पश्चिमी बुद्धिजीवियों की सीमाएं पर निबंध | Essay on Limitations of Western Intellectuals in Hindi!

नोम चोमस्की ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘हेजीमनी और सरवाइवल’ के अंत में विश्व वर्चस्व के लिए अमेरिकी नीतियों की समीक्षा करने के बाद जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण आशा का संदेश दिया है, वह उनकी अन्य पुस्तक ‘फॉर रीजन ऑफ स्टेट’ का भी संदेश हो सकता है, क्योंकि इस पुस्तक में भी उन्होंने अमेरिकी नीतियों की निर्मम समीक्षा की है और दोनों पुस्तकों को एक क्रम में पढ़ा जा सकता है ।

महत्त्वपूर्ण आशाजनक संदेश इस प्रकार है:

‘वर्तमान इतिहास में दो प्रवृत्तियां दिखाई देती है । एक प्रवृति की दिशा वर्चस्व (हेजीमनी) की ओर है जो मानव-अस्तित्व (सरवाइवल) के लिए खतरा बन कर पागलपन के सैद्धांतिक चौखटे में तर्कपूर्ण ढंग से काम कर रही है । दूसरी प्रवृत्ति इस विश्वास को समर्पित है कि “एक नयी दुनिया संभव है’, जिन शब्दों से विश्व सामाजिक मंच प्रेरित है, जो शासक विचारात्मक प्रणालियों को चुनौती दे रहा है और जो विचार, कर्म और संस्थाओं का नया सृजनात्मक विकल्प बनाना चाहता है । इनमें कौन-सी प्रवृति जीतेगी, कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है । यह प्रक्रिया समूचे इतिहास में दिखाई देती है पर इस समय महत्त्वपूर्ण अंतर यह है ।”

चोमस्की का कहना है कि अस्सी के दशक में मुख्यधारा के अमेरिका, खासकर मध्य अमेरिका से संबंधित जो मानव एकता आंदोलन चले उन्होंने साम्राज्यवाद के इतिहास में नयी जमीन तोड़ी । इससे पहले कभी भी शासक समाज के लोग बड़ी संख्या में दुष्टतापूर्ण हमले के शिकार लोगों के साथ रहने और उन्हें कुछ मात्रा में सुरक्षा प्रदान करने नहीं गये थे ।

वैसे आम जनता में मानव अधिकारों की यह जागरूकता 1960 के दशक में तेज हुई थी और कई क्षेत्रों में जन-सक्रियता ने अपना सभ्यताकारी प्रभाव डाला । इससे अल्पसंख्यक समूहों, स्त्रियों, भावी पीढ़ियों के अधिकारों के आंदोलन और फिर पर्यावरण सुरक्षा के आंदोलन विकसित हुए थे ।

अमेरिका के इतिहास में पहली बार ऐसे क्षण आए जब कुछ लोग ईमानदारी के साथ साम्राज्यवादी हमलों और लूट की शिकार जनता की स्थिति पर चिंता प्रकट करने लगे । अंतर्राष्ट्रीय मानव एकता आंदोलन जो इस पृष्ठभूमि में विकसित हुआ, वह अब कई देशों में काफी मजबूत बन गया है, आततायी राज्यों के प्रति भय और क्रोध का उकसा रहा है और कभी-कभी आंदोलनकारियों को गंभीर खतरों, यहां तक कि मृत्यु के खतरे का सामना करने के लिए भी प्रेरित कर रहा है । विश्व सामाजिक मंच वैश्विक न्याय के आंदोलन का ही रूप है जो इस धरती की ‘दूसरी महाशक्ति’ के रूप में अनोखी परिघटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।

नोम चोमस्की के ये विचार उन अनेक पश्चिमी बुद्धिजीवियों के विचारों को भी प्रतिबिंबित करते हैं जिन्हें विश्व वर्चस्व और भूमंडलीकरण की अमेरिकी नीतियों और अपनी सभ्यता (वर्तमान पश्चिमी सभ्यता) की कमजोरियों का बोध हुआ है और जो वर्तमान व्यवस्था के विकल्प की तलाश में अंधेरे में रास्ता टटोल रहे है ।

कुल मिला कर इनकी खोज, जो इनके अनुसार साठ के दशक में (संभवत: प्रसिद्ध छात्र आंदोलनों से) शुरू हुई (जबकि इसकी खोज दूसरे विश्व युद्ध के तुरंत बाद से शुरू हो गयी थी), लगभग पांच दशकों के बाद विश्व सामाजिक मंच के रूप में परवान चढ़ती नजर आ रही है । लेकिन विश्व सामाजिक मंच के आंदोलन का पिछले पांच वर्षो में कोई ठोस कार्यक्रम सामने नहीं आया है । कुछ विशाल प्रदर्शनों के बावजूद जो विशाल तमाशों का रूप लेते हैं, इस आदोलन का कोई प्रभाव नहीं दिखाई दिया है ।

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कारण संभवत: यह है कि इस आदोलन का कोई स्वरूप नहीं बन पाया है । यह निराकार और निर्गुण है । इसका न तो कोई संविधान है, न कार्यक्रम और न विधिवत संगठन । इसकी अगुआई करने वाले बुद्धिजीवी उसी व्यवस्था की उपज है जिसका वे विकल्प खोजना चाहते है ।

वे इस व्यवस्था के भीतर रह कर देख रहे हैं, इससे अलग होकर या तटस्थ होकर इसे नहीं देख पा रहे हैं । वे वर्तमान व्यवस्था की सुविधाओं के अभ्यस्त हो चुके हैं इसलिए इस व्यवस्था को बदलने के बजाय वे इसमें कुछ सुधार करने की ओर ही मुखातिब हैं ।

विकल्प के स्वरूप की कल्पना तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं जो वर्तमान सभ्यता को बाहर से देख सकते हैं । लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि तीसरी दुनिया के अधिकतर बुद्धिजीवी भी वर्तमान व्यवस्था की सुविधाओं के अभ्यस्त हो चुके हैं और उनकी सोच का निर्माण भी इस सभ्यता के प्रभाव में हुआ है । एडवर्ड सईद के शब्दों में कहें तो ये प्राच्यवाद के शिकार हैं और वे उन्हीं खांचों के भीतर रह कर सोच सकते हैं जो पश्चिमी सभ्यता ने गढ़े हैं ।

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इसका अपवाद कुछ इने-गिने चिंतक ही हैं । इनमें गांधी और लोहिया प्रमुख हैं और इन दोनों की सोच को कुछ हद तक किशन पटनायक जैसे बुद्धिजीवियों ने आगे बढ़ाया है । महात्मा गांधी ने तो पिछली सदी के शुरू में ही वर्तमान सभ्यता की विसंगतियों को देख लिया था और अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में इसका विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश की थी । रूडोल्फ द्वय ने अपनी पुस्तक ‘पोस्ट मॉडर्न गांधी ऐंड अदर एसेज’ में इस पुस्तक को प्रथम उत्तर आधुनिक विमर्श कहा है ।

हालांकि पश्चिमी बुद्धिजीवियों द्वारा गढ़ी गयी ‘उत्तर आधुनिक’ और ‘उत्तर औपनिवेशिक’ जैसी संकल्पनाओं का अर्थ आधुनिकता और उपनिवेशवाद के आगे की स्थिति के बजाय उनका विकृत रूप ही है । लोहिया का तो पूरा लेखन और संघर्ष ही वर्तमान पश्चिमी सभ्यता के विकल्प को खोजने का प्रयास है ।

उन्हें 1951 में ही, जब उन्होंने अमेरिका की पहली यात्रा की थी, विश्वास हो चुका था कि पश्चिमी सभ्यता करीब-करीब मर चुकी है और यह पचास साल लाश की तरह घिसकती रह सकती है । यह बात उन्होंने अमेरिकी जनता के सामने एक भाषण में कही थी ।

लोहिया के इस अमेरिकी दौरे का प्रयोजन ही वैकल्पिक व्यवस्था की संभावनाओं की तलाश करना था । वर्ल्ड गवर्मेंट फाउंडेशन के तत्त्वावधान में हुए इस दौरे में लोहिया ने सभी प्रकार के शस्त्रों और हिंसा के साधनों के स्थान पर अहिंसात्मक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के साधनों को अपनाने और मानव जाति की एकता के लिए अंतर्राष्ट्रीय यूथ ब्रिगेड बनाने (जिसके अंतर्गत विकसित देशों के युवजनों को पिछड़े देशों में कुछ समय रह कर काम करने की व्यवस्था थी) के सुझाव दिए थे ।

उनका मानना था कि विकसित देश अपने उपनिवेशों के शोषण से विकसित हुए है इसलिए उन्हें प्रायश्चित के रूप में अविकसित देशों को पूंजी और टेक्नोलॉजी के रूप में सहयोग देकर उनका विकास करना चाहिए । उन्होंने विदेशी ‘आर्थिक सहायता’ के प्रति घोर अरुचि प्रकट की थी, उनके मतानुसार यह सहायता तो विकसित देशों के लिए शोषण के नये दरवाजे खोलती है और अविकसित देशों के नेताओं को भ्रष्ट करती है।

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वयस्क मताधिकार से चुनी गयी विश्व संसद (संयुक्त राष्ट्र के स्थान पर) और विश्व सरकार (सुरक्षा परिषद् के स्थान पर) के लिए ठोस कार्यक्रम और संगठन बनाने के संबंध में एक व्यापक विचार-विमर्श उस समय चला था जिसमें उस समय के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता (जैसे आईस्टीन, पर्लबक, सैमबर्जर, वाल्टर रूथर, स्कॉट बुकानन और स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के हेरॉल्ड फिशर आदि) शामिल हुए थे।

डायरी लेखक हैरिस बुफोर्ड स्वयं उच्च कोटि के बुद्धिजीवी थे जो बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार भी रहे । हैरिस लोहिया के ऐसे भक्त थे (लोहिया के ही शब्दों में) कि वे उन्हें ‘सन ऑफ दि बिच’ की गाली भी दे सकते थे और उनके लिए आधा मील चल कर कॉफी का प्याला भी ला सकते थे ।

लोहिया के पांच हफ्ते के दौरे ने (13 जुलाई से 25 अगस्त 1951) अमेरिका में एक नयी हलचल पैदा की थी जिसने अश्वेतों के नागरिक अधिकार आदोलनों की शुराआत की । 1964 के अपने दूसरे दौर में लोहिया ने मिसीसिपी के रेस्तरां में रंगभेद के खिलाफ सत्याग्रह कर गिरफ्तारी भी दी थी जिस पर उनके मित्र अडलई रप्टीवन्सन (जो सयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के राजदूत थे) बहुत चिंतित हुए थे ।

चोमस्की और उनके जैसे अन्य श्रेष्ठ अमेरिकी बुद्धिजीवियों को संभवत: इस इतिहास की जानकारी नहीं है अन्यथा वे मानव जाति की एकता के आंदोलनों की शुराआत अस्सी के दशक या साठ के दशक से नहीं, पचास के दशक से मानते जब यह आंदोलन एक ठोस स्वरूप लेने लगा था । लगता है, पश्चिमी सभ्यता की कूड़ेदान की प्रवृत्ति ने इस इतिहास को भी कूड़ेदान में डाल दिया है ।

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यह देख कर आश्चर्य होता है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों से जुड़े बुद्धिजीवियों द्वारा भारत के संबंध में लिखी गयी पुस्तकों में भी लोहिया का नाम कभी नहीं आता । वैसे अंग्रेजी में शिक्षित और अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय बुद्धिजीवी भी लोहिया का नाम नहीं लेते ।

पिछले साठ सालों में विदेशी विद्वानों द्वारा लिखी गयी या भारत के अंग्रेजी बुद्धिजीवियों द्वारा लिखी गयी जितनी भी पुस्तकें आई उनमें मात्र एक पुस्तक ऐसी मिली जिसमें लोहिया के विचारों को उद्धृत किया गया था । यह पुस्तक है मारिया मिश्र द्वारा लिखी गयी ‘विष्णुज क्राउडिड टैंपल’ । इस पुस्तक में नेहरू की नीतियों को ब्रिटिश राज नीतियों का सातत्य सिद्ध किया गया जो लोहिया की मूल प्रस्थापना रही।

आश्चर्य की बात है कि एडवर्ड सईद की तीन पुस्तकों में भी लोहिया का नाम नहीं मिलता है जबकि सईद को गांधी और लोहिया की परंपरा का लेखक कहा जा सकता है, क्योंकि पश्चिमी देशों द्वारा अपने साम्राज्यवादी स्वार्थो के लिए पूर्वी देशों को भी दी गयी पहचान का विरोध (जो उनकी पुस्तक ‘ओरंटियलिज्म’ का केंद्रीय विचार है) सबसे पहले गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ (1909) में और उनके बाद लोहिया ने (‘इतिहास चक्र’ और अन्य निबंधों में) किया था । लोहिया ने तो ‘इतिहासचक्र’ (वील ऑफ हिस्ट्री) में मार्क्स, टॉयन्बी, स्पेंगलर सहित सभी पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि को यूरोप केंद्रित होने के कारण त्रुटिपूर्ण बताया है ।

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लोहिया का मानना था कि वर्तमान सभ्यता का विकल्प विकसित देशों और अविकसित देशों के बुद्धिजीवियों और जनता के सम्मिलित प्रयास से ही उभर सकता है और इसके लिए दोनों ओर के लोगों के बीच गैर-राजनीतिक स्तर पर विचारों के आदान-प्रदान की स्थितियां बनाई जानी चाहिए । विश्व सामाजिक मंच यह भूमिका निभा सकता है बशर्ते कि इसे ठोस स्वरूप दिया जाये और इसका बाकायदा संविधान, कार्यक्रम और संगठन बने । केवल जलसे-तमाशे करने से बात नहीं बनेगी ।

जहां तक इस आंदोलन के कार्यक्रमों का सवाल है, लोहिया ने सात क्रांतियों के रूप में इसका सुझाव दिया है । यही सात क्रांतियां विश्व सामाजिक मंच का स्वर बन रही हैं, सिर्फ अराजकता जैसी स्थिति में, जब कि इन्हें संविधान के रूप में अपनाने की आवश्यकता है । इसके अलावा अंग्रेजी भाषा के फैलते एकाधिकार को तोड़ने की भी जरूरत है, क्योंकि पूंजी, आंतक और टेक्नोलॉजी की तरह यह भाषा भी वर्चस्व का हथियार बन गयी है ।

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