भक्त सूरदास पर निबंध | Essay on Surdas- The Devotee in Hindi!

विद्वानों के नवीनतम शोध के आधार पर सूरदास का जन्म संवत् १५३५ की वैशाख सुदी पंचमी को माना गया है । उनका जन्मस्थान वल्लभगढ़ का निकटवर्ती सीही ग्राम है । वहाँ के एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण के वे चौथे पुत्र थे ।

उनकी वंश-परंपरा, माता-पिता, कुटुंबीजनों का परिचय नहीं मिलता । सूरदास नेत्रहीन थे, यह निर्विवाद है; किंतु वे जन्मांध थे या वाट में अंधे हुए, यह विवादग्रस्त है । उनके काव्य में दृश्य जगत् का जैसा यथार्थ वर्णन मिलता है वैसा बिना आँखों देखे किसी से संभव नहीं है ।

अत: आजकल के बहुत से विद्वान् उनकी जन्मांधता पर विश्वास नहीं करते । ऐसा ज्ञात होता है कि वे अठारह वर्ष की अवस्था में सन् १५५३ के बाद सीही को छोड़कर मथुरा चले गए । वहाँ उनका मन न रमा और वे गऊघाट पर रहने लगे ।

सन् १५६७ में उनकी भेंट पुष्टि संप्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई । उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सूर ने उनसे दीक्षा ली । सन् १५६८ में तैंतीस वर्ष की अवस्था में श्रीनाथ के मंदिर में कीर्तन आरंभ किया और अपने मृत्युकाल (सन् १६४०) तक स्वरचित पद गा-गाकर नियमित रूप से कीर्तन करते रहे ।

सूर श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त तो थे ही, किंतु उनकी वह भक्ति कृष्ण के प्रति सख्य या सखा भाव की थी । यशोदा के चरित्र में भी सूरदासजी ने मातृ-हृदय का अभूतपूर्व चित्र उपस्थित किया है । उनकी यशोदा वात्सल्य-रस में डूबी हुई हैं- मार्ग देख रही हैं कि अब नंद कृष्ण को लेकर घर आते ही होंगे:

”बार बार मग जीवति माता ।”

सूर ने अपनी कविता का विषय जीवन के बहिर्मुखी क्षेत्र तक विस्तृत न करके वात्सल्य और शृंगार तक ही सीमित रखा । मानवजीवन में बाल्यकाल और यौवनकाल कितने मनोहर तथा स्वप्निल होते हैं । उनके बीच नाना प्रकार की मनोरम परिस्थितियों के विशद चित्रण द्वारा सूरदासजी ने जीवन की रमणीयता का एक आदर्श चित्र उपस्थित किया है ।

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वात्सल्य और श्रुंगार के क्षेत्रों का जितना सूक्षम चित्रण सूर ने अपनी बंद आँखों से किया उतना और किसी नेत्रवाले कवि ने नहीं । इन क्षेत्रों का तो वे कोना-कोना झाँक आए हैं । उनके अनेक पद एक-दूसरे से लताओं व वृक्षों की भाँति गुँथे हुए मिलते हैं । प्रस्तुत पद में हमें माता यशोदा के वात्सल्य और स्नेह का सुंदर दृश्य देखने को मिलता है, जब वे अपनी सुमधुर लोरियाँ गा-गाकर बालक कृष्ण को पालने में सुला रही हैं:

”यशोदा हरि पालने झुलावै । हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै ।।

यशोदा में वात्सल्य, मातृत्व अथवा मोह आदि सभी रूप वर्तमान हैं । गोपियों का कृष्ण को रिझाना, उन्हें देखकर मुग्ध होना- इन सभी प्रवृत्तियों का भी सुंदर चित्रण किया गया है । सूर के संयोग-सुख वर्णन पर आचार्य रामचंद्र शुक्लजी ने अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त किया है- ”सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है ।

प्रेम संगीतमय जीवन की एक चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करनेवाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई देता । राधा-कृष्ण के रंग-रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है ।”

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भक्त शिरोमणि महात्मा सूरदास ने गोस्वामी वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टि-मार्ग से दीक्षित होकर जिस भक्ति-पद्धति का अनुसरण किया, वह वैष्णव संप्रदाय में सख्य कोटि की अनन्य भक्ति कही जाती है । उपासक अपनी अनन्य निष्ठा से भगवान् कृष्ण के पुनीत चरणों में लीन होकर सांसारिक विषय-वासना से मुँह फेर सबकुछ भूल जाता है, तभी अनन्य भाव की भक्ति का श्रीगणेश समझना चाहिए- सूरदास के विषय में कहा जाता है कि प्रारंभ में उन्होंने निर्गुण साधना-पद्धति को स्वीकार कर पद लिखे-

”नैननि निरख श्याम स्वरूप रहौ घट-घट ब्यापि सोई ज्योति रूप अनूप ।।

सूर के वियोग-वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता है उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण । कृष्ण का वियोग केवल गोपियों तक ही सीमित नहीं है अपितु वह ग्वालबालों, नंद और यशोदा के मनोभावों पर भी अपना अधिकार रखता है । ग्वालबाल कृष्ण के सखा

हैं । वे सखाभाव से कृष्ण के विरह का अनुभव करते हैं । यशोदा और नंद माता-पिता हैं । उनके विरह के मूल में वात्सल्य की भावना है । इतना ही नहीं वरन् ब्रज की प्रकृति, पशु-पक्षी, जड़-चैतन-सभी कृष्ण के विरह का अनुभव करते हैं । कृष्ण के वियोग में गायें भी दुःखी है:

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”ऊधौ! इतनी कहियो जाइ । असि कृस गात भई ये तुम बिन परम दुखारी गाइ ।।

कृष्ण के विरह में यमुना की भी दशा विचारणीय है:

”लखियत कालिंदी अति कारी । कहियो पथिक जाइ हरि सों ज्यों भई विरह जुर जारी ।।

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काव्य और रस की दृष्टि से सूरसागर में भ्रमरगीत प्रसंग, व्यंजना, माधुर्य और वियोग के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं । प्रेमी-प्रेमिका के सभी प्रकार के संबंधों का वर्णन इसमें है । गोपियों के सगुण प्रेम की एकांत निष्ठा का बहुत ही अनुपम और मनोवैज्ञानिक चित्रण है । उद्धव द्वारा निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर देने से गोपियाँ कितना स्पष्ट उत्तर देती हैं:

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“ऊधौ ! मन नाहीं दस बीस । एक हुतो सो गयौ श्याम संग को आराधे ईश ।।”

इस प्रकार प्रिय-वियोग का यह वेदनात्मक चित्रण कवि ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा के सहारे अत्यधिक मर्मस्पर्शी और मनोवैज्ञानिक बना दिया है ।

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सूर की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, साथ ही उस समय कई प्रचलित भाषाओं का भी उसमें सम्मिश्रण है । उनकी भाषा में प्रसाद, ओज और माधुर्य की भी प्रधानता है । कहीं-कहीं मुहावरों का भी प्रयोग हुआ है, जिससे भाषा में और अधिक सरलता तथा प्रवाह आ गया है । इनकी भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । इनकी कविता में श्रुंगार और वात्सल्य-रस की प्रधानता है ।

सूर के पदों में अलंकारों की छटा निराली है । अधिकांशत: रूपक, उपमा और उत्पेक्षा अलंकार का विषय प्रयुक्त हुआ है । ‘अद्‌भुत एक अनुपम बाग’ चारा में सांगरूपक का सुंदर चित्रण है । अप्रस्तुत विधानों द्वारा कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति भी की गइ है । श्लेष और यमक का प्रयोग दृष्टकूटों में हुआ है ।

गेय पदावली में सूरदासजी ने अपनी कविता पदो में ही की है । इनका ‘सूरसागर’ एक मुक्तक काव्य है । भाव-प्रवणता और सरसता की दृष्टि से हिंदी साहित्य-जगत् में सूर का स्थान अनन्य है । इसीलिए तो विद्वानों ने कहा है- ‘सूर सूर तुलसी शशि’ ।

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