नई सदी में भारत – चीन संबंध पर निबंध | Essay on Indo-China Relationship in Hindi!

आज भारत और चीन, जो कि विश्व की जनसख्या के एक-तिहाई भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं, की तुलना करने का एक चलन सा बन गया है । इन दो एशियाई महाशक्तियों के बीच अनसुलझा सीमा-विवाद परस्पर शत्रुता का मूल है ।

दोनों ही एक-दूसरे के रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी हैं, क्योंकि राजनीतिक सोच के टकराव और रणनीतिक उद्देश्यों के चलते दोनों ही एक-दूसरे पर संदेह करते हैं । हाल ही में दक्षिणी चीन सागर में बढ़ती रुचि पर चीन के एतराज एवं दलाई लामा के मुद्‌दे पर भारत के कठोर रवैये के कारण दोनों देशों के संबंधों में एक बार फिर से कड़वाहट दिखने लगी है ।

हालांकि नई दिल्ली और बीजिंग दोनों ही ने शांतिपूर्ण कूटनीतिक माहौल तैयार कर और उसे बरकरार रखने की पहल की है । इसी पर इन दोनों का आर्थिक उदारीकरण और सुरक्षा निर्भर करती है । यद्यपि दोनों देशों को बांटने वाले मुद्दों को सुलझाने की दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है । द्विपक्षीय संबंधों को मुख्यत: तीन मसले प्रभावित करते हैं-सीमा विवाद, तिबत और व्यापार ।

इनमें से दो मसले जस के तस हैं, लेकिन तीसरा, चीन के पक्ष में सर्वाधिक फल-फूल रहा है । वर्ष 2000 के 23 बिलियन डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार में 20 गुना से ज्यादा की वृद्धि हुई है । आज दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 40 बिलियन डॉलर के कडे को पार कर गया है ।

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चीन आज भारत से 15 बिलियन डॉलर के व्यापार की बढ़त पर है । इसकी एक प्रमुख वजह शायद चीन के अघोषित अवरोध हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के भारतीय साँपटवेयर और फार्मास्युटिकल्स कंपनियों को रोक रखा है । चीन की बढ़त व्यापार

अमेरिका, यूरोप और भारत के साथ है । शेष विश्व के साथ उसका व्यापार घाटे का ही है । इस लिहाज से यदि चीन का भारत के साथ व्यापार बढ़त भारत-अमेरिका व्यापार से अधिक हो जाता है तो नई दिल्ली और बीजिंग को एक बार फिर राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग करने लगेंगे ।

सामरिक अनुरूपता के अभाव में घोषित शांति और समृद्धि के लिए भारत-चीन की सामरिक और सहयोगात्मक साझेदारी मुद्दा विहीन ही कही जाएगी । गौर करें कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की वर्ष 2010 में की गई चीन यात्रा में विवादास्पद मुद्दों पर कोई सीधी बातचीत नहीं हुई । अलग-अलग कारणों से भारत-चीन ने सार्वजनिक तौर पर परस्पर सहयोग पर ही जोर देना उचित समझा ।

कड़वी सच्चाई तो यही है कि बीजिंग नियंत्रण रेखा को स्पष्ट करने को तैयार नहीं है । ऐसा करने पर भारत पर सैन्य दबाव कम होगा । नतीजतन 27 वर्षों से सीमा को लेकर लगातार चल रहे संवाद के बावजूद विश्व में भारत और चीन केवल ऐसे पडोसी हैं जो परस्पर निर्धारित नियंत्रण रेखा से विभाजित नहीं होते ।

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सच्चाई यह है कि विश्व इतिहास में दो देशों की सबसे लंबी चली वार्ताओं के निष्फल रहने के लिए काफी हद तक चीन जिम्मेदार है क्योंकि उसके द्वारा गलत तरीके से जम्यू-कश्मीर के पाँचवे भाग पर किए गए कब्जे को वह वार्ता का विषय नहीं बनाना चाहता ।

बल्कि वह तवांग घाटी को अपने भू-भाग में शामिल करने के लिए, जो कि सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण गलियारा है, भारत से अपनी सीमाओं के पुन: सीमांकन की माँग कर रहा है । चीन निःसंकोच इस नियम पर चल रहा है कि जो कुछ उसने कब्जा लिया है उस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता पर जिन क्षेत्रों पर उसका दावा है केवल उसी के संबंध में वार्ता की जा सकती है ।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि चीन और भारत के संबंधों में कुछ तनाव दिखाई दिए । इस तरफ ध्यान देना आवश्यक है कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सीमा में चीनी सेना द्वारा घुसपैठ की 500 से अधिक वारदातें हुई हैं । कुछ महीने पहले चीन के एक सैन्य अभियान में भारतीय बकरों को ढहाने की उतेजनापूर्ण कार्यवाही की गई । चीन के विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री को एक संदेश भेजकर इस बात को स्पष्ट किया कि बीजिंग सीमा संबंधी किसी व्यवस्था से इस क्षेत्र के निवासियों को परेशान नहीं होने संबंधी सहमति से बंधा नहीं है ।

बीजिंग के इस अड़ियल रवैये के पीछे मुख्यत: दो कारण नजर आते हैं । पहला, आर्थिक और सैन्य ताकत के तौर पर उभार ने बीजिंग को आक्रामक विदेश नीति अपनाने को प्रेरित किया है । दूसरे, तिब्बत में ढाँचागत सुविधाओं के विस्तार के साथ ही चीन ने भारत के खिलाफ तेजी से सेना की तैनाती की क्षमता हासिल कर ली है ।

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यहाँ तक कि तेजी से बड़े द्विपक्षीय व्यापार में भी एक समानता देखने में आई है । बीजिंग मुख्यत: लौह अयस्क और अन्य कच्चा माल भारत से ले रहा है और बदले में औद्योगिक उत्पाद भारत को बेच रहा है और बढ़त व्यापार की अच्छी फसल काट रहा है । इसके बदले में भारत अधिक-से-अधिक चीनी उत्पादों का आयात कर रहा है । यही तक कि स्टील ट्‌यूब और पाइप के क्रम में वह चीन पर एक तरह से निर्भर हो कर रह गया है ।

मिसाल के तौर पर चीन के पास लौह अयस्कों का प्रचुर भडार है जो भारत से काफी ज्यादा है बावजूद इसके वह दुनिया में लोहे का सबसे बडा आयातक है, जो वैश्विक आयात का एक-तिहाई ठहरता है । चीन के लौह-अयस्क के आयात का एक-चौथाई भाग तो सिर्फ भारत से ही आता है, जिसमें से यह निर्मित टयूब्स और पाइप्स बनाकर बेचता है ।

आज जबकि दोनों उभरती महाशक्तियां अपनी उच्च जीडीपी विकास दर पर मुद्रित हैं, उनके उत्थान का आधार अलग है । मसलन भारत के आयुध क्षमता की रेंज उपमहाद्वीप तक ही सीमित है जबकि चीन की क्षमता अंतरमहाद्वीपीय है । यहाँ तक कि जब चीन गरीब और पिछडा हुआ था, तब भी इसने राष्ट्रीय ताकत बढाने पर सबसे ज्यादा जोर दिया ।

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इसके उलट नई दिल्ली अभी तक अपनी आईसीबीएम को विकसित करने का कार्यक्रम शुरू नहीं कर सकता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के तहत अपनी ताकत और क्षमता दर्शाने के लिहाज से ये बैलेस्टिक मिसाइलें महत्वपूर्ण प्रतीक है ।

वैश्विक ताकत बनने के अपनी महत्त्वाकाक्षा को सबल देने के लिए भारत को ऐसी सैन्य क्षमता विकसित करने की जरूरत है जिसका प्रभाव अपने क्षेत्र से बाहर तक हो । हालांकि इसकी नौसेना पहले ही दूर-दूर तक अपनी छाप छोड चुकी है । हमारे देश पर चीन तीन अलग-अलग रास्तों के जरिए सामरिक दबाव बढा रहा है । यह देखते हुए कि चीन समझौते के लिहाज से क्षेत्र में यथास्थिति बरकरार रखने का इच्छुक नहीं है, भारत को ज्यादा यथार्थवादी, नवीनीकृत और कारगर सोच अपनानी होगी|

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