आचार्य नरेंद्र देव का जीवन-दर्शन पर निबन्ध | Essay on Acharya Narendra Dev’s Life in Hindi!

भूमिका:

स्वतंत्रता की अवधारणा के प्रति अपनी दो टूक अभिक्रिया व्यक्त करते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा था- ”हमारे सामने जो प्रश्न है, उसपर सुगमतापूर्वक दो दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है । पहला, एक बड़ा प्रश्न है-क्या देश की वर्तमान स्थिति में इस तरह का ‘निवारक नजरबंदी अधिनियम’ बनाना आवश्यक है ?

दूसरा, इस तरह के अधिनियम बनाने की आवश्यकता को मानते हुए यह विचार करना है कि हमारे सामने जो विधेयक लाया गया है, क्या उसमें नजरबंद किए गए व्यक्ति को बचाव के पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं ? साथ ही हमें यह भी देखना है-क्या व्यक्ति की स्वतंत्रता में आपत्तिजनक और उत्पीड़न हस्तक्षेपों की संभावनाएँ न्यूनतम कर दी गई हैं ?

”पहले मैं बड़े प्रश्न को लेता हूँ । प्रश्न यह है- क्या ऐसा अधिनियम बनाना आवश्यक है, जो जनता की निजी स्वतंत्रता को निर्बल करनेवाला हो ? सामान्य सिद्धांत तो यह है कि इसे सीमित और कम तभी किया जाना चाहिए जब ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया हो । इसी संदर्भ में हममें से कुछ ने ब्रिटिश-अनुभवों और सिद्धांतों से सीख लेने तथा उनकी प्रक्रिया और सिद्धांतों का पालन करने के लिए कहा था ।”

आचार्य नरेंद्र देव जीवन के प्रत्येक संभाग को उन्नत होते देखना चाहते थे । वे शिक्षा के महत्त्व को जन-जन तक पहुँचना चाहते थे । एक बार उन्होंने कहा था- ”शिक्षा की संपूर्ण प्रणाली को पुनर्व्यवस्थित करना होगा । इसमें सामाजिक जीवन का समावेश करना होगा । शिक्षा को जीवन से अलग नहीं रखा जा सकता और उसे समकालीन समाज की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करना ही चाहिए ।

जीवन उगैर कार्य इस महापुरुष का जन्म ३१ अक्तुबर, १८८१ को सीतापुर जिले (उत्तर प्रदेश) में पंजाबी खत्री परिवार में हुआ था, जो उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आज के पाकिस्तानी जनपद स्यालकोट से निकलकर फैजाबाद में बस गया था । उनके पिता बाबा बलदेव प्रसाद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और व्यवसाय से अधिवक्ता थे ।

आचार्य नरेंद्र देव का पूरा नाम अविनाशी लाल था, जिसे बाद में परिवर्तित कर ‘नरेंद्र देव’ कर दिया गया । १० वर्ष की आयु में उन्होंने तुलसीकृत ‘रामचरित-मानस’ और महर्षि वेदव्यास कृत ‘महाभारत’ का हिंदी-अनुवाद पड़ लिया था ।

सन् १९०२ में उन्होंने शिक्षा आरंभ की । सन् १९११ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए, की परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् १९१३ में क्वींस कॉलेज काशी से एमए तथा सन् १९१५ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करके उसी वर्ष से फैजाबाद में वकालत करने लगे ।

जब कांग्रेस का ‘नरम’ और ‘गरम’ दलों में विभाजन हो गया तब आचार्य नरेंद्र देव ‘गरम दल’ में शामिल हो गए । सन् १९१६ में दोनों दलों का सम्मेलन हुआ तब वे मूल कांग्रेस में लौट आए । सन् १९१६ में ही उन्होंने फैजाबाद में ‘होम रूल लीग’ की शाखा का गठन किया ।

सन् १९२१ में अपनी वकालत बंद कर काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया । राष्ट्रीय आंदोलन से अत्यंत प्रभावित होकर वे महात्मा गांधी के ‘सविनय अवज्ञा-आंदोलन’ में सक्रिय रूप से शामिल हो गए; परिणामत: सन् १९३० में वे सविनय अवज्ञा में पहली बार जेल गए ।

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जेल से मुक्त होने के बाद, ब्रिटिश सरकार विरोधी अपनी सक्रिय गतिविधियों के कारण उन्हें सन् ११३२ में पुन: जेल की सजा मिली । १७ मई, १९३४ को ‘आखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की गई । आचार्य नरेंद्र देव को सम्मेलन का अध्यक्षीय कार्य-भार सौंपा गया । सर १९३६ में उन्हें यूपी प्रांतीय कांग्रेस का अध्यक्ष और कांग्रेस कार्य-समिति का सदस्य मनोनीत किया गया ।

सन् ११३७ में वे संयुक्त प्रांत विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए । सन् १९४१ में व्यक्तिगत सत्याग्रह करने के कारण ब्रिटिशों द्वारा उन्हें बंदी बनाया गया । ९ अगस्त, १९४२ को उन्हें कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार करके अहमदाबाद जेल में नजरबंद किया गया ।

सन् १९४६ में उन्हें संयुक्त प्रांत विधानसभा का निर्विरोध सदस्य निर्वाचित किया गया । वे आत्म-विश्वास के अनुसार कार्य करते थे । यद्यपि सन् १९४७ में कांग्रेस को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे, तथापि जब समाजवादी दल ने कांग्रेस से अलग होने का निर्णय किया तब सन् १९४८ में नासिक में आयोजित सम्मेलन में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी के नासिक निर्णय के अनुसार उन्होंने कांग्रेस और विधानसभा देनों से त्यागपत्र दे दिया ।

इसी प्रकार सन् १९५२ में उन्होंने ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘किसान मजदूर प्रजा पार्टी’ के एकीकरण का विरोध किया । सन् १९५२ में आचार्य बनारस विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए तथा राज्यसभा में सांसद निर्वाचित हुए । इसी वर्ष चीनी सांस्कृतिक मिशन के साथ वे चीन यात्रा पर गए ।

सन् १९५२ में आम चुनाव होने तथा ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘किसान मजदूर प्रजा पार्टी’ के विलय के पश्चात् जब सन् १९५३ में पं. जवाहर-लाल नेहरू ने ‘कांग्रेस’ और ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ की संयुक्त सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा, तब आचार्य नरेंद्र देव इसके विरुद्ध थे । वे दमा रोग से पीड़ित थे ।

अस्वस्थ रहने के कारण सन् १९५३ में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति-पद से त्यागपत्र दे दिया । सन् ११५४ में दमे का उपचार कराने के लिए इंग्लैंड गए । वहाँ से वियना पहुँचकर उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों के लब्ध-प्रतिष्ठ व्यक्तियों से भेंट की । उस अवधि में उन्होंने आस्ट्रिया, जर्मनी, और युगोस्लाविया की यात्रा की । तद्‌पश्चात् नरेंद्र देव स्वदेश लौट आए ।

दिसंबर १९५५ में गया (बिहार) में ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ का द्वितीय सम्मेलन आयोजित हुआ, आचार्य नरेंद्र देव ने उसमें भाग लिया । सन् १९५६ में पुन: स्वास्थ्य खराब होने लगा । इलाज के लिए उन्हें पेरेंदुरई (चेन्नई) ले जाया गया । वहाँ उनकी स्थिति बहुत ही गंभीर हो गई । १९ फरवरी, १९५६ को चेन्नई स्थित पेरेंदुरई में आचार्य नरेंद्र देव का निधन हो गया ।

आचार्य नरेंद्र देव केनिधन पर प्रमुख हस्ताक्षरों ने अपनी निम्नलिखित अभिव्यक्तियाँ दीं:

”आचार्य नरेंद्र देव मेरे नेता और सहयोगी थे । वे एक सच्चे देशभक्त और प्रकांड विद्वान् थे । उनके इस पांडित्य के साथ ही उनमें विनय की गहरी भावना थी । उन्हें कुद्ध कर पाना कठिन था । वे सबके मित्र थे । जिनसे उनके गहरे मतभेद होते थे, उनसे भी वे मैत्री और शिष्टता का व्यवहार करते थे ।” -आचार्य जे.बी. कृपलानी

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”आचार्य नरेंद्र देव अपने आदर्शों, निष्ठा और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता के लिए सुविख्यात थे । वे उस समय समाजवादी थे जब समाजवाद लोक-प्रचलन में भी नहीं आया था । स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उन्होंने कांग्रेस के सदस्य के रूप में कार्य किया ।

कालांतर में वे समाजवादी दल के एक प्रमुख नेता के रूप में सामने आए । शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ लंबे समय तक स्मरण की जाएँगी । वे किसी भी रूप में छद्‌म से सर्वथा दूर थे । उनके विचारों ने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया और हमारी नीतियों को नई दिशा प्रदान की हमने एक महान् देशभक्त, एक महान् नेता और एक बहुमूल्य व्यक्तित्व खो दिया है ।” – सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन्

”आचार्य नरेंद्र देव की मृत्यु से भारत ने एक विद्वान् ईमानदार और त्यागी व्यक्तित्व खो दिया, जिसकी देशभक्ति और कर्तव्यनिष्ठा उच्चकोटि की थी । उनकी मृत्यु से देश के सार्वजनिक जीवन में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया है, जिसे आसानी से भरा नहीं जा सकेगा । ” – डॉ. राजेंद्र प्रसाद

”नरेंद्र देव के निधन से हमने एक महामानव खो दिया । वे पक्के सिद्धांतवादी थे और सदैव बलिदान को तैयार रहते थे । प्रकांड विद्वान् और शिक्षाशास्त्री के रूप में उनकी कीर्ति सभी ओर फैली थी । विद्यापीठ में उनसे शिक्षा पाने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ था ।” -लाल बहादुर शास्त्री

एक बहुआयामी चिंतक:

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भारत को स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई और एक युग का अवसान हो गया । नए युग ने द्वार पर दस्तक दी । इसके साथ ही परिवर्तित अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों, संबंधों तथा विरोधों के प्रभावों का कलन करके आचार्य नरेंद्र देव ने त्वरित प्रज्ञा और प्रखर चिंतन का सुपरिचय दिया ।

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”राष्ट्रीय स्वतंत्रता का लाभ अवश्य हुआ । परंतु प्रजातंत्र जैसे दूर होता जा रहा है । एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका, सभी जगह प्रजातंत्र को आत्मरक्षा करनी पड़ रही है । पिछड़ी तथा गत्यावरुद्ध अर्थव्यवस्थाओं पर डाले जानेवाले जातिगत, जनजातिगत, प्रादेशिक तथा भाषाई प्रभाव राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद इतनी धूमधाम के साथ स्थापित की गई प्रजातांत्रिक संस्थाओं को खोखला बनाए दे रहे हैं ।”

”तब से दुनिया भी बहुत बदल गई है और भारत भी । जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह अब हि- हयुवीय नहीं रह गई हे । अटलांटिक और सोवियत संघ दोनों ही गुटों में बहुत कुछ बदलाव आ गया है । फ्रांस का अमेरिकन प्रभाव से मुक्त हो जाना, ‘स्वेज (नहर) से पूर्व की असंभाविता, ब्रिटेन से यूरोप की न दबाई जा सकनेवाली पुकार, पश्चिमी जर्मनी में पूर्व के साथ बातचीत करने की उत्तेजना तथा दक्षिण-पूर्व से चीन का बढ़ता आतंक ।

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इन सबने यूरोपीय गुट की कल्पना को बल दिया है । एक ओर से अमेरिका तथा दूसरी ओर से चीन-ये दोनों इस विस्तृत भू- भाग को, जिसमें प्राचीन रूस के पूर्व और दक्षिण में स्थित प्राचीन एशिया के अनेक बड़े हिस्से शामिल हैं, दोनों ओर से दबाना चाहते हैं ।

”नाभिकीय तथा अंतरिक्ष की खोज में लगी जातियाँ नए बमों की कल्पना से पूरे विनाशकीय शक्ति, अंतर-महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों से सुरक्षा की असंभाविता तथा दूसरी ओर, चीन का नाभिकीय शक्तिवाले देश के रूप में उभरना, ये दोनों दो महाशक्तियों को इस बात के लिए मजबूर कर रहे हैं कि वे विश्व को समझदारी से काम लेने के लिए प्रेरित करें और इस प्रकार विश्व के रक्षकों की भूमिका अदा करें ।”

परिणाम अनिश्चित है, क्योंकि जबकि विकसित राष्ट्र बदलते हुए परिवेश का धीरे-धीरे एहसास करते हुए आपस में पुनर्व्यवस्थापन के प्रयत्न में लगते दिखते हैं, वहीं विकासशील देशों में इस प्रकार की जागृति बहुत कम दिखलाई दे रही है ।

विकासशील देशों में जो कुछ आगे बढ़ गए हैं, अल्प-विकसित देशों का साथ छोड़कर प्राय: विकसित तथा समुद्र-देशों के मंघ में शामिल होने को उत्सुक दिखाई देते रहे, बजाय इसके कि उनको भी अपने साथ लेकर उन्नति के एक नए स्तर पर ले जाएँ ।

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विकसित राष्ट्रों का सदा यह प्रयत्न रहा है कि वह कम विकसित देशों के बीच मनमुटाव पैदा करें और उन्हीं के मूल्य पर उनकी समस्याओं को सुलझाने का दिखावा करें । उनकी शक्ति और साधन-संपन्नता तथा माथ-ही-साथ क्या दाँव पर है, इस बात के प्रति जागरूकता ऐसा करने में उनकी सहायक बनती है । अल्प-विकसित राष्ट्र इन निर्णायक कारकों की अनुपस्थिति में अपने को असहाय पाते हैं ।

आचार्य नरेंद्र देव में न तो डॉ. लोहिया जैसी वर्णन-शैली थी और न जय प्रकाश नारायण जैसी प्रोत्साहक स्पष्टता । घुमा-फिराकर बात कहने की उनकी भाषण-विद्या के विपरीत उनकी लेखन-शैली को अलंकारहीन, क्लिष्ट तथा पांडित्यपूर्ण कहा जा सकता है । उन्हें हम वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर काम करनेवाले एक कुशल शिल्पी की बजाय एक ‘कारीगर’ कहना अधिक पसंद करेंगे ।

आत्मत्याग की एक महान् गाथा:

आचार्य नरेंद्र देव की वाक्‌पटुता जननेता की भाषण-शैली जैसी नहीं थी, प्रत्युत वह बुद्धिजीवियों और सुधीजनों को आकर्षित करनेवाली थी । सार्वजनिक वक्तव्यों में भी वे किसी प्रसंग को एक ऐसे व्यक्ति की भांति, जो प्रोफेसर और अधिवक्ता रह चुका हो, तर्कपूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करते थे ।

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संक्षिप्तता और संश्लेषण की प्रतिभा के कारण वे ऐतिहासिक घटनाओं की स्पष्ट और विशद व्याख्या थोड़े से वाक्यों तथा इस तरह चुनिंदा शब्दों में धाराप्रवाह रूप में प्रस्तुत कर देते थे कि श्रोतागण मंत्रमुग्ध रह जाते थे । उनका जीवन आत्म-त्याग का एक महान् अनुपम उदाहरण है । उन्होंने स्वयं को देश के लिए अर्पित कर दिया था तथा कभी धन और प्रसिद्धि पाने का प्रयास नहीं किया ।

यहाँ तक कि स्वाधीनता के बाद जब उन्हें लखनऊ और बनारस विश्वविद्यालयों का उपकुलपति बनाया गया, अपनी आय का एक बड़ा अंश वे विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति पर व्यय कर देते थे । जाहिर है, इसी कारण वे सदैव आर्थिक-कठिनाइयों में घिरे रहे ।

संभवत: बहुत से लोग यह नहीं जानते कि मृत्यु के समय वे ऋण से ग्रस्त थे, क्योंकि वे एक साथ दोनों उद्‌देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते थे । किसानों की भूमिका, सत्ता के विकेंद्रीकरण, भाषा और भाषाई प्रदेशों तथा उतने ही महत्त्वपूर्ण विषय संपत्ति पर अधिकार के बारे में आचार्य नरेंद्र देव ने जो कुछ कहा, वह आज भी इतना ही उपयुक्त है ।

उदाहरण के लिए, संपत्ति पर अधिकार के लिए उन्होंने लिखा था- ”संपत्ति से संबंधित मौलिक अधिकार को इस तरह संशोधित करना है, ताकि केंद्रीय और प्रादेशिक दोनों ही विधायी प्राधिकारियों के लिए यह संभव हो सके कि वे सार्वजनिक हित के लिए संपत्ति का अधिग्रहण कर सकें ।

उनको वे अधिकार दिए जाएँ जिनसे वे उद्योगों और अन्य आर्थिक संस्थानों का समाजीकरण कर सके तथा संबंधित कर्मकारों के वर्ग के सामान्य हित में वैयक्तिक संपत्ति और वैयक्तिक व्यवसायों के सार्वजनिक प्रबंध की व्यवस्था कर सकें । ऐसी दशा में यदि मुआवजा दिया जाए तो कितना, इसके निर्णय का अधिकार भी केवल विधायी प्राधिकारी को हो ।

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