परोपकार | Essay on Benevolence in Hindi!

”अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।

अठारह पुराणों में महर्षि व्यास के उपदेशों का सार यही है कि परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है और दूसरे को सताने से पाप लगता है । ‘परोपकार’ दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘पर’ और ‘उपकार’ अर्थात्- ‘दूसरों की भलाई करना’ ।

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परोपकार मनुष्य का कर्तव्य है । परोपकारी व्यक्ति समाज की उन्नति में सहायक होता है । जिस समाज में ऐसे व्यक्तियों की बहुलता रहती है, वह समाज दुःख-दाद्धिय के दलदल से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । परोपकार एक उच्च कोटि की भावना है । इसकी उत्पत्ति करुणा और प्रेम से होती है ।

जिस मनुष्य का हृदय जितना विशाल होता है, वह उतना ही दूसरों से अपना संबंध स्थापित कर सकता हें । वस्तुत: परोपकार मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा गुण है । अपने लिए तो कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी भी जी लेते हैं, कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं; किंतु वही मनुष्य ‘मनुष्य’ है, जो दूसरों के लिए जीता है । मैथिलीशरण गुप्तजी ने लिखा है:

”वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”

ईश्वर की सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो परोपकार कर सकता है । यदि वह भी इस गुण को त्याग दे तो संसार का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा, उन्नति अथवा विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा । परोपकारी मनुष्य स्वार्थ के संकुचित घेरे में नहीं घिरता । वह कभी दूसरों को दुःख नहीं देता । उसका तन, मन, धन सदा दूसरों के हित में लगा रहता है । दान करने में वह हिचकिचाता नहीं, क्योंकि दान भी परोपकार का एक अंग है ।

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कंगालों को धन, नंगे-भूखों को वस्त्र और भोजन, निर्बलों को बल और निराश को आशा देना परोपकार है । दुःखी और याचकों की आवश्यकता की पूर्ति से मन को सुख और शांति मिलती है । हमारे देश में आज भी यात्रियों के लिए धर्मशालाएँ, भक्तों के लिए मंदिर, पढ़ाई के लिए विद्यालय, रोगियों के लिए चिकित्सालय आदि बनवाना पुण्य का कार्य समझा जाता है । मानव की सेवा ईश्वर की सेवा है । दीनों की सेवा करने से ही दीनबंधु खुश होते हैं ।

मैथिलीशरण गुप्तजी ने इसीलिए लिखा है:

”मरा वही नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए ।”

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संकट के समय किसी की सहायता करना, भूखों को भोजन देना, प्यासे को जल पिलाना, रोगी का रोग दूर करना आदि ऐसे कार्य हैं, जिन्हें मनुष्य को मनुष्यता के नाते अपना परम कर्तव्य समझकर करना चाहिए । ऐसा कौन सा धर्म है, जिसमें परोपकार का पाठ न पढ़ाया गया हो ।

कहना न होगा कि परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है । जो परोपकार करता है, समझो वह सारे पुण्य कर्म करता है । बड़े-से-बड़े धार्मिक अनुष्ठान की बराबरी परोपकार से नहीं की जा सकती । परोपकारी के मन में स्वार्थ-भावना नहीं होनी चाहिए । परोपकारी के मन में स्वार्थ-भावना नहीं होनी चाहिए ।

परोपकार तन-मन-धन-किसी भी रूप में किया जा सकता है, कहीं भी किया जा सकता है और कभी भी किया जा सकता है । परोपकार से जो खुशी मिलती है उसकी बराबरी किसी दूसरी खुशी से नहीं की जा सकती ।

परोपकार को सर्वोपरि मानते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है:

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”परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।”

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