गोस्वामी तुलसीदास पर निबंध | Essay on Goswami Tulsidas in Hindi!

”पंद्रह सौ चौवन वीषे, कालिंदी के तीर । सावन शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयो शरीर ।।”

डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने तुलसीदास का जन्म सन् १५८९ में माना है । यह तिथि गणना से भी ठीक बैठती है । तुलसीदासजी जिला बाँदा, ग्राम राजापुर निवासी सरयूपारीण ब्राह्मण थे । उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था । अंतर्साक्ष्य के आधार पर अभुक्तमूल नक्षत्र में जन्म लेने से माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया था ।

बाल्यावस्था घोर दरिद्रता में बीती । शूकर क्षेत्र में नरहरिदास गुरु से कथा सुनी और नाना पुराण-निगमागम का गंभीर अध्ययन कर गृहस्थ जीवन में उन्होंने प्रवेश किया । उन्हें अपनी पत्नी रत्नावली से प्रगाढ़ प्रेम था । प्रेम की इसी पराकाष्ठा के कारण इन्हें ससुराल जाकर अपमानित होना पड़ा था । फलत: उनमें वैराग्य का उदय हुआ:

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”अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति । होति जु तब भगवान में, होत न तब भवभीति ।।”

तुलसी ने अनेक तीर्थस्थानों का दर्शन किया, किंतु चित्रकूट में उनका मन विशेष रूप से रमा । उन्होंने सन् १६३९ में विश्व-वरेण्य ‘रामचरित मानस’ की रचना प्रारंभ की । इकहत्तर वर्ष की अवस्था में कवि ने ‘रामचरित मानस’ का प्रणयन किया और अपने जीवन के संपूर्ण अनुभवों को अपनी प्रतिभा के सहारे मानस में उड़ेल दिया । तत्पश्चात् भगवान राम के दरबार में एक प्रार्थना-पत्र (विनयपत्रिका) लिखा ।

उनकी कृतियाँ हैं:

१. रामायण, २. विनयपत्रिका, ३. कवितावली, ४. राम सतसई,

५. गीतावली, ६. दोहावली, ७. बरवै रामायण, ८. राम लला नहछू, ९. पार्वती-मंगल,

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१०. कुंडलिया रामायण, ११. हनुमान बाहुक- और अंत में गंगा-तट पर प्राण-त्याग किया-

”संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर । सावन शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ।।”

तुलसी ने अपने उपास्य देव श्रीराम में सौंदर्य और सदाचार के साथ लोकरक्षा की भावना का पूर्ण निर्वाह किया । तुलसीदासजी ने भगवान् का वह रूप उपस्थित किया जिसमें निराकार होते हुए भी साकार होने की अपूर्व सामर्थ्य थी । वे सर्वशक्तिमान और भक्तों के रक्षक थे ।

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तुलसीदास ने जो कुछ लिखा है, स्वांतःसुखाय है । ”उपदेश देने की अभिलाषा से अथवा कवित्व-प्रदर्शन की कामना से जो कविता की जाती है, उसमें आत्मा की प्रेरणा न होने कै कारण स्थायित्व नहीं होता ।” डॉ. श्यामसुंदर दास की यह उक्ति पूर्णरूपेण सत्य है । तुलसीदास की रचना में सीधे उनके हृदय से निकले हुए भाव हैं । इसी कारण तुलसी का काव्य उत्कृष्ट बन पड़ा है ।

हम कह सकते हैं कि तुलसी ने अपने काव्य में तत्कालीन सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, धार्मिक : सभी परिस्थितियों का ज्ञान विभिन्न शैलियों और धाराओं के माध्यम से कराया । भक्ति, ज्ञान, वैराग्य में सामंजस्य स्थापित कर उन्होंने अव्यवस्थित लोकधर्म की मर्यादा फिर से स्थापित की, साथ ही निर्गुण और सगुण के भेदभाव को भी दूर किया ।

गोस्वामीजी के विभिन्न ग्रंथों में जिस प्रकार से भाषा-भेद हें उसी प्रकार छंद-भेद भी है । तुलसी ने समय की प्रचलित समस्त शैलियों को अपनाया है । उन्होंने कवित्त, सवैया, छप्पय, सोरठा, बरवै, दोहा, चौपाई, पद आदि सभी छंदों का प्रयोग विभिन्न रचनाओं में किया है । मानस में जायसी की भाँति दोहे-चौपाई के क्रम के साथ हरिगीतिका जैसे लंबे छंदों तथा सोरठा जैसे छोटे छंदों का प्रयोग भी किया है ।

उनके काव्य में ओज, माधुर्य और प्रसाद-तीनों गुणों का समावेश है । उनकी माधुर्य-भावना का प्रवाह विद्यापति की गीत-पद्धति से अपनाए गए पदों में विशेष रूप से प्राप्त होता है ।उनके काव्य में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक है । प्रयुक्त अलंकार अर्थ और भाव में उत्कृष्टता लानेवाले हैं ।

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वे केशव के अलंकारों की भाँति भार-स्वरूप नहीं हैं, जिनके कारण कविता का कामिनी-कलेवर सौंदर्य नष्ट हो जाए, बल्कि कविता का सौंदय बढ़ानेवाले हैं । रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और उपमा व रूपक का संकर तथा सांगरूपक का प्रयोग अधिक हुआ है । शब्दालंकार तथा अर्थालंकार, दोनों का प्रयोग श्लिष्ट और प्रभावोत्पादक है ।

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