भक्तिकाल: हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल पर निबंध | Essay on The Golden Era of Hindi Literature in Hindi!

भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल कहा जाता है । कविवर रहीम, तुलसी, सूर, जायसी, मीरा, रसखान आदि इसी युग की देन हैं जिन्होंने धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं छंदों आदि के माध्यम से समाज के सम्मुख वैचारिक क्रांति को जन्म दिया ।

इन कवियों ने भक्ति भाव के साथ ही साथ लोगों में नवीन आत्मचेतना का संचार भी किया तथा अपने उन्नत काव्य के माध्यम से समाज को एक नई दिशा दी ।भक्तिकालीन काव्यधारा को प्रमुख रूप से दो शाखाओं में विभाजित किया गया है – (1) निर्गुण भक्ति शाखा तथा (2) सगुण भक्ति शाखा । निर्गुण मार्गी शाखा के प्रमुख कवि कबीर, रैदास आदि थे ।

इनमें कबीरदास जी सर्वाधिक प्रचलित हुए । वे इसी युग के श्रेष्ठ संत रामानंद के शिष्य थे जिन्होंने तत्कालीन समय में व्याप्त जात-पाँत के भेद-भाव को दूर कर समाज में मानवतावाद की स्थापना का प्रयास किया । कबीरदास जी ने उन्हीं के मार्ग का अनुसरण किया तथा अपनी काव्य रचना में निर्गुण मत का प्रचार-प्रसार किया ।

भक्ति युग की सगुण मार्गी शाखा को पुन: दो प्रमुख धाराओं-राममार्गी धारा तथा कृष्णमार्गी धारा के रूप में विभाजित किया जा सकता है । राममार्गी धारा के प्रमुख कवि तुलसीदास जी हुए हैं जिन्होंने भगवान राम की उपासना से संबंधित श्रेष्ठ काव्यों की रचना कर ख्याति प्राप्ति की ।

वहीं दूसरी ओर कृष्णमार्गी धारा के प्रमुख कवि सूरदास जी हुए हैं । सूरदास जी ने कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाते हुए कृष्ण लीला का जो सजीव चित्रण संसार के सम्मुख प्रस्तुत, किया वह अतुलनीय है ।

इसके अतिरिक्त निर्गुण शाखा के मलिक मुहम्मद ‘जायसी’ का नाम भी प्रमुख है जिन्होंने प्रेम के मार्ग को प्रधानता दी और बताया कि ईश्वर प्राप्ति का आधार प्रेम-मार्ग ही है ।

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भक्तिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. गुरु की महत्ता:

भक्तिकाल में गुरु को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया था ।

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कबीरदास जी ने अपनी ‘साखी’ में गुरु के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है:

“गुरु गोविदं दोउ खड़े काके लागों पाँय ।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।”

2. आत्म-चेतना व समाज सुधार:

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भक्ति युग के समस्त कवियों ने आत्म-चेतना जागृत करने पर विशेष बल दिया तथा धर्म के मार्ग पर चलकर ईश्वर से साक्षात्कार की बात कही । मीराबाई और सूरदास की कृष्णभक्ति की पराकाष्ठा तथा तुलसीदास की अटूट रामभक्ति के कारण तत्कालीन हिंदू समाज की आस्थाओं को बल मिला और समाज एक बार फिर से आस्थावान् हो उठा ।

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कबीरदास ने तो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को चेताया और अपनी-अपनी कुरीतियाँ छोड्‌कर उनसे मानव धर्म का निर्वाह करने के लिए कहा । इस दृष्टि से कबीर सबसे बड़े समाज-सुधारक कहे जा सकते हैं ।

3. भक्ति की प्रधानता:

इस काल के काव्य में भक्ति के परम रूप के दर्शन होते हैं । इस काल में संपूर्ण वातावरण भक्तिमय हो गया था ।इनके अतिरिक्त कवियों ने कुसंगति को त्यागकर सत्संगति को अपनाने पर विशेष बल दिया है ताकि मनुष्य में सद्‌गुणों का सचार हो सके । इस काल के काव्यों में भक्ति रस की प्रधानता के साथ ही साथ रस, छंद, अलंकार योजना आदि भावों का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है ।

तुलसीदास कृत रामचरितमानस, कवितावली, विनयपत्रिका तथा सूरदासकृत सूरसागर, सूर सारावली व साहित्य लहरी आदि इस काल की प्रमुख रचनाएँ हैं । इसी प्रकार निर्गुण शाखा में कबीरदास जी की साखी, सबद व रैमनी तथा मलिक मुहम्मद जायसी की पद्‌मावत आदि ग्रंथ प्रसिद्‌ध हैं ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि उत्तम साहित्य और भक्ति भाव दोनों ही अर्थों में भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल था । उस युग के महान कवियों द्‌वारा उत्तम काव्य साहित्य के साथ ही साथ समाज सुधार व लोगों में आत्म-चेतना व राष्ट्रीय चेतना जागृत करने हेतु अनेक प्रयासों को भुलाया नहीं जा सकता ।

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