मिल्खा सिंह पर निबंध! Here is an essay on ‘Milkha Singh’ in Hindi language.

विश्व में असाधारण प्रतिभा के स्वामी बहुत कम लोग होते हैं । ऐसी ही एक असाधारण प्रतिभा का नाम है- मिल्खा सिंह । वास्तव में, ‘मिल्खा सिंह’ केवल एक नाम नहीं है, बल्कि साहस, संघर्ष और प्रेरणा की एक ऐसी दास्तान है, जिसने बचपन में भारत-पाक बँटवारे के दौरान अपना पूरा परिवार खोने के बावजूद अपनी राह खुद बनाई और अपनी मेहनत के बल पर बुलन्दियों को छुआ ।

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवम्बर, 1929 को पंजाब प्रान्त के मुजफ्फरगढ़ जिले के गोबिन्दपुरा गाँव में हुआ था । अब यह स्थान पाकिस्तान में स्थित है । हालाँकि उनकी जन्मतिथि सन्दिग्ध है । कुछ सरकारी दस्तावेजों के अनुसार उनकी जन्मतिथि 17 अक्टूबर, 1935 या 20 नवम्बर, 1935 है ।

सिख राठौर राजपूत परिवार में जन्मे मिला सिंह को बचपन में ही भारत-पाक बँटवारे के दौरान हुई हिंसा में अपने पूरे परिवार को खोना पड़ा था । बह किसी तरह भागकर भारत आ सके थे । यहाँ आकर उन्होंने कुछ समय तक पुराना किला रिफ़्यूजी कैम्प और शाहदरा पुनर्वास कॉलोनी में शरण ली । एक समय था, जब अनाथ मिल्खा सिंह के मन में अपने परिवार को खोने के बाद बहुत रोष था और उन्होंने डाकू बनने की ठान ली थी, लेकिन उनके ही एक भाई मलखान सिंह ने उन्हें भारतीय सेना में भर्ती होने की सलाह दी ।

मिल्खा सिंह पर अपने भाई की सलाह का असर हुआ और उन्होंने आर्मी में भर्ती होने की कोशिशें शुरू कर दीं । वर्ष 1951 में अपने चौथे प्रयास में इन्हें भारतीय सेना में जगह मिल गई ।

सिकन्दराबाद स्थित यूनिट में भर्ती होने के बाद मिला सिंह के जीवन की एक नई शुरूआत हुई और उनके अन्तर्राष्ट्रीय कैरियर का मार्ग भी यहीं से खुला । यहाँ आने के बाद मिल्खा सिंह ने एक अनिवार्य दौड़ में हिस्सा लिया, जिसमें उनके अच्छे प्रदर्शन से प्रभावित होकर आर्मी ने उन्हें धावक बनने की विशेष ट्रेनिंग देने हेतु चुन लिया ।

बचपन में मिल्खा सिंह को स्कूल जाने के लिए रोजाना लगभग 10 किमी दौड़ना पड़ता था, इसी कारण यह आर्मी द्वारा आयोजित इस दौड़ में अच्छा प्रदर्शन कर सके थे । इसके बाद आर्मी के कोच हवलदार गुरदेव सिंह ने उन्हें कड़ा प्रशिक्षण देना आरम्भ किया । सौभाग्य से मिला सिंह को वर्ष 1956 के मेलबर्न ओलम्पिक गेम्स में 200 मी और 400 मी की दौड़ में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया ।

इन प्रतिस्पर्द्धाओं में सिंह कोई पदक नहीं जीत सके, क्योंकि वे अभी अपने प्रशिक्षण के आरम्भिक चरण से गुजर रहे थे, लेकिन इससे उन्हें मानसिक तौर पर अच्छा करने की प्रेरणा अवश्य मिली ।

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इस प्रेरणा का ही प्रभाव था कि वर्ष 1958 और 1960 के बीच मिल्खा सिंह ने बहुत ख्याति अर्जित की । वर्ष 1958 में उन्होंने राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लिया और 200 मी और 400 मी की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतकर रिकॉर्ड भी बनाया ।

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इसी वर्ष उन्होंने राष्ट्रमण्डल खेलों में 200 मी और 400 मी की दौड़ में भाग लेकर स्वर्ण पदक जीते । वर्ष 2014 में विकास गौड़ा द्वारा राष्ट्रमण्डल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने से पूर्व मिल्खा सिंह एकमात्र ऐसे भारतीय एथलीट रहे हैं, जिन्होंने राष्ट्रमण्डल खेलों में एथलेटिक्स प्रतिस्पर्द्धाओं में वैयक्तिक स्तर पर स्वर्ण पदक हासिल किया है ।

वर्ष 1958 के टोकियो एशियाई खेलों में भी इन्हीं श्रेणी की दौड़ों में भाग लेकर सिंह ने स्वर्ण पदक प्राप्त किया । सिंह ने वर्ष 1960 में हुए रोम ओलम्पिक खेलों में 400 मी की दौड़ में भी हिस्सा लिया, लेकिन केवल 0.1 सेकण्ड के अन्तराल से वह काँस्य पदक जीतने से चूक गए और स्पर्द्धा में चौथे स्थान पर रहे ।

इसके बाद, वह वर्ष 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में भी विजेता रहे । इस प्रकार, मिल्खा सिंह वर्ष 1958 से लेकर 1962 के दौरान एक-के-बाद एक सफलता प्राप्त करके राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय एथलीट परिदृश्य पर पूरी तरह से छाए रहे ।

वर्ष 1960 मिल्खा सिंह के लिए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण रहा । इस वर्ष उन्हें पाकिस्तान के धावक अब्दुल खालिद के साथ एक स्पर्द्धा में भाग लेने के लिए पाकिस्तान सरकार द्वारा आमन्त्रित किया गया ।

प्रारम्भ में, भारत-पाक बँटवारे से बुरी तरह आहत मिल्खा सिंह ने इस स्पर्द्धा में भाग लेने के लिए इनकार कर दिया था, परन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर सिंह ने न केवल दौड़ में हिस्सा लिया, बल्कि अपने पाकिस्तानी प्रतिद्वन्द्वि को हराया भी ।

दौड़ खत्म होने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने मिल्खा सिंह को ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से पुकारते हुए कहा था- ”आज तुम दौड़े नहीं, उड़े थे ।” इसी के बाद मिल्खा सिंह को ‘फ्लाइंग सिख’ कहा जाने लगा ।

देश को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने वाले मिल्खा सिंह को अब तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों द्वारा नवाजा जा चुका है । एक धावक के रूप में अच्छा प्रदर्शन करने के कारण उन्हें सेना में पदोन्नति मिली और सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें पंजाब के शिक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत खेल निदेशक नियुक्त किया गया ।

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वर्ष 1959 में सिंह को ‘पद्मश्री’ और हेल्म्स सम्मान से भी सम्मानित किया गया । सिंह ने वर्ष 2013 में अपने जीवन पर आधारित एक पुस्तक ‘द रेस ऑफ माइ लाइफ’ लिखी थी, जिस पर वर्ष 2014 में ‘भाग मिल्खा भाग’ के नाम से एक फिल्म भी बन चुकी है ।

इस फिल्म को काफी सराहना मिली और देशवासियों ने इसे बेहद पसन्द भी किया । इस समय मिल्खा सिंह चण्डीगढ़ में रह रहे हैं । उनका वैयक्तिक जीवन भी काफी प्रेरणादायक है । इस उम्र में भी वह बहुत सक्रिय रहते हैं ।

अब वह शौकिया तौर पर गोल्फ खेलते हैं और साथ ही ‘मिल्खा सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट’ भी चलाते हैं । इस ट्रस्ट के माध्यम से वह जरूरतमन्द खिलाड़ियों को सहायता प्रदान करते हैं ।

उल्लेखनीय है कि मिल्खा सिंह और उनकी पत्नी निर्मल कौर ने वर्ष 1999 में एक सात साल के लड़के को गोद भी लिया था, जो टाइगर हिल की लड़ाई में शहीद हुए उनके साथी विक्रम सिंह का बेटा था । मिल्खा सिंह का जीवन करोड़ों भारतीयों के लिए सामाजिक और व्यक्तिगत, दोनों स्तरों पर प्रेरणादायक और अनुकरणीय है ।

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वह ओलम्पिक रिकॉर्ड बनाने वाले अब तक अकेले भारतीय धावक हैं । उनके पुत्र जीव मिल्खा सिंह ने उनके बारे में सच ही कहा है- “मिल्खा सिंह कई पीढ़ियों में एक बार ही पैदा होता है ।” भारत को अपने इस अभूतपूर्व धावक पर सदा गर्व रहेगा ।

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