हिंसा और प्रजातंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते पर निबन्ध | Essay on Violence and Democracy Cannot go Together in Hindi!

अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र की परिभाषा देते हुए कहा कि ”प्रजातंत्र जनता के लिए जनता द्वारा निर्मित, जनता की सरकार है ।” स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के वरिष्ठ नेताओं ने अपने देश के राजनैतिक जीवन की राह संसदीय शासन प्रणाली के प्रजातंत्र के रूप में ग्रहण की ।

जवाहर लाल नेहरू के अनुसार प्रजातंत्र समस्याओं को बातचीत, वाद-विवाद और उसके बाद बहुमत द्वारा निर्णय लेकर सुलझाने का सभ्य तरीका है । विवादों को मिटाने और समस्याओ को हल करने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों पर विश्वास रखने में लोगों के लिए उनके लिए प्रजातांत्रिक जिन्दगी का सबसे आसान तरीका है ।

प्रजातंत्री शासन जनता द्वारा चुने प्रतिनिधियों द्वारा चलता है । इस प्रणाली के अंतर्गत सभी महत्वपूर्ण निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं । आम चुनावों में जिस दल को संसद में बहुमत प्राप्त होता है, वही सरकार बनाता है और जनता की सहमति और सहयोग से पांच साल तक शासन भार संभालता है ।

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प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की सफलता विभिन्न संस्थाओं के कार्य की सफलता पर निर्भर होती है । ये संस्थाएँ, बातचीत, सर्वसम्मति, बहुमत समर्थन से चलती हैं और एक स्वस्थ विपक्ष भी इनके लिए महत्चपूर्ण व जरुरी होता है । प्रजातांत्रिक व्यवस्था और संस्थाओं में बल प्रयोग, जबरदस्ती से हिंसा का कोई स्थान नहीं है ।

हिंसा और जबरदस्ती से विरोध की आवाज को दबा देना प्रजातंत्र की अवधारणा के बिल्कुल विपरीत हैं । स्वतंत्र चुनाव प्रक्रिया प्रजातंत्र की सबसे बड़ी आवश्यकता है । प्रजातंत्र में सभी दलों और उम्मीदवारों को चुनाव के लिए खड़े होने, अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने और शासन करने का अधिकार होता है ।

अपनी नीतियों और कार्यक्रमों की सफलता के लिए उन्हें प्रचार सामग्री के प्रकाशन, सभाएं आयोजित करने, रैलियों के आयोजन की पूरी स्वतंत्रता होती है । सामान्यत: आम चुनावों के दौरान कुछ राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे जनता में चर्चा का विषय बन जाते हैं । इन विषयों पर विभिन्न दलों और राजनीतिज्ञों के विचार और उनकी नीतियाँ जनता को निर्णय लेने में सहायता देती हैं ।

इन राष्ट्रीय विवादों के बाद विश्वास प्रस्ताव और कारण बताओ नोटिस जैसे संवैधानिक तरीकों के प्रयोग से भय अथवा राष्ट्रीय सर्वसम्मति जैसी भावना उत्पन्न होती है । यदि बल अथवा भय के माध्यम से मतदाताओं को किसी विशिष्ट उम्मीदवार के पक्ष में मत देने को बाध्य किया जाता है, तो यह चुनाव की निष्पक्षता और प्रजातंत्र की समाप्ति का सूचक है ।

इसी प्रकार, यदि हिंसा के बल पर बहुमत दल को सरकार बनाने से रोक दिया जाए तो प्रजातंत्र को हानि पहुँचती है और फासिज्म प्रारंभ होता है । इस बात से इकार नहीं किया जा सकता कि प्रजातंत्र की सफलता के लिए सशक्त विपक्ष आवश्यक है । जनता और विपक्ष की आवाज के बिना प्रजातंत्र की कोई महत्ता नहीं ।

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लेकिन विपक्ष की छवि भी साफ सुथरी और जिम्मेदार होनी चाहिए । विपक्ष का कर्तव्य केवल सत्तारूढ़ सरकार के कार्यो की आलोचना या देश में असंवैधानिक तरीकों जैसे जबरदस्ती या हिंसा से विरोध प्रकट करना नहीं है । प्रजातंत्र में विरोधी दल की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।

हालांकि विरोधी दल सदैव सत्तारूढ़ की सरकार को गिराकर अपनी सरकार बनाने के प्रयासों में लगे रहते हैं । यह उनका अधिकार है, लेकिन इसकी पूर्ति संवैधानिक तरीकों द्वारा होनी चाहिए । यदि विपक्षी दल किसी प्रकार के असंवैधानिक तरीकों जैसे हिंसा या उग्रवाद का प्रयोग करता है, तो वह अपने अस्तित्व के संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो जाता है ।

एक प्रजातांत्रिक सरकार को प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से ही परिवर्तित किया जा सकता है । यदि कोई प्रजातांत्रिक सरकार तानाशाही सरकार का रूप धारण कर रही हो तो इसे हिंसात्मक तरीकों से गिरा देना भी न्यायसंगत नहीं है ।

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सत्तारूढ़ सरकार के विरूद्ध सर्वसाधारण की शिकायत के आधार पर लोग अथवा राजनैतिक दल अपनी माँगों को मनवाने के लिए सार्वजनिक सभाओं, प्रदर्शनों का आयोजन कर सकते हैं । इसके आधार पर जनमत संग्रह भी कर सकते हैं । लेकिन किसी भी स्थिति में हिंसा और दबाव का प्रयोग अमान्य है ।

हिंसा से तात्पर्य किसी भी प्रकार की शारीरिक चोट या धमकी से है । चुनाव की स्वतंत्रता देने वाली प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली को हिंसा हानि पहुँचाती है । यदि मुट्‌ठीभर उग्रवादी बल-प्रयोग और हिंसा की धमकी द्वारा असंगत मांगों को पूरा करने के लिए सरकार को बाध्य करें तो यह प्रजातंत्र के अंत का सूचक होगा ।

पिछले कुछ वर्षो से बलपूर्वक मांगों को मनवाने के कई मामले सामने आए है । भारत में इस प्रकार की हिंसा सामान्यत: पूर्व-नियोजित और सुविचारित होती है । एक छोटा सा शांतिपूर्ण तरीके से आरंभ हुआ आंदोलन जल्दी ही उग्र रूप धारण कर लेता है ।

इन आंदोलनों में कई अमूल्य जीवन, सार्वजनिक सम्पत्ति, दुकान आदि को बहुत हानि पहुँचती है । इनमें से कई आंदोलन सरकार को धमकी देने के लिए ही किए जाते हैं । इस तरह कुछ स्वार्थी नेता प्रजातंत्र को हानि पहुँचाकर केवल अपने हित को ही साधते हैं ।

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यह भावना प्रजातंत्र के खिलाफ है । इन आंदोलनों, हिंसात्मक प्रवृत्तियों के रहते प्रजातंत्र कायम नहीं रह सकता है । इससे हिंसा से प्रजातंत्र के आधारभूत तत्वों को हानि पहुँचती है । इसलिए यह सच ही कहा गया है कि हिंसा और प्रजातंत्र दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते है । हिंसा से प्रजातंत्र समाप्त हो जाता हैं ।

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