हिंदी साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद पर निबन्ध |Essay on Idealism and Realism in Hindi Literature in Hindi!

साहित्यकार और साहित्य, दोनों को समाज ही बनाता है । एक साहित्यकार अपने जीवन और समाज से जो भी पाता है, वही साहित्य में उडेलता है और यदि वह कहीं बाहर से कुछ भी लेता है तो वह हमारे जीवन से मेल नहीं खाता, वह निरर्थक हो जाता है ।

साहित्य का उद्‌देश्य व्यक्ति को ऊँचाइयाँ देना ही नहीं होता, बल्कि वह व्यक्ति के व्यक्तित्व को यथार्थ से भी परिचित कराता है । साहित्यकार स्वयं ही प्रगति नहीं करता, बल्कि समाज को भी प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए पथ-प्रशस्त करता है ।

साहित्यकार जब समाज के यथार्थ से गुजरता है तब उसके अनुभवों में कडुवापन आ जाता है । वह चाहता है कि इसे ज्यों-का-त्यों साहित्य में उकेर दे । किंतु ऐसा करने से उसके मन का मैल तो साहित्य में बिखर जाता है ।

वहीं पाठकों को भी वैसा साहित्य कडुवाहटों की ओर ले जाता है । वह आशाओं को छोड़कर उस कडुवाहट को भी जीवन की सच्चाई मानने लगता है । ही, जीवन सभी को सिर्फ कड़वाहटें देता हो, ऐसी बात नहीं है, इसमें मिठास भी होती है; आदर्श रूप भी होते हैं, जो समाज के लिए स्वयमेव आदर्श बन जाते हैं । आदर्श जीवन के आधार पर ही आदर्श साहित्य की रचना होती है ।

साहित्य मानव समाज से सत्य और सुंदर चुनकर समाज के समक्ष रखता है । मनुष्य स्वयं ही अपनी आलोचना किसी-न-किसी रूप में किया करता है । हिंदी साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद तलाशा जाए तो दोनों के अलग-अलग क्षेत्र प्राप्त होते हैं । भक्तिकाल में सूरदास, कबीर, रैदास, जायसी, तुलसी, मलूकदास, मीराबाई आदि भक्त कवियों ने समाज और वास्तविक जीवन से अलग हटकर ईश्वर की आदर्श प्रतिमा स्थापित की है ।

वे ईश्वर या परमात्मा को सर्वोच्च सत्ता समझकर उसे अपने साहित्य का विषय बनाते हैं । आदर्शवाद की इससे बड़ी उपलब्धि और कोई न होगी, जिसमें अनदेखे-अनजाने सत्ताधारी को अपना सारा जीवन ही समर्पण कर दिया गया हो । मृगारकाल में लगभग सभी कवियों ने प्रेमपरक रचनाएँ की हैं तथा प्रेम और नायिका-सौंदर्य को आदर्श रूप प्रदान कर दिया है । उस काल की रचनाएँ मूलत:  प्रशस्ति-गान होती थीं ।

अत: उनमें यथार्थ की झलक कम ही मिलती है । मृगारकाल के साहित्य को वास्वविक जीवन से परे होने के कारण यथार्थ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता और आदर्श रूप न होने के कारण आदर्श की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता । उस काल का साहित्य अलंकारों के चमत्कार का उत्कर्ष कहा जा सकता है ।

मृगार युग को पीछे छोड़ते हुए जब साहित्य आगे बढ़ा, तब वह प्रकृति में उलझ गया । छायावादी कवियों ने अपने-अपने प्रेम की आदर्शवादिता बघारी और यौन कुंठाओं को भूलने के प्रयास में अपने प्रेम को आदर्श प्रेम के रूप में स्थापित किया ।

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छायावाद का प्रचलन सन् १९२० तक हो चुका था । छायावाद हिंदी-साहित्य के रोमांटिक उत्थान की प्रमुख काव्यधारा है । इसमें आदर्श प्रेम के साथ-साथ कवियों और लेखकों ने यथार्थ जीवन का भी नग्न चित्रण किया है ।

एक तरफ तो महादेवी किसी अदृश्य प्रिय को संबोधित कर रहस्यवाद की स्थापना करती हैं, जो कि उपनिषद् और वेदों से आता हुआ छायावाद का एक अंग बनता है । दूसरी तरफ निराला ‘सरोज-स्मृति’, ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘कुल्लीभाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में जीवन का नग्न यथार्थ चित्रित करते हैं ।

छायावादी कवियों में निराला ही ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रकृति-चित्रण के साथ-साथ यथार्थ के धरातल पर भी अपने पैर मजबूती से जमाए हुए हैं । यथार्थ-चित्रण में कुछ कवियों ने स्वतंत्रतापरक कविताएँ भी की हैं और उनमें एक आदर्श राष्ट्र की स्थापना की छटपटाहट दिखाई पड़ती है, वे कभी ललकारते हैं; कभी वीरों को आगे बढ़ाते हैं और कभी स्वार्थी जीवन को धिक्कारते भी दिखाई देते हैं ।

हिंदी साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद का मूल प्रश्न गद्य-साहित्य में उठ खड़ा होता दिखाई देता है, जिसकी स्थापना भारतेंदु हरिश्चंद्र कर चुके थे और परिष्करण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया था ।

इसका बीज पड़ चुका था, सिर्फ उसे खाद-पानी की आवश्यकता थी और वह काम किया प्रेमचंद ने । उनकी परवर्ती पीढ़ी ने, जिसने प्रेमचंद के द्वारा लगाए गए वृक्ष को हरा-भरा रखा और यहाँ-वहाँ उसके बीज रोपते रहे, किंतु उन अंकुरों का हर बार श्रेय पाया प्रेमचंद ने ही ।

प्रेमचंद ने अपने निबंध ‘साहित्य का उद्‌देश्य’ में लिखा है- ”जब साहित्य की सृष्टि भावोत्कर्ष होती है, तब यह अनिवार्य है कि उसका कोई आधार हो । हमारे अंतःकरण का सामंजस्य जब तक बाहर की वस्तुओं या प्राणियों से न होगा, जागृति हो ही नहीं सकती ।

स्वयं में दुःख अनुभव कर लेना ही काफी नहीं होता; कलाकार में उसे प्रकट करने की सामर्थ्य भी होनी चाहिए । जिस तरह किसी सामाजिक अत्याचार के पक्ष-विपक्ष में लिखा गया रसहीन साहित्य प्रोपेगेंडा है । उसी तरह किसी तात्त्विक विचार या अनुभूत दर्शन से भरी हुई रचना भी प्रोपेगेंडा ही है ।” साहित्य हमें सत्य और सुंदर के समीप ले जाता है । यदि नहीं ले जाता तो वह प्रोपेगेंडा से भी निकृष्ट है । प्रोपेगेंडा में यदि चतुर कलाकार रस भर सके तो वह भी सत्साहित्य हो जाता है ।

प्रेमचंद शायद यह कहना चाहते हैं कि कड़वा जहर भी मधु के साथ मिलकर ‘मधु’ हो जाता है, पर इससे उसका प्रभाव किसी भी प्रकार कम नहीं होता अर्थात् यथार्थ कितना भी कड़वा हो, उसमें रस भरना साहित्यकार का काम होता है ।

यथार्थवादी चरित्रों को पाठक के सामने उनके यथार्थ नग्न रूप में रख देता है । यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और कुरताओं का नग्न चित्र होता है और इस तरह यथार्थवाद हमको निराशावादी बना देता है ।

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इसमें संदेह नहीं कि समाज की कुप्रथा की ओर ध्यान दिलाने के लिए यथार्थवाद अत्यंत उपयुक्त है-लेकिन जब वह दुर्बलताओं का चित्रण करने में शिष्टता की सीमाओं से आगे बढ़ जाता है तो आपत्तिजनक हो जाता है । यथार्थवाद की शिष्टता की सीमाओं पर प्रेमचंद ने कोई प्रकाश नहीं डाला पर उनका संकेत अत्यंत घृणित चरित्रों या बीभत्स चित्रों की ओर है, जो हमारे मन में ‘मानव जाति’ के प्रति मृणा या भय उत्पन्न करते हैं ।

”यथार्थवाद यदि हमारी आँखें खोल देता है तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान पर पहुँचा देता है, लेकिन आदर्शवाद का तात्पर्य ऐसे चरित्रों का चित्रण नहीं है, जिनमें जीवन हो नहीं, और वे सिद्धांतों की मूर्तिमात्र हों, जिनमें जीवन न हो, किसी देवता की कामना करना मुश्किल नहीं है, लेकिन उस देवता में प्राण-प्रतिष्ठा करना कठिन है ।

आदर्श को सजीव बनाने के लिए ही यथार्थ का उपयोग होना चाहिए । साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है, यह तो भाटों और विदूषकों का काम है । साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है, वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममें सद्‌भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि फैलाता है ।”

प्रेमचंदने आदर्शवाद और यथार्थवादकेप्रति अपना जो दृष्टिकोणप्रस्तुत किया, वह आज भी उतना ही विचारणीय है जितना उस समय था । अपनी इसी धारणा को ध्यान में रखकर उन्होंने अनेक रचनाएँ की हैं- ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’, ‘कर्बला’, ‘रंगभूमि’ आदि उपन्यास आदर्शोन्यूख यथार्थवादी हैं अर्थात् ऐसा यथार्थ, जो आदर्श की ओर उम्मुख हो ।

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‘गोदान’ और ‘निर्मला’ दोनों उपन्यासों में आदर्श की मात्रा कम और यथार्थ की मात्रा थोड़ा ज्यादा है ‘सद्‌गति’, ‘कफन’, ‘पूस की एक रात’ जैसी कहानियों में भी उन्होंने यथार्थ का ध्यान रखा है, पर उनकी अन्य रचनाओं में आदर्श और यथार्थ का समावेश है ।

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प्रेमचंद-युग के अन्य लेखकों में निराला, प्रसाद, वृंदावनलाल वर्मा, पं. बेचन शर्मा ‘उग्र’, यशपाल, रांगेय राघव आदि भी कथा-साहित्य में अपनी रचनात्मकता के कारण प्रसिद्ध हैं । आचार्य चतुरसेन शास्त्री और प्रसाद अतीत जीवी कहे जा सकते हैं ।

प्रसाद ने ‘कंकाल’ और ‘तितली’ को वर्तमान युग से जोड़ा है; पर चतुरसेन ने एक भी रचना में इतिहास को नहीं छोड़ा । हाँ उनकी रचनाएँ ऐतिहासिक जीवन की भव्य झाँकी प्रस्तुत करती हैं । वृंदावनलाल वर्मा ने इतिहास को विषय बनाया है, पर वे उसमें रमे नहीं और यथार्थवाद से जुड़े रह गए । इसे ऐतिहासिक यथार्थवाद कहा जाता है ।

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प्रेमचंद युग के बाद लेखकों की जो पीढ़ी आई, उसने हिंदी-साहित्य को अत्यधिक समृद्ध किया । सन् १९३६ के बाद यह पीढ़ी प्रगतिशील चेतना का अंग बनती हुई नए विचारों और नई सोच के साथ कथामंच पर आती है ।

इस पीढ़ी का रचनात्मक कृतित्व प्रेमचंद का अनुकरण मात्र नहीं है, बल्कि सन् १९३६ के बाद के वास्तविक हिंदुस्तान का चित्रण इसमें किया गया है । जो समस्याएँ प्रेमचंद के समय में थीं, वे सब यहाँ और अधिक उग्र रूप में सामने आई हैं ।

आदर्शवाद का प्रतिमान यथार्थ के धरातल पर टूटने लगा और यथार्थवाद की कठोरता, कडुवाहट, समस्याएँ तथा जीवन अपने नग्न रूप में सामने आने को अकुलाने लगा । यातनाग्रस्त मनुष्यता भी यहाँ अधिक व्याकुल और दृढ़संकल्प होकर आई ।

राहुल सांकृत्यायन ने हालांकि ऐतिहासिक संदर्भ चुना है, फिर भी वे प्रगतिशील आस्थाओं के सिलसिले में वैचारिक स्रोत से जुड़े हैं और अमृतराय आधुनिक जीवन से अपना सरोकार प्रदर्शित करते हुए भी यथार्थवाद की धरती पर नजर आते हैं ।

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रांगेय राघव की औपन्यासिक कृतियाँ ‘हुजूर’, ‘विषादमठ’, ‘सीधे-रास्ते’, ‘मुरदों का टीला’ तथा ‘कब तक पुकारूँ’ और ‘गदल’ जैसी कहानियाँ प्रेमचंद के प्रतिमानों से जुड़ती हैं । यशपाल और नागार्जुन की व्यंजनागर्भी शैली उन्हें स्थूल नहीं बनाती और वे भी यथार्थवाद के दायरे में आ जाते हैं ।

यथार्थवाद धीरे-धीरे अतियथार्थवाद और नग्नयथार्थवाद का रूप लेने लगा । फणीश्वरनाथ रेणु और अमृतलाल नागर की कथा-सर्जना आदर्शोम्मुख यथार्थवाद के दायरे में आती है, पर आगे आनेवाली पीढ़ी ने आदर्शवाद की बची-खुची दीवारों को भी ठोकर मारकर गिरा दिया ।

अपने साहित्य में इस पीढ़ी ने आदर्श को स्थान नहीं दिया, पर हाँ मार्क्सवाद की धारणा, जिसे प्रेमचंद ने देहरी के बाहर से स्पर्श किया था, को इस पीढ़ी ने बाकायदा अध्ययन करके अपनी रचनाओं में उभारा और ‘मार्क्सवाद’ को स्थापित करना चाहा ।

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मुक्तिबोध की कविताओं में इसका गहरा प्रभाव देखने को मिलता है । उन्होंने ‘मार्क्सवाद की स्थापना’ को समस्याओं के निराकरण के रूप में देखा है । इसी विचारधारा से जुड़नेवाले सच्चिदानंद हीरानंद वास्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, धूमिल, शमशेर आदि भी हैं, जिन्होंने व्यक्तिगत और सामाजिक कथ्य को यथार्थ-रूप में प्रस्तुत किया ।

उपेंद्रनाथ अश्क भी यथार्थवाद के दायरे में आते हैं, पर कहीं-कहीं आदर्श को छोड़ नहीं पाते । केदारनाथ अग्रवाल ने भी अपनी कविताओं में आदर्श और यथार्थ का समन्वय रखा है । नरेंद्र मोहन आधुनिक कवि थे, पर फिर भी उनकी रचनाएँ अलौकिकता को तलाशती हैं ।

नरेश मेहता नए कवि होते हुए भी यथार्थवाद से नहीं जुड़ पाए और आत्म-मुग्ध होकर रचनाएँ करते रहे । ये दोनों कवि अलौकिकता की खोज में लौकिकता से दूर होते गए । अन्य यर्थाथवादी लेखकों में शिव प्रसाद सिंह, राही मासूम रजा, श्रीलाल शुक्ल, रामदरश मिश्र, जगदीश चंद्र, मार्कंडेय, शेखर जोशी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, गिरिराज किशोर, शैलेश मटियानी आदि ऐसे तमाम नाम गिनाए जा सकते हैं, जो यथार्थ की धरती पर खड़े होकर अपनी रचनाओं में उसका अन्वेषण करते हैं ।

आदर्शवाद के टूटने से जो यथार्थवाद उभरा है, उसमें साहित्यकार नग्न यथार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं । स्वप्नों की दुनिया से निकलकर यथार्थ का सामना करते हुए वे पाठकों को भी यथार्थ का दर्शन कराना चाहते हैं और अपने कडुवे-मीठे सारे अनुभवों को साहित्य का विषय बना रहे हैं ।

यथार्थवाद का आशय चित्रों की बारीकी या ब्योरों का फैलाव नहीं है, बल्कि साहित्य को जीवन में सार्थकता प्रदान करने का अवयव है । इसके अभाव में आदर्शवाद किसी चमत्कार से अधिक मायने नहीं रखता, किंतु यथार्थ को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का कर्तव्य साहित्यकार का ही है ।

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