न्यायिक व्यवस्था में सुधार हेतु सकारात्मक पहल पर निबन्ध।

इतने अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी न्याय की बाट जोहने वालों की आशाओं पर पानी फिर गया है । अभियोजन पक्ष (पुलिस या सरकार) तथा बचाव पक्ष (अधिवक्ता) के बीच न्यायपालिका की निष्पक्षता इस मामले में तो दबकर रह ही गई है कि न्याय में देर होती है ।

भारत में न्यायिक प्रणाली के उसी स्वरूप को अपनाया गया जो अंग्रेजों से विरासत में मिला था । आज भी विद्यमान शताब्दियों पूर्व कानूनी प्रक्रिया पर विचार नही किया गया कि देशकाल, परिस्थितियों के अनुसार कानून को भी परिष्कृत करने की आवश्यकता पड़ती है ।

इस दिशा में एक सकारात्मक पहल न्यामूर्ति वीएस, मलिमथ की अध्यक्षता में आपराधिक न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली पर गठित समिति की सिफारिशो से पता चलता है । इस समिति ने कुल 158 सिफारिशें की हैं, जिनका लक्ष्य आपराधिक मामलों के न्यायिक निपटान को आधुनिक संवेदनशील तथा व्यावहारिक बनाना है ।

इनमें से कुछ प्रमुख सिफारिशें निम्न हैं:

1. न्याय-व्यवस्था का लक्ष्य किसी अभियुक्त पर शासन द्वारा लगाए गए आरोपों की जाँच करना और उसके दोषी या निर्दोष होने पर विचार करना नहीं, बल्कि सत्य का अन्वेषण करना होना चाहिए ।

2. सत्य की खोज के लिए अदालतों, पुलिस और अभियोजन पक्ष को गत्यात्मक एवं स्वयं-सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए अर्थात न्यायालय को सिर्फ दोनों पक्ष के अधिवक्ताओं की बहररो पर ही विचार नहीं करना चाहिए, बल्कि अपराध की तह तक जाने के लिए अभियुक्तो तथा गवाहों से प्रश्न पूछे जाने चाहिए अभी तक अभियुक्त को सजा देने की शर्त यह है कि यह बुद्धिसंगत संदेह से परे सिद्ध होना चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है ।

3. सजा देने की शर्त स्पष्ट और ‘कायल करने वाला प्रमाण’ होनी चाहिए ।

4. महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों से जुडे मामलों को जमानती अपराध की श्रेणी मे रखा जाए । समिति का मानना हे कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-अ के तहत महिला के विरुद्ध उसके पति या परिवारीजनों द्वारा किए गए अत्याचारो एवं उत्पीड़न से जुडे अपराध चूँकि गैर-जमानती अपराधो की श्रेणी में आते है । इसलिए इन मामलो का निपटारा सौहार्दपूर्ण तरीके से नहीं हो पाता ।

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5. गवाहों के ठहरने, बैठने, शौचालय व खान-पान की समुचित व्यवस्था की जाए ।

उन्हें गवाही के लिए लाए जाने पर यात्रा व्यय एवं भत्ते का भुगतान शीघ्र कराया जाए तथा गम्भीर प्रकृति के अपराधों में अभियुक्तों से उनकी जान-माल की रक्षा की व्यवस्था की जाए ।

6. संगठित अपराधों एवं आतंकवाद से निपटने हेतु सारे देश के लिए एक जैसा कानून बनाया जाए ।

7. अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों से निपटने हेतु वर्तमान कानूनों में संशोधन करके उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के समझौतों के अनुरुप किया जाए ।

8. अपराधों की जाँच पड़ताल पर जाँच एजेंसियों पर पड़ने वाले दबावों को निष्प्रभावी करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग तथा राज्यों में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए ।

9. तेजी से बदले आर्थिक अपराधों पर नियन्त्रण हेतु आर्थिक अपराधों से सम्बन्धित कानूनों मे समयानुकूल संशोधन किए जाएं तथा यू.के. और आयरलैण्ड की तरह कठोर कानून बनाए जाएं ।

10. सभी राज्यों में सम्पदा बरामदगी अभिकरण का गठन किया जाए और बोहरा समिति द्वारा सुझाए गए इस अभिकरण को सांविधिक शक्तियाँ प्रदान करते हुए राष्ट्रीय प्राधिकरण का दर्जा प्रदान किया जाए ।

11. सम्पदा बरामदगी अभिकरण को संदिग्ध अभियुक्तों के खातों को सील करने, सम्पत्ति को कुर्क करने का भी अधिकार होना चाहिए ।

12. किसी व्यक्ति ने अपराध किया है या नहीं यह सिद्ध करने का दायित्व अब तक अभियोजन पक्ष पर रहा है । इसी व्यवस्था ने अभियुक्तों को चुप रहने का अधिकार प्रदान किया है ।

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यह उस ब्रिटिश मॉडल पर आधारित है जिसमे यह माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष है । जब तक कि सभी यथोचित संदेहों से परे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि वह दोषी हे और व्यक्ति को दोष सिद्ध करने का दायित्व स्पष्टत: अभियोजन पक्ष पर है ।

समिति का मानना है कि “संभावनाओं की प्रबलता” (Preponderence of probabilities) का मानक तथा ‘यथोचित संदेहों के परे’ (Beyond reasonabel doubt) की भावना के चलते हजारों क्रूरतम अपराधियों को सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त करार दिया जाता रहा है ।

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इस बारे में मलिमथ समिति का सुझाव है कि कोई अभियुक्त अपराधी है या नहीं यह सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पक्ष पर नहीं होना चाहिए । बल्कि यह दायित्व तो अभियुक्त पर होना चाहिए कि वह सिद्ध करे कि उसने अपराध नहीं किया है ।

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13. मामले की न्यायालय में सुनवाई के दौरान अभियुक्त को प्राप्त चुप रहने का अधिकार छीन लिया जाना चाहिए । यह अधिकार न्यायशास्त्र तथा भारतीय संविधान के उस मौलिक अधिकार का समपार्श्विक है जिसके तहत् किसी व्यक्ति को अपने गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता ।

इसका अर्थ यह है कि न्यायालय अभियोजन पक्ष या पीठासीन न्यायाधीश द्वारा पूछे गए किसी प्रश्न का उत्तर देने को अभियुक्त द्वारा मना कर दिए जाने पर न्यायालय कोई प्रतिकूल विचार नहीं बना सकता अर्थाथ यह व्यवस्था अभियुक्त के खिलाफ नहीं जा सकती भले यह तय क्यों न हो कि अभियुक्त जान-बूझकर ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने को अभियुक्त द्वारा मना कर दिए जाने पर न्यायालय कोई प्रतिकूल विचार नहीं बना सकता अर्थात् यह व्यवस्थ अभियुक्त के खिलाफ नहीं जा सकती भले यह तय क्यों न हो कि अभियुक्त जान-बूझकर ऐसे प्रश्नों का उत्तर न दे रहा हो जो उसे दोष सिद्ध होने तक ले जा सकते हों, अभी तक न्यायालयों को ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं है जो अभियुक्त को विवाद से सम्बन्धित महत्युपर्ण प्रश्नों का जवाब देने के लिए बाध्य किया जा सके । मलिमथ समिति के अनुसार अभियुक्तों को प्राप्त यह संरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिए ।

14. समिति का यह भी सुझाव है कि न्यायालय को किसी अभियुक्त द्वारा पुलिस अधिकारी /मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए बयान को ही साक्ष्य के तौर पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए । इसके लिए साक्ष्य अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए । बहुत सारे मामले तो न्यायालय में जाकर इसलिए छूट जाते हैं कि अभियुक्त जाँच के दौरान पुलिस अधिकारी को दिए गए अपने बयान से मुकर जाते है या गवाह प्रतिपक्षी (Hostile) हो जाते हैं ।

गुजरात के साम्प्रदायिक दंगो के अनेक मामलों में लोगों को जलाकर मार डालने वृाले अनेक अभियुक्त न्यायालयों से बरी हो रहे हैं, क्योंकि गवाहों ने अपने बयान न्यायालय में बदल दिए हैं । बेस्ट बेकरी काण्ड की एक प्रमुख गवाह द्वारा न्यायालय में अपना बयान बदल दिए जाने से सभी अभियुक्त साफ छूट गए ।

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बाद में इसी गवाह ने आरोप लगाया कि अभियुक्तों द्वारा उसे जान से मार डालने की धमकी दी गई थी । इसलिए वह अपना बयान बदलने के लिए बाध्य हो गई थी । इसी महिला ने माँग की कि इस मामले की सुनवाई दोबारा से गुजरात के बाहर किसी अन्य अदालत में की जानी चाहिए ।

इस प्रकरण को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा गम्भीरता से लिए जाने तथा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर किए जाने पर सर्वोच्च न्ययालय ने मामले की सुनवाई फिर से कराए जाने की माँग इस आधार पर खारिज कर दी है कि ऐसा किए जाने से सम्पूर्ण गुजरात राज्य की न्यायिक व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास उठ जाएगा ।

15. सर्वोच्च आपराधिक खुफिया ब्यूरो का गठन किया जाए जो अपराधों के बारे में जानकारियाँ हासिल करके उनका तुलनात्मक अध्ययन करे ।

16. न्यायालयों में लम्बित आपराधिक मामलों के निपटारे हेतु विशषहा जजों से युक्त सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में स्थायी आपराधिक पीठें गठित की जाएं ।

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17. स्त्रियों तथा बच्चों के प्रति सहृदयता का परिचय देते हुए समिति का सुझाव है कि सात वर्ष से कम आयु के बच्चे की माँ या गर्भवती स्त्री को जेल में नहीं भेजना चाहिए । ऐसी दोष सिद्ध स्त्रियों को घर में ही कैद कर दिया जाना चाहिए ।

18. बलात्कारी को मृत्युदण्ड न देकर आजीवन कारावास की सजा दी जानी चाहिए ।

19. अन्तर्राज्यीय अपराधों तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव पैदा करने वाले अपराधों को केन्द्रीय सूची में रखा जाना चाहिए तथा एक संघीय पुलिस की व्यवस्था की जाए । भारत में कानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है इसका लाभ ऐसे अपराधियों को मिल रहा है जो एक से अधिक राज्यों में सक्रिय हैं ।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मलिमथ समिति की ये सिफारिशें न्यायिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती हैं । बशर्ते कि इन्हें सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाए और सर्वोच्च न्यायालय इन पर अपने अनुमोदन की मुहर लगा दे । इसमें किसी को भी सन्देह नही है कि भारत की न्याय व्यवस्था की न्यायिक प्रक्रिया इस सीमा तक अत्यधिक लम्बी, उबाऊ, दुरूह और खर्चीली हो गई है कि आम आदमी न्याय पाने से वंचित होता जा रहा है ।

धन, बल एवं बाहुबल के सहारे शातिर-से-शातिर अपराधी न्यायालयों से साफ बरी हो रहे हैं, या जमानत पर छूटकर न्यायिक प्रक्रिया को लम्बा कराकर जारी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं, न्यायिउक प्रक्रिया की इससे बड़ी कमजोरी और क्या हो सकती है कि आज अनेक अपराधों में अभियुक्त व्यक्ति लोक सभा एवं विधान सभाओं के न केवल माननीय सदस्य हैं, बल्कि कुछ तो मंत्री पद पाकर पुलिस के संरक्षण में शासन प्रक्रिया का अंग बन गए हैं, तर्क कितना कमजोर है कि न्यायालय ने उन्हें अभी तक सजा नहीं सुनाई हे । दूसरी ओर निर्धन और कमजोर है, जो सालों दर साल चलने वाली सुनवाई के दौरान सजा काट रहे हैं ।

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