जनता से अलगाव के औजार पर निबंध | Tools for Isolation from the Public in Hindi!

भारतीय शिक्षा के संबंध में प्रसिद्ध मराठी चिंतक भास्कर लक्ष्मण भोले द्वारा अपने एक लेख में की गयी यह टिप्पणी गौरतलब है-”एक तरफ लिखने-पढ़ने वाला वर्ग है तो दूसरी तरफ मेहनत-मजदूरी कर गुजर-बसर करने वाला वर्ग ।

माना जाता है कि इस वर्ग के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है दोनों वर्गों के बीच सदियों से एक दूरी है जो आज भी जस-की-तस बनी हुई है । यही कारण है कि हमारे समाज और साहित्य में एक अंतर हमेशा से रहा है । कभी यह अंतर शहरी-ग्रामीण, प्रगतिशील-पिछड़ा, शिक्षित-अशिक्षित के रूप में दिखाई देता है तो कभी ब्राह्मण, गैर-ब्राह्मण, सवर्ण-अवर्ण जैसी अलग-अलग समाज-हित विरोधी संधियों के रूप में ।

दरअसल, भारतीय शिक्षा के संबंध में ऐसे विचार वर्षों से देश के प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा व्यक्त किये जाते रहे हैं । ऐसे वक्तव्य का सबसे बड़ा दोष यह है कि वे पूरी भारतीय शिक्षा परंपरा का ही सामान्यीकरण कर देते हैं, जिससे आभास होता है कि शिक्षित और अशिक्षित का भेद या आम आदमी से शिक्षित का अलगाव भारतीय शिक्षा प्रणाली की ही देन है, जबकि सत्य इसके विपरीत है ।

भारतीय शिक्षा परंपरा का जो इतिहास ज्ञात है उसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे दो-चार भवन स्थित विश्वविद्यालयों की बात छोड़ दें, तो पूरे देश में शिक्षण का कार्य वनों में या शहर से दूर आश्रम बना कर ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था । ध्यान रहे तब शिक्षा का मतलब न अक्षर ज्ञान था, न पुस्तकीय ज्ञान, न वह पैसा कमाने का जरिया थी ।

यहां की परंपरा में शिक्षा व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख करने, दूसरों से जुड़ने और मनुष्येतर प्राणियों से भी रागात्मक संबंध स्थापित करने की साधना-पद्धति रही । यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखी जानी चाहिए कि ब्राह्मण वही कहलाते थे, जिनका एकमात्र काम होता था अध्ययन करना और फिर अपने ज्ञान से समाज को लाभान्वित करना । इसके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता था, बल्कि भिक्षाटन करके जीवन निर्वाह करना पड़ता था ।

यही नहीं, सच्चा ब्राह्मण तो उसे माना गया जो खेतों में गिरे अनाज के दानों को चुन कर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करता था, फिर भी शिक्षण के दायित्व से मुख नहीं मोड़ता था । ये ही ब्राह्मण बाद में गांव-गांव, जनपद-पुराण आदि की कथाएं सुना कर लोगों में सद्‌भाव, सत्यनिष्ठा, सच्चरित्रता आदि का संस्कार दिया करते थे ।

लेकिन हमारा ध्यान भारतीय शिक्षण की इस जनवादी परंपरा पर नहीं जा पाता, क्योंकि औपनिवेशिक बौद्धिकों ने हमें यही बताया कि हम सदियों से अशिक्षित, असभ्य थे । प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक डॉ. धर्मपाल ने अपने लेखन के जरिए लगातार यह तथ्य उकेरने की कोशिश की कि हमारे यहां शिक्षा और शिक्षण की जनवादी प्रणाली सदैव विद्यमान रही, कभी लुप्त नहीं हुई ।

देखा जाये तो हमारे देश में सामान्य जनता से शिक्षित वर्ग को अलग करने वाली शिक्षित और अशिक्षित का भेद पैदा करने वाली शिक्षा पद्धति अंग्रेज शासकों की देन है ।

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हमारे भारतीय नवजागरण का एक बहुत दुखद पक्ष यह है कि इसके आदि जागरण पुरस्कर्ता राजा राममोहन राय यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान से इतने अभिभूत थे कि अंग्रेजी शिक्षा और भाषा को यहां के आधुनिकीकरण के लिए अपरिहार्य समझ बैठे और इसकी कोख से पैदा होने वाली विभेदीकरण की प्रक्रिया की तरफ उनका ध्यान नहीं जा सका । इसे हम उनकी अदूरदर्शिता ही मान सकते है । लेकिन बाद के बौद्धिकों का ध्यान अंग्रेजी शिक्षा के इस अवगुण की तरफ जाने लगा ।

मैकाले की शिक्षा नीति को अमली जामा पहनाने के लिए देश के विभिन्न शहरों में कुछ स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय खुल गये । इन अंग्रेजी शिक्षण संस्थानों से पढ़-लिख कर निकलने वाले युवक किस कदर अपने समाज से कटने लगे, अपने को सामान्य जनता से विशिष्ट श्रेणी का समझने लगे, इसकी बड़ी ही पीड़ादायक तस्वीर बंकिमचंद्र ने अपने ‘लोकशिक्षा’ नाम के लेख में पेश की थी । यह लेख 1878 में ‘बंगदर्शन’ में छपा था ।

अंग्रेजी शिक्षा किस प्रकार यहां के शिक्षित और अनपढ़ समाज के बीच एक बड़ी खाई पैदा करती जा रही थी, इसे लक्ष्य करते हुए उस लेख में बंकिम बाबू ने दो टूक शब्दों में कहा कि ‘अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति नहीं, कोई संवाद नहीं है । शिक्षित समुदाय अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है ।

यही नहीं, शिक्षित अशिक्षित की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखते । कृषकराम की अगर खेत जोतते-जोतते थक कर मौत भी हो जाती है, तो हमें क्या? जब तक मुर्ग मुसस्लम और मच्छी का स्वादिष्ट झाल सुलभ है, हमें फिर क्यों? कृषकराम कैसे जीवन यापन करता है, उसकी रूचि क्या है, अंग्रेजियत के रंग में रंगे बंगाली युवकों को इन सवालों से कोई मतलब नहीं ।’

स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी के ढलते-ढलते हमारे भारतीय बुद्धिजीवी इस बात को महसूस करने लगे कि आधुनिकीकरण के अपरिहार्य अस्त्र के रूप में अपनाई गयी अंग्रेजी शिक्षा पढ़े-लिखे वर्ग को आम जनता से अलग-थलग कर दासता के दुर्ग को मजबूत बनाने का हथियार बन चुकी है ।

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महात्मा गांधी ने इस अलगाव को लक्ष्य किया और 1909 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने इस शिक्षा पद्धति की बुराइयों पर बेबाक टिप्पणी करते हुए कहा- “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है । मैकाले ने जिस शिक्षण की नीवं डाली, वह सचमुच गुलामी की नीवं थी । अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है । अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार बढ़े हैं । अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी । भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही है ।”

दरअसल, 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद भारतीय नवजागरण में जो नया आयाम जुड़ा वह था अंग्रेजी शिक्षा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण । बंकिम और गांधी के कथन इसके प्रमाण हैं । अंग्रेजी शिक्षा द्वारा पैदा किये गये इस अलगाव की आलोचना हिंदी के लेखकों में भी मिलती है ।

मसलन, हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक रामचंद्र शुक्ल अपने एक निबंध में कहते हैं-जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहां चिल्लाता है, जो यह भी नहीं झांकते कि किसानों के झोपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे अगर दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का पता बता कर देश प्रेम का दावा करे, तो उनसे पूछना चाहिए कि ‘भाइयों, बिना परिचय का यह प्रेम कैसा?’

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जाहिर है, शुक्ल जी का संकेत अंग्रेजी शिक्षा द्वारा गढ़े गये उन बाबू लोगों की ओर है जो यहां की प्रकृति से लेकर किसानों के जीवन तक से अधिक पढ़ने-लिखने के कारण अपरिचित हो चले थे । शिक्षित समुदाय का अपने ही कृषक समाज से अपरिचित होते जाने की वस्तुस्थिति की ही सशक्त अभिव्यक्ति प्रेमचंद के गोदान के औपन्यासिक कथा में स्पष्ट हुई है ।

मचंद ने इस उपन्यास में अच्छी तरह यह दिखाया है कि शहर में रहने वाले राय साहब, मि. खन्ना, प्रो. मेहता, पत्र संपादक ओंकारनाथ, मिर्जा खुर्शीद, मिस मालती जैसे पढ़े-लिखे लोगों का गांवो में खून-पसीना एक कर अन्न पैदा करने वाले किसानों से कोई वास्ता नहीं ।

भले ही होरी जैसे किसानों से लगान और ‘सगुन’ के नाम पर पैसे वसूल कर राय साहब रामलीला का आयोजन कर इन पढ़े-लिखे बाबुओं का मनोविनोद करें, लेकिन होरी जैसा किसान अभाव, दैन्य, कर्ज से जुझते बेमौत मर जाये तो उसके लिए इनकी न आंखों में आंसू हैं न दिल में गम । सचमुच ‘गोदान’ का होरी बंकिम का वह ‘कृषक राम’ है जिसके लिए न उन्नीसवीं सदी के शिक्षितों को चिंता थी, न बीसवीं सदी के शिक्षितों को ।

इस प्रकार शिक्षित और अशिक्षित का भेद या पढ़े लिखे और अनपढ़ वर्ग का भेद या सामान्य जनता से शिक्षित समुदाय का अलगाव जैसे हालात भारतीय शिक्षा पद्धति की नहीं, बल्कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की देन है । इस शिक्षा पद्धति के दोष का अहसास होते ही भारतीय परंपरा के संदर्भ में इसके विकल्प की तलाश भी शुरू हो गयी । इसके विकल्प स्वरूप ही स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्य समाज की शिक्षण-प्रणाली सामने आई, लेकिन शिक्षा को लेकर इसका आंदोलन बाद में गुरूकुल और एंग्लो इंडियन के विवाद में भटक गया ।

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इसके विकल्प का दूसरा प्रयास गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया था जब उन्होंने 1901 में कोलकाता के अपने जोड़ासांको के भव्य साधना परंपरा के अनुरूप ‘शांतिनिकेतन आश्रम’ की स्थापना की जो अब ‘विश्व भारती’ के नाम से जाना जाता है ।

आज भी यहां के शिक्षण में बहुत सारे भारतीय संस्कार विद्यमान हैं जो शिक्षितों कों सामान्य जनता से जोड़ने वाले हैं । तीसरा महत्वपूर्ण प्रयास महात्मा गांधी द्वारा स्थापित साबरमती आश्रम बुनियादी तालीम और विद्यापीठों के रूप में सामने आया जिसके जरिए शिक्षा को देश, समाज और जनता के जुड़ने का पवित्र साधन बनाने पर जोर दिया गया ।

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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद होना यह चाहिए था कि सभी प्रांतों में रवींद्र, गांधी की तर्ज पर शिक्षण संस्थान विकसित किये जाते और शिक्षा को अपने देश की जरूरतों और श्रेष्ठ परंपराओं के अनुरूप ढाला जाता । लेकिन आजाद भारत की सरकार ऐसा कर नहीं सकी, क्योंकि शिक्षा उसकी प्राथमिकता बनी ही नहीं ।

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नतीजतन, समाज में विभेद पैदा करने वाले पहले से चले आ रहे अंग्रेजी स्कूल तो चलते ही रहे, इनकी आबादी भी बढ़ती गयी और आज आलम यह है कि शहरों से लेकर कस्बों तक इन अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का जाल बिछ गया है । इस अंग्रेजी शिक्षा के सलीब को ढोते रहने के कारण ही आजादी के साठ वर्षों बाद भी शिक्षित समुदाय आम आदमी से मजदूर-किसान से कटा हुआ है ।

आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वालों का सारा ध्यान अपने ‘कैरियर’ को बनाने- संवारने पर है, जनता के दुख-तकलीफ से उसका कोई वास्ता नहीं । डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, प्रशासक, वैज्ञानिक, राज्य कर्मचारी, बैंक कर्मी आदि जितने भी इस शिक्षा पद्धति के उत्पाद हैं, हरेक का ध्यान अपने-अपने पेशागत स्वार्थ पर केंद्रित है ।

इनके अपने-अपने संघ हैं जिनके जरिये वे अपनी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन आम आदमी को तबाह करने वाले भ्रष्टाचार बेरोजगारी, महंगाई, विस्थापन, प्रदूषण आदि सवालों से इनका कोई सरोकार नहीं । किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, बांध और फैक्ट्री निर्माण के लिए जन विस्थापित किये जा रहे हैं, लेकिन इन नौकरीपेशा शिक्षितों को इससे कोई मतलब नहीं, उन्हें मतलब है तो सिर्फ अपने वेतनमान में वृद्धि और महंगाई भत्ते से ।

जाहिर है, ऐसी खाई पैदा करने वाली शिक्षा समाज में कभी संतुलन, समरसता नहीं ला सकती और वह सामना करने को अभिशप्त रहेगा । इसलिए यह बहुत विचारणीय प्रश्न हो जाता है कि क्या शिक्षा को समाज में अलगाव और असंतोष बढ़ाने का औजार बना रहने दिया जाये या उसे इस तरह रूपांतरित किया जाये जिससे समाज में परस्पर लगाव, सहकार और समरसता का माहौल पैदा हो सके । यह ऐसा प्रश्न है, जिसे अनदेखा करने का परिणाम हमारे लिए कभी शुभ नहीं हो सकता ।

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