महर्षि अरविंद का जीवन-दर्शन पर निबन्ध |Essay on Maharshi Arvind’s Life – Philosophy in Hindi!

”हम भारतीयों को अब यह गंभीरतापूर्वक सोचना आरंभ कर देना चाहिए कि भारतीय विचार, भारतीय बुद्धि, भारतीय राष्ट्रीयता, भारतीय आध्यात्मिकता और भारतीय संस्कृति को मानवजाति के सामान्य जीवन में कौन सी भूमिका अदा करनी है

मानवजाति को तो उत्तरोत्तर आगे बढ़ाना ही है । हमें इसके अंदर कार्य करना होगा और इसी का अंग बनना होगा । हम सभी में इसके प्रति अलगाव या ईर्ष्यायुक्त आत्मरक्षा की वृत्ति नहीं, बल्कि सब मनुष्यों और राष्ट्रों के प्रति उदार प्रतिस्पर्द्धा व भ्रातृत्व की भावना होनी चाहिए जिसे एक प्रकार की चेतना को मनुष्य के भविष्य में उचित स्थान प्राप्त हो, यही भारतीय भावना चाहिए ।” ऐसा शुचि और दिव्य चिंतन महर्षि अरविंद का था ।

अरविंद का जन्म १५ अगस्त, १८७२ को कलकत्ता में हुआ था । उनके पिता कृष्णघन घोष एक सिविल सर्जन थे । माता का नाम स्वर्णलता देवी था । ७ वर्ष की अवस्था में ही अध्ययनार्थ वे अपने पिता द्वारा विलायत ले जाए गए । उन्हें हिंदू-संस्कार से दूर रखने का प्रयास किया गया ।

कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज की ट्राइपोस की कठिन परीक्षा में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुए । उन्होंने आई.सी.एस. की खुली प्रतियोगिता में भाग लिया और सर्वोच्च अंक प्राप्त किए थे । परंतु वे सरकारी गुलाम बनने को तैयार नहीं हुए । बड़ौदा राज्य की सेवा अंगीकार कर सन् १८९३ में वे स्वदेश लौट आए ।

भारत आते ही अरविंद को अवर्णनीय अनुभूति हुई । उन्हें प्रतीत हुआ, मानो एक महान् ज्योति उनके अंतःकरण में प्रवेश कर गई हो । भारत का एक दिव्य आध्यात्मिक स्वरूप उनकी आँखों के समक्ष ठहर गया और उनमें प्रवेश कर गया, जिससे उन्हें चिर शांति प्राप्त हुई ।

विदेश में रहकर उन्होंने अनुभव किया था कि वे अब ‘अंधकार’ का पर्याय होते जा रहे हैं । इस स्वर्णिम अनुभूति से वह अँधेरा क्षणोपरांत छँट गया और वे प्रकाश, प्रज्ञान, प्रशांति से पूर्णत: उद्‌भाषित हो उठे । भारत की महिमा है ही ऐसी ! इसलिए अपने लोगों ने कहा है कि इसके कण-कण में पाविव्य भरा हुआ है ।

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वहीं अनुभूति उनमें समा गई और उस अनुभूति की सार्थकता रेखांकित करने के लिए अरविंद ने भारतमाता को अपना प्रथम और अंतिम प्रणाम किया । आते ही वे भारत के समस्त वाड़मय और संस्कृति के गहन अध्ययन में लीन हो गए जिसमें अरविंद ने संस्कृत, बँगला, मराठी, गुजराती, हिंदी आदि भारतीय वाड़मय का विशद् अध्ययन किया ।

बड़ौदा कॉलेज में उन्होंने अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में काफी समय तक सराहनीय कार्य किया । मृणालिनी देवी से उनका परिणय हुआ । अरविंद ने भगिनी निवेदिता से भेंट की । ‘काली माता’ नामक लब्ध प्रतिष्ठ ग्रंथ से वे अत्यंत प्रभावित हुए थे । साहित्यिक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का प्रकाश फैलाने के उपरांत उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया ।

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उनके मन में भारत को स्वतंत्र कराने की लौ सदैव लगी रहती थी । इसीलिए उन्होंने सन् १९०२ से देश की राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना प्रारंभ कर दिया था । यही नहीं, उन्होंने क्रांतिकारी दोलन का गुप्त प्रचार करना भी आरंभ कर दिया था । सन् १९०५ में महर्षि अरविंद ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक-प्रणीत ‘उग्र राजनीति’ का समर्थन किया था ।

बंग-भंग की घोषणा होते ही उन्होंने अपना ‘पाञ्चजन्य’ हूंका और सन् १९०६ में वे कलकत्ता लौट आए । राष्ट्रीय शिक्षा द्वारा नवयुवकों में राष्ट्रीय भावना भरने के उद्‌देश्य से बंगाल राष्ट्रीय महाविद्यालय कलकत्ता में उन्होंने प्राचार्य-पद को समलंकृत किया ।

यहाँ से वे खुले रूप में क्रांति में कूद पड़े, कांग्रेस के मंच से स्वराज तथा विदेशी बहिष्कार के प्रस्ताव का अनुमोदन किया । सन् १९०७ में वे जनमानस के सम्मुख उग्र पत्रकार के रूप में उभरे, जब उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र का संपादन आरंभ किया और वही ‘वंदे मातरम्’ तुरंत ब्रिटिश शासन कुए लिए सिरदर्द बन गया ।

ब्रिटिश सरकार ने उनपर राजद्रोह का अभियोग लगाया । वे बिना किसी चिंता के ही अपने उद्देश्य में लगे रहे । उन्होंने सूरत कांग्रेस की अध्यक्षता की । ‘भिक्षाम् देहि’ के स्थान पर उन्होंने ‘युद्धम् देहि’ का उद्‌घोष दिइग्श्दगंत में ध्वनित किया ।

सन् १९०८ में वे किंग्स फोर्ड-हत्याकांड, अलीपुर बम-केस में गिरफ्तार कर लिए गए । जेल की यातना-कोठरी उनकी तपस्या-कुटीर बन गई थी । वहीं साधना में लीन एक दिन उन्हें ‘वासुदेव सार्वमिति:’ का साक्षात् हुआ । यहीं से उनके अंदर एक महान् परिवर्तन आया ।

भागवत-निर्णयानुसार उन्हें अभियोग से विमुक्ति मिली । उत्तरपाड़ा धर्मरक्षिणी सभा में उनका अभिभाषण हुआ । उन्होंने ‘कर्मयोगिन’ तथा ‘धर्म’ नामक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सफल संपादन भी किया । उनके विरुद्ध ब्रिटिश शासन ने कुचक्र रचकर पुन: मुकदमा चलाया, परंतु उन्होंने उस चांडाल-चौकड़ी की देश से निर्वासित करने की योजना विफल कर चंद्रनगर तथा पांडिचेरी में योग साधना में लीन हो गए ।

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अब वे राजनीति का पूर्णरूपेण परित्याग कर सुदूर पांडिचेरी में योग-साधना करने लगे थे, जिसका समारंभ बड़ौदा रहते ही हो चुका था । अतीत की संपूर्ण आध्यात्मिक अनुभूतियों के सारभूत तत्त्वों को आत्मसात् कर ऐसी आध्यात्मिक शक्ति की खोज करते हुए जो सारे जीवन का रूपांतर कर उसे दिव्य बना दे, ‘पूर्णयोग’ के पथ का आविष्कार किया था और इसी की चरितार्थता में अंतिम चालीस वर्ष समर्पित हो गए ।

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सन् १९१४ में उन्होंने ‘आर्य’ नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन किया । उन्होंने ईशोपनिषद् गीता, कर्मयोगिन् प्रबंध, दिव्य जीवन, योग समन्वय, हिंदू संस्कृति के मूल तत्त्व आदि का प्रकाशन कार्य किया था । १३ अप्रैल, १९४१ को माँ का पांडिचेरी शुभागमन हुआ था, जहाँ अरविंद से उनकी भेंट हुई थी । सन् १९२६ में आश्रम की स्थापना हुई । माँ पर संपूर्ण भार छोड़कर वे स्वयं अंतराल में चले गए थे, पर समाचार-पत्रों द्वारा साधकों का मार्ग-प्रदर्शन करते रहे ।

सन् १९४५ में वे ‘क्रिप्स मिशन’ के प्रस्तावों को मान लेने के पक्ष में थे, क्योंकि भारत-विभाजन उन्हें स्वीकार नहीं था । उन्होंने कहा था कि अखंड, समर्थ तथा सशक्त भारत ही विश्व का पथ-प्रदर्शन करेगा । ५ दिसंबर, १९५० को महर्षि अरविंद ने महासमाधि ले ली । माँ के संरक्षण में उनका कार्य प्रतिफल प्रगति-पथ पर अग्रसर था । सन् १९७३ में माँ ने भी महाप्रयाण किया था । सन् १९५१ में माँ ने अंतरराष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र का उद्‌घाटन किया । सन् १९६८ में संपन्न हुआ ‘ओरोविल’- उषा नगरी का शिलान्यास ।

कुछ आलोचक महर्षि अरविंद को ‘पलायनवादी’ मानते हैं, जो न सैद्धांतिक है, न व्यावहारिक है, न स्वाभाविक है और न ही अल्पव्यय साध्य ही । पलायनवादी कहनेवाले संभवत: नहीं जानते कि महर्षि अरविंद ने अपना पूरा यौवन क्रांति की आग में झोंक दिया और यदि वय ढलने से शरीर में स्कूर्ति न हो तो किसी भी व्यक्ति को विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए । यह तो मात्र दूसरे पर लागू होनेवाला उदाहरण है ।

उन्हें तो कारागार में ‘साक्षात् परब्रह्म का दर्शन’ मिल चुका था और उन्हीं से अभिप्रेरित होकर वे एक तापस जीवन व्यतीत करने लगे थे । यदि उन्होंने ईश्वरीय प्रेरणा से ऐसा कार्य किया था तो उन्हें ‘पलायनवादी’ कहना मिथ्या आरोप है । आलोचकों को यह जानना चाहिए कि उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के पश्चात, साधना के क्षेत्र को अंगीकार किया था ।

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