महिला आरक्षण विधेयक पर निबंध | Essay on Women Reservation Bill in Hindi!

राज्य सभा ने महिला आरक्षण विधेयक को बहुमत से पारित कर दिए जाने के बाद यह उम्मीद जगी है कि इसे शीघ्र ही कानूनी रूप दे दिया जाएगा । इसे भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में मील का पत्थर माना जा रहा है । हालांकि अभी इसे लोकसभा एवं आधे से अधिक राज्यों द्वारा पारित किया जाना बाकी है, फिर भी लोकसभा में बार-बार इस प्रस्ताव के गिर जाने से जो नकारात्मक सोच बनने लगी थी, वह फिर से ऊर्जावान हो गई है ।

इस विधेयक के अनुसार एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी । यह आरक्षण लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में लागू होगा । सीटें रोटेशन के आधार पर आरक्षित की जाएँगी और आरक्षण की यह व्यवस्था न 5 सालों के लिए होगी । इससे विभिन्न क्षेत्र की महिलाओं को प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा ।

दुनिया के कई देशों में महिला आरक्षण की व्यवस्था संविधान में दी गई है या विधेयक के द्वारा यह प्रावधान किया गया है, जबकि कई देशों में राजनीतिक दलों के स्तर पर ही इसे लागू किया गया है । अर्जेटीना में 30 प्रतिशत, अफगानिस्तान में 27 प्रतिशत, पाकिस्तान में 30 प्रतिशत एवं बांग्लादेश में 10 प्रतिशत आरक्षण कानून बनाकर महिलाओं को प्रदान किया गया है, जबकि राजनीतिक दलों के द्वारा महिलाओं को आरक्षण देने वाले देशों में डेनमार्क (34 प्रतिशत), नार्वे (38 प्रतिशत), स्वीडन (40 प्रतिशत), फिनलैंड (34 प्रतिशत) तथा आइसलैंड (25 प्रतिशत) आदि उल्लेखनीय हैं ।

यह भी विचारणीय है कि आरक्षण से किस स्तर तक क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा । सरकारी नौकरियों में दिए गए आरक्षण के कारण निस्संदेह एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया, जो बिना आरक्षण शायद संभव नहीं हो पाता । समाज के सबसे निचले समुदाय का व्यक्ति बड़े पदों पर आसीन हो गया । परतु यह भी उतना ही सही है कि आज दलितों में भी एक अभिजात्य वर्ग पैदा हो गया है ।

आरक्षण का लाभ उठाकर उसी वर्ग को इसका लाभ लगातार पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता जा रहा है, जबकि दूसरे लोग विकास के निचले पायदान पर ही पड़े हुए हैं । इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि महिला आरक्षण का भी यही हश्र न हो जाए । महिलाओं में भी अपने अधिकारों के प्रति जागति लानी होगी । शहरों में तो महिलाएँ कमोवेश अपने अधिकारों के प्रति जागृत हैं परन्तु गांवों में यह काम व्यापक स्तर पर करना होगा । शिक्षा और जन-जागरूकता द्वारा ही ऐसा संभव है ।

निस्संदेह यह बदलाव जनजीवन के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करेगा । ऐसे में महिला आरक्षण विधेयक का महत्त्व और बढ़ जाता है । यदि वह अमल में आया, तो महिला सशक्तीकरण की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध होगा । ऐसे में सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि इस विधेयक को लोकसभा में पारित कराकर महिलाओं के पक्ष में एक सकारात्मक संदेश भेजे ।

महिला आरक्षण विधेयक के समर्थकों का मानना है कि इससे महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा मिलेगा । जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी । समावेशी लोकतंत्र में राजनैतिक सत्ता किसी भी तरह के भेदभाव को मिटाने का सबसे प्रभावी हथियार है । संसद और राजनीतिक दल पुरुष सत्ता का केंद्र नहीं रहेगी । लिंग-जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव घटेंगे ।

पंचायत एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए किए गए 33 प्रतिशत (कई स्थानों पर 50 प्रतिशत तक) आरक्षण के परिणाम बताते हैं कि महिलाओं ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला और ब्लॉक स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी क्षेत्रों में उत्थान के लिए प्रभावी काम किया है ।

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यह कहना गलत है कि कुछ प्रमुख वर्ग की महिलाओं को ही लाभ मिलेगा । उत्तर प्रदेश में विधानसभा में भागीदारी कर रही 23 प्रतिशत महिलाओं में 65 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्ग से हैं ।

इसी तरह बिहार की 243 सीटों में से 24 पर विजयी महिलाओं में 70.8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और पिछड़े एवं अल्पसंख्यक वर्ग से हैं । हैदराबाद विधानसभा में आरक्षित सीटों के कारण कई मुस्लिम महिलाएं आगे आईं है । संसद और विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी भारतीय राजनीति के चेहरे और संस्कृति को बदलेगी ।

भारतीय राजनीति अधिक संवेदनशील होगी । राजनीति से अपराधीकरण कम होगा । रोटेशन पद्धति के कारण कोई एक सीट हमेशा के लिए केवल एक परिवार तक सीमित नहीं रहेगी । लोकतंत्र को इससे स्थिरता मिलेगी और अधिक से अधिक लोग जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आएंगे । स्त्रियों में नेतृत्व क्षमता का विकास होगा । वे सामाजिक कुरीतियों के रूप में विद्यमान भूण हत्या, कम लिंग अनुपात दर, कार्य स्थल पर श्रम दरों में भेदभाव और यौन शोषण आदि मुद्‌दों पर अधिक प्राथमिकता से काम करेंगी ।

अनुभव बताते है कि आधुनिक और सशक्त महिलाओं ने अर्थव्यवस्था, संस्कृति, समाज, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में लाभदायक प्रभाव डाला है । यह कहना गलत है कि राजनीतिक परिवारों की बीवी, बेटी और बहू ब्रिगेड आगे आएगी और इससे परिवारवाद को प्रश्रय मिलेगा । प्रॉक्सी पॉलिटिक्स की बात पुराष प्रधान मानसिकता की देन है । आरक्षण बिल इसलिए आवश्यक है कि महिलाओं की समान भागीदारी का सपना जमीनी स्तर पर अभी भी सपना है ।

दूसरी ओर, इस विधेयक के आलोचकों का सबसे बड़ा तर्क है कि किसी भी क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति का प्रवेश सिर्फ और सिर्फ योग्यता के आधार पर होना चाहिए । चाहे वह शिक्षा का स्तर हो या राजनीति का । तभी हमारा समाज सही दृष्टि से उचित विकास कर पाएगा । किसी भी व्यक्ति को आरक्षण की बैसाखी देकर उसे संतुष्ट तो किया जा सकता है, लेकिन योग्यता को पीछे करके देश एवं समाज का भला नहीं । साथ ही, यह लोकतंत्र विरोधी भी है, क्योंकि यह सभी को समान अवसर प्राप्त करने से वंचित रखता है ।

इसके अतिरिक्त, राजनीति में आरक्षण से पहले महिला भूण हत्या, महिला शिक्षा, लड़कियों में कुपोषण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्‌दों पर काम करना अधिक आवश्यक है । विधेयक के वर्तमान स्वरूप से मतदाताओं के अपने पसंदीदा प्रतिनिधि चुनने के अधिकार का हनन होगा । इससे किसी निर्वाचन क्षेत्र विशेष की जनता को अपने क्षेत्र से पुरुष व महिला उम्मीदवार चुनने के विकल्प सीमित हो जाएंगे, जो लोकतंत्र की मूल भावना का विरोधी है ।

पुराष और महिला दोनों उम्मीदवारों की अपने क्षेत्र के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही का भाव समाप्त हो जाएगा । किसी क्षेत्र की राजनीतिक तरीके से योजनाबद्ध विकास की मूल भावना को नुकसान पहुंचेगा । महिला आरक्षण विधेयक अल्पसंख्यकों, अनुसूचइत जाति व जनजातियों का विरोधी है । इससे अगड़े और संपन्न वर्ग की महिलाओं को ही आगे आने का अवसर मिलेगा । महिला आरक्षण विधेयक राजनीति को बीवी-बेटी राजनीति का चरित्र प्रदान करेगा ।

महिलाएं अपने परिवार और पुरुषों के हितों का बचाव करने की भूमिका में अधिक नजर आएंगी । ऐसे में घर-घर में देखी जाने वाली स्थिति सार्वजनिक और राजनैतिक स्तर पर भी लागू हो जाएगी । रोटेशन होने के कारण न ही पुरुषों के पास स्थायी चुनाव क्षेत्र होगा और न ही महिलाओं के पास, इससे असुरक्षा और भय का वातावरण विकसित होगा, जिससे अंतत: परिवारवाद को ही बढ़ावा मिलेगा ।

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पूरी दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था के आलोक में भारत में भी महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देना आज समय की मांग है । इससे बराबरी की राजनीति एवं समावेशी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा । इससे महिला सशक्तीकरण भी होगा । जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी । संसद और राजनीतिक दल पुरुष सत्ता का केंद्र नहीं रहेंगी । लिंग, जाति आदि के आधार पर होनेवाले भेदभाव घटेंगे ।

महिलाओं के लिए आरक्षण विधेयक लाने का एक मूल कारण यह है कि पिछले छह दशकों में महिलाओं की संसदीय राजनीति में भागीदारी अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया में नहीं बढ़ पायी है । यह निर्विवाद है कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है । 19वीं सदी के प्रारम्भ से ही कई समाज सुधार आदोलनों के कारण महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ और स्वाधीनता संग्राम में उनकी सशक्त भूमिका राष्ट्रीय स्तर पर देखने को मिली । इस बीच अखिल भारतीय स्तर पर अनेक महिला संगठन स्थापित हुए ।

लेकिन अभी तक सामान्य महिलाओं की स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है । पंचायत एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए किए गए 33 प्रतिशत (कई स्थानों पर 50 प्रतिशत) आरक्षण के परिणांम बताते हैं कि महिलाओं ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला और ब्लॉक स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उत्थान के लिए प्रभावी काम किया है । ऐसे में उन्हें अगर ऊपरी लोकतांत्रिक निकायों में आरक्षण का लाभ दिया जाए तो इससे राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में बदलाव आ सकते हैं ।

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पर महिला आरक्षण विधेयक के कानून बनने के मार्ग में अभी कई बाधाएँ हैं-विरोधी पक्ष राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड को विधेयक के वर्तमान स्वरूप पर कड़ा विरोध है । उनके अनुसार इसका लाभ केवल एक विशेष वर्ग को ही मिल पाएगा । वे माँग कर रहे हैं कि महिलाओं के लिए आरक्षित कोटे के भीतर पिछड़ी जातियों एवं मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान हो।

इसके पीछे उनका तर्क सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओं को जीवित रखना है । पुरुष सांसदों के मन में एक चिंता यह भी है कि कहीं उन्हें अपनी सीट से हाथ न धोना पड़ जाए । पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता भी इसके आड़े आ सकती है । यह देखने की बात होगी कि महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानने वाला हमारा समाज महिला प्रतिनिधियों के प्रति कितना और कैसा उत्साह दिखा पाएगा ।

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