ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जीवन-दर्शन पर निबन्ध |Essay on Iswarchandra Vidyasagar’s life in Hindi!

ईश्वरचंद्र एक ओर जहाँ विद्यासागर थे, वहीं दूसरी ओर दयासागर भी । पीड़ित मानवता के प्रति उनके हृदय में करुणा की भावना थी । उन्होंने कई विद्यार्थियों के अध्ययन का व्यय-भार निर्वहण किया था, कई निर्धनों के अन्न-वस्त्र का प्रबंध किया था ।

वे किसी ऋणग्रस्त को व्याकुल देखते तो चुपचाप ही उसके ऋण का ब्याज-सहित भुगतान कर देते थे । यदि कोई माता-पिता कन्यादान करने में स्वयं को असमर्थ पाते तो ईश्वरचंद्र के लंबे हाथ सहायता पहुँचाते हुए दिखाई पड़ते थे ।

एक घटना-प्रसंग इस रूप में प्राप्त होता है । गरमी के दिन थे । मध्याह्न के समय एक वृद्धा सड़क के किनारे पड़ी अंतिम श्वास गिन रही थी । लोग आते-जाते, मुँह फेरकर उधर से निकल जाते । कौन उस दुर्गंधयुक्त महिला को छूता ? संयोगवश उसी मार्ग से ईश्वरचंद्र विद्यासागर निकले पर उन्होंने मृणा से अपनी दृष्टि नहीं फेरी ।

वे उसके पास गए । उन्होंने सारी स्थिति का अवलोकन किया और उस वृद्धा को गोद में उठाकर अपने घर ले आए । उन्होंने वृद्धा की चिकित्सा कराई और भोजनादि की सारी व्यवस्था की । स्वस्थ हो जाने पर ईश्वरचंद्र ने आजीवन उसके पालन-पोषण की व्यवस्था की । ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विषय में बंगाल के प्रसिद्ध कवि माइकेल मधुसूदन दत्त ने लिखा है- ”उनमें प्राचीन भारतीय मनीषियों के समान ज्ञान, अंग्रेजों जैसी स्कूर्ति और बंगाली माँ का हृदय था ।”

एक अन्य विद्वान् ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है- ”विद्यासागर विद्या के ही नहीं, करुणा के भी सागर थे ।” वास्तव में, उनका जीवन मानवता, सेवा और कर्मठता का संगम था । जन-जन में आत्मा के स्वरूप का ही दर्शन करनेवाले ईश्वरचंद्र का जन्म २६ सितंबर, १८२० को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के ‘वीरसिंह’ नामक गाँव में एक ऐसे समय हुआ था, जब भारतीय समाज की दशा अत्यंत विचारणीय और दयनीय थी ।

ईश्वरचंद्र एक दरिद्र-परिवार में जन्म लेकर और दरिद्र-अवस्था में जीवन व्यतीत करके भी कभी वितृष्णा के व्यामोह में न फँसे, प्रत्युत अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने और समाज की कुरीतियों को दूर करने में अर्पित कर दिया ।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उन्नीसवीं शताब्दी के विद्वानों में जो प्रमुख स्थान बनाया था, उसके मूल में उनका कठोर परिश्रम ही दिखाई पड़ता है । ९ वर्ष की अवस्था में संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लेकर १३ वर्षो तक सतत अध्ययनशील रहे । उनके इस अध्ययन-काल को यदि ‘तपःपूरित’ जीवन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी ।

उन्हें अपना खर्च चलाने के लिए दूसरों का भोजना बनाना, बरतन माँजना, सफाई जैसे अनेक कार्य करने होते थे । इन कार्यों के बाद जो समय बचता, वह कॉलेज में निकल जाता था । घर पर अध्ययन करने के लिए दिन में तनिक भी समय नहीं बचता था ।

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निर्धनों ने उनको इतना घेर रखा था कि रात का अध्ययन भी वे अपने कक्ष में शांतचित्त होकर नहीं कर पाते थे । उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी-दीपक केलिए तेल कहाँ से लाएं । निरुपाय होकर सड़क के किनारे स्थित नगरपालिका की लालटेन की रोशनी में अध्ययन करना होता था ।

कभी-कभी रात्रि में अधिक नींद सताती तो वे ओखों में सरसों का तेल लगा लेते अथवा अपनी चोटी को पीछे किसी खंभे से बाँध लेते । उनके अध्यवसाय का ही यह परिणाम था कि उन्हें एक दिन ‘विद्यासागर’ की उपाधि से विभूषित किया गया ।

जीवनवृत्त : एक दृष्टि में:

नाम : ईश्वरचंद्र

उपनाम : विद्यासागर

जन्म : २६ सितंबर, १८२० को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीरसिंह नामक गाँव में ।

कार्य और उपलब्धियाँ:

संपूर्ण जीवन शिक्षा के प्रचार-प्रसार और समाज की कुरीतियाँ दूर करने में अर्पित,  ‘विद्यागसागर’ की उपाधि से आभूषित, सन् १८४१ में फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के बँगला विभाग में ‘हेड पंडित’ के पद पर नियुक्ति, १८४७ में संस्कृत कॉलेज कलकत्ता में सहायक के पद पर नियुक्ति, १८५५ में विद्यालयों के सहायक निरीक्षक पद पर नियुक्ति, संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य-पद पर नियुक्ति, १८५६ में ‘विधवा विवाह अधिनियम’ पारित कराने में श्लाघनीय योगदान, १८५६ में प्रथम विधवा-विवाह संपादित, १८५७-५८ में ३५ बालिका विद्यालयों का समारंभ, संस्कृत की विद्वत्ता के लिए और सी.आई.ई. की उपाधि से विभूषित, स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक, बँगला में ‘संप्रकाश’ और अंग्रेजी में ‘हिंदू’ तथा ‘पैट्रियाट’ का प्रकाशन ।

प्रकाशित कृतियाँ:

‘आख्यान मंजरी’, ‘वासुदेवचरित’, ‘ऋतुपाठकथामाला’, ‘भ्रांतिविलास’, ‘रामेर तज्याभिषेक’, ‘सीता वनवास’, वेताल पंचविशंति (अनूदित) आदि ।

मृत्यु : २९ जुलाई, १८९१ को कलकत्ता में ।

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अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् सन् १८४१ में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की नियुक्ति कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज्र मुंए ५० रुपए के मासिक वेतन पर बँगला-विभाग में ‘हेड पंडित’ के पद पर हुई, किंतु उनकी अभिरुचि संस्कृत के प्रति अधिक थी ।

सन् १८४६ में उन्हें संस्कृत-व्याकरण लिखने की प्रेरणा मिली तथा १८४७ में वे संस्कृत कॉलेज में सहायक सचिव के पद पर नियुक्त किए गए । अध्यवसाय और ईमानदारी के कारण वे उस कॉलेज के प्राचार्य जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर पहुँचे ।

इसी अवधि में उन्होंने संस्कृत-व्याकरण के प्रथम तीन भाग प्रकाशित किए जो पर्याप्त लंबे तक पाठ्‌यपुस्तक के रूप में चलते रहे । तत्पश्चात् मई, १८५५ में उनकी नियुक्ति विद्यालयों के सहायक निरीक्षक के पद पर हुई । संस्कृत के उद्‌भट् विद्वान् तो थे ही, संस्कृत की विद्वत्ता के लिए उन्हें ‘सी.आई.ई.’ की उपाधि से समलंकृत किया गया था ।

विद्यासागर धोती, चादर और चप्पल के अतिरिक्त और कुछ धारण नहीं करते थे । पराधीन भारत में जन्म लेकर भी उनका स्वाभिमान देखते ही बनता था । जब वे कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य थे, तब एक बार प्रेसीडेंसी कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल कैट से मिलने के लिए गए ।

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जब वे उनके कक्ष में पहुँचे तब उन्होंने देखा कि कैट जूते पहने ही अपने पैर मेज पर रखकर बैठे थे । ईश्वरचंद्र के पहुँचने पर भी उन्होंने अपने पैर नीचे नहीं किए । यहाँ तक कि उन्होंने ईश्वरचंद्र विद्यासागर को बैठाने की शिष्टता भी नहीं बरती ।

कदाचित् उनके मन में आया होगा कि पराधीन देश के नागरिक के सम्मुख किसी प्रकार की भद्रता बरतने की क्या आवश्यकता ? ईश्वरचंद्र आवश्यक चर्चा कर अपने कॉलेज लौट आए । कुछ दिनों के पश्चात् उस अंग्रेज प्रिसिपल को किसी अपरिहार्य कार्यवश संस्कृत कॉलेज में जाना पड़ा ।

उसने जैसे ही उनके कक्ष में प्रवेश किया, ईश्वरचंद्र ने अपने पैर चप्पल-सहित मेज पर रख लिये और उन्हें बैठने के लिए कुरसी भी नहीं दी । उस अंग्रेज प्रिंसिपल को ईश्वरचंद्र के इस व्यवहार पर बहुत क्रोध आया । स्वयं को अपमानित महसूस करके उसने ईश्वरचंद्र की लिखित शिकायत शिक्षा-परिषद् के सचिव डॉ. मुआट के पास भेज दी । सचिव महोदय ने जब ईश्वरचंद्र से स्पष्टीकरण माँगा तब उन्होंने लिखा- “मैं ठहरा एक अदना सा हिंदुस्तानी ।”

यूरोप के तौर-तरीके भला मैं क्या जाएं । कुछ दिन हुए मैं मिस्टर कैट से मिलने गया था, तब मैंने मिस्टर कैट को ठीक उसी शैली में बैठा देखा और वे मुझसे बैठने के लिए कहे बिना वार्ता करते रहे । पहले तो मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ; फिर मैंने सोचा कि यूरोप में कदाचित् शिष्टाचार का यही ढंग हो ।

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इस कारण मैंने सोचा कि हम जैसे अर्द्ध-सभ्य लोगों को भी शिष्टाचार के इस ढंग का अनुकरण करना चाहिए । जब वे मेरे यहाँ आए तब मैंने भी उन्हीं की भांति शिष्टाचार का व्यवहार किया । उन्हें अपमानित करने का मेरा कोई इरादा नहीं था ।”

डॉ. मुआट ने वस्तुस्थिति को समझने के पश्चात् उस प्रकरण को यहीं पर समाप्त कर देना श्रेयस्कर और उपयुक्त समझा । एक अन्य घटना-प्रसंग से भी विद्यासागर आतरिक व्यक्तित्व उभरकर आता है । एक बार उन्हें अपनी माँ का पत्र प्राप्त हुआ, जिसमें छोटे भाई के विवाह के कारण घर आने का आग्रह था ।

ईश्वरचंद्र का उच्च अधिकारी अवकाश देने को तैयार नहीं था । इस पर वे त्यागपत्र लेकर अपने अधिकारी के पास पहुँच गए । उन्होंने स्पष्ट कहा, ”अंग्रेज साहब की आज्ञा से माँ की आज्ञा उनके लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है ।” उस अधिकारी को आश्चर्य हुआ ।

वह एक क्षण के लिए अवाक् रह गया । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि एक पराधीन देश का व्यक्ति भी कंपनी की नौकरी से इस प्रकार मुँह मोड़ सकता है और इतना अधिक स्वाभिमानी हो सकता है । अंतत: उस उच्च अधिकारी को उन्हें अवकाश देना पड़ा ।

महिलाओं के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण:

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उन दिनों बंगाल में एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर लेता था । पति की मृत्यु के पश्चात् इन विधवाओं को आजीवन नारकीय जीवन बिताना पड़ता था । किशोरावस्था में पड़ोस की एक विधवा के प्रति लोगों के दुर्व्यवहार को देखकर विद्यासागर का मन इतना द्रवित हुआ कि उन्होंने दीन-हीनों की दशा सुधारने का संकल्प ले लिया ।

उन्हें बहुत विरोध सहना पड़ा, किंतु वे ‘सत्य’ और ‘न्याय’ के लिए लड़ते रहे । अंतत: सुखद परिणाम प्राप्त हुआ-बंगाल में ही नहीं, अन्य प्रांतों में भी ‘विधवा विवाह’ होने शुरू हो गए । ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से ११ जुलाई, १८५६ को ‘विधवा विवाह अधिनियम’ को स्वीकृति दी गई ।

७ दिसंबर, १८५६ की तिथि भारतीय महिला समाज के लिए सुधार की दृष्टि से स्मरणीय है । इसी तिथि को बंगाल के २४ परगना जिले में ‘प्रथम विधवा विवाह’ संपन्न हुआ । दूल्हे थे पं. श्रीशचंद्र विद्यारत्न और दुल्हन थीं कालिमती देवी, जो मात्र १० वर्ष की आयु में विधवा हो गई थीं । इस विवाह को उन्होंने अपने एक मित्र राजकृष्ण बनर्जी के निवास पर संपन्न कराया ।

इससे समूचे समाज में सनसनी फैल गई । तत्कालीन पंडित भला ईश्वरचंद्र के प्रगतिशील विचारों को अपना समर्थन कैसे दे सकते थे ? वे चिढ़ गए । उन्होंने ईश्वरचंद्र के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर दी और उन्हें यह कठोर आदेश सुनाया- ‘जो व्यक्ति ईश्वरचंद्र के साथ भोजन करेगा तथा उनके विचारों का समर्थन करेगा, वह भी उनके साथ समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा ।’

इन विरोधों के बावजूद ईश्वरचंद्र अपने जन-मंगलकारी पथ से विचलित नहीं हुए । नारी-उत्थान के जिस मार्ग पर वे बड़े थे बढ़ते ही चले गए । वे स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे । ईश्वरचंद्र अच्छी तरह से समझते थे कि जब तक समाज के अर्द्ध-भाग को अपंग स्थिति से निकालकर समर्थ नहीं बनाया जाता तब तक समाज की सम्यक् प्रगति नहीं हो सकती ।

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इसके लिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया और इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए अनेक कन्या विद्यालयों की स्थापना की । भारतीय महिलाएँ ईश्वरचंद्र विद्यासागर की सदैव ऋणी रहेंगी । उन्होंने महिलाओं की दशा में सुधार के लिए अवर्णनीय कार्य किए । उस समय बंगाल में लड़कियों की शिक्षा के लिए कोई विद्यालय नहीं था ।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर स्त्री-शिक्षा का महत्त्व समझते थे और देश की उन्नति के लिए इसे अति आवश्यक मानते थे । उन्होंने सन् १८५७-५८ में ३५ बालिका विद्यालय खुलवाए जिनमें औसत उपस्थिति १,३०० थी । पुरातनपंथियों ने उनके इस कदम का उग्र विरोध किया ।

उन्होंने विरोधियों का मुँह, बालिकाओं को स्कूल ले जानेवाली गाड़ी पर ‘पुत्रों के समान पुत्रियों को भी शिक्षा पाने का अधिकार है’, लिखवाकर बंद कर दिया । उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए की परीक्षा उत्तीर्ण करनेवाली प्रथम छात्रा चंद्रमुखी बोस को स्वयं पुरस्कृत किया ।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बाल-विवाह के साथ ही पुरुषों द्वारा बहु-विवाह का भी उग्र विरोध किया था । उन्होंने उदार और सुधारवादी दृष्टिकोण रखनेवाले पुरुषों का एक संघ-गठन कर दोलन आरंभ किया । उनके इस प्रकार के प्रयत्नों से स्थिति में बहुत सुधार हुआ ।

साहित्यिक प्रतिभासंपन्न:

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर को ‘आधुनिक बँगला-साहित्य का जनक’ कहा था । बँगला भाषा का साहित्यिक रूप ईश्वरचंद्र विद्यासागर की देन है । वे आधुनिक भारत में युगानुरूप सुधारों के प्रवर्तक थे ।

संस्कृत के अद्वितीय पंडित थे । बहुश्रुत शास्त्रज्ञ के रूप में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की थी, किंतु अपना समस्त जीवन शिक्षा और सामाजिक जीवन में, साहित्य और ज्ञान-साधना के दूसरे क्षेत्रों में, आधुनिक भारतीय भाषाओं को जनप्रिय और उपयोगी बनाने में लगा दिया । बँगला में उन्होंने सभी स्तरों पर पुस्तक-लेखन किया, कई मौलिक साहित्यिक कृतियों का प्रणयन किया ।

माइकेल मधुसूदन दत्त जैसे श्रेष्ठ कवि-साहित्यकार के वे संरक्षक थे और उनके अर्थाभाव के दिनों में स्वयं अभाव झेलकर सहायता पहुँचाई । हिंदी के लिए भी उनका योगदान असाधारण है; यद्यपि बहुत कम लोगों को ज्ञात है तथा इसकी चर्चा तो और भी कम होती है ।

हिंदी को उनका अवदान बहुविध है । आधुनिक शिक्षा में हिंदी को उपयुक्त और सम्मानजनक भूमिका में प्रस्तुत करने में उन्होंने प्रखर विवेक और विलक्षण दूरदर्शिता के प्रमाण प्रस्तुत किए । वे हिंदी-भाषा और साहित्य के अध्यवसायी अध्येता थे, कुशल शिक्षक थे, हिंदी की उत्तर-पुस्तिकाओं के परीक्षक थे, कबीर पंथियों के इतिहास ‘हिस्ट्री ऑफ द कबीर पंथीज’ के संशोधक और प्रस्तोता थे, हिंदी की ‘बेताल पचीसी’ के यशस्वी बँगला-अनुवादक थे और भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्य मित्र थे ।

अंग्रेजी और बँगला-भाषाओं में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की जो जीवनियाँ उपलब्ध हैं, उनमें हिंदी से उनके निकट सन्निध्य के साक्ष्य फोर्ट विलियम कॉलेज में उनकी नियुक्ति के बाद से प्राप्त होते हैं । सन् १८९१ में उनके निधन के एक दशक पश्चात् अंग्रेजी में सुबलचंद्र मित्र लिखित ईश्वरचंद्र की जो जीवनी ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर : ए स्टोरी ऑफ हिज लाइफ एंड वर्क प्रकाशित हुई थी, उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध और निर्विवाद है ।

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सुबलचंद्र मित्र और अन्य जीवनीकारों ने भी यही रेखांकित किया है कि फोर्ट विलियम कॉलेज में विद्यासागर को विधिवत् हिंदी सीख लेने के प्रयोजन का भी अनुभव हुआ और उन्हें इसका अवसर भी प्राप्त हुआ । फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना अंग्रेज सिविल सर्वेट्‌स को विभिन्न भारतीय भाषाओं- हिंदी, बँगला, उर्दू और फारसी से शिक्षित और प्रशिक्षित करने के उद्‌देश्य से सन् १८०० में हुई थी ।

शिक्षण और प्रशिक्षण का यह कार्य अधिकारों की नियुक्ति के पहले होता था । भाषा-परीक्षा में अनुत्तीर्ण व्यक्ति नियुक्त नहीं हो पाते थे और उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ता था । फोर्ट विलियम कॉलेज अधिकारियों की भाषा-शिक्षा का कॉलेज था ।

तब वे अधिकारी ईस्ट इंडिया कंपनी के ‘राइटर’ कहलाते थे और जिस भवन में उनका निवास था, वह ‘राइटर्स बिल्डिंग’ कहलाता था । यह भवन और यह नाम अब तक है । पश्चिम बंगाल सरकार का सचिवालय इसी बिल्डिंग में है ।

संस्कृत भाषा की शिक्षा मातृभाषा में दी जाए इसके लिए उन्होंने स्वयं सरल और सुबोध व्याकरण का प्रणयन किया । उनकी व्याकरण-पुस्तक अतीव लोकप्रिय हुई । संस्कृत कॉलेज में उन दिनों उच्च जाति के लोगों को ही प्रवेश की अनुमति थी । उन्होंने इसका घोर विरोध करते हुए प्रत्येक जाति के लिए प्रवेश की स्वीकृति दिलवाई । ईश्वरचंद्र; बँगला में ‘संप्रकाश’, अंग्रेजी में ‘हिंदू’ और ‘पैट्रियाट’ समाचार-पत्र प्रकाशित कर सुधारवादी विचारों का प्रचार किया ।

रूढ़िवादी लोग उनके विचारों का विरोध करते थे, किंतु अपने तर्कों से वे विरोधियों की अनुत्तरित कर देते । उन्होंने ‘हिंदू- वसीयत’ के नियम में सुधार करने के लिए पहल की; परिणामस्वरूप ‘हिंदू वसीयत अधिनियम’ बना । २९ जुलाई, १८९१ को इस मानवधर्मी समाज-सुधारक का हृदय रोग से ग्रस्त होने के कारण शरीरांत हो गया ।

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