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लोकतंत्र में जरूरी है बौद्धिक समाज पर निबंध | Essay on Intellectuality is the Need for Democracy in Hindi!

किसी भी लोकतांत्रिक समाज का भविष्य, उसकी प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है । लोकतंत्र में मताधिकार योग्य व्यक्ति के चयन की कारगर व्यवस्था नहीं है । मतदाता की बौद्धिकता, वैज्ञानिकता और संवेदनशीलता ही सही निर्णय लेने में सहायक हो सकती है वरना चुनाव में तमाम हत्यारे अपराधी और गुंडे चुने जा सकते हैं ।

हमारे देश के ज्यादातर मतदाताओं में इन गुणों का अभाव है । वह मोबाइल युग में परम अवैज्ञानिक हैं । हम मतदताओं की बौद्धिकता का अंदाज ऐसे लोगों को देखकर आसानी से लगा सकते है जो ओझा-तांत्रिक और नीम-हकीमों के चक्कर में फंसकर तिल-तिल मरने को मजबूर हैं । वह यह समझ पाने की स्थिति में नहीं है कि ओझा-तांत्रिक, नीम हकीम वगैरह उनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर, शोषण कर रहे हैं ।

हम वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में पनपे उस गरीब समाज को देखकर बौद्धिकता की असलियत जान सकते हैं, जो अपनी औलादों की बलि देकर कल्याण छूता है । जो पढ़ने-पढ़ाने का हक मांगने के बजाय, उन्हें ‘मिड-डे-मिल’ खाना खिलाकर धन्य हो रहा है ।

बौद्धिकता की असलियत समाज के उन वयस्क मतदाताओं से जानी जा सकती है, जो असामाजिक तत्वों, अपराधियों के गले में माला डालकर उनकी जय-जयकार करते है । यह मतदाता वैज्ञानिकों या समाजशास्त्रियों को चुनने के बजाय फूलनदेवी, मलखान सिंह, मुख्तार अंसारी या शहाबुद्‌दीन जैसे लोगों को चुनते हैं ।

दूसरी ओर मुट्‌ठीभर वह धनाढ्‌य तबका है, जो धन और विलासिता का प्रदर्शन करके तरह-तरह के स्वांग रचकर अंधविश्वास के बल पर आम लोगों को आकर्षित करता है । वह पैसे के बल पर अपने हितों के अनुकूल प्रतिनिधियों को आम लोगों के जरिये चुनवाता है । उसके पास मतदाताओं को ठगने के कई हथियार हैं । वह विज्ञापन धर्म, पाखंड, तामझाम, खरीद-फरोख्त के सहारे मतदान को प्रभावित करता है ।

उधर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मतदाताओं की बौद्धिकता को बढ़ाने के बजाय उन्हें और अंधविश्वासी और सांप्रदायिक बना रहा है । वह दिखाता है कि कैसे औलाद के लिए औरतों को चाबुक से मारा जाता है । न्यूज चैनल आए दिन आलू, बैगन, बकरों पर विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियों को दिखाते हैं । चैनलों पर ज्योतिष, जादू-टोने, भूत-प्रेत के कार्यक्रमों की भरमार रहती है । तमाम चैनल समाज में बौद्धिकता लाने के बजाय अंधविश्वासियों की संख्या बढ़ाने का काम कर रहे हैं ।

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जनता को आदिम युग में बनाए रखने के पीछे आर्थिक सरोकार भी होते हैं । इसके सहारे सत्ता और भोग, दोनों का लाभ प्राप्त होता है । पिछड़े समाज को भेड़-बकरियों की तरह हाँका जा सकता है । बाहुबलियों और ठग जनप्रतिनिधियों का प्रयास होता है कि वह अंधविश्वास और अशिक्षा जारी रहे, अपराध खुद-ब-खुद संरक्षित होंगे ।

ऐसे समाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था जनता की हितैषी होने के बजाय ठग, माफियाओं और पांखडियों की हितपोषक बनी रहेगीं । यहां नीम-हकीम और तिकडमबाज फले-फूलेंगे और वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी और विचारक हाशिये पर रखे जाएंगे ।

अध्यापकविहीन प्राथमिक पाठशालाओं में गरीब बच्चों को वैज्ञानिक सोच से लैस करने के बजाय हमारी व्यवस्था उन्हें साक्षर बनाने के नाम पर मात्र वर्णमाला का ज्ञान सिखा रही है । खाना खिलानें का ढोंग इसलिए किया जाता है क्योंकि गरीबों को उचित शिक्षा से वंचित कर उनके आक्रोश को शांत रखा जा सके । केवल नाम, गाँव लिखने वाले को आप साक्षर तो कह सकते हैं, पर बौद्धिक नहीं । जबकि लोकतंत्र की सफलता के लिए मतदाताओं का बौद्धिक होना जरूरी है ।

हाल ही में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन के सर्वे से स्पष्ट हुआ कि प्राथमिक पाठशालाओं के 85 प्रतिशत अध्यापक मात्र 12वीं पास है । बिहार के प्राथमिक अध्यापक 10वीं पास है । आखिर ऐसे में समाज शिक्षित कैसे हो पाएगा?

अपने इतिहास और विचारधारा से जुड़ा व्यक्ति अंधविश्वासों से दूर रह सकता है । लोकतंत्र का भविष्य ऐसे मतदाताओं के हाथों सुरक्षित रह सकता है । लेकिन इस भूमंडलीकृत समाज में इतिहास और विचारधारा के अंत की घोषणा की जा चुकी है फिर बात बनेगी कैसे? खामोश रहने या ठहरे हुए पानी में एक ढेला फेंकने से? सिर्फ इसी सूत्र को सुलझाकर हम लोकतंत्र को जनपक्षधर बना सकतI हैं ।

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