नयी सदी की रणभूमि: अफ्रीका पर निबंध | Essay on Africa: New Generations Battle Field in Hindi!

अफ्रीका में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव से अमेरिका को एक और चिंता ने घेर लिया है । इराक, ईरान और उत्तरी कोरिया के बारे में तो अमेरिकी शासक खुलकर बात करते आये है, किंतु चीन से मुचैटा लेने के मामले में वे भारी सावधानी बरतते हैं ।

आखिर वे चीन के भारी कर्जदार तो हैं ही और शायद ये भुलाना भी आसान नहीं है कि किस प्रकार दशकों तक चीन से शत्रुता रखने के बाद उन्हें शीतयुद्ध जीतने के लिए पाकिस्तान की मध्यस्थता के माध्यम से, चीन की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाना पड़ा था ।

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चीन जैसी बड़ी ताकत से अपने रिश्तों में विश्व की सोल-सुपरपावर भी वो रुख नहीं अपना सकती, जो वह इराक जैसे बरसों से पिटे-पिटाए देश के साथ अपना सका था, यह बात समझना कठिन नहीं है । लेकिन फिर भी अगर खतरा बढने लगे, प्रतिस्पर्धा से कतराना संभव न रहे और दक्षिणपंथियों का दबाव बढ़ता चला जाये तो आखिर कब तक उन्हीं की पार्टी का राष्ट्रपति हाथों पर हाथ रखकर बैठा रह सकता है? इसीलिए तमाम उलझनों के बावजूद भी पूर्व राष्ट्रपति बुश को चीन की चुनौती की ओर ध्यान देने के लिए विवश होना पड़ा ।

चीन की चुनौती की ओर ध्यान दिलाने में लगभग वे सभी संस्थाएं जुटी हुई थीं, जिनका उद्देश्य है अमेरिका का समूचे संसार पर दबदबा बनाकर रखना । इस साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति की राह में वे ‘इस्लामी फासिस्टों’ के बाद चीन को ही खड़ा हुआ देखते हैं । इस विचारधारा को आगे बढ़ाने में अनेकों ‘थिंक टैंक’ पूरी तल्लीनता से जुटे हुए हैं । दक्षिणपंथी थिंक टैंकों में एक प्रमुख संस्था है- ‘हैरिटेज फाउंडेशन’ ।

कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अखबार में चीन के अफ्रीका में तेजी से बढ़ते हुए प्रभाव को रेखांकित करते हुए उसने इस बात पर जोर दिया कि चीन अपनी तेजी से बढती हुई अर्थव्यवस्था के लिए अफ्रीकी राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है और ऐसा करने में वह अफ्रीकी तानाशाहों को बढ़ावा देने के साथ मानव अधिकारों के हनन की तनिक भी परवाह नहीं कर रहा है ।

सूडान, जहां बिन लादेन ने भी कुछ समय के लिए अपना अड़डा जमाया था और जहां डारफूर क्षेत्र में भीषण नरसंहार हो रहा है, उसके साथ भी चीन ने घनिष्ठ संबंध स्थापित किये है । हैरिटेज फाउंडेशन की खबर के अनुसार चीन अपने खनिज तेल आयात का 7 प्रतिशत सूडान से ले रहा है और उसने वहां तीन सौ करोड़ डॉलर का निवेश भी किया है ।

अंगोला, नाइजीरिया, अल्जीरिया, गबोन, जिम्बाब्वे आदि देशों के साथ भी चीन के सबध घनिष्ठ होते जा रहे हैं । वहां भी वह खुले हाथों से निवेश करके और आर्थिक, तकनीकी व सामरिक सहायता देकर अपनी पकड दिनोंदिन मजबूत करता जा रहा है ।

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हालांकि अमेरिका का अपना रिकॉर्ड तानाशाहों से गठजोड़ करने में विश्व भर में अद्वितीय रहा है, पर हैरिटेज के विचार में चीन का उनसे सबध बनाना व जनता पर अत्याचार करने की अनदेखी करना एक ऐसा पाप है, जिससे उसे निजात दिलाना अमेरिका को अपनी ज़िम्मेदारी समझना चाहिए ।

अमेरिकी सरकार के विभिन्न संबंधित विभाग भी, विशेषकर विदेशी मामलों, व्यापार और प्रतिरक्षा से जुड़े विभाग चीन की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखते हैं और उसकी स्पर्धा व चुनौती का सामना करने की नीति निर्धारण एवं कार्यान्वयन के लिए सतत् प्रयासरत रहते हैं । इन सभी प्रयासों का प्रमुख फल अभी हाल ही में विश्व के सामने आया है और वह है अमेरिकी सेना का एक नया कमाड केवल अफ्रीका के लिए स्थापित किया जाना ।

अब तक अमेरिका ने समूचे संसार को अपने पांच कमांडों में बांटा हुआ था । अफ्रीकोम छठा कमांड है, जिसमें यूरोपीयन कमांड से मिस्र को छोड़कर, लगभग संपूर्ण अफ्रीका, केंद्रीय कमांड से हार्न ऑफ अफ्रीका व सूडान और पैसिफिक कमांड से मैडागास्कर व मारिशस के द्वीप-समूह स्थानांतरित किये जा रहे हैं । इसके पूरी तरह से क्रियान्वित होने की तिथि 30 सितंबर, 2008 निर्धारित की गयी थी जिसे अब आगे बढा दिया गया है । अफ्रीकोम की स्थापना को अफ्रीकी महाद्वीप में संशय व चिंता की नजर से देखा जा रहा है ।

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महाद्वीप के सबसे बड़े व प्रतिभाशाली देश, दक्षिणी अफ्रीका में इस निर्णय का विरोध किया गया है व इसे अफ्रीका में सैन्यकरण किये जाने की पहल के रूप में देखा गया है । अलजीरिया, लीबिया, मोरक्को आदि में भी इसे एक खतरनाक शुरूआत ही समझा जा रहा है ।

अफ्रीका को शांति, सहयोग व विकास चाहिए न कि अस्त्र-शस्त्र और सैनिक- ये ही सोच वहां की जनता के मन में घर किये बैठी है और जब अमेरिकी हुक्मरान अफ्रीकोम को सहयोग व विकास के साधन के रूप में प्रस्तुत करते हैं तब तो और भी गहरे संशय खड़े हो उठते हैं ।

न जाने क्यों अमेरिका बाह्य संसार से रिश्तों में अपनी फौजों को इतना प्रमुख स्थान देता है । सामरिक शक्ति का इतना खुला प्रदर्शन करना किस हद तक अमेरिका के हितों को आगे बढ़ाता है, यह निस्संदेह विवाद का विषय तो है ही किंतु अफ्रीका जैसे पिछड़े महाद्वीप के संदर्भ में तो यह सवाल और भी सार्थक हो जाता है ।

इस सारे प्रकरण में भारत के हितों का मुद्दा भी एक विशेष स्थान रखता है, क्योंकि चीन के साथ-साथ, उससे कुछ कदम पीछे, भारत की भी अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए अफ्रीका से खनिज तेल व अन्य अनेकों संसाधन उपलब्ध करते रहना अनिवार्य आवश्यकता है ।

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उन क्षेत्रों में शांति बनी रहे, उन देशों में भरपूर निवेश हो, संघर्षों को काबू में लाया व रखा जाये, आदि ऐसी प्राथमिकताएं हैं, जो सभी के लिए सर्वोपरि महत्त्व रखती हैं । शांतिपूर्ण, व्यापारिक आधार पर टिकी, स्पर्धा ही इस महाद्वीप के देशों एवं उसके विकास के साझीदारों की आधारभूत आवश्यकता है न कि शस्त्रों की होड़ ।

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