जलस्त्रोत: अभिनव अक्षय भंडार पर निबंध | Essay on Springs : Innovative and Renewable Store in Hindi!

सघन-वन वर्षा को आकर्षित करते हैं, लेकिन वन विनाश के कारण अनेक इलाके अल्पवर्षा और अनावृष्टि की समस्या से जूझने लगे हैं । असंतुलित तरीके से होने वाले खनन के कारण उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के अनेक इलाकों में जल संकट पैदा हो रहा है, क्योंकि जल का संचय करने वाले पत्थरों के कोटर (रिक्त स्थान) समाप्त हो गये हैं ।

भूमिगत जलस्रोतों को कभी अक्षय भंडार माना जाता था, लेकिन ये संचित भंडार अब सूखने लगे हैं । पिछले 50-60 वर्ष में डीजल और बिजली शक्तिशाली पम्पों के सहारे खेती, उद्योग और शहरी जरूरतों के लिए इतना पानी खींचा जाने लगा कि भूजल के प्राकृतिक संचय और यांत्रिक दोहन के बीच का संतुलन बिगड़ गया और जलस्तर नीचे गिरने लगा । केन्द्रीय तथा उत्तरी चीन, पाकिस्तान के कई हिस्से, उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व तथा अरब देशों में यह समस्या बहुत गंभीर है, लेकिन भारत की स्थिति भी कम गंभीर नहीं हैं ।

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पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाकों में भूजल स्तर प्रतिवर्ष लगभग एक मीटर तक नीचे जा रहा है । गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है । समस्या इन राज्यों तक ही सीमित नहीं है । नीरी (नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीचूट) के अध्ययन में पाया गया है कि भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के कारण पूरे देश में जल स्तर नीचे जा रहा है ।

बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाढ़ग्रस्त इलाकों में भी बाढ़ का पानी हट जाने के बाद गर्मी के दिनों में भूजल स्तर काफी नीचे चला जाता है । हजारों तालाबों को भर कर खेत बना दिया गया है, जिससे पानी का संचय तथा भूजल का पुनर्भरण नहीं हो पाता और अत्यधिक पम्पिंग के कारण भूजल स्तर नीचे चला जाता है ।

दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा मॉनिसराम (मेघालय) में होती है, अब वहां के लोग भी पानी का अभाव झेल रहे हैं । पहले मॉनिसराम (मेघालय) का पूरा इलाका वनाच्छादित था । वृक्षों की जड़ें और झाड़ियां पानी का संचय करती थीं । तब वहां के झरनों से पर्याप्त और अविरल जल मिलता था । वनों की निर्मम कटाई से वहां के पहाड़ नग्न हो गये हैं, जिससे झरने सुख गये । बरसात का पानी अब ठहरता नहीं, बहकर दूर चला जाता है । पूर्वोत्तर के कई राज्य और देश के कई अन्य पर्वतीय इलाके भी वन विनाश के कारण इस प्रकार का जल संकट झेल रहे हैं ।

भूजल स्तर गिरते जाने से किसानों के नलकूप बेकार हो जाते हैं और कुएं सूख जाते हैं । नलकूपों को उखाड कर और ज्यादा गहरा नलकूप गडवाना पड़ता है, लेकिन कुछ अंतराल पर नलकूप बेकार हो जाते हैं । किसान कर्ज के बोझ से दबते जाते हैं । जिन छोटे किसानों के पास अपना नलकूप नहीं होता, उन्हें पानी खरीदने के लिए ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं । पानी की समस्या आने वाले वर्षो में विकराल रूप ले सकती है और भारत को भीषण अन्न संकट का सामना करना पड़ सकता है ।

श्रीलंका स्थित ‘इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीच्यूट’ का आकलन है कि ‘भूजल के गिरते स्तर के कारण भविष्य में भारत के अन्न उत्पादन में एक-चौथाई की गिरावट आ सकती है ।’ ऐसे में पशुओं के चारे-पानी का भी अकाल हो सकता है । ध्यान देने की बात है कि कृषि आय का तीस प्रतिशत अंश पशुपालन से आता है । भारत की लगभग 58 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और उनकी जीविका के वैकल्पिक साधन मौजूद नहीं हैं । ऐसे में जो तबाही हो सकती है उसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है ।

उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग के कारण पानी की खपत अत्यधिक बढी है । मिट्‌टी में सैकड़ों किस्म के जीव-जन्तु और जीवाणु होते हैं, जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं और साथ ही मिट्‌टी को भुरभुरा, सजीव और उर्वर बनाते हैं ।

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ऐसी भूमि में वर्षा जल के संचय की क्षमता बहुत ज्यादा होती है, लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशक खेती के लिए उपयोगी जीव जन्तुओं और जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं । मेंढक एक ऐसा जीव है, जो प्रतिदिन अपने वजन के बराबर हानिकारक कीटों को खा जाता है । इसी प्रकार उपयोगी केंचुए हैं और परागण से उपज में वृद्धि करने वाली तितलियां और मधुमक्खियां आदि भी हैं ।

ये सब जहरीले कीटनाशकों के कारण नष्ट और दूध के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करने लगे हैं, जिससे गर्भपात, कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियां बढ़ने लगी हैं । यही कारण है कि यूरोप, अमेरिका वाले तेजी से जैविक खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं और उन्होंने रसायनों के उपयोग से उपजे अनाज, फल तथा सब्जियों के आयात पर रोक लगा रखी हैं । विडंबना यह है कि जिन जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग उन्होंने अपने-अपने देशों में प्रतिबंधित कर रखा है, उन्हीं का निर्यात तीसरी दुनिया के देशों को करते हैं ।

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जैविक खेती में बहुत कम पानी की जरूरत होती है, क्योंकि सजीव मिट्‌टी अपनी प्रकृति के कारण वर्षा जल को सोखकर लम्बे समय तक सरस बनी रहती है । गोबर खाद, केंचुआ खाद तथा अन्य जैविक खादों और कीटनाशकों के रूप में नीम, लेमन ग्रास जैसे दर्जनों साधन प्रचुरता में उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग हो सकता है । अभी भी भारत की मात्र 35 प्रतिशत कृषि भूमि में अत्यधिक सिंचाई और रसायनों के प्रयोग वाली खेती होती है । सम्पूर्ण सार्वजनिक धन इसी पर लगाया जाता है । शेष 65 प्रतिशत कृषि भूमि उपेक्षित है ।

अगर इस प्रकार की कृषि और रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के लिए दी जाने वाली भारी सब्सिडी को जल पुनर्भरण और सम्पूर्ण कृषि भूमि में जैविक कृषि के विकास के लिए लगा दिया जाये तो पानी का संकट घटेगा और कृषि उत्पादन भी बढ़ेगा ।

पानी की कमी वाले राज्यों में भूजल का अत्यधिक दोहन करके धान और गन्ना जैसी फसलें लगाना नासमझी है । कम पानी की जरूरत वाली ज्वार, बाजरा, सगी (मंड़ुआ), सरसों-तोरी जैसी फसलों की उपेक्षा की गयी है जबकि ये ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक और पौष्टिक होते हैं । रागी में तो 45 प्रतिशत प्रोटीन होता है । कई फसलों को साथ उगाने (मिश्रित खेती) में भी पानी की खपत घटती है ।

इन बातों को ध्यान में रखकर कृषि विकास के तरीकों में मौलिक बदलाव की जरूरत है । यह भी जरूरी है कि उद्योग अपनी पानी की जरूरत घटाएं और इसके लिए उपयुक्त तकनीक का विकास करें इस्तेमाल जल का पुनर्चक्रण करें ।

शहरों में भी बड़ी संख्या में तालाबों का निर्माण हो तथा छतों पर बरसने वाले पानी की हर बूद को कुएं में संचित किया जाये । पानी की फिजूलखर्ची हर हालत में रोकी जाये क्योंकि खतरे की घंटी बज चुकी हैं ।

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