लोकतंत्र का अलोकतांत्रिक चेहरा पर निबंध | Essay on Opposite side of Democracy in Hindi!

आज लोकतंत्र को नई भूमण्डलीकृत चुनौतियों का सामना करना पड रहा है । जून, 2011 को रामलीला मैदान में रात के अंधेरे में पुलिस कर्मियों ने बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों पर जिस ढंग से लाठियां बरसाईं वह हमारे सभ्य और लोकतांत्रिक समाज पर एक धब्बा है ।

ऐसी ही एक घटना की पुनरावृति 16 अगस्त, 2011 को हुई, जब जन लोकपाल के समर्थन में शांतिपूर्ण धरना एवं प्रदर्शन करने जा रहे 75 वर्षीय समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर तिहाड़ भेज दिया गया ।

कहा यह गया कि इससे राजधानी दिल्ली में कानून एवं व्यवस्था का संकट उत्पन्न हो सकता था । अगर शांतिपूर्ण तरीके से धरना-प्रदर्शन करना कानून एवं व्यवस्था के लिए एक सकट है तो एक बार फिर हमें लोकतांत्रिक तौर-तरीकों पर गौर करना चाहिए । कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनी हुई सरकार के नाम पर हम लोकतांत्रिक तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं?

दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बड़े बांधों के कारण उजाड़े जा रहे पाँच हजार किसान ग्रामवासी व आदिवासी जुलाई में बरसते आसमान के नीचे दस दिन बैठे रहे पर सरकार ने उनकी बात पर अमल करना तो दूर उचित संवाद करना तक आवश्यक नही समझा । इन हजारों आदिवासियों के गगनभेदी नारे और डूबती जिंदगियों के गीतों का व्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ा ।

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मुद्‌दा यह है कि लोकतंत्र में जन और जन अधिकारों की रक्षा की अपेक्षा किससे की जाएगी? यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए कि भारत के नए चमकते हुए चेहरे के प्रतीक पांच प्रतिशत उद्योगपतियों और उद्यमियों की छींक से सरकार हिलने लगती है ।

किंतु 95 फीसदी भारत के छोटे किसानों की आत्महत्या और डूबते परिवारों की आवाज उसे क्यों सुनाई नहीं देती? ऐसे में स्वाभाविक रूप से समाज में शांति और सुरक्षा की संभावनाएं कम होती जाएंगी । रोटी, आजीविका, संसाधन और सम्मान जीवन के वह हिस्से हैं जिनका न तो दान किया जा सकता है, न ही बलिदान । यदि इन्हें छीना जाएगा तो प्रभावित समूह निश्चित रूप से प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा ।

वर्तमान समय में अति गरीब और सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे परिवारों के जीवन का अधिकार भी सकट में है । सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं को मिलता है जो गरीबी की रेखा की सरकारी परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं । दिक्कत यह है कि सरकार ने तो केवल 26 फीसदी को ही गरीब माना है । परिणामत: बचे हुए 18 फीसदी गरीब परिवार लोकतांत्रिक सरकार के सरक्षण के अधिकार से वंचित हो जाएंगे ।

विकास की अवधारणा में संसाधनों (जल, जंगल और जमीन) को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है । यही कारण है कि बाजार की ताकतवर शक्तियां आज इस जद्दोजहद में है कि किस तरह इन संसाधनों पर एकाधिकार जमाया जा सके । इस नए परिदृश्य में समाज, सरकार और बाजार एक त्रिकोण में खड़े हो गए । इस समीकरण में सरकार और बाजार एकजुट होकर समाज का शोषण कर रहे है ।

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यह भी मान लिया जाता है कि हर कानून के प्रति समाज की सहमति होती है । इसलिए सरकार हर काम कानून के जरिए ही करती है । ब्रिटिश सरकार ने सन 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था जिसमें सरकार अपने प्रयोजनों के लिए कहीं भी किसी भी रूप में लोगों (या कहें कि आम व्यक्तियों और किसान) की जमीन को अपने कब्जे में ले सकती है । सन् 1984 में इस कानूनन में संशोधन कर दिया गया जिसके अनुसार अब केवल सरकार अपने हितों के नाम पर ही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए भी आदिवासियों-किसानों को जमीन से कानूनन बेदखल कर सकती है ।

एक अहम बात है कि बड़े बांधों के कारण मध्यप्रदेश में 44 हजार परिवारों के लिए संकट पैदा करना, पश्चिम बगाल में सिंगुर और नंदीग्राम में जमीनें छीनने के लिए सरकारी दमन, उडीसा के कलिंगनगर में सरकारी हिंसा, ये सब घटनाएं कानूनी रूप से सही हो सकती है किंतु इंसानियत और लोकतंत्र के नजरिए से इन्हें कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है । एक तरह से सरकार स्वयं नागरिकों के अधिकारों के हनन की प्रक्रिया में एक हिस्सेदार है । लोग भूखे और गरीब हो सकते हैं पंरतु इससे उनका सम्मान कम करके नहीं आंका जाना चाहिए ।

कोई और करे न करे इस देश का आम आदमी लोकतंत्र में विश्वास करता है और इसलिए वह खुलकर लोकतंत्र के सिद्धांतों का सहारा लेता है । आज उद्योगपति और बहुराष्ट्रीय कंपनियां (जिनके लिए फोरलेन सड़कें बन रही हैं और बिजली का निर्माण हो रहा है ।) बड़े ही सुनियोजित ढंग से लोकतंत्र को नजर अंदाज कर रहे हैं । यह इतना नियोजित है कि कभी यह लगता ही नही हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंसा कर रही है । इनके लिए तो सरकार खुद ही हिंसा करती है । नंदीग्राम और कलिंगनगर में यही हुआ है ।

अगर संगठित फुटकर व्यापार को बढ़ावा देने के लिए देशभर में रिलायंस की दुकानों की सुरक्षा सरकारी तंत्र ने की है तो गुजरात में तो राज्य सरकार का चेहरा इतना भयानक हो चुका है कि वहाँ एक समुदाय मौन रहकर विकास के हिसंक रूप को स्वीकार करने के लिए बाध्य है ।

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कई स्तरों पर कानून या तो प्रत्यक्ष रूप से जनविरोधी है या फिर कानूनों के बीच परस्पर विरोधाभास है । संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के मद्देनजर संविधान के अनुच्छेद 243 के आधार पर ग्रामसभा और वार्ड स्तर पर स्थानीय निकायों को सक्षम बनाने के लिए वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी पर सरकार की इसमें रूचि नहीं रही । सरकार जानती है कि स्थानीय निकायों को ज्यादा अधिकार मिलने का मतलब कोकाकोला और पेप्सी की लूट पर लोगों का नियंत्रण होगा ।

भारत ने बाल अधिकार, महिला अधिकार, मानवाधिकार, खाद्य सुरक्षा समेत 12 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं पर हस्ताक्षर किए हैं । किंतु ज्यादातर के बारे में सच यह है कि इन घोषणाओं का उपयोग क्रियान्वयन के लिए नहीं किया जाता है ।

यूनेस्को में सबके लिए शिक्षा केवल व्यक्ति के विकास के नजरिए से महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इससे समानता की स्थिति पैदा होगी और तभी लोकतंत्र भी मजबूत होगा । सैद्धांतिक तौर पर यह माना जाता है कि शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण स्थानीय सामाजिक सांस्कूतिक संदर्भो में किया जाना चाहिए ताकि स्थानीय समर्थकों का अस्तित्व और पहचान बनी रहे ।

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इसके विपरीत सरकारें (बाजारवाद के समर्थन में) शिक्षा का स्वरूप इसलिए बदल रही है ताकि वे अपने कट्‌टरपंथ और राजनीतिक स्वार्थों के एजेण्डे को आगे बढ़ा सके । इतना ही नही अब अमीरों की शिक्षा और गरीबों की शिक्षा के बीच बढ़ते अतर को भी स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है । इस भेदभाव के कारण सामाजिक असमानता भी नए आयाम स्थापित कर रही है ।

इसी तरह व्यापार की नई नीतियां भी सामाजिक शांति के लिए नई चुनौतियां खडी कर रही है । सरकार ने 16 भारतीय व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फुटकर अनुमति दे दी है । इसमें से 10 ने तो व्यापार प्रारंभ भी कर दिया है । बाजार का नियम है कि वहाँ उसी का अस्तित्व बचा रह सकता है जिसके पास पूँजी होती है । इस तरह बड़े उद्योगपतियों को सरकारी संरक्षण देकर सरकार अपना अलोकतांत्रिक चेहरा ही उजागर कर रही है ।

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