ज्योतिबा राव फुले का जीवन-दर्शन पर निबन्ध | Essay on Life–Philosophy of Jyotiba Rao Phule in Hindi!

जोतिबा राव फुले ने एक बार कहा था- ”परमेश्वर एक है और सभी मानव उसकी संतान हैं । उस परमपिता की भक्ति और पूजा के लिए न तो किसी विशेष व्यक्ति की आवश्यकता है और न ही किसी विशेष स्थान आदि की । शिक्षा स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है ।” उनका मानना था कि धर्म का उद्‌देश्य आत्मिक विकास ही नहीं, बल्कि मानवता की सेवा करना भी है ।

उल्लिखित विचारों को आधार बनाकर ज्योतिबा राव फुले ने सन् १८७३ में ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की । ‘सत्य शोधक समाज’ ने बौद्धिक विकास, सांस्कृतिक उत्थान और न्याय की स्थापना के लिए जन-आंदोलन आरंभ किया । वे मानव-मात्र की समानता के समर्थक थे । जाति, पंथ, धर्म, संप्रदाय, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर होनेवाले भेदभाव के प्रबल विरोधी थे ।

बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि महात्मा गांधी से पूर्व महाराष्ट्र में एक ऐसे महान् समाज-सुधारक पैदा हुए थे, जिन्होंने जाति-पांति, अस्पृश्यता, अशिक्षा आदि सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने और किसानों की स्थिति सुधारने और समाज में महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने का उल्लेखनीय कार्य किया था ।

जीवन और कार्य:

उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज अंधविश्वासी परंपराओं तथा नवीन विचारों के द्वंद्व में उलझा हुआ था । एक ही मानव-समूह सैकड़ों जातियों-उपजातियों में विभक्त था । प्रत्येक जाति के अपने अलग संस्कार और रीति-रिवाज थे ।

ऐसे ही विषमता भरे परिवेश में पूना की धरती पर एक किसान गोविंद राव के घर एक महान् बालक का जन्म हुआ । उस बालक-यानी ज्योति राव का जन्म महाराष्ट्र के जिला सतारा के गाँव ‘काटगूँ’ में १७ अप्रैल, १८२७ को ‘सावता माली’ की जाति में हुआ था ।

‘सावता माली’ महाराष्ट्र की संत-परंपरा में एक श्रेष्ठ नाम है । उनके परिवार में माली का काम होता था । उनकी माता का नाम विमलाबाई था और पिता का नाम गोविंद राव । जन्म के बाद बालक का नाम ज्योति राव रखा गया ।

उनका एक भाई था, जिनका नाम राजाराम था । ज्योति राव की आयु जब १ वर्ष की थी तब उनकी माता का शरीरांत हो गया । उनके पालन-पोषण के लिए सगुणाबाई नामक एक दासी की व्यवस्था की गई । ७ वर्ष की आयु में उन्हें गाँव की एक पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया । तब का समाज ज्योति राव की जाति को अत्यंत हेय दृष्टि से देखा करता था । भारी दबाव पड़ने के कारण ज्योतिराव को उस पाठशाला से बाहर कर दिया गया ।

ज्योतिराव परिश्रमी तो थे ही, कुछ समय वे अपने पिता के कार्यों में सहयोग देते और कुछ समय निकालकर अपनी पुस्तकें पढ़ते । उनके पिता अंतिम पेशवा के यहाँ बागवानी का काम करते थे । माली का काम करने के कारण उन्हें ‘फूल’ कहा गया । आगे चलकर फूल का ‘फूले’ हो गया, जो उनके परिवार का उपनाम बन गया ।

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सन् १८४० में १३ वर्ष की आयु में ‘नाय’ नामक गाँव के खंडोजी ने नेबसे पाटिल की ८ वर्षीया पुत्री सावित्रीबाई के साथ उनका विवाह कर दिया । गोविंद राव को लोगों ने समझाया-तुम्हारा पुत्र मेधावी और प्रतिभाशाली है । उसके अध्ययन कार्य को आगे बढ़ाओ । गोविंद राव ने लोगों की बातें मान लीं । इस प्रकार ३ वर्षों तक अध्ययन से वंचित रहने के बाद सन् १८४१ में ‘स्काटिश मिशन के हाई स्कूल’ में ज्योतिबा को प्रवेश दिला दिया ।

उन्होंने बड़े ध्यान और मनोयोग से अध्ययन किया । ज्योतिबा अपने स्कूल में सदा ‘सर्वप्रथम’ आया करते थे । उन दिनों निर्धन और दलितों-पतितों की सामाजिक स्थिति दयनीय थी । उन पर अत्याचार प्राय: होते रहते थे । अधिकांश महिलाओं के साथ तो प्रत्येक स्तर पर बल-प्रयोग किया जाता था ।

बालिकाओं की बचपन में ही शादी हो जाने के कारण वे अशिक्षित बनी रहती थीं । कम उम्र के कारण उनका न तो मानसिक विकास हो पाता था और न ही शरीरिक । उन्हें घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया जाता था । बचपन अथवा युवावस्था में विधवा हो जाने पर वे हर ओर से तिरस्कार और उपेक्षा की पात्र बनती थीं ।

प्राय: दलितों और अछूतों के साथ शोभनीय व्यवहार नहीं किया जाता था । लिखने-पढ़ने, पूजा-पाठ करने, मंदिर में ईश्वर के दर्शन करने तथा वेद-पाठ सुनने के स्थानों पर उनके लिए प्रतिबंध था । सामाजिक विदूपताओं और विसंगतियों की भावना ने ज्योति राव के मन को आंदोलित कर दिया ।

जब ज्योतिबा ने कारणों के मूल में प्रवेश करते हुए वस्तु-स्थिति का सम्यक् विश्लेषण किया तब ज्ञात हुआ कि समस्त समस्याओं के मूल में महिलाओं तथा दलितों का अज्ञानी और असंघटित रहना है । तभी उन्होंने संकल्प किया कि वे स्त्रियों को समाज में पुरुषों के समकक्ष स्थान दिलवाएंगे, साथ ही उन्हें भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाकर राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समानता पर आधारित शोषण-रहित समाज की स्थापना करेंगे ।

विद्यार्थी जीवन में ज्योति राव की मैत्री एक ब्राह्मण युवक से हुई । उसका नाम सदाशिव बाल लाल गोवांडे था । समान विचारधारा होने के कारण दोनों की मैत्री का जीवन-पर्यंत निर्वाह हुआ । दोनों ही ‘टामस पाने’ से अत्यंत प्रभावित थे । दोनों ने टामस पाइने की पुस्तक ‘राइट्स ऑफ मैन’ का गहन अध्ययन किया और बहुत प्रभावित हुए और संपूर्ण सक्रियता के साथ समाज-सुधार के कार्यों में लग गए ।

उसी समय उनके दो अन्य मित्र बने-मोरा विहल वाल्वेकर और सखाराम यशवंत परांजपे । एक घटना-प्रसंग ने तो ज्योतिबा की पूरी जीवन-शैली ही बदल दी । ज्योति राव का एक ब्राह्मण मित्र था, उनको उसने अपनी बारात में चलने के लिए निमंत्रित किया ।

निमंत्रण पाकर ज्योति राव को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे सज-धजकर बारात में शामिल हुए और गर्व के साथ अन्य बारातियों के साथ चलने लगे, तभी बारातियों में से एक ब्राह्मण लड़का उनकी ओर बढ़ा और उनके कुरते का कॉलर पकड़ते हुए गरजा,  ”तुम्हारा यह साहस कैसे हुआ कि तुम हम ब्राह्मणों के साथ-साथ चलो । निकल जाओ यहाँ से और फिर कभी ऐसा करने का साहस न करना ।”

ज्योतिराव का बहुत अपमान हुआ । वहाँ तो वे अपमान का घूँट पीकर दबे पाँव अपने घर लौट आए । इसी घटना से उनकी आँखें पूरी तरह से खुल गई । तभी उन्हें शिक्षा की महत्ता समझ में आई और उन्होंने दलितों-पतितों तथा अछूतों के लिए एक पृथक् विद्यालय की स्थापना करने का संकल्प लिया ।

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सन् १८४७ में ज्योति राव ने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की । उसके पश्चात् उन्होंने निश्चय किया- मैं सरकारी नौकरी नहीं करूँगा, बल्कि सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध छेड़े गए अभियान को और आगे बढ़ाऊँगा । उन दिनों सामाजिक परंपराओं के अनुसार अछूत बच्चों को शिक्षा नहीं दी जाती थी ।

उनके लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी और न ही उन्हें कोई शिक्षक पड़ाने के लिए तैयार होता था । इस कठिन समस्या को देखते हुए उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को घर में ही पढ़ाना शुरू कर दिया और उन्हें इतना शिक्षित कर दिया कि वे अपनी जाति के बच्चों को पड़ा सकें ।

अछूतों के लिए अप्रतिम शैक्षिक कार्य :

अपने संकल्प को मूर्त रूप देते हुए ज्योति राव ने सर्वप्रथम १ जनवरी, १८४८ को ‘बुधवार पेठ’, पूना में तात्या साहब भिडे की हवेली में बालिका विद्यालय की स्थापना की । वह किसी भी भारतीय द्वारा स्थापित देश का पहला बालिका विद्यालय था । उनके समाज ने उन्हें अपने समाज के लिए किए जा रहे सद्‌कार्यों के लिए ‘बा’ की उपाधि दी ।

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इस तरह वे ज्योति राव फुले से ‘ज्योतिबा’ फुले कहलाए । ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले उस विद्यालय की पहली शिक्षिका बनीं । इस प्रकार भारत की प्रथम महिला शिक्षिका होने की गर्व-गरिमा अर्जित की । इस विद्यालय को विधिवत् संचालित करने में फुले दंपती को अदम्य साहस और जीवटता का परिचय देना पड़ा ।

तथाकथित ब्राह्मण-वर्ग ने उनके इस कार्य का प्रत्येक स्तर पर विरोध किया और उन्हें अपमानित किया, पर वे अपने संकल्प-मार्ग पर किंचित् विचलित नहीं हुए । १५ मई, १८४८ को फुले दंपती ने अस्पृश्यों के लिए देश में प्रथम पाठशाला की स्थापना की । इससे दलितों-पतितों तथा अस्पृश्यों और महिला-समाज को शिक्षा के साथ प्रत्यक्ष रूप से आबद्ध कर दिया गया ।

दूसरी ओर, गर्हित और संकीर्ण मानसिकतावाला ब्राह्मण तथा उच्च समुदाय ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले के इन लोकमंगलकारी कार्यों का उग्र विरोध करने लगा । इन समुदायों ने ज्योतिबा के पिता गोविंद राव को डरा-धमकाकर पति-पत्नी को घर से बाहर निकलवा दिया । अनेक समस्याओं और कठिनाइयों के कारण ज्योतिबा को एक बार अपना विद्यालय बंद करना पड़ा ।

अपने जैसी विचार-भावनाओंवाले अपने ब्राह्मण मित्र सदाशिव राव गेवंडे और मुंशी गफ्तार बेग की सहायता से कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने विद्यालय में अध्यापन कार्य पुन: आरंभ कर दिया । उनके ब्राह्मण मित्रद्वय-सदाशिव राव गोवंडे और विष्णुपंत गत्ते ने उनके विद्यालय में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य भी किया ।

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१९ नवंबर, १८५२ को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा एक भव्य समारोह में २०० रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर ज्योतिबा का सम्मान किया । सन् १८५२ में ही ज्योतिबा ने दलितों-पतितों के लिए एक वाचनालय की स्थापना भी की ।

इसके पूर्व वाचनालय की व्यवस्था मात्र उच्च जातियों के लिए थी १७ फरवरी, १९५२ को उनके विद्यालय में विद्यार्थियों की खुली परीक्षा ली गई । उस समय सैकड़ों की संख्या में स्त्री-पुरुष एकत्र थे । सन् १८५५ में, ज्योतिबा ने देश के प्रथम संध्याकालीन विद्यालय की स्थापना की ।

१७ अक्तूबर, १८५७ को उनके विद्यालय का निरीक्षण-कार्य आरंभ हुआ । प्रख्यात वैयाकरण और मराठी स्कूलों के विभागीय सचिव दादोबा पांडुरंग तरबंडकर निरीक्षक थे । दादोबा ज्योतिबा के विद्यालयों का अनुशासन, वहाँ की शिक्षा-पद्धति तथा विद्यार्थी और शिक्षक समुदाय की परस्पर आत्मीयता को देखकर हतप्रभ रह गए । इतना आनंददायी वातावरण !

वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे । उन्होंने अपनी परीक्षण-पंजिका में ज्योतिबा के विद्यालयों की गति-प्रगति की शानदार टिप्पणी की । ज्योतिबा का विद्यालय थोड़े ही समय में अत्यंत लोकप्रिय हो गया । विद्यार्थियों की संख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी; स्थान की कमी होती जा रही थी । ज्योतिबा को नया विद्यालय खोलने के लिए कोई हिंदू जमीन देने को तैयार नहीं था ।

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अंत में पुराने विद्यालय की गली में एक मुसलमान-परिवार ने ज्योतिबा को विद्यालय बनवाने के लिए अपनी जमीन दे दी । ३ जुलाई, १८५७ को बुधवार पेठ, पूना के निवासी अन्ना अण्णा साहब चिपलूणकर के विशाल भवन में ज्योतिबा ने मात्र बालिकाओं के लिए एक विद्यालय में अध्ययन-अध्यापन का कार्य आरंभ कराया ।

अपने ढंग का यह विद्यालय ‘भारत का प्रथम’ विद्यालय था । फुले दंपती ने ये सारे कार्य बिना कोई शुल्क लिये किए । ज्योतिबा ने सन् १८६३ में एक ‘बाल हत्या प्रतिबंधक’ की स्थापना की । कोई भी विधवा वहाँ जाकर अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी । उसका नाम और उसकी देखभाल गुप्त रखी जाती थी ।

२४ सितंबर, १८७३ को स्थापित ‘सत्य शोधक समाज’ के ज्योतिबा प्रथम अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष बने । इस समाज का एकमात्र उद्‌देश्य था- ‘अस्पृश्यों पर होनेवाले धार्मिक और सामाजिक अन्याय या विरोध’ । ‘सत्य शोधक समाज’ की निम्नलिखित मान्यताएँ थीं-

१. भक्त और भगवान् के बीच किसी ‘बिचौलिये’ की कोई आवश्यकता नहीं ।

२. बिचौलियों द्वारा लादी गई धार्मिक दासता को नष्ट करना ।

३. सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना ।

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ज्योतिबा ने दलितों-पतितों, किसानों, श्रमिकों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग की दबी आवाज को उभारने के उद्‌देश्य से जनवरी १८७७ में एक साप्ताहिक समाचार-पत्र का प्रकाशन और संपादन शुरू किया । उस समाचार-पत्र का नाम ‘दीनबंधु’ था । उन्होंने किसानों और श्रमिकों की संतोषजनक स्थिति और उनकी उपयुक्त साँगों के लिए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित, शिक्षित और संगठित किया ।

ज्योतिबा के प्रयासों से उन दिनों किसानों और श्रमिकों के हितों की रक्षा तथा ‘सत्यशोधक समाज’ के प्रचार के लिए ‘अंबालहरी’, ‘दीनमित्र’, तथा ‘किसानों का हिमायती’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किए गए । सन् १८८२ में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ‘हंटर कमीशन’ भेजा । ‘हंटर कमीशन’ के अध्यक्ष सर विलियम हंटर थे । यह आयोग भारत में शिक्षा-व्यवस्था की दशा और दिशा की जानकारी प्राप्त करने के लिए गठित किया गया था ।

१९ अकबर, १८८२ को ज्योतिबा ने ‘हंटर कमीशन’ के समक्ष लिखित रूप में अपना वक्तव्य दिया था । उसमें उन्होंने निम्नलिखित विषय-बिंदुओं पर विशेष रूप से बल दिया था-

I. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा-व्यवस्था हो ।

II. गणित, इतिहास, भूगोल, व्याकरण का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाए ।

III. कृषि संबंधीं हर तरह का ज्ञान दिया जाए ।

IV. सामान्य ज्ञान, नीति तथा आरोग्य का ज्ञान भी दिया जाए ।

सन् १८८३ मे उन्होंने ‘सत्सार’ नामक एक लघु पुस्तक का प्रणयन किया । यह वही पुस्तक थी, जिसमें ज्योतिबा ने हिंदू-कर्मकांड में निहित गर्हित, गलित और संकीर्ण मान्यताओं-परंपराओं पर युक्ति-युक्त कुठाराघात किया था । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘किसान का कोड़ा’ में किसानों में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धर्मभीरुता, साहूकारों की अतिवादिता तथा अन्यान्य विसंगतियों पर समुचित प्रकाश डाला है ।

ज्योतिबा के ६१ वर्ष तथा सामाजिक व सार्वजनिक जीवन के ४० वर्ष प्रे करने पर मई १८८६ में एक विशाल जनसमुदाय के मध्य इस युगपुरुष को ‘महात्मा’ की उपाधि से समलंकृत किया गया । जुलाई १८८८ में ज्योतिबा पक्षाघात से पीड़ित हो गए ।

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उनके शरीर का दायाँ भाग निष्क्रिय हो गया । फिर भी उनकी सक्रियता बनी रही । उन्होंने बाएँ हाथ से ही लिखकर अपनी पुस्तक ‘सार्वजनिक सत्य-धर्म’ को अंतिम रूप दिया । दिसंबर १९८८ में वे पुन: पक्षाघात के शिकार हो गए । अंतत: २८ नवंबर, १८९० को उनका देहावसान हो गया ।

ज्योतिबा की कोई संतान नहीं थी । उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र को ‘दत्तक पुत्र’ के रूप में अंगीकार किया । वही बालक डॉ. यशवंत राव आगे चलकर ज्योतिबा का उत्तराधिकारी बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने बंबई में ‘फुले तांत्रिक माध्यमिक विद्यालय’ का उद्‌घाटन करते हुए महात्मा ज्योतिबा फुले की पुण्य स्मृति में कहा था:

“जिस जमाने में महात्मा फुले ने स्त्री और शूद्र-शिक्षा के प्रसार तथा अस्पृश्यता निवारण के लिए तीव्र संघर्ष किया, वह जमाना बहुत कठिन था ।”

ऐसे कार्यों के लिए कहीं से सहायता मिलना संभव नहीं था । भारतीय लोकतंत्र में स्त्री, दलित-शोषित, किसान तथा श्रमिकों की जैसे-जैसे उन्नति होगी वैसे-वैसे महात्मा फुले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभरकर सामने आएगा । महाराष्ट्र के एक किसान परिवार में जनमे महात्मा फुले देश में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत रहे हैं ।

गांधीजी उन्हें ‘सच्चा महात्मा’ कहा करते थे तथा उन्हें अपना प्रेरणा-स्रोत मानते थे । बाबा साहेब अंबेडकर उनके सामाजिक दर्शन से प्रभावित ही नहीं थे बल्कि उन्हें भगवान् बुद्ध और कबीर गुरुओं के साथ अपना ‘तीसरा गुरु’ मानते थे ।”

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