विकराल होती महानगरों की समस्याएं पर निबंध | Essay on Problems of Metros in Hindi!

ऐसा लगता है कि मुंबई और दिल्ली दोनों एक ही समस्या से परेशान है । जो बात मुंबई में खुल कर कह दी जाती है, दिल्ली उसकी आंच को लगातार महसूस करती है । मुंबई में बहिरागतों को शहर में न रहने देने के मुद्दे पर समय-समय पर लड़ाई- झगड़ा होता रहता है, दिल्ली में इस मुद्दे को ड्राइंगरूम और दफ्तर में गॉसिप करते समय उठाया जाता है ।

मुंबई में सिर्फ मराठी रह सकते है इस मांग को लेकर बाल ठाकरे ने कभी एक ऐसा अभियान चलाया था जिसने उन्हें ताकत, दौलत और शोहरत दी, पर मुंबई को गैर-मराठी लोगों के लिए सर्वथा असुरक्षित बना दिया । दिल्ली में ऐसा कोई अभियान नहीं खडा हुआ है, पर यहां की मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल तक बिहार और उत्तर प्रदेश से आने वालों की गंदी आदतों की शिकायत सार्वजनिक रूप से कर चुके है ।

बहिरागतों के सवाल पर मुंबई में अभियान छेड़ा जा सका और अब फिर छेड़ने की कोशिश हो रही है, इसके क्या कारण हैं और दिल्ली में ऐसे अभियान की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसके क्या कारण हैं, यह एक अलग सवाल है । मुद्दे की बात यह है कि ऐसी समस्याएं पैदा ही क्यों होती है । इस समस्या से आज दिल्ली और मुंबई तनावग्रस्त है, तो बंगलूर, हैदराबाद और चेन्नई में भी ऐसी ही स्थिति पैदा हो सकती है.

इसमें क्या संदेह है कि बाहर से आकर बस जाने वालों के प्रति इस नापसंदगी या घृणा का बड़ा कारण जनसंख्या की अबाध वृद्धि है, जिससे शहर का जीवन तनावग्रस्त हो जाता है । जनसंख्या बढ़ती है, जिससे कम आय वाले वर्ग का जीवन मुश्किलों से घिर जाता है । कोई भी नगर नागरिकों की एक खास संख्या को नागरिक सुविधाएं देने की प्रतिज्ञा पर बनाया जाता है । लेकिन जो शहर तीस लाख की आबादी के लिए बनाया गया हो, वहां एक करोड़ तीस लाख लोग आ बसें, तो शहर का आधारभूत ढांचा चरमराने को बाध्य है ।

इनमें से अधिक लोग बाहर से आकर बस गये हों या बस रहे हों तो उनके प्रति गुस्सा तो पैदा होगा ही । जब बाहर से आने वाले स्थानीय लोगों से ज्यादा समृद्ध हो रहे हों तब तो सामान्य मानव ईर्ष्या का एक सामुदायिक स्वरूप बन ही जायेगा । यह कहना ठीक नहीं है कि शहर किसी का नहीं होता । तब तो राज्य भी किसी शहर के नहीं हो सकते । फिर भाषावार राज्यों के गठन का मतलब क्या हुआ? और फिर, राष्ट्र ही किसी का क्यों हो?

हर मनुष्य में एक राष्ट्रीय चेतना होती है, लेकिन उसमें उपराष्ट्रीय और स्थानीय चेतना भी होती है । कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगे तो इससे समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है । उचित यह है कि पहचान की सभी चेतनाएं अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और एक दूसरे की सीमा में दखल न दें । इसके लिए किसी भी नगर या करबे के जनसांख्यिकीय चरित्र को इतना नहीं बदल देना चाहिए कि तमाम तरह की विकृतियां पैदा होने लगें ।

किसी भी स्थिति में किसी भी प्रकार की असहिष्णुता या समर्थन कभी नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन यह पता लगाना हमेशा उपयोगी रहता है कि असहिष्णुता के कारण क्या हैं । अगर असहिष्णुता किसी मानसिक बीमारी से आ रही है, तो उस बीमारी का इलाज करना होगा । अगर सहिष्णुता के स्रोत भौतिक परिस्थितियों में छिपे हुए है, तो इन परिस्थितियों को बदलना होगा ।

मानव शरीर के बारे में हम जानते हैं कि उसे मोटा नहीं होना चाहिए । मोटेपन की शुरुआत कहां से होती है, यह भी हमें पता है । स्वास्थ्य की हर किताब में यह सब दिया रहता है । लेकिन लाखों मानव आकृतियां जिस क्षेत्र में रहती हैं, उसके मोटेपन पर विचार नहीं किया जाता । यह आश्चर्य की ही बात है कि आधुनिक वास्तुकला और नगर नियोजन में इस बात पर जोर नहीं दिया गया है कि किसी शहर में कितनी जनसख्या अभीष्ट है ।

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प्लेटो और चाणक्य से लेकर आधुनिक विचारकों तक ने, जिन्होंने आदर्श जीवन के पैमाने, निश्चित करने की कोशिश की है, नगरों के आकार पर गौर किया है और बताया है कि उसकी आदर्श जनसंख्या क्या होनी चाहिए । लेकिन ये सब बातें किताबी बनी हुई है । शहर अपनी रफ्तार से भयानक होते जा रहे है । दरअसल, पूंजीवादी सरकारें इस तरह का कानून बना ही नहीं सकती कि किसी शहर की आबादी का पैमाना इस बिंदु तक भर जाये, तो भराव को वहीं रोक देना चाहिए ।

आज समस्या सिर्फ मुंबई, दिल्ली या कोलकाता में नागरिक सुविधाओं के चरमराने और विभिन्न सामुदायिक समूहों के बीच वैमनस्य पैदा होने की नहीं, जिसका लाभ टुच्चे राजनेता उठाने की कोशिश करते है, दुनिया के सभी बड़े शहरों में आबादी की रफ्तार असंभव गति से बढ़ने लगी है । बढ़ती हुई आबादी को समेटने के लिए उपनगर बसाए जाते हैं ।

इससे यातायात की समस्याएं पैदा होती है । अगर हिसाब लगाया जाये, तो बड़े शहरों में रहने वाले बेरोजगार लोगों को चौबीस घंटे के दिन में दो घंटे से लेकर छ: घंटे तक दफ्तर या कार्यस्थल तक आने-जाने में लग जाते हैं । यह समय बेकार नष्ट होता है । क्या कोई भी बसावट ऐसी नहीं होनी चाहिए कि आने-जाने में आदमी का कम-से-कम खर्च हो?

पूँजीवाद को केंद्रीय मान्यता प्रतिबंधहीनता है । वह किसी भी बंध या प्रतिबंध को स्वीकार करना नहीं चाहता । चूंकि वह नया व्यापार या रोजगार शुरू करने, उसे बंद करने या स्थानांतरित करने के मामले में पूरी आजादी चाहता है, इसलिए वह श्रमिकों के निबंध आवागमन को रोकने के बारे में सोच ही नहीं सकता । इसी से प्रेरित होकर हमारे संविधान में भी नागरिकों को भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने का अधिकार दिया गया है और इसे मूल अधिकारों में रखा गया है ।

यह अधिकार मूल्यवान है । प्रत्येक मनुष्य को दुनिया के किसी भी हिस्से में आने-जाने और बस जाने की आजादी होनी चाहिए । लेकिन ऐसी आजादी का समर्थन करते समय हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि इससे ग्राम या नगर नियोजन को कोई खतरा न पैदा हो जाये । जैसे धरती एक सीमित संख्या में ही जीवधारियों को सहन कर सकती है, वैसे ही कोई गांव या शहर एक सीमित संख्या में ही अतिथियों का स्वागत कर सकता है । यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाने से उसकी नसें फटने लगेंगी ।

पूंजीवाद में सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर नियोजन की कोई सुविधा नहीं है । हर आदमी और कंपनी को अपने भावी आय-व्यय का नियोजन करने का अधिकार जरूर है, इसलिए नगरों की आबादी के नियोजन के बारे में भी वह सोचने से इंकार करता है । इस समस्या का एक समाधान कम्युनिस्ट देशों में निकाला गया था । वहां हर किसी को हर कहीं आने-जाने की आजादी तो थी, लेकिन परमिट लेकर ।

उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को मॉस्को में तीन दिन ठहरने का ही परमिट मिला हुआ है, तो वह वहां तीन दिन से ज्यादा नहीं ठहर सकता था । मॉस्को में स्थायी रूप से रहने यानी बस जाने के लिए सरकार की अनुमति प्राप्त करनी होगी । यह एक अच्छी व्यवस्था है, लेकिन कम्युनिस्ट शासन में इसके साथ इतने उपबंध-प्रतिबंध जुड़े हुए थे और क्षेत्रीय विषमताएं इतनी ज्यादा थी कि लोगों को आतक में रखकर ही इस व्यवस्था को चलाया जा सकता था ।

दिल्ली और मुंबई में भी इस प्रकार की परमिट व्यवस्था शुरू करने की मांग की जाती रहती है-यह भुला कर कि इससे इन दोनों शहरों की स्थिति सुधरे या नहीं सुधरे, पर देश के बाकी हिस्सों में अशांति मच जायेगी । दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर आदि अवसरों के शहर हैं ।

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इन अवसरों का लाभ सिर्फ इन शहरों के लोगों को क्यों मिलना चाहिए- देश के बाकी हिस्से के लोगों को किस आधार पर इनसे वंचित किया जा सकता है?  कम्युनिस्ट व्यवस्था में रोक की यह प्रणाली विकसित की गयी, तो इसका आधार यह था कि हम देश भर के लोगों को एक जैसी खुशहाल जिंदगी देना चाहते हैं, इसलिए कोई अपना गांव या शहर छोड़ कर कहीं और जाना क्यों चाहेगा? यह और बात है कि इस वादे पर अमल नहीं हुआ ।

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लेकिन पूंजीवाद तो ऐसी किसी समानता का स्वप्न भी नहीं देख सकता इसलिए वह इस तरह के आग्रह भी नहीं पाल सकता । खुशी की बात यह है कि लोकतंत्र के लिए पूंजीवाद अनिवार्य नहीं है । लोकतंत्र जीने का एक तरीका है-इतना व्यापक तरीका कि जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी मांग बढ़ती जा रही है ।

इसके विपरीत पूंजीवाद उत्पादन और वितरण का एक तरीका है । ऐसे तरीके कई और हैं । यह किसी समाज का लोकतांत्रिक अधिकार है कि वह उत्पादन और वितरण का कौन-सा तरीका अपनाता है यानी लोकतंत्र पूंजीवाद को संयमित कर सकता है, उस पर तरह-तरह की शर्ते लागू कर सकता है और इनसे भी काम न चले, तो पूंजीवाद को बर्खास्त भी कर सकता है ।

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इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह सहज ही संभव होना चाहिए कि वह आबादियों के रहने की व्यवस्था का विवेकीकरण कर सके । ऐसी व्यवस्था में मोटे तौर पर यह पूर्व-निश्चय होगा । ऐसा कोई भी विवेकसंगत और लोकतान्त्रिक ढांचा तभी बनाया जा सकता है जब गांव शहर जैसे हो जायें और गांव और शहर के बीच विषमता न हो ।

यानी किसी देश की पूरी आबादी का रहन-सहन अगर कमोबेश एक ही स्तर पर आ जाये तो किसी का बालम कोलकाता क्यों जायेगा, किसी का भाई रोजगार की तलाश में मुंबई क्यों भागेगा और किसी की बहन पत्रकारिता या टेस्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए पटना या जबलपुर से दिल्ली क्यों आएगी पानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक तभी सरकता है जब जमीन समतल न हो ।

जब यह फर्क पहाड़ और खाई जितना हो जाये, तो पानी तूफान की तरह भागेगा । इस सहज प्रक्रिया के कारण ही दुनिया के अधिकतर नगर नर्क होते जा रहे हैं और हमारे शहर तो हो ही चुके है ।

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