते हैं ‘नाच न जाने गिन टेढ़ा ।’ हमारी संसदीय व्यवस्था संक्रमणकालीन संकटों के कठिन दौर को पार कर रही है जिनसे निराश और हताश होने का कोई कारण नहीं है ।

यदि हममें और हमारे राजनीतिज्ञों में त्याग व सेवा की भावनाएँ विकसित हो जाएँ तो इसमें कोई संदेह नहीं कि लड़खड़ाता संसदीय लोकतंत्र परिपक्व व्यवस्था के रूप में उभर सकेगा ।

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